Wednesday, June 6, 2018

जब विद्यासागर जी ने चप्पल फेंकी


जब विद्यासागर जी ने चप्पल फेंकी

फिर एक चप्पल चली। रोज ही कहीं ना कहीं यह पदत्राण थलचर हाथों में आ कर नभचर बन अपने गंत्वय की ओर जाने की नाकाम कोशिश करते नज़र आने लगे हैं। अब यह जनता की दबी भड़ास का नतीजा हैं या प्रायोजित कार्यक्रम, यह खोज का विषय है। पर वर्षों पहले भी एक चप्पल चली थी, वह भी एक ऐसे इंसान के हाथों जो अपने समय के प्रबुद्ध और विद्वान पुरुष थे।
बात ब्रिटिश हुकुमत की है। बंगाल में नील की खेती करनेवाले अंग्रेजों जिन्हें, नील साहब या निलहे साहब भी कहा जाता था, के अत्याचार , जोर-जुल्म की हद पार कर गये थे। लोगों का जीवन नर्क बन गया था। इसी जुल्म के खिलाफ कहीं-कहीं आवाजें भी उठने लगी थीं। ऐसी ही एक आवाज को बुलंदी की ओर ले जाने की कोशीश में थे कलकत्ते के रंगमंच से जुड़े कुछ युवा। ये अपने नाटकों के द्वारा इन अंग्रेजों की बर्बरता का मंचन लोगों के बीच कर विरोध प्रदर्शित करते रहते थे । ऐसे ही एक मंचन के दौरान इन युवकों ने ईश्वरचन्द्र विद्यासागर जी को भी आमंत्रित किया। उनकी उपस्थिति में युवकों ने इतना सजीव अभिनय किया कि दर्शकों के रोंगटे खड़े हो गये। खासकर निलहे साहब की भूमिका निभाने वाले युवक ने तो अपने चरित्र में प्राण डाल दिये थे। अभिनय इतना सजीव था कि विद्यासागर जी भी अपने पर काबू नहीं रख सके और उन्होंने अपने पैर से चप्पल निकाल कर उस अभिनेता पर दे मारी। सारा सदन भौचक्का रह गया। उस अभिनेता ने विद्यासागर जी के पांव पकड़ लिए और कहा कि मेरा जीवन धन्य हो गया। इस पुरस्कार ने मेरे अभिनय को सार्थक कर दिया। आपके इस प्रहार ने निलहों के साथ-साथ हमारी गुलामी पर भी प्रहार किया है। विद्यासागर जी ने उठ कर युवक को गले से लगा लिया। सारे सदन की आंखें अश्रुपूरित थीं।

जब छाए और छितराए छेत्री


Friday, September 8, 2017

जब अंग्रेजों ने किया भारतीय रेलवे में पटरी घोटाला

एक के बाद एक रेल हादसों ने देश को इस कदर हिला कर रख दिया कि आख़िरकार सुरेश प्रभु की रेल मंत्रालय से छुट्टी हो गयी. पीयूष गोयल की नियुक्ति क्या रंग दिखाएगी, यह तो भविष्य ही बताएगा पर आज रेल से जुड़े इतिहास की बात करते हैं. भारतीय रेल के दो चेहरे दिखाते हैं जो बताते हैं कि अंग्रेजों द्वारा बनाई गई भारतीय रेल उपनिवेशवाद के साथ-साथ जवाबदेही का भी उदाहरण थी. वह जवाबदेही जो आज के हालात में दूर-दूर तक नजर नहीं आती.
भारतीय रेल और उपनिवेशवाद
भारतीय रेल को अंग्रेजों की देश को सबसे बड़ी सौगात के तौर पर बताया जाता रहा है. लेकिन भारत में ब्रिटिश राज पर लिखी क़िताब ‘एन एरा ऑफ़ डार्कनेस’ में शशि थरूर यह मिथक तोड़ते हैं कि अंग्रेजों ने इसे हिन्दुस्तानी लोगों के लिए बनवाया था. उनके मुताबिक़ ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपनी सेना के स्थानान्तरण और व्यापारिक सामानों के आवागमन के मद्देनज़र इसका निर्माण करवाया था.1843 में तत्कालीन गवर्नर जनरल हार्डिंग ने अपनी रिपोर्ट में लिखा था, ‘रेल हिंदुस्तान में ब्रिटिश व्यापार, सरकार और सेना और इस देश पर मज़बूत पकड़ के लिए सहायक होगी.’ बाद में डलहौज़ी ने इसकी पैरवी करते हुए कहा था कि इससे ब्रिटिश उत्पादों को पूरा हिंदुस्तान मिल जाएगा और खनिजों को बंदरगाह तक लाया जा सकेगा जहां से उन्हें इंग्लैंड भेजा जाएगा. तब ईस्ट इंडिया कंपनी ने इंग्लैंड में निविदाएं जारी करके निवेशकों को इसकी तरफ आकर्षित किया था. लिहाज़ा, इसका निर्माण भी काफ़ी ऊंची कीमत पर हुआ.
दु​निया को स्टील देना वाला टाटा स्टील को जब किया गया इंकार
बीसवीं शताब्दी की शरुआत में दुनिया भर में दो तरह का स्टील इस्तेमाल में लाया जाता था. एक ब्रिटिश मानक द्वारा सत्यापित स्टील और दूसरा ग़ैर ब्रिटिश मानक सत्यापित. ब्रिटिश मानक स्टील महंगा होता था. अंग्रेजों ने इसी स्टील को भारत में रेल की पटरियों के लिए पास करवा लिया था. इसका एक नतीजा यह हुआ कि टाटा स्टील जैसी कंपनियों का सस्ता स्टील काम में नहीं लाया जा सका.  मशहूर लेखक गुरचरण दास अपनी किताब ‘उन्मुक्त भारत’ में लिखते हैं कि निर्माण की लागत काफ़ी ऊंची रखी गयी थी क्योंकि जो ब्रिटिश कंपनियां इसमें निवेश कर रही थीं उन्हें रकम की निश्चित अदायगी के साथ पांच प्रतिशत का ब्याज देना भी तय किया गया था. इसलिए इन कंपनियों को कीमत की कोई परवाह नहीं थी और उन्होंने इसे बड़े ही लापरवाह और शाही अंदाज़ में बनाया. पटरी बिछाने में ज़रा सी भी ख़ामी आती तो उसे पूरा उखाड़कर नया बनाया जाता. स्टेशनों को बनाने में ज़रुरत से ज़्यादा ख़र्च किया गया और अंग्रेज़ यात्रियों के लिए उच्च दर्जे के रेल के कूपे बनाये गए.
अंग्रेजों ने भी किया था पटरी बिछाने में घोटाला
रेलवे में घोटाला कोई नया नहीं है रेलवे की नींव ही घोटालों के साथ पडी थी.‘एन एरा ऑफ़ डार्कनेस’ में शशि थरूर लिखते हैं, ‘ज़्यादा ख़र्च करने पर ब्रिटिश कंपनियों को ज़्यादा मुनाफा होता. 1850 से 1860 के बीच प्रति मील रेल की पटरी बिछाने की लागत तकरीबन 18 हज़ार पौंड थी. वहीं अमेरिका में यह आंकड़ा मात्र दो हज़ार पौंड था.’ थरूर इसे तब का सबसे बड़ा घोटाला करार देते हैं. सारा मुनाफ़ा अंग्रेजों का और इसकी भरपाई भारतीय टैक्स देनदारों से हो रही थी. चूंकि ग़ैर ब्रिटिश मानक स्टील इस्तेमाल में नहीं लिया जा सकता था, लिहाज़ा, पटरी से लेकर डिब्बों तक सब इंग्लैंड से मंगवाया गया.
13 लाख लोगों को रोजगार देनी वाली रेलवे ने जब छीना रोजगार
देश में सेना के बाद सबसे ज्यादा रोजगार का अवसर दे रही रेलवे कभी रोजगार छिनने का कारण भी बनी थी.इतिहासकार विल दुरैंट भारतीय रेल का एक आश्चर्यजनक पहलु खोलते हैं. उनके मुताबिक रेल का मकसद ब्रिटेन की सेना और उसके व्यापार को फ़ायदा पहुंचाना था, पर रेल को सबसे ज़्यादा आय अपने तीसरे दर्जे के डिब्बों में हिंदुस्तानियों के सफ़र करने से होती थी जिनमें आदमी भेड़-बकरियों की तरह ठूंस दिए जाते थे. उनके लिए कोई सहूलियतें नहीं दी जाती थीं.अंततः, रेलों के ज़रिये इंग्लैंड में बनाये गए सामानों की आवाजाही शुरू हो गयी. भारतीय कामगारों के उत्पाद इंग्लैंड के उत्पादों से टक्कर नहीं ले पाए और धीरे-धीरे घरेलु उद्योग बंद होने लग गए. तब एक बांग्ला अखबार में छपे लेख में कहा गया था कि ये लोहे की पटरियां नहीं बल्कि ज़ंजीरें हैं जिन्होंने भारतीय उद्ध्योग ठप्प कर दिए. दादा भाई नौरोजी ने भी अपनी किताब ‘पॉवर्टी एंड अनब्रिटिश रूल इन इंडिया’ में रेल से हिंदुस्तान को कम और अंग्रेजों को ज़्यादा फ़ायदा होने की बात कही है.
रेल ने फैलाया प्लेग
महात्मा गांधी ने अपनी किताब ‘स्वराज’ में रेल को बंगाल में फैली प्लेग की महामारी के लिए ज़िम्मेदार माना था. बंगाल में जब रेल निर्माण किया गया तो गंगा और उसकी सहायक नदियों के पानी को जगह-जगह रोका गया. इससे खेती पर ज़बरदस्त असर पड़ा और अनाज की पैदावार कम हुई. 1918 में बंगाल में आई बाढ़ का कहर रेल की वजह से कई गुना हो गया था.
जवाबदेही की दो मिसालें
1.इंजीनियर ने की आत्महत्या तो साधु ने बनवाई शिमला रेलवे की सुरंग
हालांकि इसके इतर भारतीय रेल के इतिहास को कुछ अच्छी बातों के संदर्भ में भी याद किया जा सकता है. हिमाचल प्रदेश के सोलन जिले में एक छोटा सा पर खूबसूरत हिल स्टेशन है जिसका नाम है बड़ोग. 1905 में बनी शिमला-कालका रेल लाइन, तब भी और आज भी, इंजीनियरिंग का शानदार नमूना है. इस रेल लाइन पर कुल 107 छोटे-बड़ी सुरंगें हैं. इनमें से 33 नंबर की सुरंग का अपना अलग किस्सा है. यह तबकी सबसे लंबी सुरंगों में से एक थी. करीब डेढ़ किलोमीटर इस लंबी सुरंग को बनाने का ज़िम्मा ब्रिटिश इंजीनियर कर्नल बड़ोग को दिया गया था. उन्होंने काम को जल्दी ख़त्म करने के लिहाज़ से फ़ैसला लिया कि पहाड़ के दोनों सिरों से सुरंग खोदने का काम शुरू किया जाए और बीच में उन्हें मिला दिया जाए. दोनों सिरों पर लगे कारीगर इंजिनियर बड़ोग की गणतीय गणना के आधार पर सुरंग खोदते गए. पर दोनों सिरे बीच में नहीं मिले. गणना में कुछ भूल हो गयी थी! बड़ोग और कारीगर बेहद हताश हो गए क्योंकि उनकी मेहनत बेकार हो गयी थी. ब्रिटिश सरकार को यह बात नागवार गुजरी. उसने कर्नल बड़ोग पर तब एक रुपये का जुर्माना लगा दिया. इंजीनियर जो पहले ही अपनी ग़लती पर पछता रहा था, उसे यह अपना अपमान लगा. एक दिन सुबह सैर करने के बहाने वह घर से निकला और खुद को गोली मारकर आत्महत्या कर ली. बाद में इंजीनियर हर्लिंगटन ने एक साधु भाल्कू की मदद से दूसरी सुरंग का निर्माण किया. कर्नल बड़ोग को सम्मानित करने के लिए सुरंग नंबर 33 को उनके नाम पर रखा गया.
2.ईंट खंभों ने उगली चिंगारी
एक और किस्सा है. उत्तर प्रदेश का जौनपुर जिला पांच नदियों से सिंचित है. इन नदियों पर मुगल काल के शाही ब्रिज से लेकर ब्रिटिश काल के कर्ज़न पुल और बाद में बने कई सारे पुल हैं. इनमें से एक पुल है जिसका निर्माण तकरीबन 1904 में एक ब्रिटिश कंपनी के हाथों हुआ था. कॉन्ट्रैक्ट की शर्तों के मुताबिक़ निश्चित समयावधि पर उस कंपनी के इंजीनियर को जौनपुर जाकर उस पुल की जांच पड़ताल करनी होती था.
कंपनी ने हिंदुस्तान के आज़ाद होने के बाद भी अपनी ज़िम्मेदारी निभायी. यहां आकर उसके इंजीनियर पुल की पड़ताल करते और अपनी रिपोर्ट पेश करते. कुछ साल पहले उस कंपनी ने भारतीय सरकार को पत्र लिखकर सूचित किया कि उसके द्वारा बनाये गए पुल की मियाद अब पूरी हो गयी है लिहाज़ा उसे गिराकर नया बना दिया जाए. और यह भी कि कॉन्ट्रैक्ट की शर्त के मुताबिक़ कंपनी अब इस ज़िम्मेदारी से मुक्त होती है.
इसके बाद भारतीय रेल मंत्रालय ने उस पुल को गिराकर नया पुल बनाने का काम शुरू किया. बताते हैं कि जब मशीनें उस पुल को गिरा रही थीं तो इंजीनियर खंभों की मज़बूती देखकर हैरान हो गए. ईंट के बने खंभों पर मशीनों से प्रहार करने पर उनमें से चिंगारियां फूट रही थीं. यह देखकर एक इंजीनियर ने अपने अफसर से कहा, ‘सर अब विकसित तकनीक होने बाद भी क्या हम इतना मज़बूत पुल बना पाएंगे?’ आज निश्चित ही देश को भारतीय रेल से इस तरह की जवाबदेही की ज़रूरत है.
कुछ पुल कमज़ोर हो गए हैं. कुछ पटरियां मज़बूत होनी बाकी हैं. डर तब लगता है जब ठेकेदार पटरियों को मज़बूती देने के लिए पत्थरों की गिट्टियां भी तयशुदा मानकों से कम डालते हैं. उम्मीद है पीयूष गोयल बुलेट ट्रेन से ज़्यादा इस और ध्यान देंगे.

Wednesday, September 6, 2017

संयोग या संघ के प्रभाव से निकलने की नई सियासत

 सत्ता परिवर्तन से पहले विदेश यात्रा 
राष्ट्रपति भवन में पहले सुबह दस बजे का वक्त मुकर्रर किया गया फिर उसे बढ़ाकर साढ़े दस कर दिया गया. शपथ ग्रहण आधे घंटे में खत्म हुआ और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दो घंटे के अंदर चीन के लिए रवाना हो गए. ऐसा पहली बार होता तो इत्तेफाक माना जा सकता था. लेकिन मोदी सरकार ने करीब तीन साल में तीसरी बार मंत्रिमंडल विस्तार किया और तीनों बार नए मंत्रियों को शपथ दिलाने के बाद प्रधानमंत्री विदेश यात्रा पर निकल गए. इस बार तो उनके रवाना होने के बाद ही मंत्रियों के विभागों की सूची सार्वजनिक की गई. कुछ मंत्रियों को तो मीडिया से ही पता चला कि उनका विभाग बदल गया है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने मंत्रिमंडल का पहला विस्तार 9 नवंबर 2014 को किया. उस बार 21 नए मंत्री बनाए गए. लेकिन दो दिन बाद ही प्रधानमंत्री दस दिन लंबी विदेश यात्रा पर निकल गए. वे अपनी इस यात्रा में म्यांमार, ऑस्ट्रेलिया और फीजी के राष्ट्राध्यक्षों से मिले.
 प्रधानमंत्री की विदेश यात्राओं की तारीखें तो महीनों पहले तय हो जाती हैं, लेकिन शपथ ग्रहण की तारीख हमेशा एक दिन पहले तय की जाती है. करीब डेढ़ साल बाद मोदी मंत्रिमंडल का दूसरा विस्तार हुआ. 5 जुलाई 2016 को मंत्रियों ने शपथ ली और 7 जुलाई रात सवा 12 बजे प्रधानमंत्री एक बार फिर विदेश यात्रा पर रवाना हो गये. इस बार मोदी अफ्रीका के चार देशों की यात्रा पर निकले थे - मोज़ांबिक, दक्षिण अफ्रीका, तंज़ानिया और केन्या. इस बार 3 सितंबर को केंद्रीय मंत्रिमंडल में फेरबदल किया गया और प्रधानमंत्री की विदेश यात्रा शपथ ग्रहण कार्यक्रम खत्म होते ही शुरू हो गई. राष्ट्रपति भवन में 4 राज्यमंत्रियों का प्रमोशन हुआ, 9 नए राज्यमंत्री बनाए गए और दोपहर एक बजे प्रधानमंत्री चीन के लिए रवाना हो चुके थे. सुनी-सुनाई है कि मंत्रिमंडल विस्तार के बाद प्रधानमंत्री का विदेश जाना इत्तेफाक से बहुत ज्यादा है. भाजपा में गिनकर तीन-चार लोगों को छोड़ दें तो बाकी मंत्रियों या नेताओं को ये पता नहीं होता है कि मंत्रिमंडल विस्तार के बाद किसे, कौन सा मंत्रालय मिलने वाला है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हर बार आखिर तक सस्पेंस बनाकर रखने में कामयाब रहते हैं. जब सस्पेंस खत्म होता है तो मंत्रियों से लेकर भाजपा नेताओं और आरएसएस नेतृत्व में भी जबरदस्त बेचैनी देखी जा सकती है. भाजपा में तो किसी नेता की ऐसी स्थिति नहीं कि वह प्रधानमंत्री से अपना विभाग बदले जाने पर बात कर सके. इसलिए ऐसे नाराज़ मंत्री संघ के नागपुर कार्यालय और दिल्ली में भाजपा से समन्वय करने वाले संघ नेताओं की शरण में जाते हैं.
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संघ की अपनी एक परंपरा और कार्यपद्धति है. उसके ज्यादातर नेता फोन पर बात कर कुछ भी कहने-सुनने से बचा करते हैं. जो लोग संघ को जानते हैं वे मानते हैं कि वह अपने सारे संदेश आमने-सामने की चर्चा के जरिए ही पहुंचाता है. ज्यादातर वक्त संघ इस काम के लिए अपने किसी दूत का इस्तेमाल करता है और कभी-कभार उसके पदाधिकारी खुद भी बातचीत में शामिल होते हैं. ऐसे में जब मंत्रिमंडल विस्तार के बाद प्रधानमंत्री देश में नहीं होते हैं तो उनसे हर तरह के संवाद की गुंजाइश खत्म हो जाती है. जब तक प्रधानमंत्री विदेश यात्रा से लौटते हैं तब तक जिनका विभाग बदलता है वे मंत्री मन मसोसकर नए मंत्रालय का कार्यभार संभाल चुके होते हैं और नए मंत्री भी अपने नए दफ्तर में प्रवेश कर चुके होते हैं. बाकी काम संभालने के लिए अमित शाह हैं ही.
सुनी-सुनाई है कि भाजपा अध्यक्ष के दफ्तर से इस बार भी सभी मंत्रियों को कहलवाया गया कि हर बार की तरह इस बार भी पुराने मंत्री खुद नए मंत्री का स्वागत करेंगे और उन्हें मंत्रालय का प्रभार सौंपेंगे. मन में कितना भी दुख हो, कैमरे पर हर मंत्री एक दूसरे की तारीफ करता दिखा. इसीलिए कल तक नाराज़ बताई जा रहीं उमा भारती ने जब गंगा सफाई मंत्रालय का काम नितिन गडकरी को सौंपा तो वे कह रही थी तीन साल से वे कैबिनेट मंत्री होने के बावजूद राज्यमंत्री की तरह काम कर रहीं थी क्योंकि मंत्रालय के असली कैबिनेट मंत्री तो शुरू से नितिन गडकरी ही थे. अब समझने वाले समझ ही गए होंगे उमा क्या कहना चाहती थीं?

पटरी की कमी लिख रही मौत की पटकथा

ट्रेनों के बढ़ने पर नए ट्रैक भी बनने चाहिए. लेकिन बीते 15 साल में ट्रेनों की संख्या में 50 फीसदी से ज्यादा की बढ़ोतरी के बावजूद ट्रैक सिर्फ 12 फीसदी ही बढ़े हैं 

बीती 19 अगस्त को उत्तर प्रदेश में खतौली के पास कलिंग उत्कल एक्सप्रेस पटरी से उतर गई. इस हादसे में 21 यात्रियों की मौत हो गई जबकि 200 से ज्यादा घायल हो गए. इसके चार दिन बाद औरैया के पास कैफियत एक्सप्रेस के भी पटरी से उतरने और हादसे में 70 लोगों के घायल होने की खबर आई. इसी साल 21 जनवरी को आंध्र प्रदेश के विजयनगर में हीराखंड एक्सप्रेस पटरी से उतर गई थी. हादसे में 39 लोगों की मौत हो गई थी जबकि 70 से ज्यादा घायल हो गए थे. इसमें पहले 20 नवंबर 2016 को कानपुर के पास इंदौर-पटना एक्सप्रेस पटरी से उतर गई थी. इस हादसे में 149 यात्री मरे थे.इन सभी हादसों में एक समानता है. ये चारों उन रेल लाइनों पर हुए हैं जिन पर क्षमता से कहीं ज्यादा बोझ है. किसी रेल लाइन की क्षमता का मतलब होता है कि वह लाइन 24 घंटे में कितनी ट्रेनों की आवाजाही संभाल सकती है. अगर इस क्षमता का 80 फीसदी इस्तेमाल हो रहा है तो इसका मतलब है कि स्थिति सामान्य है. अगर यह आंकड़ा 90 फीसदी से आगे चला जाता है तो इसका मतलब है कि अब और बोझ डालना ठीक नहीं. लेकिन भारत में हाल यह है कि रेल ट्रैक के 40 फीसदी हिस्से में यह आंकड़ा 100 या उससे ऊपर चला गया है. इसका सुरक्षा पर सीधा असर पड़ा है.बीते 15 सालों में यात्री ट्रेनों की संख्या में 56 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है जबकि मालगाड़ियों की संख्या 59 फीसदी बढ़ी है. कायदे से ट्रेनों के बढ़ने पर नए ट्रैक भी बनने चाहिए. लेकिन ट्रेनों की संख्या में 50 फीसदी से ज्यादा बढ़ोतरी के बावजूद नए ट्रैक का आंकड़ा सिर्फ 12 फीसदी ही है. एक ही ट्रैक पर ट्रेनों की संख्या बढ़ते जाने का मतलब है भीड़. इसका मतलब मेंटेनेंस के लिए कम समय मिलना भी है.ज्यादा ट्रैफिक वाले ज्यादातर रूटगंगा के मैदान वाले इलाके में हैं. 2010 में टक्कर या ट्रेन पटरी से उतरने की वजह से 11 बड़े हादसे हुए. इनमें से आठ गंगा के मैदान वाले इलाके में ही हुए थे. सरकार हर साल ट्रेनों की संख्या बढ़ाने का ऐलान कर देती है. लेकिन उसके हिसाब से ट्रैक बढ़ाने का वादा नहीं करती. रेल सुरक्षा पर बनी तमाम रिपोर्टों का निष्कर्ष यही है कि जरूरी बुनियादी ढांचे के बिना नई ट्रेनें शुरू करना मुसीबत को न्योता देना है. इसके बावजूद हालात जस के तस हैंसरकार अब भी कहती है कि प्रति एक लाख किलोमीटर पर होने वाले हादसों के लिहाज से भारत और यूरोप का हाल कोई खास जुदा नहीं है. लेकिन वह यह नहीं देख रही यूरोप में ट्रेन की औसत गति 250 किमी प्रति घंटा है जबकि अपने यहां यह आंकड़ा 60-70 किमी प्रति घंटा है. इसलिए ऐसी तुलना से अच्छी तस्वीर का भ्रम पैदा होता है

क्या प्रभाष जोशी होने के लिये रामनाथ गोयनका चाहिए? उधार का माल


मालवा के पठार की काली मिट्टी और लुटियन्स की दिल्ली के राजपथ की लाल बजरी के बीच प्रभाष जोशी की पत्रकारिता । ये प्रभाष जोशी का सफर नहीं है । ये पत्रकारिता की वह सुरंग है, जिसमें से निकलकर मौजूदा वक्त की पत्रकारिता को समझने के लिये कई आंखों, कई कान मिल सकते है तो कई सच, कई अनकही सियासत समझ में आ सकती है । और पत्रकारिता की इस सुरंग को वही ताड़ सकता है जो मौजूदा वक्त में पत्रकारिता कर रहा हो । जिसने प्रभाष जोशी को पत्रकारिता करते हुये देखा होऔर जिसके हाथ में रामबहादुर राय और सुरेश सर्मा के संपादन में लेखक रामाशंकर कुशवाहा की किताब "लोक का प्रभाष " हो । यूं " लोक का प्रभाष " जीवनी है । प्रभाष जोशी की जीवनी । लेकिन ये पुस्तक जीवनी कम पत्रकारीय समझ पैदा करते हुये अभी के हालात को समझने की चाहे अनचाहे एक ऐसी जमीन दे देती है, जिस पर अभी प्रतिबंध है । प्रतिबंध का मतलब इमरजेन्सी नहीं है । लेकिन प्रतिबंध का मतलब प्रभाष जोशी की पत्रकारिता को सत्ता के लिये खतरनाक मानना तो है ही । और उस हालात में ना तो रामनाथ गोयनका है ना इंडियन एक्सप्रेस। और ना ही प्रभाष जोशी हैं। तो फिर बात कहीं से भी शुरु कि जा सकती है ।
बस शर्त इतनी है कि अतीत के पन्नों को पढ़ते वक्त मौजूदा सियासी धड़कन के साथ ना जोडें । नहीं तो प्रतिबंध लग जायेगा । तो टुकड़ों में समझें। रामनाथ गोयनका ने जब पास बैठे धीरुभाई अंबानी से ये सुना कि उनके एक हाथ में सोने की तो दूसरे हाथ में चांदी की चप्पल होती है । और किस चप्पल से किस अधिकारी को मारा जाये ये अधिकारी को ही तय करना है तो गोयनका समझ गये कि हर कोई बिकाऊ है, इसे मानकर धीरुभाई चल रहे हैं । और उस मीटिंग के बाद एक्सप्रेस में अरुण शौऱी की रिपोर्ट और जनसत्ता में प्रभाष जोशी का संपादकपन । नजर आयेगा कैसी पत्रकारिता की जरुरत तब हुई । अखबार सत्ता के खिलाफ तो खड़े होते रहे हैं । लेकिन अखबार विपक्ष की भूमिका में आ जाये ऐसा होता नहीं । लेकिन ऐसा हुआ । यूं "लोक का प्रभाष " में कई संदर्भों के आसरे भी हालात नत्थी किये गये है। मसलन वीपी सिंह से रामबहादुर राय के इंटरव्यू से बनी किताब "मंजिल से ज्यादा सफर" के अंश का जिक्र। किताब
का सवाल - जवाब का जिक्र । सवाल-कहा जाता है हर सरकार से रिलायंस ने मनमाफिक काम करवा लिये। वाजपेयी सरकार तक से । जवाब-ऐसा होता रहा होगा । क्योंकि धीरुभाई ने चाणक्य सूत्र को आत्मसात कर लिया । राज करने की कोशिश कभी मत करो, राजा को खरीद लो ।
तो क्या राजनीतिक शून्यता में पत्रकारिता राजनीति करती है । या फिर पत्रकारिता राजनीतिक शून्यता को भर देती है । ये दोनो सवाल हर दौर में उठ सकते है । और ऐसा नहीं है कि प्रभाष जोशी ने इसे ना समझा हो । पत्रकारिता कभी एक पत्रकार के आसरे नहीं मथी जा सकती । हां, चक्रव्यूह को हर कोई तोड़ नहीं पाता। और तोड कर हर कोई निकल भी नहीं पाता । तभी तो प्रभाष जोशी को लिखा रामनाथ गोयनका के उस पत्र से शुरुआत की जाये जो युद्द के लिये ललकारता है। जनसत्ता शुरु करने से पहले रामनाथ अगर गीता के अध्याय दो का 38 वां श्लोक का जिक्र अपने दो पेजी पत्र में करते हैं, जो उन्होंने प्रभाष जोशी को लिखा, " जय पराजय, लाभ-हानी तथा सुख-दुख को समान मानकर युद्द के लिये तत्पर हो जाओ - इस सोच के साथ कि युद्द करने पर पाप के भागी नहीं बनोगे। " और कल्पना कीजिये प्रभाष जोशी ने भी दो पेज के जवाबी पत्र में रामनाथ गोयनका को गीता के श्लोक से पत्र खत्म किया , " समदु:खे
समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ । ततो युद्दाय युज्यस्व नैंव पापमवायस्यसि ।।" और इसके बाद जनसत्ता की उड़ान जिसके सवा लाख प्रतियां छपने और खरीदे जाने पर लिखना पड़ा- बांच कर पढे । ना ना बांट कर पढ़ें का जिक्र था। लेकिन बांटना तो बांचने के ही समान होता है। यानी लिखा गया दीवारों के कान होते है लेकिन अखबारो को पंख । तो प्रभाष जोशी की पत्रकारीय उड़ान हवा में नहीं थी। कल्पना कीजिये राकेश कोहरवाल को इसलिये निकाला गया क्योंकि वह सीएम देवीलाल के साथ बिना दफ्तर की इजाजत लिये यात्रा पर निकल गये । और देवीलाल की खबरें भेजते रहें। तो देवीलाल ने भी रामनाथ गोयनका को चेताया कि खबर क्यों नहीं छपती । और जब यह सवाल रामनाथ गोयनका ने प्रभाष जोशी से पूछा तो संपादक प्रभाष जोशी का जवाब था । देवीलाल खुद को मालिक
संपादक मान रहे हैं। बस रिपोर्टर राकेश कोहरवाल की नौकरी चली गई। लेकिन रामभक्त पत्रकार हेमंत शर्मा की नौकरी नहीं गई। सिर्फ उन्हें रामभक्त का नाम मिला। और हेमंत शर्मा " लोक का प्रभाष " में उस दौर को याद कर कहने से नहीं चूकते कि प्रभाष जी ने रिपोर्टिंग की पूरी स्वतंत्रता दी । रिपोर्टर की रिपोर्ट के साथ खडे होने वाले संपादकों की कतार खासी लंबी हो सकती है । या आप सोचे अब तो कोई बचा नहीं तो रिपोर्टर भी कितने बचे हैं ये भी सोचना चाहिये ।
लेकिन प्रभाष जोशी असहमति के साथ रिपोर्टर के साथ खड़े होते। तो उस वक्त रामभक्त होना और जब खुद संपादक की भूमिका में हो तब प्रभाष जोशी की जगह रामभक्त संपादक हो जाना। ये कोई संदर्भ नहीं है । लेकिन ध्यान देने वाली बात जरुर है कि चाहे प्रभाष जोशी हो या सुरेन्द्र प्रताप सिंह । कतार वाकई लंबी है इनके साथ काम करते हुये आज भी इनके गुणगान करने वाले संपादको की । लेकिन उनमें कोई भी अंश क्यो अपने गुरु या कहे संपादक का आ नहीं पाया । यो सोचने की बात तो है । मेरे ख्याल से विश्लेषण संपादक रहे प्रभाष जोशी का होना चाहिये । विश्लेषण हर उस संपादक का होना चाहिये जो जनोन्मुखी पत्रकारिता करता रहा। आखिर क्यों उनकी हथेली तले से निकले पत्रकार रेंगते देखायी देते है। क्यों उनमें संघर्ष का माद्दा नहीं होता। क्यों वे आज भी प्रभाष जोशी या एसपी सिंह या
राजेन्द्र माथुर को याद कर अपने कद में अपने संपादकों के नाम नत्थी करनाचाहते है। खुद की पहचान से वह खुद ही क्यों बचना चाहते है। रामबहादुरराय में वह क्षमता रही कि उन्होंने किसी को दबाया नहीं। हर लेखन को जगह दी। आज भी देते है। चाहे उनके खिलाफ भी कलम क्यों न चली। लेकिन राम बहादुर राय का कैनवास उनसे उन संपादकों से कहीं ज्यादा मांगता है जो रेग रहे है। ये इसलिये क्योंकि ये वाकई अपने आप में अविश्वसनिय सा लगता है कि जब प्रभाष जी ने एक्सप्रेस में बदली सत्ता के कामकाज से नाखुश हो कर जनसत्ता से छोड़ने का मन बनाया तो रामबहादुर राय ने ना सिर्फ मुंबई में विवेक गोयनका से बात की बल्कि 17 नवंबर 1975 को पहली बार अखबार के मालिक विवेक गोयनका को पत्र लिखकर कहा गया कि प्रभाष जोशी को रोके। बकायदा बनवारी से लेकर जवाहर लाल कौल । मंगलेश डबराल से लेकर रामबहादुर राय । कुमार आंनद से लकेर प्रताप सिंह । अंबरिश से लेकर राजेश जोशी । ज्योतिर्मय से लेकर राजेन्द्र धोड़पकर तक ने तमाम तर्क रखते हुये साफ लिखा । "हमें लगता है कि आपको प्रभाषजी को रोकने की हर संभव कोशिश करनी चाहिये ।" जिन दो दर्जन पत्रकारों ने तब प्रभाष जोशी के लिये आवाज उठायी । वह सभी आज के तारिख में जिन्दा है । सभी की धारायें बंटी हुई है। आप कह सकते है कि प्रभाष जोशी की खासियत यही थी कि वह हर धारा को अपने साथ लेकर चलते। और यही मिजाज आज संपादकों की कतार से गायब है। क्योंकि संपादकों ने खुद को संपादक भी एक खास धारा के साथ जोड़कर बनाया है।
दरअसल, प्रभाष जोशी के जिन्दगी के सफर में आष्ठा यानी जन्मस्थान । सुनवानी महाकाल यानी जिन्दगी के प्रयोग । इंदौर यानी लेखन की पहचान । चडीगढ़ यानी संपादकत्व का निखार । दिल्ली यानी अखबार के जरीये संवाद । और इस दौर में गरीबी । मुफ्लिसी । सत्ता की दरिद्रगी । जनता का संघर्ष । सबकुछ प्रभाष जोशी ने जिया । और इसीलिये सत्ता से हमेशा सम्मानजनक दूरी बनाये रखते हुये उसी जमीन पर पत्रकारिता करते रहे जिसे कोई भी सत्ता में आने के बाद भूल जाता है । सत्ता का मतलब सिर्फ सियासी पद नहीं होता चुनाव में जीत नहीं होती । संपादक की भी अपनी सत्ता होती है । और रिपोर्टर की भी । लेकिन जैसे ही सत्ता का स्वाद कोई भी चखने लगता है वैसे ही पत्रकारिता कैसे पीछे छूटती है इसका एहसास हो सकता है प्रभाष जोशी ने हर किसी को कराया हो । लेकिन खुद सत्ता के आसरे देश के राजनीतिक समाधान की दिशा में कई मौको पर प्रभाष जोशी इतने आगे बढे कि वह भी इस हकीकत को भूले कि राजनीति हर मौके पर मात देगी । अयोध्या आंदोलन उसमें सबसे अग्रणी कह सकते है । क्योंकि 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद ध्वंस हुआ तो प्रभाष जोशी ये
लिखने से नहीं चूके , ' राम की जय बोलने वाले धोखेबाज विध्वंसको ने कल मर्यादा पुरुषोत्तम राम के रधुकुल की रिती पर कालिख पोत दी...... "। सवाल इस लेखन का नहीं सवाल है कि उस वक्त संघ के खिलाफ डंडा लेकर कूद पडे प्रभाष जोशी के डंडे को भी रामभक्तों ने अपनी पत्रकारिता से लेकर अपनी राजनीति का हथियार बनाया । कहीं ढाल तो कही तलवार । और प्रभाष जी की जीवनी पढ़ते वक्त कई पन्नो में आप ये सोच कर अटक जायेंगे कि क्या वाकई जो लिखा गया वही प्रभाष जोशी है ।
लेकिन सोचिये मत । वक्त बदल रहा है । उस वक्त तो पत्रकार-साहित्यकारों की कतार थी । यार दोस्तो में भवानी प्रसाद मिश्र से लेकर कुमार गंधर्व तक का साथ था । लेखन की विधा को जीने वालो में रेणु से लेकर रधुवीर सहाय थे। वक्त को उर्जावान हर किसी ने बनाया हुआ था । कही विनोबा भावे अपनी सरलता से आंदोलन को भूदान की शक्ल दे देते । तो कही जेपी राजनीतिक डुगडुगी बजाकर सोने वालो को सचेत कर देते । अब तो वह बिहार भी सूना है । चार लाइन न्यूज चैनलो की पीटीसी तो छोड़ दें कोई अखबारी रपट भी दिखायी ना दी जिसने बिहार की खदबदाती जमीन को पकडा और बताय़ा कि आखिर क्यो कैसे पटना में भी लुटिसन्स का गलियारा बन गया । इस सन्नाटे को भेदने के लिये अब किसी नेता का इंतजार अगर पत्रकारिता कर रही है तो फिर ये विरासत को ढोते पत्रकारो का मर्सिया है । क्योकि बदलते हालात में प्रभाष जोशी की तरह सोचना भी ठीक नहीं कि गैलिलियो को फिर पढे और सोचे " वह सबसे दूर जायेगा जिसे मालूम नहीं कि कहा जा रहा है " । हा नौकरी की जगह पत्रकारिता कर लें चाहे घर के टूटे सोफे पर किसी गोयनका को बैठाने की हैसियत ना बन पाये । लेकिन पत्रकार होगा तो गोयनका भी पैदा हो जायेगा, ये मान कर चलें।

कहीं इन पांच लेखों ने तो नहीं लिखी लंकेश के हत्या की पटकथा

गौरी लंकेश साप्ताहिक पत्रिका 'लंकेश पत्रिके' की संपादक थीं. उनकी मैग्जीन के पिछले पांच संस्करणों पर गौर करें।

1. 5 सितंबर, 2017
'लंकेश पत्रिके' के सितंबर महीने के इस संस्करण में कवर पेज पर बीजेपी नेता और कर्नाटक के पूर्व सीएम बीएस येदुरप्पा की तस्वीर थी. इस संस्करण में येदुरप्पा को लेकर कवर स्टोरी की गई. स्टोरी में कहा गया कि येदुरप्पा पर भूमि अधिसूचना रद्द करने का खुलासा सिद्धरमैया ने नहीं बल्कि सदानंद गौड़ा ने किया.
बता दें कि येदियुरप्पा पर आरोप है कि उन्होंने बतौर मुख्यमंत्री अपने कार्यकाल के दौरान कथित रूप से शिवराम करांत लेआउट के निर्माण के लिए आवंटित जमीन को गैरअधिसूचित किया था.
2. 30 अगस्त, 2017
गौरी लंकेश की मैग्जीन के इस संस्करण में कवर पेज पर बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह की तस्वीर के साथ स्टोरी की गई. अमित शाह के कर्नाटक दौरे पर स्टोरी में लिखा गया कि भगवा ब्रिगेड राज्य में आग लगाने के लिए आ चुकी है. ये भी कहा गया कि अमित शाह मीडिया का भगवाकरण करने के लिए कर्नाटक आए हैं. पेज नंबर 8 पर स्टोरी की हेडलाइन दी गई 'क्या अमित शाह सांप्रदायिक हिंसा भड़काने आए हैं?'
इसी संस्करण के संपादकीय में गौरी लंकेश ने गोरखपुर में बच्चों की मौत का मुद्दा उठाया. संपादकीय में उन्होंने बीआरडी कॉलेज के डॉक्टर कफील खान के खिलाफ साजिश का जिक्र किया.
3. 23 अगस्त, 2017
इस एडिशन की कवर स्टोरी में कांग्रेस नेता डीके शिवकुमार, बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह और छात्रा काव्या की आत्महत्या का जिक्र था. कवर स्टोरी में 'डीके जीते, शाह हारे, काव्या की आत्महत्या या मर्डर' पर स्टोरी की गई. स्टोरी में काव्या की मौत पर सवाल उठाए गए और कहा गया कि बैडमिंटन खिलाड़ी ने आत्महत्या की या ये हत्या है?
4. 16 अगस्त, 2017
इस संस्करण की कवर स्टोरी के साथ लिंगायत समुदाय की महिला गुरु माते महादेवी की तस्वीर लगाई गई है. स्टोरी में लिखा गया कि लिंगायतों का उदय येदुरप्पा के लिए डर बन गया है. माते महादेवी ने कहा कि येदुरप्पा लिंगायत नहीं हैं और भगवा असामाजिक तत्वों ने चित्रदुर्गा में सांप्रदायिक तनाव पैदा करने की कोशिश की.
5. 2 अगस्त, 2017
इस संस्करण की कवर स्टोरी पर कर्नाटक का झंडा बताते हुए एक तस्वीर लगाई गई. साथ ही लिखा गया कि अपनी जमीन, अपना झंडा. कवर स्टोरी में कर्नाटक के लिए अलग झंडे की मांग का समर्थन किया गया.
बता दें कि गौरी लंकेश वामपंथी विचारों की कट्टर समर्थक और दक्षिणपंथी विचारधारा का धुर विरोधी माना जाती रही हैं. ऐसे में उनकी हत्या पर सियासी आरोप-प्रत्यारोप भी जमकर हो रहे हैं. उनके राज्य कर्नाटक में अगले साल चुनाव होना है।

जब विद्यासागर जी ने चप्पल फेंकी

जब विद्यासागर जी ने चप्पल फेंकी फिर एक चप्पल चली। रोज ही कहीं ना कहीं यह पदत्राण थलचर हाथों में आ कर नभचर बन अपने गंत्वय की ओर जाने क...