Sunday, August 22, 2010

ये तय करना मुश्किल है कि राहुल महाजन अधिक छिछोरा है या हिन्दी न्यूज़ चैनल…… Rahul Mahajan, News Channels, Celebrity Media in India



विगत दो दिनों से जिसने भी भारतीय टीवी चैनलों (हिन्दी) को देखा होगा, उसने लगभग प्रत्येक चैनल पर स्वर्गीय प्रमोद महाजन के "सपूत"(?) राहुल महाजन और उसके द्वारा पीटी गई उसकी "बेचारी"(?) पत्नी डिम्पी गांगुली की तस्वीरें, खबरें, वीडियो इत्यादि लगातार देखे होंगे। राहुल महाजन ने ऐसा किया, राहुल महाजन ने वैसा किया, उसने अपनी बीवी को कब-कहाँ-कितना और कैसे पीटा? डिम्पी की जाँघों और पिंडलियों पर निशान कैसे थे? राहुल महाजन ऐसे हैं, राहुल महाजन वैसे हैं… आदि-आदि-आदि, ब्ला-ब्ला-ब्ला-ब्ला… 

हालांकि वैसे तो पहले से ही भारतीय हिन्दी न्यूज़ चैनलों की मानसिक कंगाली जगज़ाहिर है, लेकिन जिस तरह से सारे चैनल "गिरावट" की नई-नई इबारतें लिख रहे हैं, वैसा कभी किसी ने सोचा भी नहीं होगा। भारत में लोकतन्त्र है, एक स्वतन्त्र प्रेस है, प्रेस परिषद है, काफ़ी बड़ी जनसंख्या साक्षर भी है… इसके अलावा भारत में समस्याओं का अम्बार लगा हुआ है फ़िर चाहे वह महंगाई, आतंकवाद, नक्सलवाद, खेती की बुरी स्थिति, बेरोजगारी जैसी सैकड़ों बड़े-बड़े मुद्दे हैं, फ़िर आखिर न्यूज़ चैनलों को इस छिछोरेपन पर उतरने क्या जरूरत आन पड़ती है? इसके जवाब में "मीडियाई भाण्ड" कहते हैं कि 24 घण्टे चैनल चलाने के लिये कोई न कोई चटपटी खबर चलाना आवश्यक भी है और ढाँचागत खर्च तथा विज्ञापन लेने के लिये लगातार "कुछ हट के" दिखाना जरूरी है।


चैनलों के लिये राहुल महाजन "इज्जत" से पुकारे जाने योग्य ऐसे-वैसे हैं, लेकिन मेरी ऐसी कोई मजबूरी नहीं है, क्योंकि वह आदमी इज्जत देने के लायक है ही नहीं। सवाल उठता है कि राहुल महाजन आखिर है क्या चीज़? क्या राहुल महाजन बड़ा खिलाड़ी हैं? क्या वह बड़ा अभिनेता है? क्या वह उद्योगपति है? क्या उसने देश के प्रति कोई महती योगदान दिया है? फ़िर उसनशेलची, स्मैकची, बिगड़ैल, पत्नियों को पीटने का शौक रखने वाले, उजड्ड रईस औलाद में ऐसा क्या है कि जीटीवी, आज तक, NDTV जैसे बड़े चैनल उसका छिछोरापन दिखाने के लिये मरे जाते हैं? (इंडिया टीवी को मैं न्यूज़ चैनल मानता ही नहीं, इसलिये लिस्ट में इस महाछिछोरे चैनल का नाम नहीं है)।

जिस समय प्रमोद महाजन की मौत हुई थी, तब शुरुआत में ऐसा लगा था कि राहुल महाजन की दारुबाजियों और अवैध हरकतों को मीडिया इसलिये कवरेज दे रहा है कि इससे प्रमोद महाजन की छवि को तार-तार किया जा सके, लेकिन धीरे-धीरे राहुल महाजन तो "पेज-थ्री" सेलेब्रिटी(?) बन गया। पहले बिग बॉस में उसे लिया गया और उस प्रतियोगी शो में भी राहुल महाजन पर ही कैमरा फ़ोकस किया गया, कि कैसे उसने स्वीमिंग पूल में फ़लाँ लड़की को छेड़ा, कैसे राहुल ने पायल रोहतगी (एक और "सी" ग्रेड की अभिनेत्री) के साथ प्यार की पींगें बढ़ाईं, इत्यादि-इत्यादि। माना कि "बिग बॉस" अपने-आप में ही एक छिछोरेपन वाला रियलिटी शो कार्यक्रम था, लेकिन और भी तो कई प्रतियोगी थे… अकेले राहुल महाजन को ऐसा कवरेज देना "फ़िक्सिंग" की आशंका पैदा करता है।

खैर जैसे-तैसे बिग बॉस खत्म हुआ, और फ़िर भी राहुल महाजन का भूत चैनलों के सर से नहीं उतरा। एक और टीवी चैनल इस "रंगीले रसिया" को स्वयंवर  के लिये ले आया, इस चैनल ने एक बार भी नहीं सोचा कि अपनी बचपन की सहेली के साथ मारपीट करके घर से निकालने वाले इस "वीर-पुरुष" के सामने वह कई लड़कियों की "परेड" करवा रहे हैं। जहाँ एक तरफ़ बिग बॉस "छिछोरा" कार्यक्रम था, तो "राहुल दुल्हनिया ले जायेंगे" पूरी तरह से फ़ूहड़ था, जिसका विरोध नारी संगठनों ने आधे-अधूरे मन से किया, लेकिन मीडिया के कानों पर जूं तक नहीं रेंगी। (शायद "राहुल" नाम में ही कुछ खास बात है, कि "मीडियाई भाण्ड" इसके आगे बगैर सोचे-समझे नतमस्तक हो जाते हैं... आपको राहुल भट्ट याद ही होगा जो डेविड कोलमैन से रिश्तों के बावजूद आसानी से खुला घूम रहा है, जबकि प्रज्ञा ठाकुर रासुका में बन्द है…)



और अब जबकि एक और "राहुल" ने अपनी दूसरी बीबी को बुरी तरह पीटा है तो फ़िर से चैनल अपना-अपना कैमरा लेकर दौड़ पड़े हैं, उसकी बीबी की मार खाई हुई टांगें दिखा रहे हैं, फ़िर दोनों को मुस्कराते हुए साथ खाना खाते भी दिखा रहे हैं… ये कैसा "राष्ट्रीय मीडिया" है? दिल्ली और मुम्बई के बाहर क्या कोई महत्वपूर्ण खबरें ही नहीं हैं? लेकिन जब "पेज-थ्रीनुमा" फ़ोकटिया हरकतों की आदत पड़ जाती है तो चैनल दूरदराज की खबरों के लिये मेहनत क्यों करें, राखी सावन्त पर ही एक कार्यक्रम बना लें, या अमिताभ के साथ मन्दिर का चक्कर लगायें, या धोनी की शादी  (जहाँ धोनी ने उन्हें अपने दरवाजे से बाहर खड़ा रखा था) की खबरें ही चलाएं। (एक चैनल तो इतना गिर गया था कि उसने धोनी की शादी और हनीमून हो चुकने के बाद, उस होटल का कमरा दिखाया था कि "धोनी यहाँ रुके थे, धोनी यहाँ सोए थे, धोनी इस कमरे में खाये थे… आदि-आदि), क्या हमारा तथाकथित मीडिया इतना मानसिक कंगाल हो चुका है? क्या लोग न्यूज़ चैनल इसलिये देखते हैं कि उन्हें देश के बारे में खबरों की बजाए किसी फ़ालतू से सेलेब्रिटी के बारे में देखने को मिले? इस काम के लिये तो दूसरे कई चैनल हैं।

चलो कुछ देर के लिये यह मान भी लें कि न्यूज़ चैनलों को कभीकभार ऐसे प्रोग्राम भी दिखाने पड़ते हैं, ठीक है… लेकिन कितनी देर? राहुल महाजन को "कितनी देर का कवरेज" मिलना चाहिये, क्या यह तय करने लायक दिमाग भी चैनल के कर्ताधर्ताओं में नहीं बचा है? राहुल महाजन जैसे "अनुत्पादक" व्यक्ति, जो न तो खिलाड़ी है, न अभिनेता, न उद्योगपति, न ही राजनेता… ऐसे व्यक्ति को चैनलों पर इतना समय? क्या देश में और कोई समस्या ही नहीं बची है? तरस आता है इन चैनल मालिकों की बुद्धि पर और उनके सामाजिक सरोकारों पर… क्योंकि एक और "राहुल" (गाँधी) द्वारा दिल्ली की सड़कों पर साइकल चलाना भी इनके लिये राष्ट्रीय खबर होती है।

भारत जैसे देश में "सेलेब्रिटी"(?) होना ही पर्याप्त है, एक बार आप सेलेब्रिटी बन गये तो फ़िर आप में अपने-आप ही कई गुण समाहित हो जायेंगे। सेलेब्रिटी बनने के लिये यह जरूरी नहीं है कि आप किसी क्षेत्र में माहिर ही हों, अथवा आप कोई बड़ा सामाजिक कार्य ही करें… सेलेब्रिटी बनने की एकमात्र क्वालिफ़िकेशन है "किसी बड़ी राजनैतिक हस्ती" से निकटता या सम्बन्ध होना… बस इसके बाद आपके चारों तरफ़ मीडिया होगा, चमचेनुमा सरकारी अधिकारी होंगे, NGO बनाकर फ़र्जी चन्दा लेने वालों की भीड़ होगी, किसी समिति-वमिति के सदस्य बनकर विदेश घूमने का मौका मिलेगा… यानी की बहुत कुछ मिलेगा।

उदाहरण के लिए मानव संसाधन मंत्रालय द्वारा महिला प्रौढ़ शिक्षा के प्रचार-प्रसार के लिये जो ब्राण्ड एम्बेसेडर बनाये जाने वाले हैं, उनकी सूची ही देख लीजिये कि अधिकारियों ने किस मानसिकता के तहत उक्त नाम भेजे हैं - नीता अम्बानीप्रियंका वढेरा (सॉरी, गाँधी)कनिमोझीऔर सुप्रिया सुले । अब आप अपना सिर धुनते रहिये, कि आखिर इन चारों महिलाओं ने सामाजिक क्षेत्र में ऐसे कौन से झण्डे गाड़ दिये कि इन्हें महिला प्रौढ़ शिक्षा का "ब्राण्ड एम्बेसेडर" बनाया जाये? इनमें से एक भी महिला ऐसी नहीं है जो "ज़मीनी हकीकत" से जुड़ी हुई हो, अथवा जिसकी अपनी "खुद की" बनाई हुई कोई पहचान हो। नीता अम्बानी जो भी हैं सिर्फ़ मुकेश अम्बानी और रिलायंस की वजह से, प्रियंका गाँधी के बारे में तो सभी जानते हैं कि यदि नाम में "वढेरा" लगाया जाये तो कोई पहचाने भी नहीं… सुप्रिया सुले की एकमात्र योग्यता(?) शरद पवार की बेटी होना और इसी तरह कनिमोझि की योग्यता करुणानिधि  की बेटी होना है, अब इन्हें प्रौढ़ शिक्षा का ब्राण्ड एम्बेसेडर बनाने की सिफ़ारिश करना मंत्रालय के अधिकारियों की चमचागिरी का घटिया नमूना नहीं तो और क्या है? क्या इस सामाजिक काम के लिये देश में "असली सेलेब्रिटी" (जी हाँ असली सेलेब्रिटी) महिलाओं की कमी थी? साइना नेहवालमेरीकॉम, किरण बेदी, चंदा कोचरशबाना आज़मीमेधा पाटकर  जैसी कई प्रसिद्ध लेकिन ज़मीन से जुड़ी हुई महिलाएं हैं, यहाँ तक कि मायावती और ममता बनर्जी की व्यक्तिगत उपलब्धियाँ और संघर्ष भी उन चारों महिलाओं से कहीं-कहीं अधिक बढ़कर है। लेकिन जैसा कि मैंने कहा, "मीडिया और चाटुकार" मिलकर पहले सेलेब्रिटी गढ़ते हैं, फ़िर उनके किस्से-कहानी गढ़ते हैं, फ़िर दिन-रात उनके स्तुतिगान गाकर जबरदस्ती जनता के माथे पर थोपते हैं।

हालांकि सच्चे अर्थों में संघर्ष करने वाले ज़मीनी लोग कैमरों की चकाचौंध से दूर समाजसेवा के क्षेत्र में अपना काम करते रहते हैं फ़िर भी मीडिया का यह कर्तव्य है कि वह ऐसे लोगों को जनता के सामने लाये… और उन पर भी अपना "बहुमूल्य"(?) समय खर्च करे…। हमारे मालवा में पूरी तरह से निकम्मे (Useless) व्यक्ति को "बिल्ली का गू" कहते हैं, यानी जो न लीपने के काम आये, न ही कण्डे बनाने के… जब भी, जहाँ भी गिरे गन्दगी ही फ़ैलाए…। टीवी पर बार-बार राहुल महाजन के कई एपीसोड देखने के बाद एक बुजुर्ग की टिप्पणी थी, "यो प्रमोद बाबू को छोरो तो बिल्ली को गू हे, अन ई चेनल वाला भी…"

ताज़ा खबर दिखाई गई है कि "राहुल महाजन ने अपनी पिटाई की हुई बीबी के साथ सिद्धिविनायक के दर्शन किये…" यानी कि तीन दिन बाद भी राहुल महाजन मीडिया की हेडलाइन था, सो अब यह तय करना मुश्किल होता जा रहा है कि राहुल अधिक छिछोरा है या हमारा "सो कॉल्ड नेशनल मीडिया"

जी हाँ नरेन्द्र भाई मोदी… गुजरात एक "शत्रु राज्य" ही है, क्योंकि… … Narendra Modi, CBI, Amit Shah, Supreme Court



जिन लोगों ने गुजरात के गृहराज्य मंत्री अमित शाह की गिरफ़्तारी वाले दिन से अब तक टीवी चैनलों पर खबरें देखी होंगी, उन सभी ने एक बात अवश्य नोटिस की होगी… कि चैनलों पर "हिस्टीरिया" का दौरा अमूमन तभी पड़ता है, जब भाजपा-संघ-हिन्दुत्व से जुड़े किसी व्यक्ति के साथ कोई छोटी से छोटी भी घटना हो जाये। सोहराबुद्दीन के केस में तो मीडिया का "पगला जाना" स्वाभाविक ही था, जहाँ एक तरफ़ एंकर चीख रहे थे वहीं दूसरी तरफ़ हेडलाइन्स में और नीचे की स्क्रोल पट्टी में हमने क्या देखा… "अमित शाह गिरफ़्तार, क्या नरेन्द्र मोदी बचेंगे?…", "अमित शाह मोदी के खास आदमी, नरेन्द्र मोदी की छवि तार-तार हुई…", "क्या नरेन्द्र मोदी इस संकट से पार पा लेंगे…", "नरेन्द्र मोदी पर शिकंजा और कसा…" इत्यादि-इत्यादि-इत्यादि…

क्या इस केस से नरेन्द्र मोदी का अभी तक कोई भी, किसी भी प्रकार का सम्बन्ध उजागर हुआ है? क्या नरेन्द्र मोदी राज्य में होने वाली हर छोटी-मोटी घटना के लिये जिम्मेदार माने जायेंगे? एक-दो गुण्डों को एनकाउंटर में मार गिराने पर नरेन्द्र मोदी की जवाबदेही कैसे बनती है? लेकिन सोहराबुद्दीन के केस में जितने "मीडियाई रंगे सियार" हुंआ-हुंआ कर रहे हैं, उन्हें उनके "आकाओं" से इशारा मिला है कि कैसे भी हो नरेन्द्र मोदी की छवि खराब करो। कारण कई हैं - मुख्य है गुजरात का तीव्र विकास और हिन्दुत्व का उग्र चेहरा, देश-विदेश के कई शातिरों की आँखों की किरकिरी बना हुआ है। ज़रा इन आँकड़ों पर एक निगाह डाल लीजिये आप खुद ही समझ जायेंगे -

1) अब तक पिछले कुछ वर्षों में भारत में लगभग 5000 एनकाउंटर मौतें हुई हैं।

2) लगभग 1700 से अधिक एनकाउंटर के मामलों की सुनवाई और प्राथमिक रिपोर्ट देश के विभिन्न न्यायालयों और मानवाधिकार संगठनों के दफ़्तरों में धूल खा रही हैं।

3) पिछले दो दशक में अकेले उत्तरप्रदेश में 800 एनकाउंटर हुए।

4) यहाँ तक कि कांग्रेस शासित राज्य महाराष्ट्र में पिछले कुछ वर्षों में 400 एनकाउंटर हुए।

अब जो लोग जागरुक हैं और राजनैतिक खबरों पर ध्यान रखते हैं, वे बतायें कि इतने सैकड़ों मामलों में क्या कभी किसी ने, किसी राज्य के मुख्यमंत्री के खिलाफ़ मीडिया में ऐसा दुष्प्रचार और घटिया अभियान देखा है? इतने सारे एनकाउण्टर के मामलों में विभिन्न राज्यों में पुलिस के कितने उच्चाधिकारियों को सजा अथवा मुकदमे दर्ज हुए हैं? क्या महाराष्ट्र, उत्तरप्रदेश या आंध्रप्रदेश में हुए एनकाउण्टर के लिये वहाँ के मुख्यमंत्री से जवाब-तलब हुए, या "शिकंजा" कसा गया? नहीं… क्योंकि यदि ऐसा होता तो जिन राज्यों में केन्द्र के जिम्मे सुरक्षा व्यवस्था है उनमें जैसे जम्मू-कश्मीर, मणिपुर अथवा झारखण्ड (राष्ट्रपति शासन) आदि में होने वाले किसी भी एनकाउंटर के लिये मनमोहन-चिदम्बरम या प्रतिभा पाटिल को जिम्मेदार माना जायेगा? और क्या मीडिया वालों को उनसे जवाबतलब करना चाहिये? सुरक्षा बलों द्वारा वीरप्पन की हत्या के बाद, उसकी पत्नी ने भी CBI के विरुद्ध चेन्नई हाइकोर्ट में अपील की थी, लेकिन तब तो कर्नाटक-तमिलनाडु के मुख्यमंत्री के खिलाफ़ मीडिया ने कुछ नहीं कहा था? तो फ़िर अकेले नरेन्द्र मोदी को क्यों निशाना बनाया जा रहा है?

जवाब वही है, जो मैंने ऊपर दिया है… गुजरात के तीव्र विकास से "जलन" की भावना और "हिन्दुत्व के आइकॉन" को ध्वस्त करने की प्रबल इच्छा… तथा सबसे बड़ी बात "युवराज" की ताज़पोशी में बड़ा रोड़ा बनने जा रहे तथा भविष्य में कांग्रेस के लिये सबसे बड़ा राजनैतिक खतरा बने हुए नरेन्द्र भाई मोदी को खत्म करना। (ज़रा याद कीजिये राजेश पायलट, माधवराव सिंधिया, जीएमसी बालयोगी, पीआर कुमारमंगलम जैसे ऊर्जावान और युवा नेताओं की दुर्घटनाओं में मौत हुई है, क्योंकि ये सभी साफ़ छवि वाले व्यक्ति भविष्य में प्रधानमंत्री पद के दावेदार बन सकते थे)। फ़िलहाल गुजरात में 20 साल से दुरदुराई हुई और सत्ता के दरवाजे से बाहर बैठी कांग्रेस CBI का उपयोग करके नरेन्द्र मोदी को "राजनैतिक मौत" मारना चाहती है, लेकिन जैसे पहले भी कई कोशिशें नाकामयाब हुई हैं, आगे भी होती रहेंगी, क्योंकि एक तो कांग्रेस की "नीयत" ठीक नहीं है और दूसरे वह ज़मीनी राजनैतिक लड़ाई लड़ने का दम नहीं रखती।

केन्द्र की कांग्रेस सरकारों द्वारा CBI का दुरुपयोग कोई नई बात नहीं है, षडयन्त्र, धोखाधड़ी, जालसाजी, पीठ पीछे से वार करना आदि कांग्रेस का पुराना चरित्र है, ज़रा याद कीजिये अमेठी के लोकप्रिय नेता संजय सिंह वाले केस को… एक समय कांग्रेस के अच्छे मित्रों में से एक संजय सिंह को जब कांग्रेस ने "खत्म" करने का इरादा किया तो बैडमिंटन खिलाड़ी सैयद मोदी की हत्या के केस में संजय सिंह को फ़ँसाया गया और मोदी की पत्नी अमिता और संजय सिंह के तथाकथित नाजायज़ सम्बन्धों के बारे में अखबारों में रोज़-दर-रोज़ नई-नई कहानियाँ "प्लाण्ट" की गईं, सैयद मोदी की हत्या को संजय-अमिता के रिश्तों से जोड़कर कांग्रेसी दरबार के चारण-भाट अखबारों ने चटखारेदार खबरें प्रकाशित कीं (गनीमत है कि उस समय आज की तरह कथित "निष्पक्ष" और सबसे तेज़ चैनल नहीं थे…)। आज 20 साल बाद क्या स्थिति है? वह केस न्यायालय में टिक नहीं पाया, CBI ने मामले की फ़ाइल बन्द कर दी, और कांग्रेस जिसे "बड़ा षडयंत्र" बता रही थी, वैसा कुछ भी साबित नहीं हो सका, तो क्या हुआ… संजय सिंह का राजनैतिक खात्मा तो हो गया।

राजनैतिक विश्लेषकों को बोफ़ोर्स घोटाले से ध्यान बँटाने के लिये और वीपी सिंह की उजली छवि को मलिन करने के लिये CBI की मदद और जालसाजी से रचा गया "सेंट किट्स काण्ड" भी याद होगा, जब कहा गया कि एक अनाम से द्वीप के एक अनाम से बैंक में वीपी सिंह और इनके बेटे के नाम लाखों डालर जमा हैं। लेकिन अन्त में क्या हुआ, जालसाजी उजागर हो गई, कांग्रेस बेनकाब हुई और चुनाव में हारी… ऐसे कई केस हैं, जहाँ CBI "कांग्रेस ब्यूरो ऑफ़ इन्वेस्टिगेशन" सिद्ध हुई है… और आज एक हिस्ट्री शीटर, जिसके ऊपर 60 से अधिक मामले हैं और जिसके घर के कुंए से 40 एके-47 रायफ़लें निकली हैं उस सोहराबुद्दीन की मौत पर कांग्रेस "घड़ियाली आँसू" बहा रही है, जो उसे बहुत महंगा पड़ेगा यह बात वह समझ नहीं रही।

अब एक नज़र डालते हैं हमारी "माननीय न्यायपालिका" पर (मैंने "माननीय" तो कह ही दिया है, आप इसमें 100 का गुणा कर लें… इतनी माननीय…। ताकि कोई मुझ पर न्यायालय की अवमानना का दावा न कर सके…)

- सोहराबुद्दीन के केस में "बड़े षडयन्त्र की जाँच" के आदेश "माननीय" जस्टिस तरुण चटर्जी ने अपने रिटायर होने की आखिरी तारीख को दिये (तरुण चटर्जी साहब को रिटायर होने के तुरन्त बाद असम और अरुणाचल प्रदेश के सीमा विवाद में मध्यस्थ के बतौर नियुक्ति मिल गई) (क्या गजब का संयोग है…)।

- इसी प्रकार SIT (Special Investigation Team) को नरेन्द्र मोदी से पूछताछ करने के आदेश सुप्रीम कोर्ट के "माननीय" न्यायाधीश अरिजीत पसायत ने भी अपनी नौकरी के अन्तिम दिन दिये (रिटायर होने के मात्र 6 दिनों के भीतर केन्द्र सरकार द्वारा पसायत साहब को CAT (Competition Appellate Tribunal) का अध्यक्ष नियुक्त कर दिया गया) (ये भी क्या जोरदार संयोग है…)।

- भोपाल गैस काण्ड में कमजोर धाराएं लगाकर केस को मामूली बनाने वाले वकील जो थे सो तो थे ही, "माननीय" (फ़िर से माननीय) जस्टिस एएम अहमदी साहब भी रिटायर होने के बाद भोपाल मेमोरियल ट्रस्ट के अध्यक्ष बने, जो अब भोपाल पर हुए हल्ले-गुल्ले के बाद त्यागपत्र देकर शहीदाना अन्दाज़ में रुखसत हुए हैं… (यह भी क्या सॉलिड संयोग है…)।

खैर पुरानी बातें जाने दीजिये - अभी बात करते हैं "माननीय" जस्टिस तरुण चटर्जी की… CBI ने गाजियाबाद के GPF घोटाले में तरुण चटर्जी के साथ-साथ 23 अन्य न्यायाधीशों के खिलाफ़ सुप्रीम कोर्ट में मुकदमा दायर करने की सिफ़ारिश की थी। जस्टिस चटर्जी साहब के खिलाफ़ पुख्ता केस इसलिये नहीं बन पाया, क्योंकि मामले के मुख्य गवाह न्यायालय के क्लर्क आशुतोष अस्थाना की गाजियाबाद के जेल में "संदिग्ध परिस्थितियों" में मौत हो गई। इस क्लर्क ने चटर्जी साहब समेत कई जजों के नाम अपने रिकॉर्डेड बयान में लिये थे। अस्थाना के परिवारवालों ने आरोप लगाये हैं कि "विशिष्ट और वीआईपी" व्यक्तियों को बचाने की खातिर अस्थाना को हिरासत में जहर देकर मार दिया गया। फ़िर भी मुख्य न्यायाधीश केजी बालाकृष्णन के आदेश पर सीबीआई ने जस्टिस चटर्जी से उनके कोलकाता के निवास पर पूछताछ की थी। इंडिया टुडे की रिपोर्ट के मुताबिक चटर्जी के सुपुत्र ने भी महंगे लैपटॉप और फ़ोन के "उपहार"(?) स्वीकार किये थे।


वैसे "माननीय" जस्टिस चटर्जी साहब ने सुप्रीम कोर्ट की वेबसाइट पर अपनी सम्पत्ति का खुलासा किया है  जिससे पता चलता है कि वे बहुत ही "गरीब" हैं, क्योंकि उनके पास खुद का मकान नहीं है, उन्होंने सिर्फ़ 10,000 रुपये म्युचुअल फ़ण्ड में लगाये हैं और 10,000 की ही एक एफ़डी है, हालांकि उनके पास एक गाड़ी Tavera है जबकि दूसरी गाड़ी होण्डा सिएल के लिये उन्होंने बैंक से कर्ज़ लिया है। (वैसे एक बात बताऊं, मेरी दुकान के सामने, एक चाय का ठेला लगता है उसके मालिक ने कल ही मेरे यहाँ से उसकी 20,000 रुपये की एफ़डी की फ़ोटो कॉपी करवाई है) अब बताईये भला, इतने "गरीब" और "माननीय" न्यायाधीश कभी CBI और अपने पद का दुरुपयोग कर सकते हैं क्या? नहीं…नहीं… ज़रूर मुझे ही कोई गलतफ़हमी हुई होगी…

खैर जाने दीजिये, नरेन्द्र भाई मोदी… यदि आपको यह लगता है कि केन्द्र की निगाह में गुजरात एक "शत्रु राज्य" है, तो सही ही होगा, क्योंकि मुम्बई-भिवण्डी-मालेगाँव के दंगों के बावजूद सुधाकरराव नाईक या शरद पवार को कभी "हत्यारा" नहीं कहा गया… एक पार्टी के कार्यकर्ताओं द्वारा दिल्ली में चुन-चुनकर मारे गये हजारों सिखों को कभी भी "नरसंहार" नहीं कहा गया… हमारे टैक्स के पैसों पर पलने वाले कश्मीर और वहाँ से हिन्दुओं के पलायन को कभी "Genocide" (जातीय सफ़ाया) नहीं कहा जाता… वारेन एण्डरसन को भागने में मदद करने वाले भी "मासूम" कहलाते हैं… यह सूची अनन्त है। लेकिन नरेन्द्रभाई, आप निश्चित ही "शत्रु" हैं, क्योंकि गुजरात की जनता लगातार भाजपा को वोट देती रहती है। आपको "हत्यारा", "तानाशाह", "अक्खड़", "साम्प्रदायिक", "मुस्लिम विरोधी" जैसा बहुत कुछ लगातार कहा जाता रहेगा… इसमें गलती आपकी भी नहीं है, गलती है गुजरात की जनता की… जो भाजपा को वोट दे रही है। एक तो आप किसी की कठपुतली नहीं हैं, ऊपर से तुर्रा यह कि लाखों-करोड़ों लोग आपको प्रधानमंत्री बनवाने का सपना भी देख रहे हैं…जो कि "योग्य युवराज"(?) के होते हुए एक बड़ा जुर्म माना जाता है… तो सीबीआई भी बेचारी क्या करे, वे भी तो किसी के "नौकर हैं ना… "आदेश" का पालन तो उन्हें करना ही पड़ेगा…।

जाते-जाते "एक हथौड़ा" और झेल जाईये… प्रस्तुत वीडियो में नरेन्द्र मोदी के घोर विरोधी रहे पूर्व कांग्रेसी यतीन ओझा ने रहस्योद्घाटन किया है, कि तीन साल पहले दिल्ली में अहमद पटेल के बंगले पर नरेन्द्रभाई मोदी को "फ़ँसाने" की जो रणनीति बनाई गई थी, वे उसके साक्षी हैं। उल्लेखनीय है कि यतीन ओझा वह व्यक्ति हैं जो नरेन्द्र मोदी के सामने उस समय चुनाव लड़े थे, जब कांग्रेस के सभी दिग्गजों ने पक्की हार को देखते हुए मोदी के सामने खड़े होने से इंकार कर दिया था…

डायरेक्ट लिंक http://www.youtube.com/watch?v=_U6zyHSvTYA

 

सिर्फ़ विदेशी नहीं, बल्कि देशी कम्पनियाँ भी खनिज सम्पदा लूट रही हैं… (सन्दर्भ - उड़ीसा का खनन घोटाला)… Orissa Mining Scam, Aditya Birla and Vedanta

कर्नाटक के रेड्डी बन्धुओं द्वारा किये गये अरबों रुपये के खनन घोटाले के बारे में काफ़ी कुछ लिखा-पढ़ा जा चुका है, इसी प्रकार झारखण्ड के (भ्रष्टाचार में "यशस्वी") मुख्यमंत्री मधु कौड़ा के बारे में भी हंगामा बरपा हुआ था और उनके रुपयों के लेनदेन और बैंक खातों के बारे में अखबार रंगे गये हैं। लगता है कि भारत की खनिज सम्पदा, कोयला, लौह अयस्क इत्यादि कई-कई अफ़सरों, नेताओं, ठेकेदारों (और अब नक्सलियों और माओवादियों) के लिये भी अनाप-शनाप कमाई का साधन बन चुकी है, जहाँ एक तरफ़ नेताओं और अफ़सरों की काली कमाई स्विस बैंकों और ज़मीनों-सोने-कम्पनियों को खरीदने में लगती है, वहीं दूसरी तरफ़ नक्सली खनन के इस काले पैसे से हथियार खरीदना, अन्दरूनी आदिवासी इलाकों में अपने पठ्ठे तैयार करने और अपना सूचना तंत्र मजबूत करने में लगाते हैं।


ट्रांसपेरेंसी इण्टरनेशनल के एक सक्रिय कार्यकर्ता श्री बिस्वजीत मोहन्ती द्वारा सूचना के अधिकार के तहत प्राप्त जानकारी के अनुसार आदित्य बिरला और एस्सेल समूह द्वारा लगभग 2000 करोड़ रुपये से अधिक का अवैध उत्खनन किया गया है। इस जानकारी के अनुसार उड़ीसा प्रदूषण नियंत्रण मण्डल और उड़ीसा वन विभाग के उच्च अधिकारियों की कार्यशैली और निर्णय भी गम्भीर आशंकाओं के साये में हैं। उड़ीसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक भी कर्नाटक के येद्दियुरप्पा की तरह ईमानदार और साफ़ छवि के माने जाते हैं, लेकिन उनकी पीठ पीछे कम्पनियाँ और अधिकारी मिलकर जो खेल कर रहे हैं, वह अकल्पनीय है। ऐसा तो सम्भव ही नहीं है कि जिन नक्सलियों और माओवादियों का राज देश के एक-तिहाई हिस्से (जिसमें उड़ीसा का बड़ा इलाका शामिल है) में चलता हो और उन्हें इस अवैध उत्खनन के बारे में पता न हो।

असल में यह सारा खेल ठेकेदार-कम्पनियों और नक्सलियों का मिलाजुला होता है, सबका हिस्सा बँटा हुआ होता है, क्योंकि उस इलाके में सरकारों की तो कुछ चलती ही नहीं है। उदाहरण के तौर पर उड़ीसा के विजिलेंस विभाग ने 151 छोटी खदानों को पर्यावरण कानूनों और राजस्व के विभिन्न मामलों में केस दर्ज करके बन्द करवा दिया, लेकिन घने जंगलों में स्थित बड़ी कम्पनियों को लूट का खुला अवसर आज भी प्राप्त है। क्योंझर (डोलोमाइट), जिलिम्गोटा (लौह अयस्क) और कसिया (मैगनीज़) की एस्सेल और बिरला की खदानें 2001 से 2008 तक बेरोकटोक अवैध चलती रहीं हैं। इन कम्पनियों को सिर्फ़ 2,76,000 मीट्रिक टन का खनन करने की अनुमति थी, जबकि इन्होंने इस अवधि में 1,38,0391 मीट्रिक टन की खुदाई करके सरकार को सिर्फ़ 6 साल में 1178 करोड़ का चूना लगा दिया। संरक्षित वन क्षेत्र में अमूमन खुदाई की अनुमति नहीं दी जाती, लेकिन इधर वन विभाग भी मेहरबान है और उसने 127 हेक्टेयर के वन क्षेत्र में खदान बनाने की अनुमति दे डाली… और फ़िर भी अनुमति धरी रह गई अपनी जगह… क्योंकि जब वास्तविक स्थिति देखी गई तो "भाई" लोगों ने 127 की बजाय 242 हेक्टेयर वन क्षेत्र में खुदाई कर डाली। यदि पर्यावरण प्रेमी और सूचना के अधिकार वाले जागरुक लोग समय पर आवाज़ नहीं उठाते तो शायद ये कम्पनियाँ खुदाई करते-करते भुवनेश्वर तक पहुँच जातीं।

मजे की बात तो यह है कि इन कम्पनियों को पर्यावरण मंत्रालय और राज्य के खनन विभागों की अनुमति भी बड़ी जल्दी मिल जाती है… क्योंकि इन विभागों के उच्च अधिकारियों से लेकर वन-रक्षक के हाथ "रिश्वत के ग्रीज़" से चिकने बना दिये जाते हैं।सूचना के अधिकार कानून से भी क्या होने वाला है, क्योंकि सरकार ने अपने लिखित जवाब में बता दिया कि "आपकी शिकायत सही पाई गई है और उक्त खदान में खनन कार्य बन्द किया जा चुका है…" जबकि उस स्थान पर जाकर देखा जाये तो वह खदानें बाकायदा उसी गति से चल रही हैं, अब उखाड़ लो, जो उखाड़ सकते हो…।



सर्वोच्च न्यायालय द्वारा गठित एक विशेष पैनल ने अपनी सनसनीखेज़ रिपोर्ट में पाया है कि उड़ीसा में 215 खदानें ऐसी हैं, जिनके खनन लाइसेंस 20 साल पहले ही खत्म हो चुका है। पैनल ने कहा है कि घने जंगलों में ऐसी कई खदाने हैं जो अवैध रुप से चल रही हैं जिन्होंने न तो किसी प्रकार का पर्यावरण NOC लिया है न ही उनके लाइसेंस हैं (कोई बच्चा भी बता सकता है कि इस प्रकार की खदानों से किसकी कमाई होती होगी… पता नहीं नक्सलवादी नेता ऊँचे-ऊँचे आदर्शों की बातें क्यों करते हैं?)। इस लूट में कोल इंडिया लिमिटेड के उच्चाधिकारियों की मिलीभगत से महानदी कोलफ़ील्ड्स लिमिटेड भी दोनों हाथों से अवैध खनन कर रही है। यह खेल "खनिज सम्पदा छूट कानून 1960" के नियम 24A(6) के तहत किया जा रहा है, जबकि इस कानून को इसलिये बनाया गया था ताकि कोई खदान सरकारी स्वीकृति मिलने की देरी होने पर भी चालू हालत में रखी जा सके। इस नियम के तहत जब तक लाइसेंस नवीनीकरण नहीं होता तब तक उसी खदान को अस्थायी तौर पर शुरु रखने की अनुमति दी जाती है। उड़ीसा में इन सैकड़ों मामलों में खदानों के लाइसेंस पूरे हुए 10, 15 या 20 साल तक हो चुके हैं, न तो नवीनीकरण का आवेदन किया गया, न ही खदान बन्द की गई…।

राष्ट्रीय वन्य जीव क्षेत्र (नेशनल पार्क) के आसपास कम से कम 2 किमी तक कोई खदान नहीं होनी चाहिये, लेकिन इस नियम की धज्जियाँ भी सरेआम उड़ीसा में उड़ती नज़र आ जाती हैं। अब सुप्रीम कोर्ट ने इन खदान मालिकों को आज के वर्तमान बाजार भाव के हिसाब से लीज़ का पैसा चुकाने को कहा है, और पिछली लूट को यदि छोड़ भी दें तब भी सरकार के खजाने में इस कदम से करोड़ों रुपये आयेंगे। उल्लेखनीय है कि जब खनन करने वाली कम्पनी को 5000 रुपये का फ़ायदा होता है तब सरकार के खाते में सिर्फ़ 27 रुपये आते हैं (रॉयल्टी के रुप में), लेकिन ये बड़ी कम्पनियाँ और इनके मालिक इतने टुच्चे और नीच हैं कि ये 27 रुपये भी सरकारी खजाने में जमा नहीं करना चाहते, इसलिये अवैध खनन के जरिये अफ़सरों, ठेकेदारों और नक्सलियों-माओवादियों की मिलीभगत से सरकार को (यानी प्रकारांतर से हमें भी) चूना लगता रहता है। आदित्य बिरला की कम्पनी पर आरोप है कि उसने लगभग 2000 करोड़ रुपये का अवैध खनन सिर्फ़ उड़ीसा में किया है। यदि सूचना का अधिकार न होता तो विश्वजीत मोहन्ती जैसे कार्यकर्ताओं की मेहनत से हमें यह सब कभी पता नहीं चलता…। वेदान्ता और पोस्को द्वारा की जा रही लूट के बारे में काफ़ी शोरगुल और हंगामा होता रहता है, लेकिन भारतीय कम्पनियों द्वारा खनन में तथा माओवादियों द्वारा जंगलों में अवैध वसूली और लकड़ी/लौह अयस्क तस्करी के बारे में काफ़ी कम बात की जाती है, जबकि सारे के सारे एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं (कुछ झोलेवालों को यह मुगालता है कि नक्सलवादी या माओवादी किसी परम पवित्र उद्देश्य की लड़ाई लड़ रहे हैं…)। उधर रेड्डी बन्धुओं ने तो आंध्रप्रदेश और कर्नाटक की सीमा के चिन्ह भी मिटा डाले हैं ताकि जब जाँच हो, या कोई ईमानदार अधिकारी उधर देखने जाये तो उसे, कभी कर्नाटक तो कभी आंध्रप्रदेश की सीमा का मामला बताकर केस उलझा दिया जाये…

लेकिन सूचना के इस अधिकार से हमें सिर्फ़ घोटाले की जानकारी ही हुई है… न तो कम्पनियों का कुछ बिगड़ा, न ही अधिकारियों-ठेकेदारों का बाल भी बाँका हुआ, न ही मुख्यमंत्री या किसी अन्य मंत्री ने इस्तीफ़ा दिया … सूचना हासिल करके क्या उखाड़ लोगे? सजा दिलाने के लिये रास्ता तो थाना-कोर्ट-कचहरी-विधानसभा-लोकसभा के जरिये ही है, जहाँ इन बड़ी-बड़ी कम्पनियों के दलाल और शुभचिन्तक बैठे हैं। मध्यप्रदेश और राजस्थान के जिन IAS अधिकारियों के घरों से छापे में करोड़ों रुपये निकल रहे हैं, उन्हें सड़क पर घसीटकर जूतों से मारने की बजाय उन्हें उच्च पदस्थापनाएं मिल जाती हैं तो कैसा और क्या सिस्टम बदलेंगे हम और आप? 

भई… जब देश की राजधानी में ऐन प्रधानमंत्री की नाक के नीचे कॉमनवेल्थ खेलों के नाम पर करोड़ों रुपये दिनदहाड़े लूट लिये जाते हों तो उड़ीसा, झारखण्ड, छत्तीसगढ़ के दूरदराज के घने जंगलों में देखने वाला कौन है… यह देश पूरी तरह लुटेरों की गिरफ़्त में है…कोई दिल्ली में लूट रहा है तो कोई क्योंझर या मदुरै या जैसलमेर में…

Friday, August 6, 2010

तस्वीर बोलती है ...क्या


कह नही पाता

ना जब तक देख लू तुमको चैन से रह नही पाता 
मै दारिया हूँ मगर मर्जी से अपने बह नही पाता
कैसी उ़लझन में उलझा हूँ भला ये तुम क्या जानोगे 
तुम्ही को चाहता हूँ और तुमसे कह नही पाता 
विजय कुमार वर्मा 

चाँद रूठा रहा जाने किस बात पर



चाँद रूठा रहा जाने किस बात पर ;


चांदनी के बिना रात रोती रही /


भीगा तन भीगा मन ,भीगा सारा जहाँ ;


आँखों से ऐसी ,बरसात होती रही /


ऐसे बादल उड़े ,जैसे आँचल कोई ;


जिन्दगी मन में ,जज्बात बोती रही /


शर्म से जिसके लव न खुले थे कभी ;


रात भर उनसे ही ,बात होती रही /


स्याह माहोल में ,जब धरा -नभ मिले ;


दिल से दिल की ,मुलाकात होती रही /


विजय कुमार वर्मा
VIJAYNAMA.BLOGSPOT.COM

Tuesday, August 3, 2010

एनडी तिवारी के बहाने दो-तीन प्रमुख मुद्दों पर बहस की दरकार… ND Tiwari, Sex Scandal, Governor of AP


पिछले कुछ दिनों से आंध्र के पूर्व राज्यपाल एनडी तिवारी ने चहुंओर हंगामा मचा रखा है। इसके पक्ष-विपक्ष में कई लेख और मत पढ़ने को मिले, जिसमें अधिकतर में तिवारी के चरित्र पर ही फ़ोकस रहा, किसी ने इसे तुरन्त मान लिया, कुछ लोग सशंकित हैं, जबकि कुछ लोग मानने को ही तैयार नहीं हैं कि तिवारी ऐसा कर सकते हैं। ज्ञानदत्त पाण्डेय जी के ब्लॉग पर विश्वनाथ जी ने बड़े मासूम और भोले-भाले से सवाल उठाये, जबकि विनोद जी ने चीरफ़ाड़ में कांग्रेस की फ़ाड़कर रख दी, वहीं एक तरफ़ डॉ रूपचन्द्र शास्त्री जी उन्हें दागी मानने को ही तैयार नहीं हैं। हालांकि कुछ बिन्दु ऐसे हैं जिनका कोई जवाब अभी तक नहीं मिला है, जैसे –

1) यदि नैतिकता के इतने ही पक्षधर थे तो, एनडी तिवारी ने इस्तीफ़ा इतनी देर से और केन्द्र के हस्तक्षेप के बाद क्यों दिया?

2) नैतिकता का दावा मजबूत करने के लिये इस्तीफ़ा “स्वास्थ्य कारणों” से क्यों दिया, नैतिकता के आधार पर देते?

3) जब रोहित शेखर नामक युवक ने पिता होने का आरोप लगाया था, तब नैतिकता की खातिर खुद ही DNA टेस्ट के लिये आगे कर दिया होता, दूध का दूध पानी का पानी हो जाता?

4) पहले भी ऐसे ही “खास मामलों” में राजनैतिक गलियारों में इनका ही नाम क्यों उछलता रहा है, किसी और नेता का क्यों नहीं?


बहरहाल सवाल तो कई हैं, लेकिन ऐसे माहौल में दो महत्वपूर्ण मुद्दों पर बात छूट गई लगती है, इसलिये उन्हें यहाँ पेश कर रहा हूं…

पहला मुद्दा – क्या अब भी हमें राज्यपाल पद की आवश्यकता है?

पिछले कुछ वर्षों में (जबसे राज्यों में गैर-कांग्रेसी सरकारें मजबूत हुईं, तब से) यह देखने में आया है कि राज्यों में राज्यपाल केन्द्र के “जासूसी एजेण्ट” और “हितों के रखवाले” के रूप में भेजे जाते हैं। राज्यपाल अधिकतर उन्हीं “घाघ”, “छंटे हुए”, “शातिर” लोगों को ही बनाया जाता है, जिन्होंने “जवानी” के दिनों में कांग्रेस (यानी गाँधी परिवार) की खूब सेवा की हो, और ईनाम के तौर पर उनका बुढ़ापा सुधारने (यहाँ “मजे मारने” पढ़ा जाये) के लिये राज्यपाल बनाकर भेज दिया जाता है। राज्यपालों को कोई काम-धाम नहीं होता है, इधर-उधर फ़ीते काटना, उदघाटन करना, चांसलर होने के नाते प्रदेश के विश्वविद्यालयों में अपनी नाक घुसेड़ना, प्रधानमंत्री-राष्ट्रपति यदि राज्य के दौरे पर आयें तो उनकी अगवानी करना, विधानसभा सत्र की शुरुआत में राज्य सरकार का ही लिखा हुआ बोरियत भरा भाषण पढ़ना… और सिर्फ़ एक महत्वपूर्ण काम यह कि कौए की तरह यह देखना कि कब राज्य में राजनैतिक संकट खड़ा हो रहा है (या ऐसा कोई संकट खड़ा करने की कोशिश करना), फ़िर पूरे लोकतन्त्र को झूला झुलाते हुए केन्द्र क्या चाहता है उसके अनुसार रिपोर्ट बनाकर देना…। ऐसे कई-कई उदाहरण हम रोमेश भण्डारियों, सिब्ते रजियों, बूटा सिंहों आदि के रूप में देख चुके हैं। तात्पर्य यह कि राज्यपाल नामक “सफ़ेद हाथी” जितना काम करता है उससे कहीं अधिक बोझा राज्य के खजाने (यानी हमारी जेब पर) डाल देता है। जानना चाहता हूं कि क्या राज्यपाल नामक “सफ़ेद हाथी” पालना जरूरी है? एक राजभवन का जितना खर्च होता है, उसमें कम से कम दो राज्य मंत्रालय समाहित किये जा सकते हैं, जो शायद अधिक काम के साबित हों…।

अब आते हैं दूसरे मुद्दे पर…

क्या भारतीय राजनीति में “टेब्लॉयड संस्कृति” का प्रादुर्भाव हो रहा है? यदि हो रहा है तो होना चाहिये अथवा नहीं?

भारत के राजनैतिक और सामाजिक माहौल में अभी ब्रिटेन की “टेब्लॉयड संस्कृति” वाली पत्रकारिता एक नई बात है। जैसा कि सभी जानते हैं, ब्रिटेन के दोपहर में निकलने वाले अद्धे साइज़ के अखबारों को टेब्लॉयड कहा जाता है, जिसमें, किस राजनेता का कहाँ चक्कर चल रहा है, किस राजनेता के किस स्त्री के साथ सम्बन्ध हैं, कौन सा राजनैतिक व्यक्ति कितनी महिलाओं के साथ कहाँ-कहाँ देखा गया, जैसी खबरें ही प्रमुखता से छापी जाती हैं। चूंकि पश्चिमी देशों की संस्कृति(?) में ऐसे सम्बन्धों को लगभग मान्यता प्राप्त है इसलिये लोग भी ऐसे टेब्लॉयडों को पढ़कर चटखारे लेते हैं और भूल जाते हैं।

डॉ शास्त्री, तिवारी जी के प्रति अपनी भक्तिभावना से प्रेरित होकर और विश्वनाथ जी एक सामान्य सभ्य नागरिक की तरह सवाल पूछ रहे हैं, लेकिन सच्चाई कहीं अधिक कटु होती है। जो पत्रकार अथवा जागरूक राजनैतिक कार्यकर्ता सतत इस माहौल के सम्पर्क में रहते हैं, वे जानते हैं कि इन नेताओं के लिये “सर्किट हाउसों”, रेस्ट हाउसों तथा फ़ार्म हाउसों में क्या-क्या और कैसी-कैसी व्यवस्थाएं की जाती रही हैं, की जाती हैं और की जाती रहेंगी… क्योंकि जब सत्ता, धन और शराब तीनों बातें बेखटके, अबाध और असीमित उपलब्ध हो, ऐसे में उस जगह “औरत” उपलब्ध न हो तो आश्चर्य ही होगा। भारतीय मीडिया अभी तक ऐसी खबरों के प्रकाशन अथवा उसे “गढ़ने”(?) में थोड़ा संकोची रहा है, लेकिन यह हिचक धीरे-धीरे टूट रही है… ज़ाहिर है कि इसके पीछे “बदलते समाज” की भी बड़ी भूमिका है, वरना कौन नहीं जानता कि –

1) भारत के एक पूर्व प्रधानमंत्री के कम से कम 3 महिलाओं से खुल्लमखुल्ला सम्बन्ध रहे थे।

2) दक्षिण का एक सन्यासी, जो कि हथियारों का व्यापारी भी था कथित रूप से एक पूर्व प्रधानमंत्री का बेटा कहा जाता है।

3) एक विशेष राज्य के विशेष परिवार के मुख्यमंत्री और उसका बेटे के “घरेलू” सम्बन्ध एक पूर्व प्रधानमंत्री के पूरे परिवार से थे।

4) एक भूतपूर्व प्रधानमंत्री के लाड़ले बेटे की “चाण्डाल चौकड़ी” ने न जाने कितनी महिलाओं को बरबाद (एक प्रसिद्ध अभिनेत्री की माँ को) किया, जबकि कितनी ही महिलाओं को आबाद कर दिया (उनमें से एक वर्तमान केन्द्रीय मंत्रिमण्डल में भी है)।

5) मध्यप्रदेश की एक आदिवासी महिला नेत्री का राजनैतिक करियर उठाने में भारत के एक पूर्व प्रधानमंत्री का हाथ है, जिनकी एकमात्र योग्यता सुन्दर होना है।

6) एक प्रसिद्ध फ़िल्म अभिनेता की माँ के भी एक पूर्व प्रधानमंत्री से सम्बन्ध काफ़ी चर्चित हैं।

नेताओं अथवा धर्मगुरुओं के प्रति भावुक होकर सोचने की बजाय हमें तर्कपूर्ण दृष्टि से सोचना चाहिये…। एक और छोटा सा उदाहरण - हाल ही में अपनी हरकतों की वजह से कुख्यात हुए एक “सिन्धी” धर्मगुरु तथा मुम्बई के एक प्रसिद्ध “सिन्धी” बिल्डर के बीच यदि धन के लेन-देन और बेनामी सौदों की ईमानदारी से जाँच कर ली जाये तो कई राज़ खुल जायेंगे… एक और प्रवचनकार द्वारा आयकर छिपाने के मामले खुल रहे हैं।

(तात्पर्य यह शास्त्री जी अथवा विश्वनाथ जी, कि भारतीय राजनीति में ऐसे कई-कई उदाहरण मौजूद हैं, हालांकि ऊपर दिये गये उदाहरणों में मैं नामों का उल्लेख नहीं कर सकता, लेकिन जो लोग राजनैतिक रूप से “जागरूक” हैं, वे जानते हैं कि ये किरदार कौन हैं, और ऐसी बातें अक्सर सच ही होती हैं और बातें भी हवा में से पैदा नहीं होती, कहीं न कहीं धुँआ अवश्य मौजूद होता है) चूंकि अब मामले खुल रहे हैं, समाज छिन्न-भिन्न हो रहा है, विश्वास टूट रहे हैं… तो लोग आश्चर्य कर रहे हैं, तब सवाल उठना स्वाभाविक है कि –

अ) क्या पश्चिमी प्रेस का प्रभाव भारतीय मीडिया पर भी पड़ा है?

ब) जब हम हर बात में पश्चिम की नकल करने पर उतारू हैं तो नेताओं के ऐसे यौनिक स्टिंग ऑपरेशन भी होने चाहिये (अब जनता ने भ्रष्टाचार को तो स्वीकार कर ही लिया है, इसे भी स्वीकार कर लिया जायेगा), धीरे-धीरे ऐसे नेताओं को नंगा करने में क्या बुराई है?

स) भारतीय संस्कृति में ऐसी खबरें हेडलाइन्स के रूप में छपेंगी तो समाज पर क्या “रिएक्शन” होगा?

ऐसे उप-सवालों का मूल सवाल यही है कि “ऐसे स्टिंग ऑपरेशन और नेताओं के चरित्र के सम्बन्ध में मीडिया को सबूत जुटाना चाहिये, खबरें प्रकाशित करना चाहिये, खोजी पत्रकारिता की जानी चाहिये अथवा नहीं?”

मूल बहस से हटते हुए एक महत्वपूर्ण तीसरा और अन्तिम सवाल यहाँ फ़िर उठाना चाहूंगा कि जब ऐसी कई जानकारियाँ मेरे जैसा एक सामान्य ब्लागर सिर्फ़ अपनी आँखे और कान खुले रखकर प्राप्त कर सकता है तो फ़िर पत्रकार क्यों नहीं कर सकते, उन्हें तो अपने मालिक का, कानून का कवच प्राप्त होता है, संसाधन और सम्पर्क हासिल होते हैं, और यदि यही संरक्षण ब्लागरों को भी मिलने लगे तो कैसा रहे?

बहरहाल अधिक लम्बा न खींचते हुए इन दोनों (बल्कि तीनों) मुद्दों पर पाठकों की बेबाक राय जानना चाहूंगा…
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चलते-चलते :- मैं सीरियसली सोच रहा हूं कि तिवारी जी ने इस्तीफ़े में “स्वास्थ्य कारणों” की वजह बताई, वह सही भी हो सकती है, क्योंकि वियाग्रा के ओवरडोज़ से स्वास्थ्य समस्याएं उत्पन्न हो ही जाती हैं… है ना? और तिवारी जी की गलती इतनी बड़ी भी नहीं है, उन्होंने तो कांग्रेस की स्थापना के 125 वर्ष का जश्न थोड़ा जल्दी मनाना शुरु कर दिया था, बस…

इसीलिये रतन टाटा वन्दनीय और "सरकारी व्यवस्था" निन्दनीय हैं… Ratan Tata, 26/11 Terrorist Attack, Taj Hotel



कोई भी कर्मचारी अपनी जान पर खेलकर अपने मालिक के लिये वफ़ादारी और समर्पण से काम क्यों करता है? इसका जवाब है कि उसे यह विश्वास होता है कि उसका मालिक उसके हर सुख-दुख में काम आयेगा तथा उसके परिवार का पूरा ख्याल रखेगा, और संकट की घड़ी में यदि कम्पनी या फ़ैक्ट्री का मालिक उस कर्मचारी से अपने परिवार के एक सदस्य की भाँति पेश आता है तब वह उसका भक्त बन जाता है। फ़िर वह मालिक, मीडिया वालों, राजनीतिबाजों, कार्पोरेट कल्चर वालों की निगाह में कुछ भी हो, उस संस्थान में काम करने वाले कर्मचारी के लिये एक हीरो ही होता है। भूमिका से ही आप समझ गये होंगे कि बात हो रही है रतन टाटा  की।

26/11 को ताज होटल पर हमला हुआ। तीन दिनों तक घमासान युद्ध हुआ, जिसमें बाहर हमारे NSG और पुलिस के जवानों ने बहादुरी दिखाई, जबकि भीतर होटल के कर्मचारियों ने असाधारण धैर्य और बहादुरी का प्रदर्शन किया। 30 नवम्बर को ताज होटल तात्कालिक रूप से अस्थाई बन्द किया गया। इसके बाद रतन टाटा ने क्या-क्या किया, पहले यह देख लें -

1) उस दिन ताज होटल में जितने भी कर्मचारी काम पर थे, चाहे उन्हें काम करते हुए एक दिन ही क्यों न हुआ हो, अस्थाई ठेका कर्मचारी हों या स्थायी कर्मचारी, सभी को रतन टाटा ने "ऑन-ड्यूटी" मानते हुए उसी स्केल के अनुसार वेतन दिया।

2) होटल में जितने भी कर्मचारी मारे गये या घायल हुए, सभी का पूरा इलाज टाटा ने करवाया।

3) होटल के आसपास पाव-भाजी, सब्जी, मछली आदि का ठेला लगाने वाले सभी ठेलाचालकों (जो कि सुरक्षा बलों और आतंकवादियों की गोलाबारी में घायल हुए, अथवा उनके ठेले नष्ट हो गये) को प्रति ठेला 60,000 रुपये का भुगतान रतन टाटा की तरफ़ से किया गया। एक ठेले वाले की छोटी बच्ची भी "क्रास-फ़ायर" में फ़ँसने के दौरान उसे चार गोलियाँ लगीं जिसमें से एक गोली सरकारी अस्पताल में निकाल दी गई, बाकी की नहीं निकलने पर टाटा ने अपने अस्पताल में विशेषज्ञों से ऑपरेशन करके निकलवाईं, जिसका कुल खर्च 4 लाख रुपये आया और यह पैसा उस ठेले वाले से लेने का तो सवाल ही नहीं उठता था।

4) जब तक होटल बन्द रहा, सभी कर्मचारियों का वेतन मनीऑर्डर से उनसे घर पहुँचाने की व्यवस्था की गई।

5) टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल साइंस की तरफ़ से एक मनोचिकित्सक ने सभी घायलों के परिवारों से सतत सम्पर्क बनाये रखा और उनका मनोबल बनाये रखा।

6) प्रत्येक घायल कर्मचारी की देखरेख के लिये हरेक को एक-एक उच्च अधिकारी का फ़ोन नम्बर और उपलब्धता दी गई थी, जो कि उसकी किसी भी मदद के लिये किसी भी समय तैयार रहता था।

7) 80 से अधिक मृत अथवा गम्भीर रूप से घायल कर्मचारियों के यहाँ खुद रतन टाटा ने अपनी व्यक्तिगत उपस्थिति दर्ज करवाई, जिसे देखकर परिवार वाले भी भौंचक थे।

8) घायल कर्मचारियों के सभी प्रमुख रिश्तेदारों को बाहर से लाने की व्यवस्था की गई और सभी को होटल प्रेसिडेण्ट में तब तक ठहराया गया, जब तक कि सम्बन्धित कर्मचारी खतरे से बाहर नहीं हो गया।

9) सिर्फ़ 20 दिनों के भीतर सारी कानूनी खानापूर्तियों को निपटाते हुए रतन टाटा ने सभी घायलों के लिये एक ट्रस्ट का निर्माण किया जो आने वाले समय में उनकी आर्थिक देखभाल करेगा।

10) सबसे प्रमुख बात यह कि जिनका टाटा या उनके संस्थान से कोई सम्बन्ध नहीं है, ऐसे रेल्वे कर्मचारियों, पुलिस स्टाफ़, तथा अन्य घायलों को भी रतन टाटा की ओर से 6 माह तक 10,000 रुपये की सहायता दी गई।

11) सभी 46 मृत कर्मचारियों के बच्चों को टाटा के संस्थानों में आजीवन मुफ़्त शिक्षा की जिम्मेदारी भी उठाई है।

12) मरने वाले कर्मचारी को उसके ओहदे के मुताबिक नौकरी-काल के अनुमान से 36 से 85 लाख रुपये तक का भुगतान तुरन्त किया गया। इसके अलावा जिन्हें यह पैसा एकमुश्त नहीं चाहिये था, उन परिवारों और आश्रितों को आजीवन पेंशन दी जायेगी। इसी प्रकार पूरे परिवार का मेडिकल बीमा और खर्च टाटा की तरफ़ से दिया जायेगा। यदि मृत परिवार ने टाटा की कम्पनी से कोई लोन वगैरह लिया था उसे तुरन्त प्रभाव से खत्म माना गया।

हाल ही में ताज होटल समूह के प्रेसिडेंट एचएन श्रीनिवास ने एक इंटरव्यू दिया है, जिसमें उन्होंने उस हमले, हमले के दौरान ताज के कर्मचारियों तथा हमले के बाद ताज होटल तथा रतन टाटा के बारे में विचार व्यक्त किये हैं। इसी इंटरव्यू के मुख्य अंश आपने अभी पढ़े कि रतन टाटा ने क्या-क्या किया, लेकिन संकट के क्षणों में होटल के उन कर्मचारियों ने "अपने होटल" (जी हाँ अपने होटल) के लिये क्या किया इसकी भी एक झलक देखिये -

1) आतंकवादियों ने अगले और पिछले दोनों गेट से प्रवेश किया, और मुख्य द्वार के आसपास RDX बिखेर दिया ताकि जगह आग लग जाये और पर्यटक-सैलानी और होटल की पार्टियों में शामिल लोग भगदड़ करें और उन्हें निशाना बनाया जा सके, इन RDX के टुकड़ों को ताज के कुछ सुरक्षाकर्मियों ने अपनी जान पर खेलकर हटाया अथवा दूर फ़ेंका।

2) उस दिन होटल में कुछ शादियाँ, और मीटिंग्स इत्यादि चल रही थीं, जिसमें से एक बड़े बोहरा परिवार की शादी ग्राउंड फ़्लोर पर चल रही थी। कई बड़ी कम्पनियों के CEO तथा बोर्ड सदस्य विभिन्न बैठकों में शामिल होने आये थे।

3) रात 8.30 बजे जैसे ही आतंकवादियों सम्बन्धी हलचल हुई, होटल के स्टाफ़ ने अपनी त्वरित बुद्धि और कार्यक्षमता से कई हॉल और कान्फ़्रेंस रूम्स के दरवाजे बन्द कर दिये ताकि लोग भागें नहीं तथा बाद में उन्हें चुपके से पिछले दरवाजे से बाहर निकाल दिया, जबकि खुद वहीं डटे रहे।

4) जिस हॉल में हिन्दुस्तान लीवर लिमिटेड की एक महत्वपूर्ण बैठक चल रही थी वहाँ की एक युवा होटल मैनेजमेंट ट्रेनी लड़की ने बिना घबराये दरवाजे मजबूती से बन्द कर दिये तथा इसके बावजूद वह कम से कम तीन बार पानी-जूस-व्हिस्की आदि लेने बाहर गई। वह आसानी से गोलियों की रेंज में आ सकती थी, लेकिन न वह खुद घबराई न ही उसने लोगों में घबराहट फ़ैलने दी। चुपके से एकाध-दो को आतंकवादी हमले के बारे में बताया और मात्र 3 मिनट में सबको किचन के रास्ते पिछले दरवाजे से बाहर निकाल दिया।

5) थॉमस जॉर्ज नामक एक फ़्लोर कैप्टन ने ऊपरी मंजिल से 54 लोगों को फ़ायर-एस्केप से बाहर निकाला, आखिरी व्यक्ति को बाहर निकालते समय गोली लगने से उसकी मौत हो गई।

6) विभिन्न वीडियो फ़ुटेज से ही जाहिर होता है कि कर्मचारियों ने होटल छोड़कर भागने की बजाय सुरक्षाकर्मियों को होटल का नक्शा समझाया, आतंकवादियों के छिपे होने की सम्भावित जगह बताई, बिना डरे सुरक्षाकर्मियों के साथ-साथ रहे।

ऐसे कई-कई असली बहादुरों ने अपनी जान पर खेलकर कई मेहमानों की जान बचाई। इसमें एक बात यह भी महत्वपूर्ण है कि ताज होटल का स्टाफ़ इसे अपनी ड्यूटी समझकर तथा "टाटा" की इज्जत रखने के लिये कर रहा था। 26 नवम्बर को यह घटना हुई और 21 दिसम्बर को सुबह अर्थात एक महीने से भी कम समय में होटल का पूरा स्टाफ़ (मृत और घायलों को छोड़कर) मेहमानों के समक्ष अपनी ड्यूटी पर तत्परता से मुस्तैद था।


जमशेदजी टाटा  ने होटल व्यवसाय में उस समय कदम रखा था जब किसी अंग्रेज ने उनका एक होटल में अपमान कर दिया था और उन्हें बाहर करवा दिया था। उन्होंने भारत में कई संस्थानों की नींव रखी, पनपाया और वटवृक्ष बनाया।  उन्हीं की समृद्ध विरासत को रतन टाटा आगे बढ़ा रहे हैं, जब 26/11 हमले के प्रभावितों को इतनी मदद दी जा रही थी तब एक मीटिंग में HR मैनेजरों ने इस बाबत झिझकते हुए सवाल भी किया था लेकिन रतन टाटा का जवाब था, "क्या हम अपने इन कर्मचारियों के लिये ज्यादा कर रहे हैं?, अरे जब हम ताज होटल को दोबारा बनाने-सजाने-संवारने में करोड़ों रुपये लगा रहे हैं तो हमें उन कर्मचारियों को भी बराबरी और सम्मान से उनका हिस्सा देना चाहिये, जिन्होंने या तो अपनी जान दे दी या "ताज" के मेहमानों और ग्राहकों को सर्वोपरि माना। हो सकता है कि कुछ लोग कहें कि इसमें टाटा ने कौन सा बड़ा काम कर दिया, ये तो उनका फ़र्ज़ था? लेकिन क्या किसी अन्य उद्योगपति ने अरबों-खरबों कमाने के बावजूद इतनी सारी दुर्घटनाओं के बाद भी कभी अपने स्टाफ़ और आम आदमी का इतना खयाल रखा है? इसमें मैनेजमेण्ट गुरुओं के लिये भी सबक छिपा है कि आखिर क्यों किसी संस्थान की "इज्जत" कैसे बढ़ती है, उसके कर्मचारी कम तनख्वाह के बावजूद टाटा को छोड़कर क्यों नहीं जाते? टाटा समूह में काम करना व्यक्तिगत फ़ख्र की बात क्यों समझी जाती है? ऐसे में जब रतन टाटा कहते हैं "We Never Compromise on Ethics" तब सहज ही विश्वास करने को जी चाहता है। एक घटिया विचार करते हुए यदि इस इंटरव्यू को टाटा का "प्रचार अभियान" मान भी लिया जाये, तो अगर इसमें बताई गई बातों का "आधा" भी टाटा ने किया हो तब भी वह वन्दनीय ही है।

अब दूसरा दृश्य देखिये -

26/11 के हमले को एक वर्ष बीत चुका है, मोमबत्ती ब्रिगेड भी एक "रुदाली पर्व" की भाँति अपने-अपने घरों से निकलकर मोमबत्ती जलाकर वापस घर जा चुकी, "मीडियाई गिद्धों" ने 26/11 वाले दिन भी सीधा प्रसारण करके जमकर माल कमाया था, एक साल बाद पुनः "देश के साथ हुए इस बलात्कार" के फ़ुटेज दिखा-दिखाकर दोबारा माल कूट लिया है। इस सारे तमाशे, गंदी राजनीति और "सदा की तरह अकर्मण्य और सुस्त भारतीय प्रशासनिक व्यवस्था" के बीच एक साल गुज़र गया। महाराष्ट्र सरकार और केन्द्र अपने आधिकारिक जवाब में यह मान चुके हैं कि 475 प्रभावित लोगों में से सिर्फ़ अभी तक सिर्फ़ 118 प्रभावितों को मुआवज़ा मिला है, रेल्वे के कई कर्मचारियों को आज भी प्रशस्ति-पत्र, नकद इनाम, और अनुकम्पा नियुक्ति के लिये भटकना पड़ रहा है। महाराष्ट्र चुनाव में "लोकतन्त्र की जीत"(?) के बाद 15 दिनों तक पूरी बेशर्मी से मलाईदार विभागों को लेकर खींचतान चलती रही, शिवराज पाटिल किसी राज्य में राज्यपाल बनने का इंतज़ार कर रहे हैं, आरआर पाटिल नामक एक अन्य निकम्मा फ़िर से गृहमंत्री बन गया, रेल्वे मंत्रालय कब्जे में लेकर बैठी ममता बैनर्जी के एक सहयोगी का 5 सितारा होटल का बिल लाखों रुपये चुकाया गया है, कसाब नामक "बीमारी" पर अभी तक 32 करोड़ रुपये खर्च हो चुके हैं, आगे भी पता नहीं कितने साल तक होते रहेंगे (इतने रुपयों में तो सभी घायलों को मुआवज़ा मिल गया होता), केन्द्र के मंत्री चार दिन की "खर्च कटौती नौटंकी" दिखाकर फ़िर से विदेश यात्राओं में मगन हो गये हैं, उधर राहुल बाबा हमारे ही टैक्स के पैसों से पूरे देश भर में यात्राएं कर रहे हैं तथा "नया भारत" बनाने का सपना दिखा रहे हैं… तात्पर्य यह कि सब कुछ हो रहा है, यदि कुछ नहीं हो पाया तो वह ये कि एक साल बीतने के बावजूद मृतकों-घायलों को उचित मुआवज़ा नहीं मिला, ऐसी भ्रष्ट "व्यवस्था" पर लानत भेजने या थूकने के अलावा कोई और विकल्प हो तो बतायें।

जनता का वोट लेकर भी कांग्रेस आम आदमी के प्रति सहानुभूतिपूर्ण नहीं है, जबकि व्यवसायी होते हुए भी टाटा एक सच्चे उद्योगपति हैं "बिजनेसमैन" नहीं। तो क्या यह माना जाये कि रतन टाटा की व्यवस्था केन्द्र सरकार से अधिक चुस्त-दुरुस्त है? यदि हाँ, तो फ़िर इस प्रकार के घटिया लोकतन्त्र और हरामखोर लालफ़ीताशाही को हम क्यों ढो रहे हैं और कब तक ढोते रहेंगे?
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विषयान्तर - संयोग से पिछले वर्ष मेरे भतीजे का चयन कैम्पस इंटरव्यू में एक साथ दो कम्पनियों मारुति सुजुकी और टाटा मोटर्स में हुआ, मुझसे सलाह लेने पर मैंने उस समय निःस्संकोच उसे टाटा मोटर्स में जाने की सलाह दी थी, तब न तो 26/11 का हमला हुआ था, न ही यह इंटरव्यू मैंने पढ़ा था… आज सोचता हूँ तो लगता है कि मेरी सलाह उचित थी, टाटा अवश्य ही उसका खयाल रखेंगे…

मिग-21 के एक जाँबाज और जीवट वाले “लेखक पायलट” के बारे में जानिये…... Paralyzed Fighter Pilot Writer



वर्ष का अन्त और नववर्ष की शुरुआत हिम्मत और जीवट से करने के लिये मैंने इस लेख को चुनना तय किया। जैसी हिम्मत और जीवट मिग-21 के पायलट एमपी अनिल कुमार ने दिखाई और दिखा रहे हैं, वैसा जज़्बा और जोश सभी लोग दिखायें… ऐसी आशा करता हूं…





ज़रा कल्पना कीजिये कि आयु के 24वें वर्ष में एक युवक का एक्सीडेण्ट हो जाये और गर्दन के नीचे का पूरा शरीर पक्षाघात से पीड़ित हो जाये तब उसे हिम्मत हारते देर नहीं लगेगी? लेकिन भारत के जाँबाज सैनिक केरल के एमपी अनिल कुमार किसी और ही मिट्टी के बने हैं। जी हाँ, 24 वर्ष की आयु में एक सड़क हादसे में उन्हें गहरी दिमागी चोट लगी और गर्दन के नीचे का शरीर किसी काम का न रहा, लेकिन पिछले 19 वर्ष से वे न सिर्फ़ ज़िन्दगी को ठेंगा दिखाये हुए हैं, बल्कि कम्प्यूटर को अपना साथी बनाकर एक उम्दा लेखक के रूप में भी सफ़ल हुए हैं। विकलांगता पर लिखा हुआ उनका एक लेख महाराष्ट्र के स्कूलों में पाठ्यक्रम में शामिल किया गया है, जिसमें उन्होंने सभी विकलांगो में जोश भरते हुए अपने बारे में भी लिखा है।


पुणे के खड़की में सैनिक रीहैबिलिटेशन केन्द्र के सबसे पहले कमरे में आप व्हील चेयर पर फ़्लाइंग ऑफ़िसर एमपी अनिल कुमार को देख सकते हैं। उनका कमरा, उनकी व्हीलचेयर, और उनका कम्प्यूटर… यही उनकी दुनिया है, लेकिन इस छोटी सी दुनिया में बैठकर दाँतों में एक लकड़ी की स्टिक पकड़कर वे सामने टंगे की-बोर्ड पर एक-एक करके अक्षर टाइप करते जाते हैं, और उम्दा लेख, बेहतरीन सपने और जीवटता की नई मिसाल रचते जाते हैं। 28 जून 1988 को रात में लौटते समय उनका एक्सीडेण्ट हुआ था, उस दिन के बाद से वे व्हील चेयर पर ही हैं।

1980 में उन्होंने पुणे की नेशनल डिफ़ेंस एकेडमी में दाखिला लिया था। त्रिवेन्द्रम से 35 किमी दूर एक गाँव से वे भारतीय वायु सेना में फ़ाइटर पायलट बनने का सपना लिये आये हुए युवक थे। NDA की तीन वर्ष की कठिन ट्रेनिंग के बाद उनका चयन वायुसेना में एक और बेहद कठिन ट्रेनिंग के लिये हुआ, लेकिन उसे उन्होंने आसानी से हँसते-हँसते पास कर लिया।

अनिल कुमार के सहपाठी याद करते हुए कहते हैं कि “अनिल एक आलराउंडर टाइप के व्यक्ति हैं, लम्बी दौड़ के साथ ही वे एक बेहतरीन जिमनास्ट भी हैं। उन्हें NDA की ट्रेनिंग के दौरान “सिल्वर टॉर्च” का पुरस्कार मिला था, जो कि प्रत्येक नये सैनिक का सपना होता है। हैदराबाद के वायुसेना अड्डे पर उनकी पोस्टिंग हुई, और देखते ही देखते उन्होंने हवाई जहाज उड़ाना, कलाबाजियाँ दिखाना और सटीक बमबारी करना सीख लिया। जवानी के दिनों में उनकी पोस्टिंग एक बार पठानकोट के वायुसेना बेस पर भी हुई, जहाँ उनके सीनियर भी उनसे सलाह लेने में नहीं हिचकते थे। यदि 19 साल पहले वह दुर्घटना न हुई होती तो पता नहीं अनिल कुमार आज कहाँ होते, लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और एक सच्चे फ़ायटर की तरह जीवन से युद्ध किया और अब तक तो जीत ही रहे हैं।

उन्होंने अपनी विकलांगता को कैसे स्वीकार किया, कैसे उससे लड़ाई की, कैसे हिम्मत बनाये रखी आदि संस्मरणों को उन्होने एक लेख “एयरबोर्न टू चेयरबोर्न” में लिखा और उसकी लोकप्रियता ने उनके “लेखकीय कैरियर” की शुरुआत कर दी। अपने घर केरल से मीलों दूर पुणे के सैनिक अस्पताल में पहले-पहल उन्होंने दाँतों में पेन पकड़कर लिखना शुरु किया, लेकिन कम्प्यूटर के आने के बाद उन्होंने सामने की-बोर्ड लटकाकर लकड़ी की पतली डंडी से टाइप करना सीख लिया। महाराष्ट्र तथा केरल के अंग्रेजी माध्यम बोर्ड में उनका लिखा हुआ लेख पाठ्यक्रम में शामिल कर लिया गया, और इस लेख ने उनके कई-कई युवा मित्र बनवा दिये।

आज की तारीख में खड़की का यह सैनिक पुनर्वास केन्द्र ही उनका स्थायी पता बन चुका है, रोज़ाना सुबह और शाम कुछ घण्टे वे लेखन में बिताते हैं। उनके लेख मुख्यतया सेना, रक्षा मामले और वायुसेना के लड़ाकू विमानों की नई तकनीक पर आधारित होते हैं और उनके अनुभव को देखते हुए ये लेख नये सैनिकों के लिये काफ़ी लाभकारी सिद्ध होते हैं। भले ही वे किसी की मदद के बिना हिलडुल नहीं सकते, लेकिन उनका दिमाग एकदम सजग और चौकन्ना है तथा उनका लेखन भी चाक-चौबन्द। उनका मानना है कि “संकट के बादलों में भी अवसरों की चमक छिपी होती है”, इसलिये कभी भी हिम्मत न हारो, संघर्ष करो, जूझते रहो, सफ़लता अवश्य मिलेगी… “संघर्ष जितना अधिक तीखा और कठिन होगा, उसका फ़ल उतना ही मीठा मिलेगा…”।

जल्द ही उनके लेखों को संकलित करती एक पुस्तक भी प्रकाशित होने वाली है…। नववर्ष की पूर्व संध्या पर तथा आने वाले वर्ष की शुरुआत के लिये इस जाँबाज सैनिक को सेल्यूट करने से अच्छा काम भला और क्या हो सकता है…। आप उनसे सम्पर्क साध सकते हैं… पता है -

M P Anil Kumar
Paraplegic Rehabilitation Centre
Park Road
Khadki
Pune 411020
E-mail: anilmp@gmail.com

मैं मानता हूं कि देश के सामने अनगिनत समस्याएं हैं, महंगाई, भ्रष्टाचार, आतंकवाद, धर्मान्तरण, साम्प्रदायिकता, जेहादी मानसिकता, गरीबी, अशिक्षा… लेकिन जैसा कि एमपी अनिल कुमार कहते हैं… संघर्ष जितना तीखा होगा, फ़ल उतना ही मीठा होगा… तो हमें भी इस फ़ाइटर पायलट की तरह संघर्ष करना है, हिम्मत नहीं हारना है और जुटे रहना है…
जय हिन्द, जय जवान… आप सभी को अंग्रेजी नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं…

चूंकि वीर सावरकर हिन्दुत्ववादी हैं, ब्राह्मण भी हैं और उनके नाम में "गाँधी" भी नहीं, इसलिये…... Savarkar France Marcelles Hindutva

चूंकि वीर सावरकर हिन्दुत्ववादी हैं, ब्राह्मण भी हैं और उनके नाम में "गाँधी" भी नहीं, इसलिये…... Savarkar France Marcelles Hindutva

8 जुलाई 2010 को स्वातंत्र्य वीर सावरकर द्वारा अंग्रेजों के चंगुल से छूटने की कोशिश के तहत फ़्रांस के समुद्र में ऐतिहासिक छलांग लगाने को 100 वर्ष पूरे होने जा रहे हैं। भारतवासियों के इस गौरवशाली क्षण को मधुर बनाने के लिये फ़्रांस सरकार ने मार्सेल्स नगर में वीर सावरकर की मूर्ति लगाने का फ़ैसला किया था, जिसे भारत सरकार के अनुमोदन हेतु भेजा गया… ताकि इसे एक सरकारी आयोजन की तरह आयोजित किया जा सके।



लेकिन हमेशा की तरह भारत की प्रमुख राजनैतिक पार्टी कांग्रेस और उसके पिछलग्गू सेकुलरों ने इसमें अड़ंगा लगा दिया, और पिछले काफ़ी समय से फ़्रांस सरकार का यह प्रस्ताव धूल खा रहा है। इस मूर्ति को लगाने के लिये न तो फ़्रांस सरकार भारत से कोई पैसा ले रही है, न ही उस जगह की लीज़ लेने वाली है, लेकिन फ़िर भी “प्रखर हिन्दुत्व” के इस महान योद्धा को 100 साल बाद भी विदेश में कोई सम्मान न मिलने पाये, इसके लिये “सेकुलरिज़्म” के कनखजूरे अपने काम में लगे हुए हैं। विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने कहा कि “यह एक संवेदनशील मामला है…(?) और मार्सेल्स नगर के अधिकारी इस बात पर सहमत हुए हैं कि इतिहास के तथ्यों पर पुनर्विचार करने के बाद ही वे कोई अगला निर्णय लेंगे…”। (आई बात आपकी समझ में? संसद परिसर में सावरकर की आदमकद पेंटिंग लगाई जा चुकी है, लेकिन फ़्रांस में सावरकर की मूर्ति लगाने पर कांग्रेस को आपत्ति है…, इसे संवेदनशील मामला बताया जा रहा है)


(चित्र में युवा कार्यकर्ता फ़्रांस में सावरकर की मूर्ति हेतु केन्द्र सरकार के नाम ज्ञापन पर हस्ताक्षर अभियान चलाते हुए)

आपको याद होगा कि 2004 में तत्कालीन पेट्रोलियम मंत्री मणिशंकर अय्यर ने अंडमान की सेल्युलर जेल से सावरकर के कथ्यों वाली प्लेट को हटवा दिया था, और तमाम विरोधों के बावजूद उसे दोबारा नहीं लगने दिया। मणिशंकर अय्यर का कहना था कि सावरकर की अंग्रेजों के खिलाफ़ लड़ाई संदिग्ध है तथा गाँधी की हत्या में उनका हाथ है, इसलिये पोर्ट ब्लेयर के इस ऐतिहासिक स्मारक से सावरकर की यह पट्टी हटाई गई है (यह वही मणिशंकर अय्यर हैं जो 1962 के चीन युद्ध के समय चीन के पक्ष में इंग्लैण्ड में चन्दा एकत्रित कर रहे थे, और कहने को कांग्रेसी, लेकिन दिल से “कमीनिस्ट” मणिशंकर अय्यर… प्रकाश करात, एन राम और प्रणय रॉय के खास मित्रों में से हैं, जो अंग्रेजी में सोचते हैं, अंग्रेजी में ही लिखते-बोलते-खाते-पीते हैं)।

सावरकर के अपमान जैसे दुष्कृत्य के बदले में मणिशंकर अय्यर को देशप्रेमियों और राष्ट्रवादियों के दिल से निकली ऐसी “हाय और बद-दुआ” लगी, कि पहले पेट्रोलियम मंत्रालय छिना, ग्रामीण विकास मंत्रालय मिला, फ़िर उसमें भी सारे अधिकार छीनकर पंचायत का काम देखने का ही अधिकार बचा, अन्त में वह भी चला गया। 2009 के आम चुनाव में टिकट के लिये करुणानिधि के आगे नाक रगड़नी पड़ी, बड़ी मुश्किल से धांधली करके चन्द वोटों से चुनाव जीते और अब बेचारे संसद में पीछे की बेंच पर बैठते हैं और कोशिश में लगे रहते हैं कि किसी तरह उनके “मालिक” यानी राहुल गाँधी की नज़रे-इनायत उन पर हो जाये।

http://www.hindustantimes.com/rssfeed/newdelhi/Govt-against-Hindutva-icon-s-statue-coming-up-in-France/Article1-516015.aspx

वीर सावरकर पर अक्सर आरोप लगते हैं कि उन्होंने अंग्रेजों से माफ़ी माँग ली थी और जेल से रिहा करने के बदले में अंग्रेजों के खिलाफ़ न लड़ने का “अलिखित वचन” दे दिया था, जबकि यह सच नहीं है। सावरकर ने 1911 और 1913 में दो बार “स्वास्थ्य कारणों” से उन्हें रिहा करने की अपील की थी, जो अंग्रेजों द्वारा ठुकरा दी गई। यहाँ तक कि गाँधी, पटेल और तिलक की अर्जियों को भी अंग्रेजों ने कोई तवज्जो नहीं दी, क्योंकि अंग्रेज जानते थे कि यदि अस्वस्थ सावरकर भी जेल से बाहर आये तो मुश्किल खड़ी कर देंगे। जबकि सावरकर जानते थे कि यदि वे बाहर नहीं आये तो उन्हें “काला पानी” में ही तड़पा-तड़पाकर मार दिया जायेगा और उनके विचार आगे नहीं बढ़ेंगे। इसलिये सावरकर की “माफ़ी की अर्जी” एक शातिर चाल थी, ठीक वैसी ही चाल जैसी आगरा जेल से शिवाजी ने औरंगज़ेब को मूर्ख बनाकर चली थी। क्योंकि रिहाई के तुरन्त बाद सावरकर ने 23 जनवरी 1924 को “हिन्दू संस्कृति और सभ्यता के रक्षण के नाम पर” रत्नागिरी हिन्दू सभा का गठन किया और फ़िर से अपना “मूल काम” करने लगे थे।

तात्पर्य यह कि उन्होंने कभी भी अंग्रेजों के सामने “दिल-दिमाग” से समर्पण नहीं किया था, वहीं हमारे “ईमानदार बाबू” हैं जो ऑक्सफ़ोर्ड में जाकर ब्रिटिश राज की तारीफ़ कर आये… या फ़िर “मोम की गुड़िया” हैं जो “राष्ट्रमण्डल के गुलामों हेतु बने खेलों” में अरबों रुपया फ़ूंकने की खातिर, इंग्लैण्ड जाकर “महारानी” के हाथों बेटन पाकर धन्य-धन्य हुईं।

उल्लेखनीय है कि सावरकर को दो-दो आजीवन कारावास की सजा दी गई थी, सावरकर ने अण्डमान की सेलुलर जेल में कई वर्ष काटे। किसी भी सामान्य व्यक्ति की मानसिक हिम्मत और शारीरिक ताकत जवाब दे जाये, ऐसी कठिन परिस्थिति में उन्हें रहना पड़ा, उन्हें बैल की जगह जोतकर कोल्हू से तेल निकलवाया जाता था, खाने को सिर्फ़ इतना ही दिया जाता था कि वे जिन्दा रह सकें, लेकिन फ़िर भी स्वतन्त्रता आंदोलन का यह बहादुर योद्धा डटा रहा।

सावरकर के इस अथक स्वतन्त्रता संग्राम और जेल के रोंगटे खड़े कर देने वाले विवरण पढ़ने के बाद एक-दो सवाल मेरे मन में उठते हैं –

1) नेहरु की “पिकनिकनुमा” जेलयात्राओं की तुलना, अगर हम सावरकर की कठिन जेल परिस्थितियों से करें… तो स्वाभाविक रुप से सवाल उठता है कि यदि “मुँह में चांदी का चम्मच लिये हुए सुकुमार राजपुत्र” यानी “नेहरु” को सिर्फ़ एक साल के लिये अण्डमान की जेल में रखकर अंग्रेजों द्वारा उनके “पिछवाड़े के चमड़े” तोड़े जाते, तो क्या तब भी उनमें अंग्रेजों से लड़ने का माद्दा बचा रहता? क्या तब भी नेहरु, लेडी माउण्टबेटन से इश्क लड़ाते? असल में अंग्रेज शासक नेहरु और गाँधी के खिलाफ़ कुछ ज्यादा ही “सॉफ़्ट” थे, क्योंकि उन्हें लगता था कि ये तो “अपना ही आदमी” है? [मैकाले की शिक्षा पद्धति और लुटेरी “आईसीएस” (अब IAS) की व्यवस्था को ज्यों का त्यों बरकरार रखने वाले नेहरु ही थे]

2) दूसरा लेकिन सबसे महत्वपूर्ण सवाल उठता है कि यदि सावरकर हिन्दू ब्राह्मण की बजाय, दलित-OBC या मुस्लिम होते तो क्या होता? शायद तब मायावती पूरे उत्तरप्रदेश में खुद ही उनकी मूर्तियाँ लगवाती फ़िरतीं, या फ़िर कांग्रेस भी “गाँधी परिवार” के अलावा किसी स्टेडियम, सड़क, नगर, पुल, कालोनी, संस्थान, पुरस्कार आदि का नाम सावरकर के नाम पर रख सकती थी,

लेकिन दुर्भाग्य से सावरकर ब्राह्मण थे, गाँधी परिवार से सम्बन्धित भी नहीं थे, और ऊपर से “हिन्दुत्व” के पैरोकार भी थे… यानी तीनों “माइनस” पॉइंट… ऐसे में उनकी उपेक्षा, अपमान होना स्वाभाविक बात है, मूर्ति वगैरह लगना तो दूर रहा…
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नोट : मूर्ति लगाने सम्बन्धी फ़्रांस के प्रस्ताव पर “ऊपर वर्णित यथास्थिति” फ़रवरी 2010 तक की है, इस तिथि के बाद इस मामले में आगे क्या हुआ, अनुमति मिली या नहीं… इस बारे में ताज़ा जानकारी नहीं है…। लेकिन पोस्ट का मूल मुद्दा है, स्वतन्त्रता संग्राम सेनानियों के अपमान और एक “परिवार” की चमचागिरी में किसी भी स्तर तक गिर जाने का। 

लोकतन्त्र खतरे में??? - वोटिंग मशीन, उसकी वैधता और हैकिंग से सम्बन्धित शानदार पुस्तक… EVM Hacking, Elections in India, Indian Democracy.SURESH CHIPLANKAR


गत लोकसभा चुनावों के बाद से ही कांग्रेस को छोड़कर बाकी सभी राजनैतिक दलों के मन में इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीनों को लेकर एक संशय है। इस विषय पर काफ़ी कुछ लिखा भी जा चुका है और विद्वानों और सॉफ़्टवेयर इंजीनियरों ने समय-समय पर विभिन्न इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों के मॉडलों पर प्रयोग करके यह साबित किया है कि वोटिंग मशीनों को आसानी से "हैक" किया जा सकता है, अर्थात इनके परिणामों से छेड़छाड़ और इनमें बदलाव किया जा सकता है (अब चुनाव आयोग भी मान गया है कि छेड़छाड़ सम्भव है)। आम जनता को इन मशीनों के बारे में, इनके उपयोग के बारे में, इनमें निहित खतरों के बारे में अधिक जानकारी नहीं है, इसलिये हाल ही में प्रसिद्ध चुनाव विश्लेषक, शोधक और राजनैतिक लेखक श्री जीवीएल नरसिम्हाराव ने इस बारे में विस्तार से एक पुस्तक लिखी है… "डेमोक्रेसी एट रिस्क…"। इस पुस्तक की प्रस्तावना श्री लालकृष्ण आडवाणी और चन्द्रबाबू नायडू ने लिखी है, तथा दूसरी प्रस्तावना स्टेनफ़ोर्ड विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर डेविड डिल द्वारा लिखी गई है।



इस पुस्तक में 16 छोटे-छोटे अध्याय हैं जिसमें भारतीय इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीनों के बारे में जानकारी दी गई है। शुरुआत में बताया गया है कि किस तरह इन मशीनों को अमेरिका और जर्मनी जैसे विकसित देशों में उपयोग में लाया गया, लेकिन लगातार आलोचनाओं और न्यूनतम सुरक्षा मानकों पर खरी न उतरने की वजह से उन्हें काबिल नहीं समझा गया। कई चुनावी विवादों में इन मशीनों की निष्पक्षता और पारदर्शिता पर सवाल उठे, और अन्ततः लम्बी बहस के बाद अमेरिका, जर्मनी, हॉलैण्ड, आयरलैण्ड आदि देशों में यह तय किया गया कि प्रत्येक मतदाता द्वारा दिये गये वोट का भौतिक सत्यापन होना जरूरी है, इलेक्ट्रॉनिक सत्यापन भरोसेमन्द नहीं है। अमेरिका के 50 में से 32 राज्यों ने पुनः कागजी मतपत्र की व्यवस्था से ही चुनाव करवाना शुरु कर दिया।
जबकि इधर भारत में, चुनाव आयोग सतत इस बात का प्रचार करता रहा कि इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनें पूर्णतः सुरक्षित और पारदर्शी हैं तथा इनमें कोई छेड़छाड़ नहीं की जा सकती। कई पाठकों को यह पता नहीं होगा कि वोटिंग मशीनों की निर्माता कम्पनियों BEL (भारत इलेक्ट्रॉनिक लिमिटेड) और ECIL (इलेक्ट्रॉनिक्स कार्पोरेशन ऑफ़ इंडिया लिमिटेड) ने EVM के माइक्रोचिप में किये जाने वाले सीक्रेट सोर्स कोड (Secret Source Code) का काम विदेशी कम्पनियों को आउटसोर्स किया। लेखक ने सवाल उठाया है कि जब हमारे देश में ही योग्य और प्रतिभावान सॉफ़्टवेयर इंजीनियर हैं तो यह महत्वपूर्ण काम आउटसोर्स क्यों किया गया?

सूचना के अधिकार के तहत श्री वीवी राव को सरकार द्वारा दी गई जानकारी के पृष्ठ क्रमांक 33 के अनुसार "देश की 13.78 लाख वोटिंग मशीनों में से 9.30 मशीनें पुरानी हैं, जबकि 4.48 लाख मशीनें नई हैं। पुरानी मशीनों में हेराफ़ेरी की अधिक सम्भावनाओं को देखते हुए याचिकाकर्ता ने जानना चाहा कि इन मशीनों को किन-किन राज्यों की कौन-कौन सी लोकसभा सीटों पर उपयोग किया गया, लेकिन आज तक उन्हें इसका जवाब नहीं मिला। यहाँ तक कि चुनाव आयोग ने उन्हीं के द्वारा गठित समिति की सिफ़ारिशों को दरकिनार करते हुए लोकसभा चुनावों में इन मशीनों को उपयोग करने का फ़ैसला कर लिया। जब 16 मई 2009 को लोकसभा के नतीजे आये तो सभी विपक्षी राजनैतिक दल स्तब्ध रह गये थे और उसी समय से इन मशीनों पर प्रश्न चिन्ह लगने शुरु हो गये थे।

पुस्तक के अध्याय 4 में लेखक ने EVM की कई असामान्य गतिविधियों के बारे में बताया है। अध्याय 5 में बताया गया है कि कुछ राजनैतिक पार्टियों से "इलेक्ट्रॉनिक फ़िक्सरों" ने उनके पक्ष में फ़िक्सिंग हेतु भारी राशि की माँग की। बाद में लेखक ने विभिन्न उदाहरण देकर बताया है कि किस तरह चुनाव आयोग ने भारतीय आईटी विशेषज्ञों द्वारा मशीनों में हेराफ़ेरी सिद्ध करने के लिये किये जाने वाले प्रयोगों में अडंगे लगाने की कोशिशें की। इन मशीनों की वैधता, पारदर्शिता और भारतीय परिवेश और "भारतीय चुनावी वातावरण" में उपयोग को लेकर मामला न्यायालय में चल रहा है। पाठकों की जानकारी के लिये उन्हें इस पुस्तक को अवश्य पढ़ना चाहिये, यह पुस्तक अपने-आप में इकलौती है, क्योंकि ऐसे महत्वपूर्ण विषय पर सारी सामग्री एक साथ एक ही जगह पढ़ने को मिलती है। पुस्तक के प्रिण्ट फ़ॉर्मेट को मंगवाने के लिये निम्न पते पर सम्पर्क करें…


जबकि इस पुस्तक को सीधे मुफ़्त में http://indianevm.com से डाउनलोड किया जा सकता है…(सिर्फ़ 1.38 MB)। इसी वेबसाइट पर आपको EVM से सम्बन्धित सभी आँकड़े, तथ्य और नेताओं और विशेषज्ञों के बयान आदि पढ़ने को मिल जायेंगे।

कांग्रेस समर्थकों, भाजपा विरोधियों और तटस्थों सभी से अपील है कि इस पुस्तक को अवश्य पढ़ें, ताकि दिमाग के जाले साफ़ हो सकें, और साथ ही इन प्रश्नों के उत्तर अवश्य खोजकर रखियेगा -

1) इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों में वोट देने के बाद क्या आप दावे से कह सकते हैं कि आपका वोट उसी पार्टी के खाते में गया जिसे आपने वोट दिया था? यदि आपको विश्वास है, तो इसका सबूत क्या है?

2) कागजी मतपत्र पर तो आप अपने हाथ से अपनी आँखों के सामने मतपत्र पर सील लगाते हैं, जबकि EVM में क्या सिर्फ़ पंजे या कमल पर बटन दबाने और "पीं" की आवाज़ से ही आपने कैसे मान लिया कि आपका वोट दिया जा चुका है? जबकि हैकर्स इस बात को सिद्ध कर चुके हैं कि मशीन को इस प्रकार प्रोग्राम किया जा सकता है, कि "हर तीसरा या चौथा वोट" "किसी एक खास पार्टी" के खाते में ही जाये, ताकि कोई गड़बड़ी का आरोप भी न लगा सके।

3) वोट देने के सिर्फ़ 1-2 माह बाद यदि किसी कारणवश यह पता करना हो कि किस मतदाता ने किस पार्टी को वोट दिया था, तो यह कैसे होगा? जबकि आपके वोट का कोई प्रिण्ट रिकॉर्ड ही मौजूद नहीं है।

4) अमेरिका, जर्मनी, हॉलैण्ड जैसे तकनीकी रुप से समृद्ध और विकसित देश इन मशीनों को चुनाव सिस्टम से बाहर क्यों कर चुके हैं?

अतः अब समय आ गया है कि इन मशीनों के उपयोग पर पुनर्विचार किया जाये तथा 2009 के लोकसभा चुनावों को तत्काल प्रभाव से दोबारा करवाया जाये…

मछली जल की रानी है,


मछली जल की रानी है,
जीवन उसका पानी है।
हाथ लगाओ डर जायेगी
बाहर निकालो मर जायेगी।

पोशम्पा भाई पोशम्पा,
सौ रुपये की घडी चुराई।
अब तो जेल मे जाना पडेगा,                                          
जेल की रोटी खानी पडेगी,                                                                              
जेल का पानी पीना पडेगा।

झूठ बोलना पाप है,
नदी किनारे सांप है।
काली माई आयेगी,
तुमको उठा ले जायेगी।

आज सोमवार है,
चूहे को बुखार है।
चूहा गया डाक्टर के पास,
डाक्टर ने लगायी सुई,
चूहा बोला उईईईईई।

आलू-कचालू बेटा कहा गये थे,
बन्दर की झोपडी मे सो रहे थे।
बन्दर ने लात मारी रो रहे थे,
मम्मी ने पैसे दिये हंस रहे थे।

तितली उडी, बस मे चढी।
सीट ना मिली,तो रोने लगी।।
driver बोला आजा मेरे पास,
तितली बोली " हट बदमाश "।

चन्दा मामा दूर के,
पूए पकाये भूर के।
आप खाएं थाली मे,
मुन्ने को दे प्याली मे।


जब विद्यासागर जी ने चप्पल फेंकी

जब विद्यासागर जी ने चप्पल फेंकी फिर एक चप्पल चली। रोज ही कहीं ना कहीं यह पदत्राण थलचर हाथों में आ कर नभचर बन अपने गंत्वय की ओर जाने क...