Thursday, November 24, 2016

फर्जी पायलट बनाने वाली हिसार हवार्इपटटी से कालेधन का खेल

हरियाणा का हिसार हवार्इअडडा यूं तो छोटी सी हवार्इपटटी है लेकिन बदनामी में इसका नाम सबसे बडा है.फिर चाहे फर्जी पायलट तैयार करने का मामला हो या फिर अब काले धन की हेराफेरी का.शांंत पडा रहने वाला हिसार का हवार्इअडडा प्रधानमंत्री मोदी के नोट बंद की घोषणा के बाद सबसे ज्यादा चार्टर विमान संचालित करने वाला हवार्इअडडा बन गया.सूत्रों से मिली जानकारी के अनुसार यहां से हर दिन दो से तीन उडान हुर्इ है आैर वह भी सिर्फ पूर्वोत्तर राज्यों के लिए.

कालाधान खापने का काला खेल
दरअसल पूर्वोत्तर राज्याें कर्इ जनजातियों को हर प्रकार के आयकर प्रावधान से छुट मिली हुर्इ है.कोर्इ भी आयकर के दायरे में नहीं आता है आैर न ही कोर्इ कानून लागू होता है.अब इसी गलियारे को चोरटाइप के चाटर्ड एकाउंटेंटस ने कालाधान का गलियारा बना डाला. नोट बंद की घोषणा के बाद एक के बाद एक चाटर्ड विमान दीमापुर पहुंचने लगे.

तीन करोड ने बिगडा खेल

इसी दौरान साढे तीन करोड रूपए पकडे गए आैर फिर रहस्मय तरीके से गायब भी हुए आैर अब फिर मिल गए हैं लेकिन इस छानबीन के दौरान जो चौंकाने वाली जानकारी आयकर अधिकारियों के सामने आर्इ उसने होश उडा दिए.आननफानन में चाटर्ड विमानों के रूट परमिशन डीजीसीए आैर एटीसी से मांगए गए आैर अब सभी उडानों की जांच शुरू हो गर्इ है.

शादी विवाह के बहाने खप रहे नोट

आयकर विभाग से जुडे एक अधिकारी का कहना है कि नोट खपाने के लिए करोडपति परिवारों ने शादी का बहाने भी उपयोग किया है.एक राज्य जिसमें सबसे ज्यादा शादियों होती है.अब वह भी दायरे में है.शादी में परिवार को लाने ले जाने के बहाने रकमो की भी हेराफेरी हुर्इ है;

इन राज्यों में है छूट
लददाख
मिजोरम
असम
मेघालय
मणिपुर
नागलैंड
त्रिपुरा
अरुणाचल प्रदेश

Thursday, November 10, 2016

उत्तर प्रदेश की त्रिशंकु विधानसभा की बिछती चौसर


उत्तर प्रदेश में सर्द की दस्तक के साथ चुनावी चौसर ने सरगर्मी बढ गर्इ है.राजनीति गलियारे भरे हुए हैं आैर बाहरी तापमान भले ही २४ हो लेकिन पार्टी मुख्यालयों के तापमान पर मर्इ का मौसम हावी है.चुनावी चौसर की बिछ रही बिसात में सभी अपनी मोहरें बिछने व्यस्त हैं.कोर्इ टिकट के लिए लाइन लगा रहा है तो कोर्इ मुख्यमंत्री पद का सपना संजाेए हैं.इस बिछती हुर्इ बिसात में मन किया की सबके दिल की हालत देखी जाए.चुनावी कबडडी में एक बार फिर से ताल ठोंकी जाए.मुलायम के दांव की मायावती के बिसात की आैर भाजपा के चार की आैर कांग्रेस के कमाल की चर्चा की जाए.फिर चार दिन का यह दृश्य हमें नजर आया.
भाजपा का पलडा फिलहाल भारी है.पिछले चुनाव में दूसरे तीसरे आैर चौथे नंबर पर रहे कर्इ प्रत्याशी पहले से ही भाजपा का दामन थाम चुके हैं. बाकी एक नंबर पर विजय पाने वाले भी टिकट के लिए लाइन में हैं. इतिहास गवाह है कि टिकट बंटने में जब जिस पार्टी में हंगामा हो तो वह जीत रही है.
लखनउ, बाराबंकी, फैजाबाद, बस्ती, कुशीनगर, गोरखपुर, गाेंडा, बहराइच, सुल्तानपुर, उन्नाव, अकबरपुर, कानपुर का कमोवेश यही हाल है.मतदाता यूं तो किसी से खुश नहीं है लेकिन यह भी सोच रहा कि एक बार मायावती आैर फिर मुलायम के बाद अब क्यों न उत्तर प्रदेश में भगवा रंग को भी देख लिया जाए.
बसपा पर इस बार मुस्लिम प्रत्याशी की होड लगी है अगर एेसा रहा है तो २९ प्रतिशत के वोट से मुख्यमंत्री तय करने वाले इस प्रदेश में मायावती का पलडा भारी है यह एसी आैर मुस्लिम को वोट प्रतिशत ३५ पार कर जाएगा खास बात यह है कि यह वर्ग वोट डालने के लिए जाने वाला वर्ग है.हालांकि कुर्सी पर कब्जा दिलाने वाले पंडित जी इस बार गायब हैं.
सपा के लिए खतरे की घंटी परिवार से ही नहीं समाज से भी बजी है.मुस्लिम यादव की गठजोड में ठाकुर साहब के ताव पर सवार होकर मुख्यमंत्री की कुर्सी पर काबिज सपा से मुस्लिम सटक रहा है.ठाकुर साहब भी खासे प्रभावित नहीं हैं इस बार आजम के बजाय नसीमुदृदीन सिदृकी चल रहे हैं.यादव जी की वजह से अन्य आेबीसी पहले ही झटका दे रहे हैं फिर चाहे वह पटेल लाबी हो यह फिर मौर्या
कांग्रेस २००९ के लोकसभा चुनाव में कमाल करने वाली कांग्रेस को इस प्रत्याशी भी मिलते नहीं दिखार्इ दे रहे हैं.जिलों के जिलाध्यक्ष ही पोस्टर बैनर चिपका कर दिल पर मरहम लगा रहे हैं.करीब चार दिनों में ९०० किलोमीटर की यात्रा में कांग्रेस के एक दो पोस्टर के अलावा दिवाली आैर छठ की बधार्इ का भी बैनर दिखार्इ नहीं दिया.
अंत में उत्तर प्रदेश की राजनीति में खेल बनाने बिगडने का काम पीस पार्टी,पटेल पार्टी, हैदराबाद वाली पार्टी आैर राजा भैया की एकल पार्टी सहित अन्य पार्टियां करेंगी.

चलते-चलते---नोट के सर्जिकल स्टाराइक ने भाजपा को आैर मजबूत कर दिया है मोदी का यह फैसला वोटरों को खासा लुभा रहा है एेसे में अगर भाजपा का प्रचार तंत्र बेहतर रहा आैर स्थानीय स्तर पर आेम माथुर सही प्रत्याशी चुन पाए तो भाजपा चुनाव जीत जाएगी वरना विधानसभा त्रिशंकु हो जाएगी.एेसे में अपनी जगह बचाने के लिए तीनों पार्टी गठबंधन कर सकती हैं क्यों कि सभी का मकसद एक है कि किसी भी तरह भाजपा की सत्ता को रोका जाए.

Sunday, October 16, 2016

कहीं फिर न हो कंधार कांड, परोसे जा रहे चाकू-कांटे

जयपुर. सीमा पार कर हुई सर्जिकल स्ट्राइक के बाद देश की सीमा सहित देश के सभी हवाईअड्डे अलर्ट पर हैं। तो दूसरी तरफ विमानन कंपनियां सुरक्षा में चूक कर रही हैं। हवाईअड्डे पर जांच में नोंकदार या फिर ब्लेड तक रखवा लेने वाली सुरक्षा के बावजूद विमान में ही स्टील का चाकू और काफी नोंकदार कांटे परोसे जा रहे हैं। वह भी एयर इंडिया की उड़ान में जो कि १९९९ में अपने विमान आईसी ८१४ का अपहरण झेल चुका हैं। उस समय एयर इंडिया की अंतरराष्ट्रीय सेवा को इंडियन एयरलाइंस के नाम से जाना जाता था। 
विमानों में यह है प्रतिबंधित 
नागर विमानन सुरक्षा ब्यूरो (बीसीएएस)ने साफ तौर पर ७२ सामान की सीधी लिस्ट जारी की है। इन सभी को विमान में नहीं ले जाया जा सकता है। इसमें चाकू भी शामिल है। इसमें साफ है कि प्लास्टिक कटलरी में भी चाकू के लिए साफ माना किया गया है। हालांकि प्लास्टिक कटलरी में भी कई विमानन कंपनियां इसका इस्तेमाल कर रही हैं। इसके अलावा इसमें अन्य नुकली वस्तुएं भी शामिल हैं। इसके अनुसार स्टीनलेस स्टील का कांटा भी प्रयोग नहीं किया जा सकता है। क्या था कंधार कांड?
२४ दिसंबर १९९९ को  काठमांडू हवाईअड्डे से इंडियन एयरलाइंस के विमान आईसी ८१४ को छह आतंकवादियों ने हथियार के दम पर अपहरण कर लिया था।  उड़ान के बाद विमान का अपहरण कर कंधार ले जाया गया था। इसमें १८९ यात्री सवार थे। इस मामले में आतंकी मसूद अजहर, मुश्ताक अहमद और अहमद उमर शेख को छोडऩा पड़ा था।

Monday, May 16, 2016

"क्लासमेट" से "क़त्ल" तक के सफ़र में राजदेव और शहाबुद्दीन




पटना। ऐसे "कलम के सिपाही" बड़े ही विरले ही होते है जो अपने "जीवन पर छाये मौत के साये" के बावजूद सच के खातिर बेधड़क बेलाग बेख़ौफ़ होकर लिखते रहते है। धन दौलत और तमाम प्रलोभवनो के बावजूद राजदेव " सच की शम्मा" जलाते रहे।                      
 दिवंगत पत्रकार राजदेव रंजन के बारे कहा जा सकता है कि वह एक व्यवहार कुशल, कलम से समझौता करने से कोसों दूर एक निडर पत्रकार और एक सम्मानित बैनर के सहारे " सच को सच" कहने वाले पत्रकार थे। एक ही इलाके एक ही परिवेश में पीला बढे शहाबुद्दीन और राजदेव एक दूर से परिचित थे। साथ ही वक्त के बदलते दौर में दोनों दो अलग अलग राहो पर चल निकले।लेकिन एक दौर वो भी आया जब वो और शहाबुद्दीन के क्लास मेट भी रहे। दोनो ने एस साथ पीजी किया था।इसी की वजह से इलाके में माना जाता था कि वह सांसद के करीब होंगे लेकिन उनकी कालान्तर में उनकी धारदार और ईमानदार लेखनी ऐसा समझने की इजाजत नहीं देती थी। पत्रकारिता की में कलम की धार और प्रखर करते हुए राजदेव अपनी पढाई भी जारी रखे हुए थे। अपनी अपराध से जुडी रिपोर्टिंग को और सशक्त करने के खातिर वकालत की भी डिग्री ली थी राजदेव ने। इसी का असर था की वो कानून की बारीकियों को समझते हुए अपराध की खबरों की हर बारीकी को तह दर तह उधेड़ कर रख देते थे।                       
 सिवान की जमीनी हक़ीक़त के हर  उस सच से राजदेव ने अखबार के माध्य से उजागर किया और मार दिए जाने तक करते रहे। उनकी कलम ने हर उस सच को सच लिखा हर उस सियासी उत्पात से लोगो को रूबरू कराया बिना किसी हिचक के। उस वक्त भी राजदेव नहीं डरे जब "सिवान की फिज़ा" साहब के अलावा कोई और शब्द नहीं उड़ा करता था।                          
राजदेव रंजन ने सीवान में पिछले 24 सालों पत्रकारिता कर रहे थे। इस सच से भी आगत थे की वो विगत 9 सालों से अपराधियों के निशाने पर थे। यही कारण रहा है कि एक बार उनके दफ्तर पर भी अपराधियों ने उन पर हमला बोला था। राजदेव पर  2005 में भी उनके दफ्तर पर हमला हुआ था। राजदेव रंजन के सहयोगी रहे दुर्गाकांत उस समय उनके मौजूद थे। यह हमला अक्तूबर 2005 में हुआ था। रात आठ बजे के करीब कुछ लोगों ने ऑफिस के बाहर से राजदेव को आवाज देकर बाहर बुलाया और धमकाने के बाद बुरी तरह से पीटा था।लेकिन तब संयोगवश राजदेव को ज्यादा चोटे नहीं आई थी, क्योकि आस पास के लोगो के जुट जाने से हमलावर भाग गए थे। इसके बाद भी राजदेव ने अपने जीवन पर आफत आने के बाद भी सच को सच कहने वाली निर्भीक पत्रकारिता को जिंदा रखा था।                                                     
अपने जीवन पर अपराधियों की गिद्ध दृष्टि होने से राजदेव हमेशा से अवगत रहे थे। सीवान पुलिस को 2007 में ही पुलिस की स्पेशल ब्रांच ने जिले के 24 लोगों की जान को खतरा होने का इनपुट दिया था।इसकी जानकारी जिले के पुलिस कप्तान को भी दी गई थी।अपराधियो की इस हिटलिस्ट में राजदेव का भी नाम था। उस वक्त की जानकारी के मुताबिक तब सीवान जेल से ही 24 लोगों के नाम डेथ वारंट की लिस्ट जारी की गई थी। राजदेव के साथ काम करने वाले लोग भी बताते हैं कि सच को सच कहने की जुनूनी रिपोर्टिंग के कारण भी राजदेव को कई बार सीवान जेल से धमकी मिल चुकी थी। फिर भी निडर राजदेव न डरे न झुके न टूटे।                       
90 के दशक में शहाबुद्दीन ने बाहुबल और सियासत का कॉकटेल तैयार कर देश के प्रथम राष्ट्रपति की जन्मस्थली जीरादेई से बतौर निर्दलीय चुनाव लड़ा और सफल भी रहे। ये दौर बिहारमे लालू यादव के सियासी उत्कर्ष का था। जीरादेई से मिली शहाबु की जीत ने लालू का ध्यान इस युवा तुर्क की ओर गया। फिर क्या था लालू के ऑफर को लपकते हुए शहाबुद्दीन ने सिवान के साहब की पदवी पा ली। फिर  आया वो दौर जब सांसद बन बैठे शहाबुद्दीन ने सिवान की धड़कनो पर भी अपनी हुकुमत कायम कर ली। दौर ऐसा भी आया जब बिहार पुलिस और साहब की फ़ौज प्रतापपुर गाँव में भीड़ गई। दोनों तरफ से कई लोग वीरगति को प्राप्त हुए। जिस तरह के अत्याधुनिक हथियारों का प्रयोग राजद सांसद के गुर्गो ने किया बिहार कुलिस समेत सभी सुरक्षा एजेंसियों के होश पूड गए।                  
अब बारी सरकार की थी। बात 2005 की है। फरवरी का विधान सभा चुनाव शुरू होने ही वाला था। दस फरवरी को चुनाव आयोग के निर्देश पर जिले में नए डीएम और बारह फरवरी को नए एसपी की पोस्टिंग सीवान में हुयी। डीएम सीके अनिल ने दस फरवरी को फर्स्ट हाफ में ही अपनी ज्वाइनिंग दी और अपने कंफिडेंशियल रूम में कैद हो गये। किसी से मुलाकात नहीं की सिवाय मण्डल कारा सिवान के जेल अधीक्षक के। कानून की सारी बारीकियों को दिन भर में सीके अनिल ने खंगाल डाला और दूसरे दिन ग्यारह फरवरी की रात बाहुबली राजद सांसद मो. शहाबुद्दीन को आदर्श कारा पटना भेज दिया। यह सब इतनी खामोशी से हुआ कि मीडिया को भी इसकी जानकारी 12 फरवरी को ही हुयी। बहरहाल, उसी दिन  नये एसपी रत्न संजय ने भी अपनी ज्वाइनिंग दे दी थी। इन दोनो अधिकारियों का जलवा ऐसा ही था जो सीवान की लगभग हर जरूरत पूरी करता रहा और इसका असर यह हुआ 10 फरवरी के पहले तक जिसका नाम जिले के तीस-बत्तीस लाख की आबादी की जुबान पर दहशतगर्द के रूप में आता था उसे बदलने में जरा भी देर नहीं लगी। विधि-व्यवस्था पूरी तरह नियंत्रण में और राजद के बाहुबली सांसद मो. शहाबुद्दीन के सारे गुर्गे भूमिगत। लेकिन सभी देश के चार कोनो में छिपे हुए। यह इकबाल था सिवान जिला प्रशासन का। चुनाव परिणाम जो भी रहे, मुख्य विशेषता लॉ एण्ड आर्डर थी और लोग राहत की सांस ले रहे थे। इस दौर में भी राजदेव की रिपोर्ट में हर उस सच को लिखा जो पुरे देश के लोगो ने पढ़ा।                 
 इन सालो में खौफ़ और उपद्रव की।कहानियों ने एक नए क्षितिज को छु लिया था। सीवान की सामाजिक केमिस्ट्री बिलकुल ख़त्म हो गई थी।प्रशासन का इकबाल लौटते ही शहर और जिले की समरसता लौटी। बुद्दीजीवि व्र्ग के सहयोग से बेशक उसमे सुधार लाने का काम वहां की मीडिया ने किया और उसमे राजदेव रंजन की महती भूमिका रही थी। सीवान ने बहुत कुछ खोया है और उस सूची में राजदेव रंजन का भी नाम शुमार होगा, शायद इसकी कल्पना किसी ने नहीं की होगी। पर अब यही सच है। बिहार सरकार ने इस हत्याकांड की जांच सीबीआई को सौपने की अनुशंसा कर दी है। उम्मीद है कि इस सच के चितेरे की हत्यारों को कानून सजा भी देगा। लेकिन ये भी एक जाते जाते भी राजदेव बता गए की " सच की राह बलिदान " मागती है। -

यह नंबर की माला नहीं, मौत का नंबर है

आर्इएएस से लेकर दसवीं तक के परिणामों की घोषणा हर छात्र आैर छात्राआें को उसके पढार्इ का पैगाम लेकर आ रही है. हर जगह उल्लास दिख रहा है मीडिया में भी नुमार्इश जारी है.बडा अच्छा लग रहा है देखकर फलां टाॅपर है आैर माला पहने एक अखबार से दूसरे अखबार के कार्यालय फोटो खींचाने के लिए घूम रहा है लेकिन बडा अचंभा होता है कि कोटा से खबर आती है की फलां लडकी ९२ प्रतिशत अंक लार्इ थी लेकिन फिर भी ९८ प्रतिशत अंक नहीं लाने के कारण फंदे से झूलग गर्इ
मां-बाप या फिर सामाजिक प्राणियों द्वारा डाली गर्इ यह मालाएं नंबर लाने की खुशी कम बल्कि उनके मां बाप के शौर्य का भौडा प्रदर्शन है.इसी की बेदी पर चढकर आगे इन्हीं छात्रों में से कुछ छात्र आत्महत्या कर लेते हैं.छोटे-छोटे बच्चे हाथों में मिठार्इ का डब्बा लिए अखबार के दफतरों में मिठार्इ खिला रहे हैं मां बाप अपनी अपेक्षाआें को बढाए ही जा रहे हैं.यह मालाएं खुशी के बोध से ज्यादा अपेक्षाआें का नया फंदा बनकर उभरने जा रही हैं जो हर समय टीस देंगी की हम ही हैं चाहे कुछ भी हो.अच्छी बात है जब सब नैर्सिगक हो लेकर सब का सब बनावटी है
गले में लटक रही मालाएं मां बाप की अपेक्षाआें का नया फंदा है आैर मीडिया में लिए नया धंधा जो कि पिछले कुछ वर्षों में कोचिंग संस्थानों के उगने के साथ आया है; यह विज्ञापन तो वसूल करता है लेकिन बचपन छीन कर. मानव संसाधन मंत्री रहे कपिल सिब्बल ने नंबर खत्म करने के लिए ग्रेड प्रणाली लागू तो की लेकिन अभी तक वह लागू सही तरीके से नहीं हो पार्इ है
नंबर का यह खेल हर साल मासूमों की आत्महत्या का नंबर बढा रहा है.मीडिया का चेहरा दिखाने का यह धंधा बहुत सारे मासूमों के गले का फंदा बन रहा है. मीडिया हीरो बनाता है लेकिन अगर हीरो नसरूदीन शाह जैसा नैर्सिक हो तो अच्छा रहता है वरना तो माॅडलिंग वाले हीरो की तरह हालत होती है कि कुछ समय बात साबुन का विज्ञापन मिलाना भी बंद हो जाता है.
हम इस बात से भी इत्तेफाक रखते हैं कि इस बात के दूसरे तर्क आैर पहलू भी हैं लेकिन मौत की माला के इस पहलू से कोर्इ इंकार करे शायद मुझे नहीं लगता.अपील की अपने बच्चे को खूब पढाए आगे बढाए साहस दें लेकिन शाैर्य प्रदर्शन करने के लिए अखबारों आैर टीवी के दफतरों का चक्कर न लगाएं.इस चमकते गलियारें की कर्इ स्याह रास्ते आैर रातें है आैर इन बच्चों के पास उजाला भविष्य
इस बीच बाहर टहल रहा था तो एक छोटा बालक माला पहने नजर आया.पीछे देखा तो ५६ इंच से ज्यादा सीना चौडाकर पिता खडे थे मजरा समझते देर न लगी बालक ने महज १२ साल ८ माह की उम्र में १२वीं पास कर ली.वैसे तो यह बच्चा अकेले में ३डी मोगली फिल्म भी नहीं देख पाए इस नन्हे मुन्हें राही ने फुटबाल क्रिकेट आैर अन्य किसी खेल में भी हाथ नहीं आजमाए पता नहीं ये आगे बढने की दौड कितने आंइस्टीन खोज पाएगी.मुझे तो लगता है दिखावा ज्यादा दम कम हर जगह यही नुमाया हो रहा है.चलो अब पूर्वांचल से लेकर केरल अम्मा ममता के रिजल्ट भी कल नजर दौडा लेना.

...बाकी जो है सो हाइए है

Monday, April 4, 2016

कोलकाता है इंडिया का पनामा


जिस तरह के खेल का खुलासा आज इंडियन एक्सप्रेस में किया गया है वह कोलकाता में बसे मारवाडी बहुत पुराने समय से कर रहे हैं. इतना ही नहीं एक ही कमरें में अलग अलग दरवाजे लगाकर चार बैंको से लोन ले लेते हैं गजब बात तो यह है कि हर बैंक वाला इसे जानता है विधानसभा से सटी एक इमारत है जिसे मैं खुद जानता हूं. कोलकाता आैर पनामा में अंतर सिर्फ इतना है कि पनामा में नामी लोगों की संपत्ति है आैर कोलकाता में बेनामी लोग हैं
बाकी देखते है। कि कितने लोग इस हमाम में नंगे होते हैं

बिन पैसे का पहला अस्पताल-दरभंगा महाराज

 अफगानी आते थे इलाज कराने

 भारत में बिना पैसे का इलाज सबसे पहले दरभंगा में शुरु हुआ। उस वक्‍त अफगान से लोग यहां इलाज कराने आते हैं। एक पैसे का खर्च नहीं था। 200 बेड का यह अस्‍पताल बिहार का सबसे पुराना अस्‍पताल है..आज जिंदा है, पर शर्मिदा है..क्‍योंकि यह अस्‍पताल जगन्‍नाथियों का इलाज नहीं कर पाया...। जब भी कभी बिना पैसे का इलाज का जिक्र होगा, इस अस्‍पताल का नाम लिये बिना बात अधुरी रहेगी।


1886 में स्‍थापित यह अस्‍पताल न केवल बिहार का सबसे पुराना अस्‍पताल, बल्कि 19वीं शताब्‍दी में यह बंगाल का दूसरा सबसे बडा अस्‍पताल था। बेशक आज यह ईलाज के अभाव में जिंदगी और मौत से लड रहा है, गुमनामी की जिंदगी झेल रहा है, लेकिन अपने समृद्ध इतिहास के साथ यह अस्‍पताल आज भी जिंदा है। इस अस्पताल के पास 12 बीघा का कंपाउंड है। जिसमे 200 बेड की क्षमता का हॉस्पिटल। बिहार का सबसे पुराना ओटी तथा 6 डॉक्टरों के लिए आवास भी हैं। सबसे बडी बात है कि करोड़ों रुपये होने के बावजूद यह अस्‍पताल आज इलाज के अभाव में मर रहा है।

निर्माण का इतिहास
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बिहार के इस सबसे पुराने अस्पताल का निर्माण तिरहुत सरकार महाराजाधिराज लक्ष्मेश्वर सिंह ने वर्ष 1878 में कराया। महाराजा लक्ष्मेेश्वर सिंह ने अंग्रेजी शिक्षा के साथ साथ अंग्रेजी चिकित्सां को बढावा देने के लिए दरभंगा में राज स्कूल और लेडी डेफरीन अस्पताल खोलने का फैसला लिया। उस दौरान बंगाल का यह दूसरा सबसे चर्चित अस्पताल था। कलकत्ता के बाद अंग्रेजी चिकित्सा का यह इकलौता केंद्र ही नहीं, बल्कि देश के कई चर्चित डाक्टर यहां मरीजों का इलाज करते थे। करीब दो सौ बेड वाले इस अस्पताल में गरीबों के लिए नि:शुल्क ईलाज की व्‍यवस्था थी। सरकारी अस्पताल में नि:शुल्क इलाज और दवाई देने की परिकल्पना हिंदुस्तान में इसी अस्प‍ताल से शुरु हुई। उत्तर भारत में अंग्रेजी चिकित्सा के लिए दरभंगा को एक महत्व पूर्ण केंद्र के रूप में स्थापित करनेवाले महाराजा लक्ष्मे्श्वर सिंह की इस परिकल्पना को 1934 के भूकंप ने तहस-नहस कर दिया। अस्पताल का भवन क्षतिग्रस्त हो गया और कई महत्वपूर्ण उपकरण नष्ट हो गये। तत्कालीन तिरहुत सरकार महाराजा कामेश्वर सिंह ने क्षतिग्रस्त भवन की मरम्मत के बाद इसे लेडी बेल्डिंगटन हॉस्पीटल के नाम से नवनिर्मित किया। बिहार में सबसे पहले ऑपरेशन थियेटर यही स्थापित हुआ। 40 के दशक में देश में ऐसा कोई चिकित्सी्य मशीन नहीं था, जो यहां उपलब्ध नहीं था। यह एक दुखद संयोग ही कहा जाये कि जिसदिन इस अस्पंताल की सबसे अधिक जरुरत महाराजा कामेश्वरर सिंह को हुई, उस दिन सबकुछ धरा का धरा रह गया और महरानीअधिरानी प्रिया की अस्पताल पहुंचने से पहले ही रास्ते में असमय मौत हो गयी। 1962 में अपनी मौत से पूर्व किये बिल में कामेश्वर सिंह ने इस अस्पाताल को अपनी एक तिहाई संपत्ति के साथ जनता को सूपुर्द कर दिया और एक न्यास बनाकर उसे इसके संचालन की जिम्मेदारी सौंप दी। अरबों रुपये और ठोस आधारभूत संरचना से सुसज्जित महाराजा कामेश्‍वर सिंह चैरिटेबुल अस्पताल को कामेश्वीर सिंह के अन्य दान की तरह न्यास ने जमकर लूटा और आज इस अस्पताल के अधिकतर हिस्सों पर अबैध कब्जा् है। खानापूर्ति के लिए कुछ बूढे चिकित्सकों को रखा गया है और दो चार गरीबों का ईलाज कर लाखों रुपये का खर्च दिखाया जा रहा है।
सभी हैं उदासीन
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ऐसा नहीं है कि इस घोटाले के संबंध में लोगों को जानकारी नहीं है। बिहार विधान परिषद से लेकर पटना हाइकोर्ट तक इस मामले से परिचित है, इसके बावजूद इस अस्पिताल को लेकर कोई गंभीर नहीं है। जनता की सेवा करने के बजाय यह अस्पैताल आज लूट का स्रोत बन गया है। न्या सी पूर्णत: अपने दायित्वध के निर्वाह में विफल रहे हैं। सरकार जनता के हित में अगर न्यालस को पूनर्गठन नहीं करती है तो यह अस्पगताल कब तक अपने वजूद को बचा पायेगा, यह कहना कठिन है। वैसे सरकार की गंभीरता आप इन दो दस्ताहवेजों से समझ सकते हैं, जिनमें से एक वर्षों पहले विधान परिषद में उठाया गया सवाल है, जिसपर सरकार ने अब तक एक कदम नहीं बढाया है, जबकि दूसरा दस्ताेवेज हाइकोर्ट के ध्याानाकर्षण का है, जिसपर अब तक कोई कार्रवाई नहीं हुई है।
Maharaja Kameshwar Singh Charitable Trust.
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डा. नीलाम्बर चौधरी : महोदय , माननीय मंत्री महोदय से मैं यह जानना चाहता हूँ की ६२ के बाद अभी तक चैरिटी ट्रस्ट में कितना पैसा जमा हुए और उसमे क्या काम हुआ ? मैं ये जानना चाहता हूँ l
श्री रमई राम (मंत्री ): हुजुर , इनके प्रस्ताव में इसकी चर्चा नहीं थी कि ६२ के बाद क्या हुआ , इसके लिए समूचा रिकॉर्ड देखना होगा ... कितनी सम्पति ..
सभापति : मूल प्रश्न जो जानना चाहते हैं माननीय सदस्य कि ...
श्री रमई राम (मंत्री ): मूल प्रश्न अभी ...
डा. महाचंद्र प्रसाद सिंह : पब्लिक चैरिटी पर अभी तक जो खर्च हुआ है और महोदय .. सारा पैसे का दुरूपयोग किया जा रहा है l सीधा प्रश्न है l
श्री रमई राम ( मंत्री ): महोदय , आपसे आग्रह करेंगें कि यह लम्बा मामला है , इसके लिए समय चाहिए l माननीय सदस्य , जिससे कहेंगें , जाँच करायेंगें और जाँच करा कर प्रतिवेदन ...
डा . महाचन्द्र प्रसाद सिंह : ये राज्यहित में है , आपके हित में है l हमसब अनुभव कर रहे है कि इसका मिसयूज काफी हुआ है l
श्री रमई राम (मंत्री ): नहीं ,हम आपसे आग्रह करते हैं महाचंद्र बाबू , चौधरी जी से भी आग्रह करते हैं की इनसे कहिए, इसकी जाँच कराके प्रतिवेदन माननीय सभापति महोदय को सुपुर्द कर दें l
आवाजें : कब तक ?
श्री रमई राम (मंत्री ) : जब कहेंगे , तब l
श्री रामकृपाल यादव : महोदय ,
श्री भोला प्रसाद सिंह : हमलोग तो आजकल कहते हैं l लेकिन दरभंगा महाराज की सम्पतियों का मामला जो है , ट्रस्ट का मामला है , केवल दरभंगा महाराज तक सीमित नहीं है , यह बिहार की प्रतिष्ठा , ख्याति का सम्बन्ध है l अगर उसके ट्रस्ट में ,उसकी जमीन पर यूनिवर्सिटी बनी , उसकी जमीन पर और उसकी जायदाद का जो दुरूपयोग हो रहा है , तो हर बिहारी से यह कंसर्न है l आप इसकी जाँच इनके अधिकारियों से करायेंगे या कोई एजेंसी से करायेंगे , लेकिन जाँच करा लीजिए, क्योंकि हमलोग भी सुनते हैं कि दरभंगा महाराज के पैसों का , उनकी जमींदारी की जमीन है जिसमे म्यूजियम बनवाया और भी चीज बनवाया , यूनिवर्सिटी बनवाया , काफी उसकी लूट हो रही है l इंडियन नेशन , आर्यावर्त की लूट हो रही है तो इसके लिए जरुरी है कि सम्पूर्ण ट्रस्ट की जाँच हो जय और आप यदि समझिए तो सदन की समिति से जाँच करा लीजिए l
श्री रामकृपाल यादव : मेरा भी सप्लिमेंटरी का अधिकार है l
सभापति : हाँ , बोला जाएl l
श्री रामकृपाल यादव : महोदय , ऐसा लगता है कि जो मूल प्रश्न है , सर , ध्यानाकर्षण के माध्यम से , उसका खुद ही संतोषजनक जवाब नहीं दे पाए हैं , वे खुद ही एहसास कर रहे हैं l चूँकि यह राज्यहित का मामला है और किसी खास व्यक्ति का मामला नहीं है , राज्यहित का मामला है , करोड़ों – करोड़ की प्रॉपर्टी का मामला है और उसका दुरूपयोग हो रहा है , इससे राज्य का अहित हो रहा है , इसिलिय हम चाहेंगे कि माननीय मंत्री जी , चूँकि सब सदस्यों ने चिंता जाहिर की है कि इन तमाम मामलों के जो आरोप हैं , उसकी तह में जाने की जरुरत है l इन तमाम मामलों की जाँच कराने की आवश्यकता है l हम निवेदन करना चाहेंगें माननीय मंत्री से , चूँकि उन्होंने कहा है कि मुझे कोई आपत्ति नहीं है , हम जाँच के लिए तैयार हैं , तो हम जानना चाहेंगें माननीय मंत्री जी से आपके माध्यम से कि क्यों नहीं सदन की कमिटी आप बना देते ? तमाम तथ्यों की जानकारी आ जाएगी और दूध का दूध और पानी का पानी हो जायेगा l एक कमिटी बना दीजिए सदन की और स्वयं तैयार भी हैं माननीय मंत्री जी और मैं बिलकुल सत्य भावना से यह बात रख रहा हूँ l
श्री रमई राम ( मंत्री ) : हुजूर , मैं अपने जवाब में कह सकता हूँ कि जिला समाहर्ता , दरभंगा के प्रतिवेदनानुसार हमने जवाब दिया है , यह स्पष्ट हम कहते हैं l
( व्यवधान )
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माननीय सदस्य श्री भोला प्रसाद सिंह ने कभी सदन में कहा था कि दरभंगा महाराज की सम्पतियों का मामला जो है ,ट्रस्ट का मामला है , केवल दरभंगा महाराज तक सिमित नहीं है ,यह बिहार की प्रतिष्ठा , ख्याति का सम्बन्ध है . अगर उसके ट्रस्ट में ,उसकी जमीन पर यूनिवर्सिटी बनी ,उसकी जमीन पर और उसकी जायदाद का जो दुरूपयोग हो रहा है , तो हर बिहारी से यह कंसर्न है .
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माननीय सदस्य श्री शकील अहमद खान ,एवं अन्य माननीय सदस्यों द्वारा दरभंगा महाराज की मृत्यु के पश्चात् गठित ट्रस्ट द्वारा अनियमितता बरते जाने के सम्बन्ध में सरकार का ध्यान आकृष्ट करते हुए श्री शकील अहमद खान ने १९९९ में विधान परिषद् में कहा कि माननीय सभापति महोदय , दरभंगा महाराज की मृत्यु १ अक्टूबर १९६२ में हो गयी . उन्होंने मरने के पूर्व एक WILL किया था . जिसके अनुसार उनकी सारी सम्पति की एक तिहाए से होनेवाली आमदनी को पब्लिक चैरिटी पर खर्च होना है . जिसके लिए एक ट्रस्ट की स्थापना की गयी . उक्त ट्रस्ट द्वारा स्व . महाराज की इच्छा के विपरीत पब्लिक चैरिटी के लिए सम्पति कौड़ी के मोल बेचीं जा रही है और उसका उपयोग पब्लिक चैरिटी के अतिरिक्त अन्य कार्यों में किया जा रहा है ,जो विल के विरुद्ध है .
कैसे चल रहा ट्रस्टा, कौन हैं ट्रस्टी
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आज हम बडी आसानी से आरोप लगा देते हैं कि महाराजा ने दरभंगा के लिए कुछ नहीं किया, लेकिन हम ये भूल जाते हैं कि हमने उन संस्‍थाओं को भी बचाने का प्रयास नहीं किया, जिसे बचाने के लिए नहीं बल्कि महाराजा ने हमें उसे चलाने के लिए भी सौंपा था। ... जारी...

Sunday, April 3, 2016

ये है जलवा जलाल

घंटे भर में सस्पेंड हुए कदमकुआं के थानेदार-ज्ञानेश्वर
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आपको मैंने कल ही बताया था कि पटना के थानेदार किस कदर बहक गए हैं। आम आदमी का तो सुनते ही नहीं हैं कई थानेदार। मसला आज फिर से फंस गया। क्लिक कर सुनिएगा पूरा आडियो। दरअसल, कदमकुआं थाने से परेशान मुकेश ने सुबह अपनी पीड़ा हमें बताई। असम की रहने वाली मुकेश के घर की मेड दो - तीन दिनों पहले भाग गईं थी। अपना सामान छोड़ घर का कुछ सामान ले गई थी। थाने में रिपोर्ट लिखानी थी। कोई वहां सुनने को तैयार नहीं था।
मुकेश की पीड़ा जानने के बाद आज हमने दोपहर में एसएसपी से बात करने की कोशिश की, लेकिन संभव नहीं हो पाया। फिर हमने थानेदार से ही बात करने में कोई बुराई नहीं समझी। लेकिन हमें इसकी जानकारी थी कि कदमकुआं के थानेदार सुधीर कुमार बातचीत में ठीक से पेश नहीं आते। सो, होशियारी बरतते हुए मैंने कॉल की रिकार्डिंग की। जैसा अंदेशा था, वैसा ही हुआ। इतनी बदतमीजी तो उम्मीद से परे थी। थानेदार ने कहा - वे 22 वर्षों से पटना के थानों में हैं। मैंने कहा - अरे भाई, 26 वर्षों से हमने भी पटना में क्राइम रिपोर्टिंग की है। लेकिन ये बहके थानेदार मानने वाले कहां थे।
बातचीत के बाद मैंने आॅडियो को वाट्सएप पर वायरल किया। पटना के सभी क्राइम रिपोर्टर भी समर्थन में आगे आए। परिणाम, घंटे भर के भीतर थानेदार को सस्पेंड किया पटना के एसएसपी मनु महाराज ने। उन्होंने कहा - ऐसे लोग बर्दाश्त नहीं किए जा सकते।
बिहार पुलिस की तस्वीर पर क्लिक कर सुनें थानेदार की बदतमीजी को।

Sunday, March 27, 2016

दंगार्इ पत्रकारिता-मीडिया तब भी कराता था दंगा!

पत्रकार न तब कुछ कर सकता था आैर न ही अब कुछ कर सकता है. यह एक मजदूर है जो सिर्फ बौद्घिक मजदूरी करता है. खेल पहले भी होता था आैर खेल अब भी होता है लेकिन इस स्तर पर नहीं होता था कि एक प्रशासनिक अक्षमता को सांप्रदायिक रंग देनी की सियासत होती है...डाॅ नारंग जो अभी सेवा के लिए आए ही थी कि दरिंदों ने उन्माद में आकर हत्या कर दी आैर अब सियासत का बाजार गर्म है.
उत्तर प्रदेश चुनाव से पहले यह आैर होना तय है जिस तरह से बयार चल रही है इसमें प्रशासनिक अधिकारियों को कमर कस लेनी चाहिए जो उन्होंने वर्दी पहनते वक्त कसम खार्इ थी दोहरा लेना चाहिए वरना उत्तर प्रदेश का चुनाव इस बार दंगा सरकार हो जाएगा.कानपुर से लेकर रामपुर तक चल रही सियासत में हिंदू भी मरेंगे आैर मुसलमान भी लेकिन सत्ता की सियासत चलती रहेगी आैर आपका परिवार बिखर जाएगा.मीडिया तटस्थ नहीं रहेगा बल्कि रेंगेगा.
उत्तर प्रदेश में बुलेट से बैलेट का इतिहास पुराना है लेकिन रेखाचित्र इस बार नया होना जा रहा है अंदर खाने सपा आैर भाजपा का गठजोड आैर जहर घोलने को तैयार है तुष्टीकरण की रणनीति पर सब कुछ तबाह की भी तैयारी हो चुकी है. मायावती की ताकत को तोडने के लिए हर काम किया जाएगा आैर फिर अलग-अलग सीट लेकर भाजपा-सपा सरकार बनाने की तैयारी भी कर ली गर्इ है.अब यह होता कैसे है आगे आगे देखिए होता है क्या...

दोनों ही पक्ष आए हैं तैयारियों के साथ
हम गर्दनों के साथ हैं वो आरियों के साथ
बोया न कुछ भीए फ़सल मगर ढूँढते हैं लोग
कैसा मज़ाक चल रहा है क्यारियों के साथ

दंगा कैसे कराया जाता है वरिष्ठ पत्रकार शंभूनाथ शुक्ल की कलम से समझिए आैर इसमें मीडिया को तब क्या चाहिए होता था आैर अब क्या चाहिए यह भी समझिए..



मीडिया तब भी कराता था दंगा!
शंभूनाथ शुक्ल
बीस मार्च को इस बार आलोक तोमर की याद में जो कार्यक्रम हुआ वह वाकई यादगार बन गया.इस कार्यक्रम में हर वक्ता अपनी बात को यूं जादुई अंदाज में रख रहा था कि मानों अपने आलोक तोमर की यादों का आलोक कभी धुंधला नहीं पडऩे वाला. हर साल बीस मार्च को आलोक की पत्नी सुप्रिया रॉय यह कार्यक्रम कराती हैं और इस प्रोग्राम में जिस शिद्दत से आलोक को याद किया जाता है वह मील का पत्थर बन जाता है. इस बार इस कार्यक्रम में पूर्व केंद्रीय मंत्री आरिफ मोहम्मद खान ने कुछ बातें ऐसी कहीं जो सबसे अलग थीं . लोकतंत्र बनाम भीड़तंत्र मीडिया की भूमिकाष् विषय पर बोलते हुए आरिफ भाई ने कहा कि आज भीड़तंत्र लोकतंत्र को चलाने लगा है जबकि सत्य यह है कि चाहे वह सेमेटिक परंपरा हो अथवा भारतीय परंपरा दोनों का लक्ष्य एक ही है मगर भीड़तंत्र ने इस लोकतांत्रिक मकसद को अस्त.व्यस्त कर दिया है दोनों की परंपराओं में भीड़ काबिज है और ऐसी भीड़ जिसे परंपराए लोकतांत्रिक मूल्यों और नैष्ठिक सिद्घांतों के बारे में कुछ नहीं पता दोनो तरफ उन्मादी भीड़ ही परंपरा के नाम पर लीडर है.
आरएसएस के विचारक और पूर्व छात्र नेता गोविंदाचार्य ने भी भीड़ की अराजकता पर चिंता जताई. हिंदुस्तान की पूर्व प्रधान संपादक मृणाल पांडे ने तो कार्यक्रम में जुटी अपार भीड़ को पहले तो मित्रों कहकर संबोधित किया फिर चुटकी लेते हुए बोलीं कि माफ करिएगा आजकल मित्तरों दुधारू तलवार बन गया है। यह सुनते ही ऐसा ठहाका लगा कि पूरे हाल में काफी देर तक ठहाकों की गूंज बनी रही.  मृणाल पांडे ने बताया कि हिंदुस्तान के प्रधान संपादक पद से मुक्त होने के बाद से वे अध्ययन में अपना समय दे रही हैं और इस समय वे हिंदुस्तान की गवनहारिनों और नचनहारिनों पर शोध कर रही हैंण् इन्हीं नचनहारिनों को याद करते हुए उन्होंने दो किस्से सुनाए.उन्हें पेश कर रहा हूं.
महात्मा गांधी आैर गौहरजान
मृणाल जी ने किस्सा सुनाया कि कलकत्ता में एक गवनहारिन तवायफ थीं गौहरजान जिनका पूर्व में नाम गौहरबानू था. वे इतना अच्छा गाती थीं कि उनकी महफिल में दूर.दूर तक के राजा.महाराजा और अमीर.उमरा जुटते और उनके गाने पर खूब मोहरें लुटाई जातीं. एक बार तो उन्होंने ऐलानिया कह दिया कि हिंदुस्तान का वायसराय की जितनी आमदनी महीने भर में होगी उतना पैसा तो वे एक ही दिन में कमा लेती हैं.
गौहरजान की मशहूरी दूर.दूर तक थी. एक बार महात्मा गांधी जब कलकत्ता गए तो वे गौहर जान से भी मिले और उनसे कहा कि वे भी अपना सहयोग आजादी की लड़ाई में करें. गौहरजान ने कहा कि महात्मा जी हम तो नचनहारिनें हैं भला हम क्या मदद करेंगेण् बस यही कर सकती हूं कि आपकी लड़ाई के वास्ते पैसा भिजवा दिया करूं. गांधी जी ने कहा कि ठीक है गौहर तुम एक कार्यक्रम करो और उससे जितनी आमदनी हो सब की सब कांग्रेस के कोष में दे दो. गौहरजान राजी तो हो गईं पर एक शर्त रख दी कि महात्मा जी आपको उस कार्यक्रम में स्वयं आना पड़ेगा.गांधी जी ने हां कह दी। मगर उस दिन कुछ ऐसी व्यस्तता आन पड़ी कि गांधी जी जा ही नहीं सके लेकिन उनको गौहरजान का वायदा याद था इसलिए अपने किसी सहायक को भेजा कि जाओ गौहर जान से उस कार्यक्रम में हुई आय को ले आओ गौहरजान ने उस सहायक को उस दिन की आमदनी का दो तिहाई पैसा ही दिया और एक तिहाई अपने पास रख लिया तथा महात्मा जी को संदेशा भिजवा दिया कि आपने स्वयं आने का वायदा किया था मगर नहीं आए इसलिए अपने खर्च के रुपये मैं रखे लेती हूं.
यह था उस तवायफ का देश की आजादी की लड़ाई में योगदानण् पर कांग्रेस के पूरे इतिहास में इस दानशीलता और तवायफों के त्याग का जरा भी उल्लेख नहीं है.
संपादक ने करा दिया दंगा
मृणाल जी ने एक अन्य गौहरजान का किस्सा भी सुनाया जो उस वक्त पारसी थियेटर कंपनी में काम करती थीं और उन्हें मिस गौहरजान कहा जाता था.आजादी के पहले जब सिनेमा इतना पापुलर नहीं हुआ था ये पारसी थियेटर कंपनियां पूरे देश में घूम.घूमकर नाटक आयोजित किया करतीं थीं. सन 1940 में यह पारसी कंपनी लाहौर में सीता वनवास का नाटक खेलने गई. अब वहां के नामी उर्दू अखबार के संपादक थे लालचंद फलकण् उन्होंने कंपनी के मालिक के पास संदेशा भेजा कि उनका पूरा परिवार सीता वनवास नाटक देखने आएगा इसलिए फ्री पास भिजवा दिए जाएं. तब तक पारसी नाटक कंपनियां किसी को फ्री पास नहीं जारी करती थीं. सो उसके मालिक ने टका.सा जवाब दे दिया कि हम फ्री पास नहीं देते चाहे वह एडिटर हो या कि कलेक्टर यह जवाब सुनते ही एडिटर लालचंद की भौंहें चढ़ गईं और उन्होंने अगले रोज अपने अखबार के पहले पेज पर खबर छाप दी कि नामी पारसी थियेटर कंपनी ने सीता माता के रोल के लिए मिस गौहरजान नामक तवायफ को चुना है. यह पढ़ते ही जनता भड़क गई और लाहौर में दंगा हो गया. उस पर काबू पाने में सरकार को काफी वक्त लगा. इसके बाद पारसी थियेटर कंपनियों ने फ्री पास जारी करने शुरू किए जो शहर के आला अफसरों,नेताओं और एडिटरों को दिए जाते थे लेकिन तब इन फ्री पास की रंगत से ही पता चल जाता था कि ये दर्शक मुफ्तखोर हैं.
मीडिया किस तरह गुस्साई भीड़ को अराजक तंत्र में बदल देता है इसका बेहतर उदाहरण था यह पत्रकार नीलांजन मुखोपाध्याय ने भीड़ और मॉब में बुनियादी अंतर को रेखांकित किया और कहा कि भीड़ रचनात्मक भी हो सकती है मगर अराजक मॉब तो अराजक ही होगा पत्रकार और जदयू के सांसद हरिवंश ने सरकार की नाकामियों पर हमला किया टीवी एंकर विनोद दुआ भी बोले कार्यक्रम का संचालन विनोद अग्निहोत्री ने किया और शुरुआत आलोक के साथी रहे रमाशंकर सिंह ने यह सुप्रिया का ही कमाल है कि यादों में आलोक का हर कार्यक्रम अपनी अमरता छोड़ जाता है.

बाकी कुंवर बेचैन की ये पंक्तियां आपकाे बताएंगी
दोनों ही पक्ष आए हैं तैयारियों के साथ
हम गर्दनों के साथ हैं वो आरियों के साथ

बोया न कुछ भीए फ़सल मगर ढूँढते हैं लोग
कैसा मज़ाक चल रहा है क्यारियों के साथ

कोई बताए किस तरह उसको चुराऊँ में
पानी की एक बूँद है चिंगारियों के साथ

सेहत हमारी ठीक रहे भी तो किस तरह
आते हैं ख़ुद हक़ीम ही बीमारियों के साथ

कुछ रोज़ से मैं देख रहा हूँ कि हर सुबह
उठती है इक कराह भी किलकारियों के साथ

काजीरंगा- गैंडों के जंगल में नाचती एक प्रेम कथा

गैंडों के बीच से निकली प्रेम कहानी
काजीरंगा/नाम सुनते ही पूर्वोत्तर में सुदूर बसे असम की एक एेसी तलहटी का नाम कौंधने लगता हैं.जहां गैंडे ही गैंडे नजर आए लेकिन ब्रम्हापु़त्र नदी के किनारे बसे इस जंगल के विराना कैसे काजीरंगा बना यह कहानी बहुत कम लोगों को पता है.यह जंगल भी दो युवाआें के प्रेम का प्रहारी न बन पाया.जंगल के बगल से निकलती नदी इस इस प्रेम की उफनती नदी को पार नहीं पार्इ आैर इसी जंगल में यह प्रेम कहानी भी खो गर्इ. प्रेम के नाले दे देकर दुनिया के रखवालों ने उन्हें एेसा विदा किया की वह इन्हीं जंगलों खो गए.
जी हां यह काजीरंगा नहीं.काजी आैर रंगा हैं. प्रेमी प्रेमिका थे, जिनके प्यार के बीच दुनिया की दीवार लेकर बिरादरी वालों ने मंजूरी नही दी उनको इतना उत्पीड़ित किया कि वे  यहां के घनघोर जंगलों में भागकर जाने कहां खो गए। कालांतर में लैला मजनू की तरह कथा कहानियों के पात्र बने। अब इन दोनों के नाम पर यह इलाका काजीरंगा कहलाता है। असम का विख्यात काजीरंगा अभयारण्य यहीं पर है.
गैंडों जो किसी देवता की सवारी नहीं
एेसे तो हमारे हिंदू मान्यता के अनुसार ३३ करोड देवता हैं. इनके परिवहन के लिए सवारी भी चयनित है. इसमें सभी जानवरी किसी न किसी की सवारी हैं. पर यह सौभाग्य गैंडे को नहीं मिला. काजीरंगा अभयारण्य गैंडों के लिए विख्यात है। गैंडों का गर्भाधान काल 16 से 18 महीना है। बच्चे का वजन होता है 40 से 60 किलो तक होता है। मां का दूध वह तीन साल तक पीता है। इसकी रफ्तार 80 किमी तक है यानी बिना हाइवे स्पोटर्स कार लेकिन यही इकलौता निरीह जानवर है जिसे किसी देवी-देवता ने अपना वाहन नहीं बना।
खत्म हो रहा है काजीरंगा 
काज़ीरंगा राष्ट्रीय उद्यान मध्‍य असम में 430 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्रफल में फैला है। इसमें भारतीय एक सींग वाले गैंडे राइनोसेरोस यूनीकोर्निस का निवास है। काजीरंगा को वर्ष 1905 में राष्ट्रीय उद्यान घोषित किया गया था। सर्दियों में यहाँ साइबेरिया से कई मेहमान पक्षी भी आते हैं हालाँकि इस दलदली भूमि का धीरे.धीरे ख़त्म होते जाना एक गंभीर समस्या है। काजीरंगा में विभिन्न प्रजातियों के बाजए विभिन्न प्रजातियों की चीलें और तोते आदि भी पाये जाते हैं। यूनेस्को द्वारा घोषित विश्‍व धरोहरों में से एक काज़ीरंगा राष्‍ट्रीय उद्यान साल 2005 में 100 वर्ष का हो गया है।
परिवहन
काज़ीरंगा गोवाहाटी से 250 किलोमीटर पूर्व और जोरहट से 97 किलोमीटर पश्चिम में स्थित है। यह गोवाहाटी हवाईअड्डे से 239 किलोमीटर और जोरहट से 97 किलोमीटर दूर है। काज़ीरंगा जाने के लिए नियमित रूप से बसें आैर टैक्‍सी उपलब्‍ध हैं। काज़ीरंगा जाते वक़्त मिलने वाले बस पड़ाव को श्कोहोरा के नाम से जानते हैं। यहाँ से रेल सेवा 75 किलोमीटर दूर है।
अंडाकार काजीरंगा
पहले तो उसे अवैध शिकारियों से ही खतरा था  लेकिन अब बाढ़ भी उसे लील रही है. 2006 की गिनती के मुताबिक असम के इस पार्क में 1855 गैंडे थे लेकिन शिकार और बाढ़ की वजह से यह तादाद तेजी से घट रही है बीते साल 21 गैंडे शिकारियों के हत्थे चढ़ गए थेण् और इस साल के पहले आठ महीनों के दौरान यह आंकड़ा 18 तक पहुंच गया है. काजीरंगा का आठ सौ वर्ग किलोमीटर में फैले इस पार्क की एक सीमा ब्रह्मपुत्र नदी से मिलती है असम की राजधानी गुवाहाटी से लगभग सवा दो सौ किलोमीटर दूर नगांव और गोलाघाट जिले में आठ सौ वर्ग किलोमीटर इलाके में फैला यह पार्क इन गैंडों के अलावा दुर्लभ प्रजाति के दूसरे जानवरों  पशुपक्षियों व वनस्पतियों से भरा पड़ा है. उत्तर में ब्रह्मपुत्र और दक्षिण में कारबी.आंग्लांग की मनोरम पहाड़ियों से घिरे अंडाकार काजीरंगा को आजादी के तीन साल बाद 1950 में वन्यजीव अभयारण्य और 1974 में नेशनल पार्क का दर्जा मिलाण् इसकी जैविक और प्राकृतिक विविधताओं को देखते हुए यूनेस्को ने वर्ष 1985 में इसे विश्व घरोहर स्थल का दर्जा दिया. माना जाता है कि इन गैडों की सींग से यौनवर्द्धक दवाएं बनती हैं इसलिए अमेरिका के अलावा दक्षिण एशियाई देशों में इनकी भारी मांग है अंतरराष्ट्रीय बाजार में गैंडे की सींग बीस लाख रुपए प्रति किलो की दर से बिक जाती है शिकारी इन गैंडों को मार कर इनकी सींग निकाल लेते हैं






Saturday, March 26, 2016

होली के रंग-बदरंग चेहरे


सीन एक खासा कोठी 
होली की तो बात है.हम चार पांच मित्र राजा पार्क से निकल कर गुलाबी नगरी की रंगीन होली देखने के लिए निकले. सब कुछ संयत भाव से तैयार मन मस्तिष्क चुस्त आैर रंग का मनोरम भाव लिए हम सब पहुंच गए खासा कोठी.शानदार उत्सव क्या देशी क्या विदेशी सब रंगीन नजर अाए उपर से बाॅलीवुड के करिश्मार्इ गाने.गुलाल के गुबार में हमारे भाव गायब से हो गए. सब कुछ र्निविकार रूप से संस्कृति को प्रतिष्ठत करता नजर आया.एक साथ एक सुर में कहा इसे कहते हैं होली बिना हुडदंग.जो सबको रास आए अपनी संस्कृति में मिलाए लेकिन किसी का रंग धूमिल न होने पाए.
सीन दो चांदपोल
होली का हुडदंग नहीं अल्हडपन कहिए जनाब. जो सच में आपको अपने रंग में डूबो देगा.देशी ताल पर थिरकते लोग आैर वह भी विदेशी ठसक के साथ.चाल फिर भी संयत आैर कमाल तो कमाल है.मजाल है कि बिना आपको चाहे को रंग लगा दे.आप चहेंगे तो रंग लगाएंगे आैर मनुहार कर आपको गुझिया भी खिलाएंगे आैर उनके रंग में रंगे तो आपको बिना शर्त नजाएंगे यह नजारा हर किसी को आकर्षिक करता है
सीन तीन ब्रम्हापुरी
रंग की बदरंग नियत आप पर चढे हर रंग को तोड देती है. करीब १४ साल की नन्हीं उंगुलिया जिन्हें पता नहीं सही से कलम पकडना आया भी की नहीं लेकिन उरोज मसलने के लिए मचलती हैं.इतना ही नहीं संस्कृति को ताक पर रख करीब २० से २२ साल की विदेशी कन्या के उरोज को न केवल पकड लेती हैं बल्कि टाॅप में हाथ डालकर रंग के बहाने उन्हें मसलती हैं.गिरोह की शक्ल में पहुंचे ये हुडदंगी पूरे रंग को बदरंग कर देते हैं. जब तक हम सब पहुंचते हैं सब भाग लेते हैं आैर लडकी होटल में भागती है.सबकुछ बेहतर होते हुए यहां आकर बिखर जाता है.समझ नहीं आता है कि इस उम्र में दिमाग इतना बदरंगा क्यों है.
मुंबर्इ में गणपति विर्सजन के दौरान यह नापाक हरकत आपको याद होगी
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Tuesday, March 22, 2016

TRAVEL IN BAD LANDS

Chambal: Into The Bandit KingdomAlok Tomar
A languid crowd negotiates the narrow streets of the bazaar. Jalebi, Pepsi and kulfi provide excuses to continue centuries-old relations. A shopkeeper’s tape recorder howls like a couple of Pomeranians on heat through overused weather-beaten speakers that produce more static than sound. A redoubtable publicist on a cycle-rickshaw screams through a hailer, soliciting prospective viewers for a film released at least three years ago. This could be a scene from any town in northern India. Look again: there’s a difference. Every third shoulder has a gun hanging from it, nonchalantly. Conversation usually revolves around dates of court hearings. Section 302 (murder) or section 307 (attempt to murder) of the Indian Penal Code find frequent mention over casual glasses of tea. If you listen carefully to the tape recorder, the song playing is Mar diya jaye, Ya chhod diya jaye. The movie being advertised is Kachhe Dhaage or Chambal ki Kasam. The inhabitants learn of their international fame only through newspapers and movies. Welcome to Bhind in Madhya Pradesh’s Chambal valley. Travel 60 km from Agra in Uttar Pradesh or 20 km from Dhaulpur in Rajasthan, and you can dip your feet in the crystal clear waters of the Chambal river. Cross it, and you’ll enter another world of mysterious ravines. But the Chambal valley proper is defined by Bhind-Morena, so let’s begin there. On the way from Gwalior to Bhind, after you’ve gone past the boards of multinational corporations at the Malanpur Industrial Area, you arrive at a dusty crossroads. Turn right, and go straight past the bazaar, and after about six km the road ends. You stand in front of a hill with a ruined fort at the top. This is Gohad, and until the end of the 17th century, Gwalior was governed from here by Gujjar generals who had taken over after the Mughal power declined. If you are willing to walk ten km along a trail, you’ll reach a cemetery on the banks of a dry rivulet. The British soldiers and officers who rest here were killed in a revolt that took place in Maharajpur, near Gwalior, 13 years before the Revolt of 1857.A narrow road with green vistas takes you from Bhind to Ater, the border of Chambal valley. If you look out from the Ater fort, you can see the ravines extending into Bateshwar, Uttar Pradesh. The fort itself is worth a visit, its bright colours having survived the harsh sun and dust for 400 years. Being close to Uttar Pradesh and Rajasthan, Ater has been a favourite sanctuary for bandits. But the crime rate here is low — even dacoits don’t want strife in their backyard. A very old banyan tree is the focus of an annual mela, and anyone interested in the unlikely sight of bullock-cart races should come here around Diwali. Back to Bhind, once the capital of Bhadauriya Rajputs. All that remains of those times is a fort on a hill where the district collector used to sit till recently. Two canons in the fort tell a tale of deceit — a treacherous general filled them up with millet instead of gunpowder, leading to its fall. Incidentally, Bhind was the last of the kingdoms in the region to fall into the hands of the colonising British. The terrain was tough and only the tough lived here. Much earlier, Prithviraj Chauhan came here to get married after abducting Sanyukta. If you look even deeper into the details of history, you will find the Tomars, who came to Chambal from Delhi following their skirmishes with Chauhan. And with this, the Chambal valley became a refuge for rebels and bandits.If you feel like embarking on a daring campaign, travel to Lahar, 40 km from Bhind, and then another 25 km to Panchnada. The single-lane road is a driver’s nightmare. But at the end of the trail lies a prize: you will behold the confluence of five rivers, including the Yamuna and the Chambal. There are buses connecting Bhind to Ater and Lahar, and you can hire a jeep as well. On a good day, you can get a lift in a tractor. But there are no facilities for a tourist here. For the insistent traveller, however, circuit houses of the irrigation and forest departments may be available.On the road from Gwalior to Agra, half an hour will bring you to Morena, a sleepy township that pretends to be a city. There is a circuit house here and three hotels, some with air-conditioned rooms. Power supply, however, is uncertain. The reason for risking a visit is the opportunity to witness an entirely different face of Chambal’s cultural kaleidoscope. In Kanakmath, 20 km from Morena, are a clutch of 12th century temples that are no less impressive than Khajuraho. The same erotic postures, the same problem of statues being plundered. Since the Archaeological Survey of India took over the maintenance of these temples, it has been identifying and bringing back statues from farms. Of course, it is impossible to bring back statues that have found new life paving drains and houses. There are other such temples in Mitavali, Padavali and Shanichara. While their architecture is quite different from what you see in Khajuraho and Kanakmath, there is little dispute about their historic importance. From Kanakmath, you can experience the raw Chambal by travelling 30 km to Barwai, the village of Putli Bai, the first bandit queen and grandmother of Rashid, an underworld major of Kolkata. Putli Bai’s brother Aladdin can still be seen doing the rounds selling bangles in the area. That’s not his only occupation. He is an elected member of the municipal committee. If you are still determined to visit another difficult area and have the stamina to trek three or four km, then you must go to Pahargarh. Six football teams can play in the courtyard of the magnificent fort here. The royal family’s pockets, unfortunately, are not very deep, and it shows in the state of maintenance. But members of the royal family take pride in listing the names of movies that were shot in the fort. The real wonder, however, lies another eight km away (four of which have to be done on foot). Walk over the hardened, rocky soil, liberally decorated with thorns and other objects of discomfort, and in about 45 minutes you will travel thousands of years back in history to an unnamed river cradled in a green valley with hundreds of caves. Prehistoric humans have left their messages in hieroglyphics, providing employment to several researchers who are trying to crack their meaning. A little bit of luck and lots of hard work could reveal an ancient civilisation in the Chambal. (If there ever was such a thing, civilisation and Chambal developed an entirely new set of relationships after its disappearance.) A journey to Pahargarh is best begun around dawn and finished before dusk. Spending the night in a car or a jeep could turn out to be an experience you could well do without.On to Gwalior, one of the first places in India to see the railways thanks to the Scindias’ penchant for locomotion. In fact, they had a silver toy train running on the dining table to serve guests. The story goes that this once malfunctioned, and the diners, including English royalty, had their clothes redecorated. Until recently, two railway lines, narrower than narrow gauge, used to ply through the ravines between Gwalior and Bhind and Gwalior and Morena. The Bhind line is closed now, but the toy train to Morena can be seen twice a day today. If you are on a cycle, you don’t have to be a professional to beat the train. If you’d rather enjoy a ride on this train, you can sit either in the coach or on top of it. Either way, be prepared for company that can vary from humans to goats and sheep. Why this train hasn’t been identified as a heritage line, as in the case of Darjeeling, is beyond comprehension.Gwalior has several tourist attractions. About 102 km away is Shivpuri, which used to be the summer capital of the Scindia rulers. In a protected forest close by, there is a castle which was built on top of a hill for George V to rest in. On the banks of the picturesque Chambal, in the dense forest of Senwda tehsil of Datiya district, is a temple to goddess Kali. For an authentic experience of the empire of bandits, you can read the etchings on the numerous bells. It was essential for any self-respecting bandit to present a bell to the goddess. Kind of goes with the image, doesn’t it?

SCOOP LIFE AND CRIMES OF ‘VASUNDHARA’ FRIEND LALIT MODI WHEN A CONVICT BECOMES CRICKET BOSS



ALOK TOMAR
NEW DELHI Vasundhara Raje is queen and chief minister. She can bless any one with estates and power, like she did with Lalit Modi, the new boss of Rajasthan cricket association. Who is Lalit Modi, the man who suddenly cropped up in Kolkata on Wednesday and claimed to represent the Rajasthan Cricket Association at the BCCI AGM? Modi's claim was cold-shouldered in favour of Kishore Rungta who voted for Mahendra. Modi is a Delhi-based industrialist and was that time the vice president of the Punjab Cricket Association. He is close to Rajasthan CM Vasundhara Raje and is known to have played a key role in initiating a recent ordinance for regulating sports bodies, whose main target was the Rungta clan. Modi managed to obtain a letter authorising him to attend the board AGM from one of the RCA joint secretary, Rakesh Agarwal Modi, an outsider in Rajasthan cricket, has been trying to represent RCA in the board for some time.But wait for a second.Mr. Modi is a proclaimed offender of drug trafficking in North Carolina state of US.he has been tried and punished by Durham country court house and his probation period was on till last 1990 but till then he had ‘bought’ the honour of being the Honarary counsul of Jamaica in India. This power game lasted till Kamal Morarka, the industrialist and former union Minister filed an affidavit, baring modi’s past and ousted Rajasthan Cricket association supreme Kishor Rungta filed a petition, armed with original case papers.The story unfolds thus—Lalit Modi, according to Rungta petition, along with one Alex McKinnon did a drug deal with Alexander van Dyne for buying half a kg. of Cocaine for trafficking purposes. Lalit Modi was then Studying in Duke University, Durham, North Carolina(NC for short) Unknown to them, van Dyne reported this to the Police.Something went wrong in the deal when the exchange of money and cocaine was to take place at Econo-Lodge Hotel, Durham on 23rd Feb 85. Lalit Modi, along with John El-Masry and Sheperd Small(Tony) went to Wilson House to square up with van Dyne and pulled him out of his room on 24th feb. He was badly assaulted and forced into a waiting car and taken to another place The matter was reported to the Police by an onlooker Police arrested and booked Modi and El-Masry. A bail was obtained by paying a $50000 cash bond. The petition says.Modi remained in custody for 3 days After he was let off, the Grand Jury indicted Modi on 4 charges which were listed as 85 CRS- 5817,5818,5819 and 5820 on 1st April 1985Out of these charges, 5819 and 5820 were serious felony charges( See the Indictment papers)The charges being serious, a trial would have seen Modi in prison for 10 years Taking advantage of the North Carolina General Statutes(NCGS) and the mitigating factors listed for a first offence, the Modi camp sent out a barrage of recommendatory letters to the Prosecuting Attorney Ronald Stephens and the Judge Thomas H Lee(some samples listed) Finding themselves cornered, Lalit Modi’s counsel Wade Smith persuaded Modi to plead Guilty in order to attract lesser sentence. Modi pleaded Guilty after a plea arrangement under Chapter 15A, para 1022 of NCGS As per the arrangement, 5817, 5818 and a common charge of 9809 were dropped As part of the arrangement, The cocaine trafficking charge amounting to a class C felony attracting a minimum of 175 months of imprisonment was converted into a class H felony which would entitle Modi for a probation for a first offence and the Felony of Kidnap was converted into Misdemeanour charge of False imprisonment.The facts may be verified from RONALD L STEPHENS, the former attorney general of NORTH CAROLINA. His contacts are--(919) 493-5791 - 4101 Thetford Rd, Durham, NC 27707On the misdemeanours under charge# 5819, Modi was sentenced to 2 years imprisonment suspended for five years together with five years supervised probation and $10000 fine. On the Felony of Cocaine Trafficking under charge# 5820, Modi was sentenced to Ten years prayer for Judgment continued for Five years under the provisions of NCGS, Chapter 90, para 95. This provision basically means that the sentence is pronounced but kept suspended for first-timers.On 18th April 1986, Modi was allowed to leave USA for India on certain conditions. His probation ended only on 23rd June 1990.By concealing the fact of his conviction, Modi has secured a number of positions which he would otherwise have not got. His conviction means that under Section 267 of the companies’ Act, he could not have become a whole-time director of his group companies which he presently enjoys.He has also concealed this information to become He has also concealed this information to become the Hon. Consul for the Jamaican consulate in Mumbai,the petition says and claims that He has concealed this information to “usurp’ the position of the President of Rajasthan Cricket Association with the help of his friend, Vasundhara Raje. So much for clean BJP image.

KILLINGS JEHAD-THE SACRED WAR(?) GIVING INNOCENTS BLOODY SALVATION--Alok Tomer


SHRINAGAR 

Armed groups in Jammu and Kashmir targeting civilians violate humanitarian standardsAmnesty International is concerned about attacks by armed groups in the Indian state of Jammu and Kashmir on civilians wishing to travel across the Line of Control. To use civilian lives in attempts to make political statements violates international standards of humanitarian law which clearly prohibit the targeted killing of civilians.

Amnesty International urges armed groups in Jammu and Kashmir to spare the lives of all civilians including those who wish to make use of the new bus link between India and Pakistan to be inaugurated on 7 April 2005.  The attack on the centre in Srinagar where passengers were staying prior to travelling on the first bus to Muzaffarabad in Azad Jammu and Kashmir is intended to undermine the ongoing dialogue between India and Pakistan, Amnesty International said today. 

While Amnesty International does not take a position on possible solutions to the issue of Kashmir, the organisation welcomes any moves that contribute to a climate in which human rights promotion and protection are more likely to be ensured.

On 6 April, a day before the planned opening of the bus link, members of armed groups threw hand grenades and set fire to the heavily guarded building in Srinagar where prospective bus passengers had gathered. A gun fight between security forces and the armed fighters then erupted. One of the armed fighters was reportedly killed and at least seven civilians were injured. A member of an armed group subsequently phoned news organisations claiming that four armed groups, the Al-Nasireen, Save Kashmir Movement, Al-Arifeen and Farzandan-e-Millat, had been responsible for the attack.

In a joint statement issued on 30 March, the four groups had warned people against entering the buses which would be their 'coffins' and told the bus drivers "not to play with their lives by driving these buses". On 5 April a bomb was defused on the Srinagar-Muzaffarabad highway but two hours later a landmine went off on another stretch of the same road, injuring seven people, mostly road workers.

The state government and Union government have meanwhile announced that the bus service would go ahead on schedule and be inaugurated by the Indian Prime Minister, Home Minister and Congress Party President Sonia Gandhi.

Sunday, March 20, 2016

Rajvir Singh @ 50...First Pramoty ACP in indian Police from Sub Inspector

From Sub Inspector to Acp

ACP Rajbir Singh courted many controversies during his otherwise remarkable career that began in 1982 when he entered the Delhi Police as a sub-inspector. His rise from a sub-inspector to a high-profile assistant commissioner of police was as sensational as the violent end to his life. 

Delhi Police's 'encounter specialist' Rajbir Singh was murdered on Monday night - ending a career that was as controversial as it was illustrious. ACP Rajbir Singh, who was allegedly shot dead by a property dealer in the suburb of Gurgaon, had courted many controversies during his otherwise remarkable career that began in 1982 when he entered the Delhi Police as a sub-inspector. Shunted out of the Crime Branch following his alleged links with a drug mafia and touted as a 'property grabber', Rajbir Singh last year returned as the head of the newly established Special Operation Squad, a special anti-terror cell.

@50

Rajbir, who had over 50 'kills' to his credit, had become the face of counter-terrorism operations in the capital. He was the man instrumental in cracking the attack on parliament in 2001 and the Red Fort in 2000. Rajbir was the only officer in the police history to be promoted to the rank of ACP in just 13 years. His first brush with fame came in 1994 with the arrest of notorious criminal Virendera Jat following which he was promoted to the rank of inspector. The next big ticket targets were gangsters Rajbir Ramola and Ranpal Gujjar. He was then posted as ACP (operations) in the west district. "Rajbir Singh was an able police officer of the Delhi Police and had two promotions during his career," ACP Rajan Baghat said.

The word 'encounter' entered the lexicon in the mid-1990s when gangsters from western Uttar Pradesh began making forays into the capital. Rajbir was among the most prominent 'encounter specialists' at the time.He came into the limelight on November 3, 2002 when he allegedly killed two 'terrorists' in the basement of the Ansal Plaza shopping mall in south Delhi. A man, Hari Krishna, who claimed he saw the deaths labelled it fake. Later, suspicions were raised about the genuineness of the operations supervised by him.

Rajbir's alleged links with a drug trafficker came to the fore after a telephonic conversation between them - tapped by the narcotics wing - was leaked to the media. An inquiry headed by the joint commissioner of police (Vigilance) was ordered.The Delhi High Court also issued notices to him and other officers on charges that he and his colleagues manhandled some people in west Delhi's Kirti Nagar in connection with a property dispute.Despite  the many controversies, Rajbir was not shifted out of the Special Cell.

 


मुन्ना बजरंगी...शौक से बना हत्यारा

मुन्ना बजरंगी के खिलाफ सीबीआई जांच अभी तक अटकी पड़ी है

कौन है मुन्ना बजरंगी

मुन्ना बजरंगी का असली नाम प्रेम प्रकाश सिंह है. उसका जन्म 1967 में उत्तर प्रदेश के जौनपुर जिले के पूरेदयाल गांव में हुआ था. उसके पिता पारसनाथ सिंह उसे पढ़ा लिखाकर बड़ा आदमी बनाने का सपना संजोए थे. मगर प्रेम प्रकाश उर्फ मुन्ना बजरंगी ने उनके अरमानों को कुचल दिया. उसने पांचवीं कक्षा के बाद पढ़ाई छोड़ दी. किशोर अवस्था तक आते आते उसे कई ऐसे शौक लग गए जो उसे जुर्म की दुनिया में ले जाने के लिए काफी थे.

जुर्म की दुनिया में पहला कदम
मुन्ना को हथियार रखने का बड़ा शौक था. वह फिल्मों की तरह गैंगेस्टर बनना चाहता था. यही वजह थी कि 17 साल की नाबालिग उम्र में ही उसके खिलाफ पुलिस ने मुकदमा दर्ज किया. जौनपुर के सुरेही थाना में उसके खिलाफ मारपीट और अवैध असलहा रखने का मामला दर्ज किया गया था. इसके बाद मुन्ना ने कभी पलटकर नहीं देखा. वह जरायम के दलदल में धंसता चला गया.


अस्सी के दशक में की थी पहली हत्या
मुन्ना अपराध की दुनिया में अपनी पहचान बनाने की कोशिश में लगा था. इसी दौरान उसे जौनपुर के स्थानीय दबंग माफिया गजराज सिंह का संरक्षण हासिल हो गया. मुन्ना अब उसके लिए काम करने लगा था. इसी दौरान 1984 में मुन्ना ने लूट के लिए एक व्यापारी की हत्या कर दी. उसके मुंह खून लग चुका था. इसके बाद उसने गजराज के इशारे पर ही जौनपुर के भाजपा नेता रामचंद्र सिंह की हत्या करके पूर्वांचल में अपना दम दिखाया. उसके बाद उसने कई लोगों की जान ली.

मुख्तार अंसारी के गैंग में हुआ शामिल

पूर्वांचल में अपनी साख बढ़ाने के लिए मुन्ना बजरंगी 90 के दशक में राजनेता मुख्तार अंसारी के गैंग में शामिल हो गया. यह गैंग मऊ से संचालित हो रहा था, लेकिन इसका असर पूरे पूर्वांचल पर था. मुख्तार अंसारी ने अपराध की दुनिया से राजनीति में कदम रखा और 1996 में समाजवादी पार्टी के टिकट पर मऊ से विधायक निर्वाचित हुए. इसके बाद इस गैंग की ताकत बहुत बढ़ गई. मुन्ना सीधे पर सरकारी ठेकों को प्रभावित करने लगा था. वह लगातार मुख्तार अंसारी के निर्देशन में काम कर रहा था.


ठेकेदारी और दबंगई ने बढ़ाए दुश्मन

पूर्वांचल में सरकारी ठेकों और वसूली के कारोबार पर मुख्तार अंसारी का कब्जा था. लेकिन इसी दौरान तेजी से उभरते बीजेपी के विधायक कृष्णानंद राय उनके लिए चुनौती बनने लगे. उन पर मुख्तार के दुश्मन ब्रिजेश सिंह का हाथ था. उसी के संरक्षण में कृष्णानंद राय का गैंग फल फूल रहा था. इसी वजह से दोनों गैंग अपनी ताकत बढ़ा रहे थे. इनके संबंध अंडरवर्ल्ड के साथ भी जुड़े गए थे. कृष्णानंद राय का बढ़ता प्रभाव मुख्तार को रास नहीं आ रहा था. उन्होंने कृष्णानंद राय को खत्म करने की जिम्मेदारी मुन्ना बजरंगी को सौंप दी.

मुन्ना ने की भाजपा विधायक की हत्या

मुख्तार से फरमान मिल जाने के बाद मुन्ना बजरंगी ने भाजपा विधायक कृष्णानंद राय को खत्म करने की साजिश रची. और उसी के चलते 29 नवंबर 2005 को माफिया डॉन मुख्तार अंसारी के कहने पर मुन्ना बजरंगी ने कृष्णानंद राय को दिन दहाड़े मौत की नींद सुला दिया. उसने अपने साथियों के साथ मिलकर लखनऊ हाइवे पर कृष्णानंद राय की दो गाड़ियों पर AK47 से 400 गोलियां बरसाई थी. इस हमले में गाजीपुर से विधायक कृष्णानंद राय के अलावा उनके साथ चल रहे 6 अन्य लोग भी मारे गए थे. पोस्टमार्टम के दौरान हर मृतक के शरीर से 60 से 100 तक गोलियां बरामद हुईं थी. इस हत्याकांड ने सूबे के सियासी हलकों में हलचल मचा दी. हर कोई मुन्ना बजरंगी के नाम से खौफ खाने लगा. इस हत्या को अंजाम देने के बाद वह मोस्ट वॉन्टेड बन गया था.

सात लाख का इनामी था मुन्ना

भाजपा विधायक की हत्या के अलावा कई मामलों में उत्तर प्रदेश पुलिस, एसटीएफ और सीबीआई को मुन्ना बजरंगी की तलाश थी. इसलिए उस पर सात लाख रुपये का इनाम भी घोषित किया गया. उस पर हत्या, अपहरण और वसूली के कई मामलों में शामिल होने के आरोप है. वो लगातार अपनी लोकेशन बदलता रहा. पुलिस का दबाव भी बढ़ता जा रहा था.

मुंबई में ली पनाह

यूपी पुलिस और एसटीएफ लगातार मुन्ना बजरंगी को तलाश कर रही थी. उसका यूपी और बिहार में रह पाना मुश्किल हो गया था. दिल्ली भी उसके लिए सुरक्षित नहीं था. इसलिए मुन्ना भागकर मुंबई चला गया. उसने एक लंबा अरसा वहीं गुजारा. इस दौरान उसका कई बार विदेश जाना भी होता रहा. उसके अंडरवर्ल्ड के लोगों से रिश्ते भी मजबूत होते जा रहे थे. वह मुंबई से ही फोन पर अपने लोगों को दिशा निर्देश दे रहा था.



राजनीति में आजमाई किस्मत

एक बार मुन्ना ने लोकसभा चुनाव में गाजीपुर लोकसभा सीट पर अपना एक डमी उम्मीदवार खड़ा करने की कोशिश की. मुन्ना बजरंगी एक महिला को गाजीपुर से भाजपा का टिकट दिलवाने की कोशिश कर रहा था. जिसके चलते उसके मुख्तार अंसारी के साथ संबंध भी खराब हो रहे थे. यही वजह थी कि मुख्तार उसके लोगों की मदद भी नहीं कर रहे थे. बीजेपी से निराश होने के बाद मुन्ना बजरंगी ने कांग्रेस का दामन थामा. वह कांग्रेस के एक कद्दावर नेता की शरण में चला गया. कांग्रेस के वह नेता भी जौनपुर जिले के रहने वाले थे. मगर मुंबई में रह कर सियासत करते थे. मुन्ना बजरंगी ने महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में नेता जी को सपोर्ट भी किया था.
 
ऐसे गिरफ्तार हुआ था मुन्ना

उत्तर प्रदेश समते कई राज्यों में मुन्ना बजरंगी के खिलाफ मुकदमे दर्ज थे. वह पुलिस के लिए परेशानी का सबब बन चुका था. उसके खिलाफ सबसे ज्यादा मामले उत्तर प्रदेश में दर्ज हैं. लेकिन 29 अक्टूबर 2009 को दिल्ली पुलिस ने मुन्ना को मुंबई के मलाड इलाके में नाटकीय ढंग से गिरफ्तार कर लिया था. माना जाता है कि मुन्ना को अपने एनकाउंटर का डर सता रहा था. इसलिए उसने खुद एक योजना के तहत दिल्ली पुलिस से अपनी गिरफ्तारी कराई थी. मुन्ना की गिरफ्तारी के इस ऑपरेशन में मुंबई पुलिस को भी ऐन वक्त पर शामिल किया गया था. बाद में दिल्ली पुलिस ने कहा था कि दिल्ली के विवादास्पद एनकाउंटर स्पेशलिस्ट राजबीर सिंह की हत्या में मुन्ना बजरंगी का हाथ होने का शक है. इसलिए उसे गिरफ्तार किया गया. तब से उसे अलग अलग जेल में रखा जा रहा है. इस दौरान उसके जेल से लोगों को धमकाने, वसूली करने जैसे मामले भी सामने आते रहे हैं. मुन्ना बजरंगी का दावा है कि उसने अपने 20 साल के आपराधिक जीवन में 40 हत्याएं की हैं.

बबलू श्रीवास्तव ...अपहरण का बबल गम



जुर्म की दुनिया में बबलू का नाम अपहरण करने के लिए कुख्यात थाअंडरवर्ल्ड में कई ऐसे नाम हैं जो छोटी जगहों से निकलकर जुर्म की दुनिया में छा गए. जो अपराध करते-करते इतना आगे बढ़ गए कि उनका नाम भारत की सरहद के बाहर भी गुनाहों के लिए जाना गया. अडंरवर्ल्ड में किडनैपिंग किंग के नाम से कुख्यात ऐसा ही एक नाम है बबलू श्रीवास्तव का. जो कॉलेज से निकलकर जुर्म की दुनिया में बाहुबली बनकर सामने आया.

कौन है बबलू श्रीवास्तव
माफिया डॉन बबलू श्रीवास्तव का असली नाम ओम प्रकाश श्रीवास्तव है. वह मूल रूप से उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले का रहने वाला है. उनका घर आम घाट कॉलोनी में था. उसके पिता विश्वनाथ प्रताप श्रीवास्तव जीटीआई में प्रिंसिपल थे. बबलू का बड़ा भाई विकास श्रीवास्तव आर्मी में कर्नल है.
आईएएस या सेना अधिकारी बनना चाहता था बबलू
ओमप्रकाश श्रीवास्तव उर्फ बबलू ने एक बार पेशी के दौरान खुद मीडिया के सामने खुलासा किया था कि वह अपने भाई की तरह सेना में अफसर बनना चाहता था. या फिर उसे आईएएस अधिकारी बनने की ललक थी. लेकिन उसकी जिंदगी को कॉलेज की एक छोटी सी घटना ने पूरी तरह बदल दिया. और वह कुछ और ही बन गया.
बबलू कोर्ट में पेशी के दौरान
जुर्म की दुनिया में पहला कदम
बबलू श्रीवास्तव की जिंदगी में सबकुछ ठीक चल रहा था. वह लखनऊ विश्वविद्यालय में लॉ का छात्र था. 1982 में वहां छात्रसंघ चुनाव हो रहे थे. बबलू का साथी नीरज जैन चुनाव में महामंत्री पद का उम्मीदवार था. प्रचार जोरों पर था. छात्र नेता एक दूसरे को हराने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार थे. इसी दौरान दो छात्र गुटों में चुनावी झगड़ा हुआ. जिसमें किसी ने एक छात्र को चाकू मार दिया. घायल छात्र का संबंध लखनऊ के माफिया अरुण शंकर शुक्ला उर्फ अन्ना के साथ था. इस मामले में अन्ना ने बबलू श्रीवास्तव को आरोपी बनाकर जेल भिजवा दिया. यह बबलू के खिलाफ पहला मुकदमा था. यहीं से उसके मन में नफरत की आग जलने लगी थी.
बबलू पेशी परअन्ना के विरोधी गैंग में एंट्री
बबलू श्रीवास्तव कुछ दिन बाद जमानत पर छूटकर बाहर आ गया. लेकिन अन्ना का गिरोह उस पर नजर लगाए बैठा था. पुलिस ने कुछ दिन बाद फिर से उसे अन्ना के कहने पर स्कूटर चोरी के झूठे आरोप में बबलू को जेल भेज दिया. इस घटना से नाराज घरवालों ने उसकी जमानत भी नहीं कराई. इसके बाद बबलू को दो हफ्ते जेल में रहना पड़ा. उसके बाद वाहन चोरी की की वारदातों में बबलू का नाम आ गया. इस बात परेशान होकर बबलू ने अपना घर छोड़ दिया. उसने एक हॉस्टल में रहने के लिए कमरा ले लिया. इसी दौरान वह अन्ना के विरोधी माफिया रामगोपाल मिश्र के सम्पर्क में आ गया और उसके लिए काम करने लगा. यही वो वक्त था जब बबलू ने अपराधी की दुनिया में कदम रख दिया था. अब वह पीछे मुड़कर नहीं देखना चाहता था.

किडनैपिंग किंग बन गया था बबलू
लॉ की शिक्षा हासिल करने वाला बबलू उत्तर प्रदेश, बिहार और महाराष्ट्र तक अपनी पकड़ बना चुका था. उसने अंडरवर्ल्ड की दुनिया में अपहरण को तरजीह दी. इस धंधे में उसने कई लोगों को मात दे दी थी. उसके नाम पुलिस ने अपहरण के कई मामले दर्ज किए थे. उसने फिरौती के लिए कई लोगों का अपहरण किया. फिरौती वसूली. अपहरण की धमकी देकर भी कई बड़े लोगों से पैसा वसूल किया. अपहरण की दुनिया में उसके नाम का सिक्का चलने लगा था. छोटे गैंग अपहरण करके 'पकड़' उसे लाकर सौंप देते थे और फिर वह सौदेबाजी करके फिरौती की रकम वसूल करता था. पुलिस उससे कारनामों से परेशान थी. जुर्म की दुनिया में लोग उसे किडनैपिंग किंग कहने लगे थे.

दाऊद से अलग हो गया था बबलूदाऊद इब्राहिम के साथ किया काम
बबलू श्रीवास्तव ने कॉलेज से लॉ की पढ़ाई तो पूरी की लेकिन साथ ही वह अपराध की दुनिया में भी बहुत आगे बढ़ चुका था. 1984 से शुरू हुआ उसका आपराधिक ग्राफ तेजी से बढ़ता जा रहा था. उसके खिलाफ उत्तर प्रदेश समेत कई राज्यों में अपहरण, फिरौती, अवैध वसूली और हत्या जैसे संगीन मामले दर्ज होते गए. 1989 में वह पुलिस से बचने के लिए चंद्रास्वामी से मिला. लेकिन उसके साथ बबलू की ज्यादा नहीं बनी. बबूल वहां से नेपाल चला गया और कुछ साल वहां रहने के बाद वह 1992 में दुबई जा पहुंचा. जहां नेपाल के माफिया डॉन और राजनेता मिर्जा दिलशाद बेग ने उसकी मुलाकात अंडरवर्ल्ड डॉन दाऊद इब्राहीम से कराई.

मुंबई धमाकों के बाद छोड़ा दाऊद का साथ
सिर पर दाऊद का हाथ आ जाने से बबलू श्रीवास्तव की ताकत बढ़ती जा रही थी. उसकी पहचान भारत से बाहर भी होने लगी थी. अब वह तस्करी के मामलों में हाथ आजमा रहा था. सबकुछ ठीक चल रहा था. लेकिन 1993 में अचानक मुंबई एक साथ कई धमाकों से दहल गई. इन धमाकों के पीछे डॉन दाऊद इब्राहिम का नाम आने लगा. इसी दौरान छोटा राजन और बबलू श्रीवास्तव समेत कई लोगों ने डी कंपनी को अलविदा कह दिया. कभी दाऊद के लिए जान देने का मादा रखने वाले छोटा राजन और बबलू श्रीवास्तव अब उसके दुश्मन बन गए थे.
बबलू की किताबएडिशनल कमिश्नर की हत्या में उम्रकैद
यूं तो अपने आपराधिक जीवन में बबलू श्रीवास्तव ने कई ऐसी घटनाओं को अंजाम दिया था जो किसी फिल्म की कहानी से कम नहीं लगती. लेकिन पुणे में एडिशनल पुलिस कमिश्नर एलडी अरोड़ा की हत्या के मामले में बबलू का नाम सुर्खियों में आ गया था. आरोप था कि बबलू और उसके साथी मंगे और सैनी ने सरेआम एडिशनल कमिश्नर अरोड़ा को गोलियों से भून दिया था. इस मामले की सुनवाई करते हुए बबलू और उसके साथियों को अदालत ने दोषी माना. और तीनों को उम्रकैद की सजा सुनाई थी.

बबलू का अधूरा ख्वाब
कई साल से जेल में बंद बबलू श्रीवास्तव ने ‘अधूरा ख्वाब’ नाम से एक किताब लिखी. जिसमें उसने अपनी जिंदगी की कई घटनाओं का जिक्र किया है. उसमें वे वारदात भी शामिल हैं जिनकी वजह से वह किडनैपिंग किंग कहलाने लगा था. उसने किताब में अंडरवर्ल्ड डॉन दाऊद इब्राहिम से मुलाकात और उसके साथ काम करने का जिक्र भी किया है. साथ ही बबलू ने दाऊद से दुश्मनी और गैंगवार को भी किताब में जगह दी है. इस किताब पर आधारित एक फिल्म बनाए जाने की तैयारी थी. जिसमें अभिनेता अरशद वारसी को बबलू का किरदार निभाना था.
कड़ी सुरक्षा के बीच बंद है बबलू
1995 में माफिया डॉन बबलू श्रीवास्तव मॉरिशस में पकड़ा गया था. उसके बाद उसे भारत लाया गया. यहां उसके खिलाफ करीब 60 मामले चल रहे थे. जिसमें से अब केवल चार लंबित हैं. कई मामलों में उसे सजा सुनाई जा चुकी है. इस दौरान कई बार ऐसे मामलों का खुलासा हुआ जिनमें बबलू की जान लेने की साजिश रची गई थी. इन सभी मामलों के पीछे अक्सर डी कंपनी का नाम आया. एक बार पुलिस ने खुलासा किया था कि बबलू की हत्या के लिए बड़ी सुपारी दी गई थी. लेकिन वह बच गया. फिलहाल, वह बरेली की सेंट्रल जेल में बंद है. उसे कड़ी सुरक्षा के बीच रखा गया है. पेशी के लिए बाहर जाने के वक्त उसे बुलैटप्रूफ जैकेट और हैलमेट पहनाकर ले जाया जाता है.
बबलू जेल में बंद है
जेल में ही सुरक्षित है बबलू
अब बबलू श्रीवास्तव जेल में ही खुद को सुरक्षित मानता है. कानूनी जानकारों का मानना है कि उसे पेरोल पर रिहाई मिल सकती है. मगर बबलू ने कभी कोर्ट में पेरोल के लिए पैरवी नहीं की. राजनीति में बबलू की ज्यादा दिलचस्पी नहीं है. अगर वह जेल से छूट जाता तो उसका इरादा फिल्में बनाने का था.

जब विद्यासागर जी ने चप्पल फेंकी

जब विद्यासागर जी ने चप्पल फेंकी फिर एक चप्पल चली। रोज ही कहीं ना कहीं यह पदत्राण थलचर हाथों में आ कर नभचर बन अपने गंत्वय की ओर जाने क...