Wednesday, November 25, 2015

दाऊद की प्रोपर्टी नीलामी के पीछे की असली कहानी !!! -जीतेंद्र दीक्षित

दाऊद की प्रोपर्टी नीलामी के पीछे की असली कहानी !!!


खबर आई है कि एक बार फिर अंडरवर्लड डॉन दाऊद इब्राहिम की संपत्ति की नीलामी होने जा रही है। बीते 16 सालों में दाऊद की संपत्ति की ये चौथी बार नीलामी हो रही है। मैं इससे पहले दाऊद की संपत्तियों की 3 नीलामियां कवर कर चुका हूं और मेरा मानना है कि ऐसी नीलामी एक ड्रामे से ज्यादा कुछ नहीं होती। साल 2000 में सबसे पहली बार नीलामी कोलाबा इलाके के इस होटल डिप्लोमैट में हुई थी...लेकिन तब किसी की हिम्मत नहीं हुई कि वो डॉन की संपत्ति पर बोली लगाये। उसके अगले साल 28 मार्च 2001 को दूसरी बार फिरसे नीलामी की गई जिसमें दिल्ली के शिवसैनिक अजय श्रीवास्तव ने नागपाडा इलाके की जयराजभाई लेन में 2 दुकाने खरीदीं। उसी साल 20 सितंबर को फिरसे तीसरी नीलामी हुई। उस नीलामी में दिल्ली के ही एक व्यापारी पीयूष जैन ने दाऊद की ताडदेव इलाके की एक संपत्ति खरीदी। इन दोनो ही लोगों ने संपत्ति के पैसे तो चुका दिये लेकिन आज तक संपत्ति का कब्जा हासिल नहीं कर सके हैं।
दिल्ली के शिवसैनिक अजय श्रीवास्तव पेशे से वकील हैं।1999 में श्रीवास्तव पहली बार तब चर्चा में आये थे जब उन्होने पाकिस्तान के साथ क्रिकेट मैच खेले जाने के विरोध में फिरोजशाह कोटला मैदान की पिच खोद डाली थी। अजय श्रीवास्तव ने संपत्ति तो खरीद ली, लेकिन उसके बाद उनका सामना हुआ दाऊद इब्राहिम की बहन हसीना पारकर से। हसीना पारकर ने संपत्ति का कब्जा देने से इंकार कर दिया। अजय श्रीवास्तव ने कब्जा हासिल करने के लिये मुंबई के स्मॉल कॉसेस कोर्ट में अर्जी दायर की। 10 साल तक चले मुकदमें के बाद साल 2010 में फैसला उनके पक्ष में ही आया लेकिन इसके बावजूद हसीना कब्जा छोडने को तैयार नहीं हुई।
भले ही कोर्ट की चारदीवारी में अजय श्रीवास्तव दाऊद के खिलाफ मुकदमा जीत गये हों, लेकिन दाऊद गिरोह के लिये ये उसकी नाक का सवाल था।हसीना पारकर ने स्मॉल कॉसेस कोर्ट के फैसले के खिलाफ अपील कर दी। हसीना पारकर की पिछले साल हार्ट अटैक से मौत हो गई, लेकिन अब उसके बच्चे मुकदमा आगे चला रहे हैं। कुल मिलाकर बीते 15 सालों से अजय श्रीवास्तव कब्जा हासिल करने के लिये दिल्ली से मुंबई का चक्कर काट रहे हैं। इस बीच उत्तर प्रदेश से पुलिस ने छोटा शकील गिरोह के कुछ शूटरों को गिरफ्तार किया जिनसे पूछताछ में पता चला कि उन्हें अजय श्रीवास्तव को अपना निशाना बनाना था। अजय श्रीवास्तव का कसूर था कि उसने दाऊद की संपत्ति पर बोली लगाने की हिम्मत की। इसके बाद दिल्ली पुलिस ने अजय श्रीवास्तव को सुरक्षा मुहैया करा दी। श्रीवास्तव का कहना है कि उन्होने अंडरवर्लड के खौफ के खिलाफ संदेश देने के लिये दाऊद की संपत्ति खरीदी थी। उन्होने मुंबई पुलिस को भी पेशकश की वे उनकी खरीदी हुई संपत्तियों का कब्जा ले ले और उस जगह अपनी चौकी बना दें, लेकिन मुंबई पुलिस ने दिलचस्पी नहीं दिखाई।
वैसे श्रीवास्तव के कुछ पुराने साथी जो अब उनसे अलग हो चुके हैं दबी जुबान से ये भी आरोप लगाते हैं कि उन्होने दाऊद की संपत्ति सिर्फ पब्लिसिटी की खातिर खरीदी थी। श्रीवास्तव की असली मंशा थी कि ऐसा करके वे शिवसेना में अपना कद बढा पायेंगे, लेकिन संपत्ति खरीदने के बाद जब वे मातोश्री बंगले पर बाल ठाकरे से मिलने पहुंचे तो ठाकरे ने उनसे मिलने से इंकार कर दिया।
दाऊद की संपत्ति को नीलामी में खरीदने वाले शख्स पीयूष जैन भी आज तक उसका कब्जा हासिल नहीं कर सकें हैं। जोश में आकर पीयूष जैन ने संपत्ति खरीद तो ली लेकिन उसके बाद डर के मारे उनकी हालत खराब हो गई। संपत्ति खरीदने के बाद पीयूष जैन ने दिल्ली में रहना छोड दिया और अब एक दूसरे शहर में रहने के लिये चले गये हैं। संपत्ति पर कब्जा हासिल करने किलेय पीयूष जैन ने कोई कोर्ट केस भी नहीं किया लेकिन जब उनसे मैने पूछा किया संपत्ति हासिल करने के लिये आपने क्या किया तो उनका जवाब था कि जब अटलबिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री थे तो मैने उनको खत लिखकर गुहार लगाई थी कि वे संपत्ति पर कब्जा हासिल करने में उनकी मदद करें।
अलग अलग केंद्रीय जांच एजेंसियों ने दाऊद इब्राहिम की करीब 12 संपत्तियों को जब्त कर रखा है और आज की तारीख में बाजार में उनकी कीमत 100 करोड के करीब आंकी जा रही है। सूत्रों के मुताबिक दाऊद के पास कई बेनामी संपत्तियां भी हैं जिनकी कोई आधिकारिक जानकारी इन जांच एजंसियों के पास नहीं है। ऐसी संपत्तियों की देखभाल का काम पहले दाऊद की बहन हसीना पारकर करती थी और अब उसका छोटा भाई इकबाल कासकर करता है।
14 साल बाद फिर एक बार दाऊद की संपत्ति की नीलामी तो हो रही है। हो सकता है कि फिर एक बार कोई न कोई हौसला जुटाकर बोली लगाने के लिये नीलामी में पहुंच जाये...लेकिन उसके आगे उस संपत्ति पर कब्जा हासिल करने के लिये उसे खुद ही दाऊद के रिश्तेदारों से कानूनी लडाई लडनी होगी। बीते हए मामले यही बताते हैं कि पुलिस और सरकार इसमें कोई मदद नहीं करेगी।

Saturday, November 14, 2015

आधुनिक राजनीति में सबका चाणक्य प्रशांत किशोर-ज्ञानेश्वर

आधुनिक राजनीति की बिसात में नए चाणक्य आए हैं. चाहे फिर वह लालू यादव का कैंपेन संभालने वाले संजय यादव की बात हो या फिर नीतीश के तरकश में तीर सजाने वाले प्रशांत किशोर. प्रशांत सागर की तरह शांत प्रशांत ने राजनीति की पक्ष आैर विपक्ष दोनों को जीतने आैर जिताने की क्षमता को परवान चढाया है एक तरफ जहां पहले बीजेपी के विजय रथ के चक्के को कश्मीर से कन्याकुमारी तक चला दिया, वहीं बिहारी में नीतिश के सारथी बनते ही चक्के का धुरा खोल भी दिया आम जनता तक राजनीतिक संघर्ष के साथ पीछे की राजनीति का खेल बखूबी समझने वाले चाणक्य बन रहे हैं ठीक उसी तरह जिस तरह से चाण्क्य ने चंद्रगुप्त मौर्य को पहले राजा घोषित कर फिर राजगदृदी दिलार्इ थी...
आइए वरिष्ठ पत्रकार ज्ञानेश्वर.के माध्यम से जानते हैं प्रशांत किशोर के बारें में...

लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी की भव्य जीत के बाद पहली बार प्रशांत किशोर का नाम उछला पर बिहार में नीतीश कुमार की बड़ी जीत के बाद उनके बारे में लोग सब कुछ जानना चाहते हैं लेकिन पर्दे के पीछे काम करने वाले प्रशांत के बारे में गूगल को भी बहुत कुछ नहीं पता.
तरकश से निकल रहे तीर अब दिल्ली जा रहे हैं. बिहार चुनाव के गेमचेंजर माने जा रहे प्रशांत किशोर पिछले दो दिनों से दिल्ली में हलचल मचाए हुए हैं. निश्चित तौर पर नई स्ट्रैटजी होगी. राहुल गांधी से मिल चुके हैं और अरुण शौरी से भी भेंट कन्फर्म है लेकिन सबसे अधिक चर्चा लालकृष्ण आडवाणी से मुलाकात को लेकर है. वैसे आडवाणी से मुलाकात की आधिकारिक पुष्टि अभी शेष है.
राजनीति में क्यों मची है प्रशांत किशोर के नाम की हलचल 
प्रशांत किशोर बिहार चुनाव के नतीजे के बाद सबसे अधिक चर्चा में हैं. अपने बारे में प्रशांत कभी खुलकर नहीं बात करते. इतना सब जानते हैं कि 2014 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी के कैम्पेन स्ट्रैटजिस्ट प्रशांत थे. बाद में अमित शाह से मतभेद के कारण अलग हुए. फिर नीतीश कुमार से जुड़े और मुश्किल चुनाव में भारी जीत दिला दी.
अब हम प्रशांत किशोर के बारे में वह सब बताते हैं, जो सभी जानना चाहते हैं, लेकिन अब तक पता नहीं था. प्रशांत बिहार के ही बक्सर के रहने वाले हैं. बताने की जरुरत नहीं, पर बिहार की 'जात जिज्ञासा' को शांत करने को बता दें कि वे ब्राह्मण हैं. 
इनके पिता डॉ. श्रीकांत पाण्डे और माता श्रीमती इंदिरा पाण्डेय हैं. पिता श्रीकांत पेशे से चिकित्सक हैं और सरकारी सेवा में रहे हैं. बक्सर में मेडिकल सुपरिटेंडेंट भी थे. अब बक्सर के ही इंडस्ट्रियल थाना क्षेत्र के निरंजनपुर में निजी प्रैक्टिस करते हैं. पहचान अच्छे डाक्ट र की है. प्रशांत बक्सर आते-जाते रहते हैं.
प्रशांत किशोर कैसे बन गए नेताओं की पहली पसंद
प्रशांत के बड़े भाई अजय किशोर पटना में ही रहते हैं और उनका अपना कारोबार है. प्रशांत की प्रारंभिक पढ़ाई बक्सर व धनबाद में हुई है. इंटरमीडिएट पटना के साइंस कालेज से हुई. बाद में पढ़ने को हैदराबाद चले गए और तकनीकी शिक्षा प्राप्त की. नौकरी में पहचान यूनिसेफ से मिली. दक्षिण अफ्रीका में थे तब भी ब्रांडिंग का जिम्मा था. 
गुजरात से संबंध वाइब्रैंट गुजरात के आयोजन को लेकर बना. सफल आयोजन के सूत्रधार के रूप में नरेन्द्र मोदी ने पहचान की. साथ जुड़कर भारत के पोल स्ट्रैटजिस्ट बन गये. पहले गुजरात में एक और जीत दिलाई. इसके बाद मोदी को लेकर दिल्ली. के रायसीना हिल्स की ओर बढ़ गये. सफल परिणति 2014 का लोकसभा चुनाव था. बाद में दिल्ली के पावर सेंटर के झगड़े ने प्रशांत को होम स्टेट और नीतीश के पास पहुंचा दिया.
प्रशांत शादी-शुदा हैं. पत्नी  और बच्चे दिल्ली  में रहते हैं. बिहार चुनाव के लंबे कैंपेन के दौरान परिवार को बिलकुल समय नहीं दे सके. अभी मां-पिता दिल्ली में ही हैं और प्रशांत परिवार के साथ समय बिताने के अलावा देश की राजनीति की आगे की स्ट्रैटजी तय करने में लगे हैं.

दुर्लभ जी अपहरण कांड अजय सिंह गिरोह-ज्ञानेश्वर वात्सायन

संभलिए,खतरा कम हुआ है,खत्‍म नहीं हुआ
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गया के चिकित्‍सक दंपती अपहर्ताओं के कब्‍जे से आजाद अपने घर में हैं । कोई दो राय नहीं कि इस दफे आजादी अपहर्ताओं से खरीदी नहीं गई है । जब सभी निश्चिंत हो जाते हैं,तब भी मेरे जैसे क्राइम एनालिस्‍ट के दिमाग में कई प्रश्‍न चल रहे होते हैं । गुत्थियों को भविष्‍य के लिए जानना जरुरी होता है । और वह भी तब जब वारदात अजय सिंह जैसा गिरोह करे । अजय सिंह गिरोह के कारनामों को कलमबंद कर दें,तो बिहार-झारखंड समेत कई प्रदेशों में यह बेस्‍टसेलर्स स्‍टैंड का भी हाटकेक बनेगा ।
बहरहाल,सबसे पहले जानना यह आवश्‍यक है कि डा. पंकज गुप्‍ता-शुभ्रा गुप्‍ता के अपहरण का ताना- बाना कैसे बुना गया । मेरे कहने का सीधा आशय है कि अपहर्ताओं के लिए डाक्‍टर दंपती की मुखबिरी किसने की । बगैर मुखबिरी,बड़ा अपहरण,मानने को मेरा दिल नहीं करता । अपराधियों के लिए यमदूत माने जाने वाले अधिकारी भी मुझसे सहमत हैं । लेकिन गैंगस्‍टर अजय समेत पूरे गिरोह को लखनऊ जेल भेजे जाने के पहले तक की कठोरतम पूछताछ में भी बिहार-यूपी पुलिस लाइन देने वाले को नहीं जान सकी है । सभी साथ-साथ,फिर अलग-अलग भी हर अपहर्ता ऐसा ही बकता रहा कि आजकल गिरोह 'चांस किडनैपिंग' के फार्मूले पर था । 'चांस किडनैपिंग' के फार्मूले को सुन ही दिमाग ठनका हुआ है । यह तो और खतरनाक बात हुई । इस कारण ही आप सबों को जगाना जरुरी हो गया है,विशेषकर वे जो आडी,मर्सिडीज,बीएमडब्‍ल्‍यू,लैंड रोवर जैसी महंगी गाडि़यों से फर्राटे भरते हैं । आगे पढ़ने-बढ़ने के पहले अपने दिमाग का नट-बोल्‍ट इस तरीके से ठीक कर लें कि सिर्फ बनिया-मारवाड़ी-डाक्‍टर को अपह्त करने का जमाना चला गया है । 'चांस किडनैपिंग' के शिकार तो आप कोई भी हो सकते हैं । वैसे भी आपने देखा कि अपहर्ताओं ने महिला होने के बाद भी शुभ्रा गुप्‍ता को नहीं बख्‍शा ।
पूर्ण यकीन न होने के बाद भी अधिक खतरनाक 'चांस किडनैपिंग' के अजय सिंह गिरोह के फार्मूले को समझते हैं । कहना है कि लाइन तलाशने में गिरोह समय जाया नहीं करता था । तैयारी सिर्फ तारीख और जगह के हिसाब से होती थी । जीटी रोड को फिट माना गया था । तैयारी के बाद गिरोह सड़क पर होता था । दो-तीन गाड़ी होती थी । पीछे की गाड़ी का साथी तीन-चार किमी. पीछे होता था । वह आडी,मर्सिडीज,बीएमडब्‍ल्‍यू,लैंड रोवर जैसी गाडि़यों की नजर रखता था । कंफर्म कर लेता था कि गाड़ी में अधिक लोग नहीं हैं और मुस्‍टंड जैसा तो हरगिज नहीं । अधिक समय में भी ऐसी गाड़ी न मिलने पर ही फॉरच्‍युनर,इनोवा,होंडा सिटी जैसी गाडि़यों पर दिमाग लगता था । टारगेट फिक्‍स्‍ड करते ही वह आगे कैंप कर रहे गिरोह के आपरेशनल ग्रुप को खबर कर देता था,जिसे अपहरण को अंजाम देना होता था । अजय सिंह का दावा है कि ऐसे ही डा. पंकज गुप्‍ता-शुभ्रा गुप्‍ता का अपहरण किया गया । वैसे गया आने पर कई बड़े अधिकारी आगे इस बाबत पूछताछ करने को जायेंगे ।
अब 'चांस किडनैपिंग' के विवेचना पक्ष में जाते हैं । पहली सलाह कि आप इन महंगी गाडि़यों में फर्राटे भरते हैं,तो सावधान हो जाएं । खासकर फोरलेन की सड़कों पर । सुनसान रास्‍ते हरगिज न चुनें । सेल्‍फ ड्राइव कर अकेले चले जाने की आदत का त्‍याग करें । अपहर्ता मालिक-चालक की पहचान कर लेते हैं । आपको बता दें कि अपहरण के खतरे शहर से बाहर तेज जाती सड़कों पर अधिक होता है । पटना जैसे शहर में मार्निंग और लेट नाइट को अलर्ट रहने की जरुरत है,क्‍योंकि तब ट्राफिक कम होती है । वैसे आपको बचाव के नुस्‍खे जरुर अपनाना चाहिए । जीपीआरएस सिस्‍टम को एक्टिव रखें । दूसरा उपाय है कि आपकी गाड़ी में सिर्फ और सिर्फ आपकी जानकारी में साइलेंट मोड में मोबाइल कहीं छुपाकर रखा जाए । इसकी बैटरी पूरी तरह चार्ज होनी चाहिए । कुछ सेकंड के बाद आटोमेटिक रिसीविंग का आप्‍शन ओपन रखें । इस नंबर का पता आपके घर में सबसे खास को होना चाहिए । पति-पत्‍नी दोनों जा रहे हों,तो तीसरे खास को पता हो । यह नुस्‍खा अपहरण में लोकेशन को तुरंत पता करने में कारगर होता है ।
एक बात और,'चांस किडनैपिंग' में दूसरे प्रदेशों की गाडि़यों (रजिस्‍ट्रेशन नंबर) पर खतरे अधिक होते हैं । ऐसा इसलिए कि अपहर्ता गिरोह की समझ होती है कि जब तक हल्‍ला होगा,वे सभी सुरक्षित सेट हो चुके होंगे । फिर दूसरे प्रदेश की गाड़ी और असामी होने के कारण स्‍थानीय पुलिस से पहुंच में भी देरी होगी । दबाव का स्‍तर पूरी प्रक्रिया में कम होगा । यह बताने की जरुरत नहीं कि अपहर्ता मान लेते हैं कि आडी,मर्सिडीज,बीएमडब्‍ल्‍यू,लैंड रोवर का मुर्गा फंसा तो वसूली कई करोड़ों में होगी ।
मैंने खतरा खत्‍म न होने की बात इसलिए भी कही है कि पुलिस और कमांडो की वर्दी में लाल-पीली- नीली बत्‍ती लगी गाडि़यों का इस्‍तेमाल होने लगा । इसे रोक पाना कठिन टास्‍क है । लूट की कई घटनाएं भी पहले इस तरीके से देश के कई हिस्‍सों में प्रतिवेदित हो चुकी है । ऐसे में,पुलिस की वर्दी देख भी अपनी गाड़ी को रोकने और पीछे की गाड़ी को आगे आने के लिए पास देने के समय आपको बेहद सावधान होना होगा । बिहार में इन दिनों सायरन बजाती गाडि़यां भी खूब दौड़ती है । आज मैं आला पुलिस अधिकारियों से चर्चा कर रहा था । यह चुनौती उन्‍होंने भी स्‍वीकारी । अपने यहां वीआईपी बत्‍ती कोई भी लगा लेता है । मैंने उड़ीसा का अनुभव बताया । दो साल पहले मैं किसी कार्य के सिलसिले में भुवनेश्‍वर सात दिनों तक था । इन सात दिनों में बमुश्किल तीन-चार वीआईपी वाली बत्‍ती गाड़ी मैंने देखी थी । पटना में हजारों दिखते हैं । तरकारी बाजार से लेकर अंडरवर्ल्‍ड के ठिकानों तक में । जब मैंने भुवनेश्‍वर में कम वीआईपी गाडि़यों की चर्चा छेड़ी तो मालूम हुआ कि वहां सरकार मान्‍य लोगों को भी सिर्फ सरकार से मिली सरकारी गाड़ी में ही बत्‍ती लगाने की इजाजत देती है । अपने बिहार में तो घर के भीतर भाई-भतीजे की भी गाड़ी में बत्‍ती लगी दिखेगी । चुनौती से निपटना है तो इसे सख्‍ती से रोकना होगा । जो गाडि़यां बत्‍ती के लिए अधिकृत हैं,उनकी सूचना सार्वजनिक की जानी चाहिए ।
आधिकारिक स्‍तर पर एक और गंभीर चिंता मैंने आज पुलिस महकमे में महसूस की । यह चिंता इसे लेकर है कि गिरफ्तार अजय सिंह को रखा कहां जाए । बिहार की जेलों की स्थिति सभी समझते हैं । लखनऊ में बहुत दिनों तक रखा नहीं जा सकता । जयपुर में उसे आजीवन कैद की सजा मिली है और परोल पर भागा है । जयपुर भेज देना आसान है,पर अपहरण की तारीखों पर गया तो लाना ही होगा । इस चुनौती का हल बिहार को निकालना होगा । वैसे आज सुबह के पोस्‍ट में मैंने दमन के सोहेल हिंगोरा अपहरण मामले की चर्चा कर दी थी । हिंगोरा अपहरण में अजय सिंह के शामिल होने की खबरों को और पुष्‍ट करने में लगे हैं । इसका तार ऐसे जोड़ना होगा कि अजय सिंह और चंदन सोनार गिरोह में मेल कितना है । पूर्ण संपुष्टि तो हिंगोरा मामले में फिरौती वसूली के दौरान रिकार्ड किए गए काल्‍स की वॉयस से ही होगी । आज के लिए बस इतना ही,आगे की चर्चा और इनपुट की प्राप्ति पर करेंगे ।
आज शाम के पोस्‍ट में गया के चिकित्‍सक दंपती अपहरण मामले की जानकारी और आगे की चुनौतियों को आगे बढ़ायेंगे । विशेषकर बिहार-झारखंड में उन्‍हें कनेक्‍ट करेंगे,जोकि आडी,मर्सिडीज, बीएमडब्‍ल्‍यू,लैंड रोवर जैसी महंगी गाडि़यों के मालिक हैं । इन सभी मालिकों के लिए जानने लायक जरुरी जानकारी होगी । साथ में,और भी बहुत कुछ । सुबह अखबारों में पढ़ा कि चर्चित सोहेल हिंगोरा अपहरण मामले में भी गैंगस्‍टर अजय सिंह लपेटे में आ रहा है । अपने भरोसे के सूत्रों से चर्चा की । आधिकारिक-अंडरवर्ल्‍ड दोनों क्षेत्रों में । अभी बहुत कंफर्म नहीं कर सकते हैं । बड़ी मछली पकड़े जाने के बाद पुलिस कई कांडों को लपेट लेती है जांच में फिसड्डी होने के आरोपों से पिंड छुड़ाने को । सोहेल के परिजनों से फिरौती मांगने के काल्‍स रिकार्डेड हैं,जो सच-झूठ का राजफाश कर सकते हैं,बशर्ते पुलिस चाहे । अजय सिंह की गिरफ्तारी के पहले तक हिंगोरा अपहरण मामले में चंदन सोनार-दिलीप कुशवाहा गिरोह का नाम ही आता रहा है । कहा जाता है कि चंदन सोनार का नेटवर्क विदेश संभवत : मलेशिया तक पहुंच गया है । ऐसी बातें करने वाले लोग होटल कारोबार में निवेश की बात भी करते हैं । बहरहाल,पालिटिकल बहस में हिस्‍सा लेने वालों की जानकारी अपडेट के लिए यह भी स्‍पष्‍ट कर दें कि अक्‍तूबर,11 में जब अजय सिंह जयपुर जेल से महीने भर के लिए परोल पर बाहर आया,तब राजस्‍थान में कांग्रेस की अशोक गहलोत सरकार थी । परोल खत्‍म होने के बाद अजय जेल नहीं लौटा था । बाकी बातें,आज शाम को करेंगे ।
बिना थप्‍पड़ नहीं जगती बिहार पुलिस,इलाहाबाद में छूटे थे गुप्‍ता दंपती
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खैर मनाइये,गया के चिकित्‍सक डा. पंकज गुप्‍ता-पत्‍नी शुभ्रा गुप्‍ता सकुशल घर पहुंच गए । गैंगस्‍टर अजय सिंह भी हत्‍थे चढ़ गया । आज कुछ और पर्दा उठाते हैं । जानता कल ही था,लेकिन पुलिस के अनुसंधान को डिस्‍टर्ब नहीं करना चाहता था । अपहरण के मामले में पुलिस को भी जानकारियां कई बार उलझानी होती है । इस उलझन ने कुछ भ्रम भी पैदा किए । पालिटिकल सवाल भी उठने लगे । कानाफूसी की रिपोर्टिंग करने वाले साथियों ने फिरौती के दावे कर दिए । ऐसे दावे करने वाले अजय सिंह गिरोह की माडेस अप्रेंडी से बिलकुल अनभिज्ञ थे । हकीकत की जांच के बाद मेरा निष्‍कर्ष है कि इस अपहरण कांड में कोई फिरौती नहीं वसूली जा सकी । इसके लिए आपको बिहार में कांड की मानीटरिंग कर रहे आईपीएस कुंदन कृष्‍णन को सलाम करना होगा । बहुत कम समय में कृष्‍णन ने गया-रफीगंज-सासाराम-पटना-जमुई में गैंगस्‍टर अजय सिंह से जुड़े करीब बीस लोगों को रडार पर लिया । पत्‍नी-साला से लेकर इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहा अजय सिंह का बेटा घेरे में आया ।
सही है कि बिहार पुलिस लखनऊ में दो दिनों से कैंप कर रही थी । वहां यूपी पुलिस के आईजी (एसटीएफ) सुजीत पांडेय मानीटरिंग कर रहे थे । सभी लीड्स गोमतीनगर में जाकर ठहरते थे । गोमतीनगर की खबर पहले से भी थी । यह ऐसे कि पूर्व में इस गिरोह के द्वारा अपह्त ठेकेदार रविरंजन सिंह के परिजनों ने फिरौती का भुगतान लखनऊ के गोमतीनगर में ही किया था । यूपी एसटीएफ की पड़ताल ने बाद में शारदा अपार्टमेंट की पहचान की । इस अपार्टमेंट में हजारों लोग रहते हैं । फिर भी फ्लैट को लेकर कंफ्यूजन था । गन बैटल यहां मुश्किल था ।
मंगलवार पांच मई की रात बहुत अहम् थी । अपहरण मामले में अपह्त की सकुशल रिहाई पुलिस की सर्वोच्‍च प्राथमिकता होती है । लखनऊ के शारदा अपार्टमेंट में घुसकर यूपी एसटीएफ तुरंत बड़ा सर्च आपरेशन कर सकती थी,लेकिन कई तरीके का संकोच भी था । इधर अपने स्‍टाइल में काम करने में महारत हासिल किए कुंदन कृष्‍णन पटना में दबाव का मीटर जान निश्चिंत थे कि अपहर्ताओं को चिकित्‍सक दंपति को आज रात छोड़ना ही होगा । यह स्‍पष्‍ट नहीं था कि कहां छोड़ेंगे । निश्चिंतता इस बात की भी पूर्ण नहीं थी कि गोमतीनगर के शारदा अपार्टमेंट में अपहर्ताओं के साथ अपह्त चिकित्‍सक दंपती भी हैं । ऐसे में,अपार्टमेंट के भीतर घुसकर तुरंत कार्रवाई कर देना भी मुनासिब नहीं था ।
यह तो कुंदन कृष्‍णन ने ही यूपी एसटीएफ को बुधवार छह मई को सुबह कंफर्म किया कि डाक्‍टर दंपती छोड़ दिए गए हैं । पर कहां छोड़ा,यह नहीं बताया गया,क्‍योंकि छोड़े जाने के बाद डाक्‍टर का फोन नहीं आया था । ऐसे में,जब तक डाक्‍टर दंपती घर गया नहीं पहुंचते,सौ फीसदी मुमकिन करना संभव नहीं था । सो,आपरेशनल टीम शारदा अपार्टमेंट से दूर ही रही । दंपती के घर पहुंचने का इंतजार किया जाता रहा । दूसरी ओर अजय सिंह गिरोह को अभी इस बात का अंदेशा नहीं था कि पुलिस टीम लखनऊ पहुंच चुकी है । वह अपह्त को रिहा कर और तनावमुक्‍त हो गया था । अब सच जान लें कि डाक्‍टर दंपती को न पुलिस के दावे के मुताबिक लखनऊ में छोड़ा गया और न ही डेहरी में,जैसा कि घर आने के बाद डा. पंकज गुप्‍ता ने मीडिया को बताया था । अपहर्ताओं ने उन्‍हें इलाहाबाद जाकर छोड़ा था,जहां से वे पुरुषोत्‍त्‍म/पूर्वा एक्‍सप्रेस से गया आये । गया आने के बाद ही दंपती की रिहाई की खबर कुंदन कृष्‍णन के माध्‍यम से यूपी एसटीएफ के आई जी सुजीत पांडेय को कंफर्म की गई ।
इस कंफर्मेशन के बाद यूपी एसटीएफ ने बिहार पुलिस की टीम के साथ शारदा अपार्टमेंट में कार्रवाई की । आडी नीचे गैराज में देख आंखें खिली । फ्लैट नंबर सूचना मुताबिक कंफर्म हो गया । फिर सीधा धावा । आपरेशन में गैंगस्‍टर अजय सिंह साथियों समेत पकड़ा गया । अपहरण में इस्‍तेमाल सामानों की जब्‍ती हुई । अब गैंगस्‍टर अजय सिंह के माडेस अप्रेंडी को समझिए । वह सधा हुआ अपहर्ता है । कोई हड़बड़ी नहीं करता । अपहरण बाद सीधा दुम साध लेता है । बीस-पचीस दिनों तक कोई हलचल नहीं करता । जब पुलिस हार गई होती है और परिजन निराश हो जाते हैं,तो वह एक्टिव होता है । गिरोह में सभी सदस्‍यों का काम बंटा होता है । संपर्क कई माध्‍यमों से साधा जाता है और अलग-अलग शहरों से । रिकार्ड है कि इस गिरोह ने कई बार चलती ट्रेनों से उछाल नान स्‍टापेज वाले स्‍टेशनों पर पैसों का बैग प्राप्‍त किया । ठेकेदार रविरंजन सिंह अपहरण मामले में सौदा जल्‍दी और सस्‍ते में इसलिए पट गया था,क्‍योंकि राजनीतिक दबाव बहुत था । अजय सिंह की राजनीतिक पहुंच कम नहीं है । पहले बता चुके हैं कि वह चंद्रशेखर की पार्टी से चुनाव लड़ चुका है । छह फरवरी,2003 को जब उसने जयपुर में हीरा कारोबारी की पत्‍नी सुमेधा दुर्लभजी का अपहरण किया था,तब उसके साथ आज के केन्‍द्रीय मंत्रिपरिषद में शामिल मंत्री का करीबी रिश्‍तेदार भी था । धनंजय सिंह को भी तब अपराध में शामिल पाया गया था,जिसके पिता कभी जनता दल के विधायक थे । धनंजय खुद रिलायंस से जुड़ा था और गिरोह के काल्‍स की देख-रेख करता था । आज भी उसने लखनऊ में स्‍वयं को कांग्रेस के हाल ही में दिवंगत हुए नेता केे परिवार के करीब बताया,जिनकी बहू पटना में नामी ब्‍यूटी पार्लर चलाती हैं । ऐसे में,यह नहीं माना जाना चाहिए कि अजय सिंह जैसा शातिर चार-पांच दिनों में बड़े आसामी से सौदा कर लेता ।
अब बिहार पुलिस की बात करते हैं । मैंने पहले ही कहा कि बगैर थप्‍पड़ खाए बिहार पुलिस नहीं जगती । यह थप्‍पड़ भी अपराधी की ऐसी होनी चाहिए कि सरकार की चूल हिले और मीडिया हल्‍ला बोले । जयपुर जेल में सुमेधा दुर्लभजी अपहरण मामले में अजय सिंह आजीवन कैद की सजा काट रहा था । वह 22 अक्‍टूबर,2011 को एक महीने के पेरोल पर आया । मतलब 22 नवंबर,2011 को वापसी हो जानी चाहिए थी । लेकिन वापस जेल नहीं गया । 23 नवंबर को जयपुर जेल प्रशासन ने शाहपुरा थाने में रिपोर्ट लिखाई । तलाश में जयपुर पुलिस पटना भी आई । किंतु कुछ पता नहीं चला । मेरा मानना है कि बिहार पुलिस को तभी जगना चाहिए था । अजय सिंह पेरोल तोड़ जेल से गीता पाठ के लिए बाहर नहीं आया था । बिहार में यहां-वहां देखा भी जा रहा था । दरअसल,वह अपने गिरोह को फिर से जिंदा करने में लगा था । लेकिन बिहार पुलिस सो रही थी । फायदा अजय सिंह ने उठाया ।
अजय सिंह ने दो महीने में अपने गिरोह को नये तरीके से जिंदा कर लिया । जनवरी,12 में उसने गया फोरलेन पर ही इंडस्‍ट्रलियस्‍ट अनिल अग्रवाल को बनारस से आसनसोल जाते वक्‍त अपहरण कर सनसनी फैला दी । बिहार पुलिस ने कहा-अपहरण मेरे यहां नहीं हुआ,झारखंड पुलिस ने कहा-अपहरण मेरे इलाके में नहीं हुआ । बड़़ी मुश्किल वाराणसी में रिपोर्ट दर्ज हुई । उधर अपहरण बाद अजय सिंह गिरोह सो गया । पुलिस हार गई,परिजन अपशकुन मानने लगे,तब संपर्क किया । महीने भर बाद जब अनिल अग्रवाल घर वापस आये,तो पुलिस ने अपनी पीठ थपथपा ली । लेकिन सभी जान रहे थे कि पांच करोड़ में छूटे हैं । कल शाम मुझे यूपी एसटीएफ ने अजय सिंह से पूछताछ कर साढ़े पांच करोड़ की डील अनिल अग्रवाल मामले में कंफर्म की । इसके बाद भी यह गिरोह दूसरे प्रदेशों में अपहरण करता रहा । डाक्‍टर दंपती के पहले का मामला कांट्रेक्‍टर रविरंजन सिंह का गया फोरलेन पर हुआ अपहरण था । इस मामले में भी रिहाई और गिरोह का सच जान बिहार पुलिस सोती रही । नहीं सोती,तो डाक्‍टर दंपती अगवा नहीं होते । बिहार पुलिस की नाकामी सूरत के सोहेल हिंगोरा मामले में भी स्‍पष्‍ट है । मैंने ही बिहार में नौ करोड़ की फिरौती वसूली मामले का खुलासा किया था । बड़ा हंगामा हुआ । गैंगस्‍टर की पहचान चंदन सोनार के रुप में हुई । लेकिन आज भी चंदन सोनार पुलिस की गिरफ्त से दूर है ।
बिहार पुलिस के बारे में अभी और बहुत कुछ लिखना है,लेकिन पोस्‍ट काफी लंबा हो गया,इसलिए दूसरा पोस्‍ट कल शुक्रवार की शाम को लिखेंगे । बहरहाल,अंत में आपको डाक्‍टर दंपती के अपहर्ता अजय सिंह की वह कमजोरी बता दें,जिसके कारण पुलिस को जरुरी लीड्स मिलती रही । अजय नये अपहरण में पहले अपहरण के समय अपह्त की गाड़ी का इस्‍तेमाल करता है । डाक्‍टर दंपती मामले में ऐसा उसने पहली बार नहीं किया । ठीक इसी तरीके से उसने 2003 मेंं जयपुर में सुमेधा दुर्लभजी अपहरण मामले में किया था । दो गाड़ी तब उसने इस्‍तेमाल की थी । अपहरण बाद एक इंडिका उसने छोड़ दी थी । इस इंडिका ने ही पुलिस को तब अजय सिंह के दिल्‍ली ठिकाने तक पहुंचा दिया था । दरअसल वह इंडिका 14 दिसंबर,02 को इस गिरोह द्वारा छत्‍तीसगढ़ के बिलासपुर में अपह्त किए गए दो इंजीनियरों की थी । बाद में इन इंजीनियरों को उड़ीसा के राउरकेला में छोड़ा गया था । आगे जांच में छत्‍तीसगढ़ पुलिस ने गिरोह के सदस्‍य उमेश सिंह को गिरफ्तार कर अजय सिंह की पहचान की थी,लेकिन अजय ने पकड़े जाने के पहले जयपुर में दूसरी बड़ी वारदात को अंजाम दे दिया था । तब अजय की दिल्‍ली में हुई गिरफ्तारी में सुमेधा दुर्लभजी के अपहरण में प्रयुक्‍त दूसरी मारुति स्‍टीम कार जेएच-11ए-7987 भी जब्‍त की गई थी । आज के लिए इतना ही,बाकी चर्चा कल करेंगे ।  
गया के चिकित्‍सक डा. पंकज गुप्‍ता-शुभ्रा गुप्‍ता की लखनऊ में हुई रिहाई के लिए बिहार-यूपी पुलिस के संयुक्‍त अभियान के फलाफल की तस्‍वीरें साथियों ने उपलब्‍ध कराई है । पहली तस्‍वीर डाक्‍टर दंपती के अपहर्ताओं की है । दूसरी तस्‍वीर गोमतीनगर के उस शारदा अपार्टमेंट की है,जहां नौंवें तल्‍ले पर अपह्त को फ्लैट में रखा गया था । तीसरी तस्‍वीर उस बरामद आडी की है,जिसके साथ डाक्‍टर दंपती अगवा किये गये थे । चौथी तस्‍वीर फ्लैट के भीतर की है,जहां अपहरण के दौरान अपहर्ताओं द्वारा इस्‍तेमाल की गई पुलिस व एसटीएफ की वर्दी मिली । डीआईजी स्‍तर तक के अधिकारी की वर्दी बरामद हुई । साथ में लाल-पीली-नीली बत्‍ती,जिसके कारण अपहर्ता सरपट लखनऊ पहुंच गए । पांचवीं तस्‍वीर यूपी के आला अधिकारियों की है,जो स्‍पाट का मुआयना करने पहुंचे । छठी तस्‍वीर यूपी के आईजी (एसटीएफ) सुजीत पांडेय की है,जिन्‍होंने लखनऊ के पूरे आपरेशन की कमान संभाली । बताते चलें सुजीत पांडेय अपने बिहार के ही हैं और लॉयला स्‍कूल से स्‍कूलिंग की है ।
डीएसपी के बेटे अजय सिंह ने किया था डा. पंकज गुप्‍ता का अपहरण
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बिहार पुलिस की कोशिश रंग लाई । गया के फोरलेन पर एक मई को आडी कार से अपह्त किए गए डा. पंकज गुप्‍ता-पत्‍नी शुभ्रा गुप्‍ता बगैर कोई फिरौती दिए घर वापस पहुंच गये हैं । रिहाई लखनऊ में हुई । बिहार पुलिस के इनपुट पर लखनऊ में बड़ी कार्रवाई को अंजाम देने वाले यूपी के आईजी (एसटीएफ) सुजीत पांडेय भी बिहार के ही हैं । कामयाबी से गदगद सुजीत पांडेय ने अभी-अभी मुझे फोन पर बताया कि बिहार में लगातार अपहरण कर रहे गिरोह को उन्‍होंने गिरफ्त में ले लिया है । इस गिरोह का सरगना अजय सिंह अपने छह अन्‍य साथियों के साथ धर लिया गया है । सरगना अजय सिंह बिहार पुलिस के रिटायर्ड डीएसपी मंगल सिंह का बेटा है । इसके एक भाई पटना नगर निगम के अधिकारी हैं ।
अजय सिंह की गिनती देश के सबसे बड़े अपहर्ताओं में होती है । पहले यह बिहार से बाहर अपहरण करता था । पहली चर्चा में अजय सिंह तब आया था,जब इसने फरवरी,2003 में जयपुर से हीरों के बड़े व्‍यापारी रश्मिकांत दुर्लभजी की पत्‍नी सुमेधा दुर्लभजी को मार्निंग वाक के तहत अगवा कर लिया था । यह परिवार लालकृष्‍ण आडवाणी का काफी करीब था । देशव्‍यापी आपरेशन के बाद साठ वर्षीया सुमेधा दुर्लभजी को फरीदाबाद से छुड़ाया गया था । अजय सिंह अपने साथियों के साथ पकड़ा गया था । इसके पहले अजय सिंह ने चतरा लोक सभा क्षेत्र से चंद्रशेखर की पार्टी से लोक सभा चुनाव लड़ा था । जयपुर जेल में रहते हुए भी इसने तरैया से विधान सभा चुनाव लड़ने की इजाजत मांगी थी,लेकिन नहीं मिली ।
जयपुर अपहरण में अजय को आजीवन कैद की सजा मिली । यह अक्‍तूबर,2011 में पेरोल पर छूटकर आया था । महीने भर बाद जेल लौटना था,लेकिन भगोड़ा बन गया । इसके बाद अपने गिरोह को फिर से सुगठित कर अपहरण को अंजाम देता रहा । पुलिस अधिकारी बन अगवा करने में इस गिरोह को महारत हासिल थी । पूर्व में लखनऊ में भी कर चुका था ।
यूपी के आईजी (एसटीएफ) सुजीत पांडेय ने बताया कि अपह्त डाक्‍टर दंपती काे गोमती नगर के मखदुमपुर चौकी के शारदा अपार्टमेंट में छुपाकर रखा था । डाक्‍टर की आडी और अपहरण में प्रयुक्‍त फॉरचुनर गाड़ी बरामद कर ली गई थी । इसमें लाल-नीली बत्‍ती लगी थी । हथियार आदि भी बरामद हुए हैं ।
  
कठिन चुनौती का वक्‍त
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चुनौती पूरे बिहार सरकार को मिली है । तरह-तरह के सवाल भी उठ रहे हैं । वाकया गया के बड़े चिकित्‍सक डा. पंकज गुप्‍ता और शुभ्रा गुप्‍ता के अपहरण का है । यह कोई मामूली अपहरण नहीं है । स्‍पष्‍ट है कि अपहरण के पीछे कारण फिरौती वसूली है । संभवत : बिहार में पहली बार कोई गिरोह किसी महिला को भी साथ अगवा कर ले गया है । पिछले दो दिनों से इस मामले में कुछ लिखना चाह रहा था । पर कुछ देर हो गई । देरी के घंटों में भी दिमाग ऐसे अधिकारी की तलाश करता रहा,जो चुनौती के इस कठिन वक्‍त में रिजल्‍ट दे । आज शाम को बिहार में पुलिस अधिकारियों की ट्रांसफर-पोस्‍िटंग भी हुई । सच कहूं,तो क्राइसिस की घड़ी में रिजल्‍ट देने वाले अधिकारियों का अकाल है अभी बिहार में । केवल दो नाम दिमाग में चलते रहे,जो कुछ भी कर देने की क्षमता वाले हैं । अच्‍छा हुआ कि इनमें से एक कुंदन कृष्‍णन को शाम में पटना के जोनल आईजी की पोस्टिंग मिल गई,अब वे सीधे अपने परिचित स्‍टाइल में काम करने को आजाद हैं । बिहार काडर के दूसरे अधिकारी आर एस भट्ठी अभी सीबीआई में महत्‍वपूर्ण ओहदे पर हैं,जो बिहार में संकट के ऐसे क्षणों में कई करिश्‍माई रिजल्‍ट पहले दे चुके हैं । अब सीधे बिहार के किसी आपरेशन में भट्ठी शामिल नहीं हो सकते ।
अपने अनुभव के आधार पर कहता हूं कि चुनौती के ऐसे कठिन वक्‍त में साइंटीफिक आपरेशन बहुत ज्‍यादा रिजल्‍ट नहीं देते,लेकिन अपराधियों से निपटने के पुराने आजमाये नुस्‍खे जरुर काम आ जाते हैं । सरकार ने मनु महाराज के रुप में गया को एसएसपी के पद पर तैनात कर टफ अफसर दिया है । बिहार पुलिस की परेशानी है कि अपराधियों का वह लंबा पीछा नहीं करती । पीछा करने की आदत न छूटी होती तो गया का फोरलेन अपहर्ताओं के लिए मुरीद नहीं होता । जनवरी,2012 में वाराणसी से आसनसोल जाते बड़े उद्योगपति अनिल अग्रवाल का अपहरण भी बड़ी गाड़ी के साथ गया फोरलेन पर ही किया गया था । तब मैंने पुलिस की व्‍यस्‍तता आपरेशन में कम अपहरण के घटना-स्‍थल की लडा़ई में अधिक देखी थी । करीब माह भर बाद अनिल अग्रवाल अपहर्ताओं के चंगुल से छूट हजारीबाग घर लौटे थे । चर्चा थी कि पांच करोड़ की फिरौती वसूली गई । भाजपा के पूर्व प्रदेश अध्‍यक्ष गोपाल नारायण सिंह के रिश्‍तेदारों के अपहरण मामले में भी मर्जी सिर्फ अपहर्ताओं की चली । पुलिस पुख्‍ता तौर पर कोई गिरोह नहीं खोल सकी ।
अब भी यह देख दंग हूं कि पुलिस और मीडिया डाक्‍टरों का अपहरण करने वाले गिरोह का पता लगाने में लगी है । इससे बहुत फायदा नहीं मिलने वाला । अपहर्ता मालदार तलाशते हैं,जात-पेशा नहीं जानते । सूरत के सोहेल हिंगोरा अपहरण मामले में भी गिरोह का किंगपिन पुलिस के हत्‍थे नहीं चढ़ा । डा. पंकज गुप्‍ता-शुभ्रा गुप्‍ता का अपहरण आडी गाड़ी से हुआ । जानना जरुरी है कि आडी की ड्राइविंग सभी किस्‍म के ड्राइवर तुरंत नहीं कर सकते । यह मानने को मैं तैयार नहीं हूं कि गन प्‍वांइट पर मजबूरन आडी ड्राइव कर अपहर्ता के ठिकाने तक स्‍वयं डा. गुप्‍ता ले गये होंगे । बात यह भी सामने आ रही है कि अपहर्ता पुलिस वालों की तरह थे । ऐसे गिरोह को खंगालने में लखनऊ के उद्योगपति संजय झुनझुनवाला के अपहरण को भी खंगालने की जरुरत है,जिन्‍हें एसटीएफ की टीम बनकर अपहर्ता 6 जून 2001 को उठा ले गये थे । नेशनल हाईवे पर अपहरण के उस्‍ताद गिरोह की तलाश में बिस्‍को स्‍पांज आयरन के मालिक कृष्‍णा भालाेटिया अपहरण कांड के फाइल को उकेरने की आवश्‍यकता भी है । वैसे सच यह भी है कि फिरौती भुगतान के बाद रिहाई हुई और पुलिस ने इन सभी मामलों में जांच आगे नहीं बढ़ाई । दिल्‍ली के किसी सूत्र से बात कर रहा था । आजकल अपहर्ताओं का इंटर-स्‍टेट नेटवर्क बहुत जल्‍द खड़ा हो जाता है । बताया गया कि पंजाब में 24 जुलाई 2013 को मुनीश बरारा नामक उद्योगपति का अपहरण बीएमडब्‍ल्‍यू से किया गया था । इसमें भी कई प्रांतों के अपहर्ताओं के शामिल होने की बात सामने आई थी ।
अब सीधे डा. पंकज गुप्‍ता अपहरण मामले पर आते हैं । सच है कि पुलिस के पास अब तक कोई ठोस सुराग नहीं है । पुलिस को अपहरण बाद पहले गाड़ी यहां-वहां खड़ी मिल जाती थी,लेकिन अब आडी भी पच जा रही है । फिरौती के लिए भी किसी फोन काल आदि का अधिक इंतजार करना मूर्खता है । अपहर्ता नये जमाने में संपर्क के दूसरे ई-माध्‍यम का प्रयोग करने में लगे हैं । बहुत साइंटीफिक अनुसंधान के चक्‍कर में आप जल्‍दी रिजल्‍ट नहीं दे सकते । 1990 के बुरे दौर की बात करते हैं । पटना डा. आर सी राम के अपहरण से कांप गया था। तब डा. अजय कुमार एसपी (सिटी) थे । फुर्ती और पैठ में कमी नहीं । अपहर्ताओं ने कुछ ऐसा सुराग छोड़ भी दिया था कि धर लिए गए । इसके बाद आर एस भट्ठी पटना के एसपी (सिटी) हुए । डा. अजय और भट्ठी में थोड़ा फर्क था । अजय मुठभेड़ कर मीडिया में बने रहते थे । भट्ठी अपराधियों को जल समाधि देकर चुप रहते थे ।
भट्ठी के जमाने में चारा खाने वाले परिवार के बच्‍चे का अपहरण हो गया । बड़ा हंगामा हुआ । कोई सुराग नहीं था । रिजल्‍ट तुरंत देना था । भट्ठी ने दूसरा तरीका अपनाया । जेल में तब शहर का सबसे बड़ा डान बबलू सिंह बंद था । वह जमानत पर बाहर आता ही नहीं था । भट्ठी ने कोर्ट को विश्‍वास में ले रात में बबलू सिंह को जेल से बाहर निकाल लिया । बीच गंगा में ले जाया गया । सामने मौत का सीन पैदा किया गया । बबलू अपहरण में स्‍वयं शामिल नहीं था । लेकिन अब जान बचाने को मजबूरी थी कि अाकाश-पाताल में कहीं भी तलाशें । अंडरवर्ल्‍ड का तंत्र पुलिस के तंत्र से अधिक सटीक होता है । कई गिरोह बबलू सिंह को बचाने के वास्‍ते अपह्त बच्‍चे की खोज में लगे । आखिरकार,अपहर्ता समेत बच्‍चे की बरामदगी हो गई ।
आगे का वाकया छपरा का है । छपरा में डाक्‍टर साहब के बच्‍चे का अपहरण हो गया था । माह गुजर चला था । न कोई सुराग,न कुछ पता । एसपी,आईजी,सीआईडी सभी हार गये थे । बच्‍चे को बंद जुबान में मरा भी मान लिया गया था । डाक्‍टरों ने राज्‍यव्‍यापी हड़ताल कर दी थी । बगैर रिहाई हड़ताल तोड़ने का बहाना भी डाक्‍टरों को नहीं मिल रहा था । शिष्‍टमंडल लालू प्रसाद से मिला । जांच सीधे आर एस भट्ठी को देने की मांग आईएमए ने की । लालू मान गए । तब भट्ठी गोपालगंज के एसपी थे । खोजा गया,तो पता चला कि अवकाश पर पंजाब में हैं । रातों-रात वापस बुलाया गया । अगली सुबह वे छपरा गये । कुछ देर ठहरे । फिर गोपालगंज चले गए । मैं तब 'आज' अखबार में काम करता था । भट्ठी से बात की । उन्‍होंने बहुत ही सहजता से कहा-नतीजा अगले 72 घंटे में । मैंने मजाक समझा,लेकिव वे सीरियस थे । हमने 72 घंटे की जगह 96 घंटे में नतीजे की खबर छाप दी ।
अब मेरे लिए हैरानी की खबर थी । 52 वें घंटे में बच्‍चे को मिर्जापुर (यूपी) से भट्ठी ने गोपालगंज में बैठ बरामद करा दिया था । पूरा बिहार भट्ठी के रिजल्‍ट से दंग था । अखबार में छपने की स्‍टोरी अलग थी । असली स्‍टोरी के बारे में भट्ठी से न छापने की शर्त पर बात की । भट्ठी ने कहा-मेरे पास बहुत काम करने को वक्‍त नहीं था,लेकिन लोगों की अपेक्षाएं बहुत अधिक थीं । आसपास के आठ जिलों के एसपी से बात की,जिनमें यूपी के भी दो जिले थे । सबों से अपने पांच-पांच टाप क्रिमिनल की जानकारी देने को कहा,चाहे वे जेल के भीतर हों या बाहर । फिर अपने टास्‍क फोर्स की कोर टीम को एक्टिव किया । अगले चौबीस घंटे में करीब 25-26 गिरोहों के सरगना के परिवार से कोई न कोई अगवा हो चुका था । पूरे अंडरवर्ल्‍ड में कोहराम मच गया था । सबों के सामने भट्ठी की शर्त थी कि अपह्त बच्‍चे का सुराग बताओ फिर आगे बात करो । मुझे अच्‍छी तरह याद है कि जिस अपराधी की पहचान अपहर्ता के रुप में हुई थी,उसके मासूम बेटे को भट्ठी की टीम के खास सदस्‍य केदार राय (अब दिवंगत,पटना में नेपाली दरोगा के रुप में पहचाने गए) ने मां (अपराधी की पत्‍नी) की गोद से छीन लिया था । परेशान अपराधी ने तुरंत रिहाई का भरोसा दिया । भट्ठी की शर्त थी कि जिस हालत में अपह्त बच्‍चा लौटैगा,उसी हालत में तुम्‍हारा बच्‍चा वापस होगा । दोनों सलामत लौटे ।
आगे बिहार में अपहरण का लंबा दौर चलता रहा । कई काम करने वाले अधिकरी झारखंड और केन्‍द्र में चले गये । पटना के किसलय अपहरण कांड के बाद बिहार की सत्‍ता बदल गई । राष्‍ट्रपति शासन के दौरान कुंदन कृष्‍णन पटना के एसएसपी बनकर आये । इनका खौफ अंडरवर्ल्‍ड में सर चढ़ कर बोल रहा था । छपरा में जेल में घुस कई बड़ों को मार चुके थे । कुंदन कृष्‍णन ने पटना में आते ही सफाई अभियान चलाया । बगैर कोई अपहरण हुए पूरे अपहरण गिरोहों को साफ कर दिया । कोई शक नहीं कि बिहार में कानून-व्‍यवस्‍था की जो स्थिति सुधरी दिखी,उसमें तब सबसे बड़ा योगदान कृष्‍णन का ही था । बाद में अपनी सख्‍ती के कारण कुछ राजनीतिक कड़वे अनुभव इन्‍हें भी महसूस करने पड़े । लेकिन अब वक्‍त फिर से आ गया है कि सख्‍त अधिकारियों को आजादी देकर हालात को और बिगड़ने से पहले रोक लिया जाए ।  

बिहार की STF मतलब Self Tired Police-ज्ञानेश्वर वात्सायन


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कुछ साल पहले मैं दिल्‍ली में देश में अपने जमाने के सुपर कॉप केपीएस गिल से मिला था । लंबी बातचीत हुई । गिल की कई बातें मुझे आज भी याद है । दो टूक मानते थे-अपराध खत्‍म नहीं हो सकता,कम किया जा सकता है । पुलिस महकमे में संगठित अपराध को तोड़ने वाले अधिकारी और यूनिट खास होते हैं । संख्‍या बल से आप बड़े गिरोह का शायद ही कुछ बिगाड़ सकें । मुंबई के जाने - माने इनकाउंटर स्‍पेशलिस्‍ट दया नायक और प्रदीप शर्मा से भी मिला हूं । रोजमर्रे के अपराध से कोई मतलब नहीं,लेकिन टारगेटेड गिरोह के प्रति सदैव चौकन्‍ना । दिल्‍ली की स्‍पेशल सेल और क्राइम ब्रांच को जाकर देखें । स्‍पेशल सेल का हेडक्‍वार्टर आपको कोई लेबोरेटरी दिखेगा,जहां देश भर से दिल्‍ली कूच करने वाले अपराधियों की कुंडली सदैव खंगाली जाती रही है । परिणाम,आप मुंबई में दाऊद,छोटा राजन,गवली,भरत नेपाली का नाम जरुर सुन लेंगे, लेकिनदिल्‍ली पुलिस कोई नामचीन गैंगस्‍टर पैदा नहीं होने देती ।
बहुत दूर नहीं जाकर लखनऊ चलें । गैंगस्‍टर श्रीप्रकाश शुक्‍ला के खात्‍मे को लेकर 1995 के आसपास यूपी एसटीएफ का गठन किया गया । कमान संभालने वाले अपने बिहार के ही पूत अरुण कुमार थे । आपरेशन श्रीप्रकाश श्‍ाुक्‍ला कामयाब रहा,जिसने तत्‍कालीन मुख्‍य मंत्री कल्‍याण सिंह की नींद भी हराम रखी थी । आज भी यूपी एसटीएफ का तेवर बरकरार है । गया के डा. पंकज गुप्‍ता-शुभ्रा गुप्‍ता अपहरण कांड के पटाक्षेप में जलवा अभी-अभी दिखा है । संयोग से,आज भी यूपी एसटीएफ की कमान पटना के ही पूत सुजीत पांडेय के पास है ।
अब बात करते हैं बिहार की STF मतलब Self Tired Police की । हमें अपनी एसटीएफ को सेल्‍फ टायर्ड पुलिस कहते अच्‍छा नहीं लग रहा है । कई मेरे इस पोस्‍ट से खुन्‍नस भी खा लेंगे,लेकिन बगैर हकीकत बयां किए आप जिम्‍मेवारियों का अहसास भी नहीं करा सकते । बिहार की एसटीएफ भी बहुत दम-खम से बनी थी । हद पार जाने के बाद गठन लालू प्रसाद ने ही किया था । तब कमान संभालने को बिहार के ही पूत और आंध्र प्रदेश काडर के सख्‍त आईपीएस विनय कुमार सिंह को लाया गया था । बहुत कम समय में उन्‍होंने बिहार की एसटीएफ को खतरनाक अपराधियों और नक्‍सलियों के बीच खौफजदा कर दिया था । लेकिन जब सरकार को लगा कि कार्रवाई में आजादी से राजनीतिक नुकसान हो रहा है,तब एसटीएफ का मनोबल तोड़ा जाने लगा ।
हालात ऐसे पैदा किये गये कि विनय कुमार सिंह बिहार छोड़ने को विवश कर दिए गए । जदयू-भाजपा के शासनकाल में भी इसे संभालने की कोशिश नहीं हुई । सरकार ने मान लिया कि सुशासन आ गया है,भविष्‍य की चुनौतियों का ख्‍याल ही नहीं रखा । मतलब केपीएस गिल की बात पुख्‍ता होती है । आप जब टारगेट खत्‍म कर देंगे,तो परेशान होंगे । बगैर टारगेट पुलिस महकमा नहीं चल सकता । बड़े टारगेट को खत्‍म करने के बाद नेक्‍स्‍ट पर आना ही होता है । एसटीएफ बगैर टारगेट किसी माने-मतलब का नहीं रह जाता,जैसा कि बिहार की वर्तमान स्थिति है ।
सच कड़वा होता,लेकिन सच होता है । आप जानकर आश्‍चर्य करेंगे कि एसटीएफ में प्रत्‍येक स्‍तर पर वेतन बिहार पुलिस के वेतन से करीब तीस फीसदी अधिक होता है । मतलब यह निकलता है कि एसटीएफ का आईजी सूबे के डीजीपी के बराबर वेतन प्राप्‍त करता है । लेकिन आज एसटीएफ की न कोई तरीके से मानीटरिंग है और न ही जवानों-अधिकारियों की ट्रेनिंग । ट्रांसफर-पोस्टिंग की पालिसी भी भगवान भरोसे है । पहले एसटीएफ में चुनिंदा अधिकारी भेजे जाते थे,पर आजकल तो कोई भी चला जा रहा । बगैर टास्‍क के सभी रहते हैं,इसलिए कभी भी स्‍थानांतरण कर देने में कोई परेशानी नहीं होती । बिहार एसटीएफ अब यह भी दावा नहीं कर सकती कि वह नक्‍सल आपरेशन में लगी है । नक्‍सल आपरेशन को अब करीब-करीब सीआरपीएफ-कोबरा बटालियन के भरोसे ही छोड़ रखा गया है ।
बिहार एसटीएफ ने बीच में कुछ समय के लिए तब भी जलवा दिखाया था,जब इसके चीफ अमित कुमार थे । लेकिन इसके बाद तो भट्ठा ही बैठा है । कोई रिजल्‍ट पूछ दे,तो जवाब नहीं मिलेगा । दिल्‍ली पुलिस के स्‍पेशल ब्रांच को जब मैं देखने गया था,तो महसूस किया था कि बिहार के अपराधियों की जितनी पुख्‍ता और सहज उपलब्‍ध जानकारी वहां संजो रखी गई है,बिहार में किसी स्‍तर पर नहीं दिखती । इधर महीनों और करीब साल भर से अधिक का तो साफ हिसाब है कि बिहार की एसटीएफ किसी नामी गैंगस्‍टर को नहीं पकड़ सकी ।
आने वाले दिन चुनाव के हैं । क्राइम में वृद्धि देखने को मिल सकती है । वैसे भी इधर के दिनों में अपराधियों के खिलाफ सीधी कार्रवाई करने वाले अधिकारियों का बिहार में अकाल पड़ता जा रहा है । दो-चार नाम से आगे हम बढ़ ही नहीं पाते । नये आ रहे आईपीएस में कमिटमेंट तो और कम दिख रहा । हां,पेज थ्री में बने रहने को नये-नये अंदाज जरुर अपना रहे होते हैं ।
बिहार को संगठित गिरोहों से बचाना है,तो एसटीएफ को एसटीएफ की तरह जिंदा करना होगा । बिहार को मदद करने वाले कई हैं । यूपी एसटीएफ को खड़ा करने वाले बिहार के पूत व आईपीएस अरुण कुमार अभी केन्‍द्रीय प्रतिनियुक्ति पर बिहार में ही हैं । गया अपहरण कांड के पटाक्षेप के दिन जब मैं यूपी एसटीएफ के मुखिया सुजीत पांडेय से बातचीत कर रहा था,तब भी उनके भीतर बिहार के लिए कुछ करने की छटपटाहट देखी थी । बस,मजबूत पहल की जरुरत है । साथ में,बिहार की मौजूदा एसटीएफ से लगातार हिसाब-किताब लेने का वक्‍त है । संभलेंगे,तो ठीक है,वरना बिहार तो भगवान भरोसे रहा ही है ।

'सफर में धूप तो होगी

'सफर में धूप तो होगी
जो चल सको तो चलो
सभी हैं भीड़ में
तुम भी निकल सको तो चलो

'यहां किसी को कोई रास्‍ता नहीं देता
मुझे गिराके अगर तुम संभल सको तो चलो
सफर में धूप तो होगी
जो चल सको तो चलो ।

रेलयात्रा संभल कर

पिछले दिनों भारतीय रेल से यात्रा में इन  दिनों में रेल यात्री सबसे अधिक जहरखुरानी से डरे हैं । एसी कंपार्टमेंट भी नहीं बचे हैं । घटनाएं बढ़ती जा रही है । रोज नये तरीके निकल रहे हैं । अब तो रात को स्‍प्रे कर सुला दिया जा रहा है । फिर सब कुछ चपत । कहीं-कहीं मिलीभगत दिखती है । अनेक यात्री जान गंवा चुके हैं । रेल ने अब भी जेहाद के तौर पर अपराधियों के खिलाफ कार्रवाई नहीं की है । सिर्फ संदेश से भारत में अपराधियों का कुछ नहीं बिगड़ता । ‘बिन भय होत न प्रीत’ जैसा कुछ करना होगा । मेरे इस पोस्‍ट का बिहार के लिहाज से प्राइम टाइम है । देश भर से बिहार आ रही सभी ट्रेनों में कोई आरक्षण उपलब्‍ध नहीं है । छठ करीब आते-आते स्थिति और विषम होगी । वापसी की भीड़ छठ बाद पटना/बिहार से जाने वाली ट्रेनों में होगी । कई वर्षों के अनुभव बताते हैं कि ऐसे समय में जहरखुरानी गिरोह की सक्रियता और बढ़ जाती है । सो,हमें सतर्कता के नये नुस्‍खे भी तलाशने होंगे ।
बड़ी बात कि रास्‍ते में किसी भी अजनबी सह-यात्री से कुछ भी न खायें । इनका पानी/कोल्‍डड्रिंक तो पीना ही नहीं है । केला-अमरुद-भूंजा-खैनी-मिठाई-प्रसाद -सिगरेट आदि से बिलकुल दूर रहें । ट्रेन में बोर्ड करते समय व्‍यवस्‍था करें कि रास्‍ते में भीतर खान-पान का कोई सामान न खरीदना हो । पैंट्री कार के कर्मी की ठीक पहचान करें । विशेष जरुरत हो तो बड़े स्‍टेशनों पर जहां ठहराव अधिक है,प्‍लेटफार्म से कुछ खरीद लें । खान-पान की सामग्री को अजनबी/तुरंत जान-पहचान वाले यात्री के सामने हरगिज न छोड़ें । पानी बोतल को खुला सामने न रखें । कुछ द्ष्‍टांत ऐसे भी सामने आये हैं कि सीरिंज से पानी/कोल्‍ड ड्रिंक की बोतल में नशीले तत्‍व को मिला दिया गया । अकेले सफर कर रहे हैं,तो बाथरुम जाते वक्‍त और चौकस रहें ।
नये नुस्‍खे के तौर पर आप अपने मोबाइल फोन का बेहतर इस्‍तेमाल कर सकते हैं । जिनके मोबाइल में व्‍हाट्सएप की सुविधा है,वे सामने/आसपास बैठे सहयात्री की तस्‍वीर कैद कर तुरंत अपने किसी परिजन को भेज दें । तस्‍वीर लेते वक्‍त कोई विवाद न हो,इसके लिए आप मोबाइल को साइलेंट मोड में रखें । फोटो क्लिक होने की आवाज नहीं आयेगी । दिन में फ्लैश को भी आफ कर सकते हैं । याद रखें,फोटो सिर्फ क्लिक न करें,इसे तुरंत अपने किसी परिजन को भेज दें । परिवार/समूह में चल रहे हैं,तो रात को सोने का समय बारी-बारी से निश्चित कर लें । कोई न कोई जगा रहे । इस प्रयास में थोड़ी तकलीफ तो होगी,लेकिन स्‍प्रे कर सुला देने वाले हमले से बच जायेंगे । महिला समझ निश्चिंत न रहें,गिरोह बड़ी संख्‍या में इनका प्रयोग अपराध में कर रहा है ।
और बड़ी बात यह कि ट्रेन में शोशाबाजी की आदत अभी त्‍याग दें । अमुमन लोग घर/ससुराल/मायके/सगे-संबंधी के यहां जाने के वक्‍त ट्रेन में ऐसी तैयारी के साथ सवार होते हैं कि गंतव्‍य स्‍टेशन पर पहुंचने के बाद रिसीव करने वाला व्‍यक्ति पहली झलक में ही ठसक को मान ले । यह आदत आपको गिरोह के करीब जल्‍द पहुंचा सकती है । तमाम सतर्कता के बाद भी अपनी पहचान को स्‍पष्‍ट करने के लिए फोटोयुक्‍त कोई कार्ड बहुत सुरक्षित जगह रखें । रिजर्वेशन पर्ची में पूरा पता नंबर सहित दें । यह आवश्‍यक इसलिए है कि आपात स्थिति में घर वालों को खबर मिल सके । अब तक पुलिस ऐसे मामलों में पीडि़त को अस्‍पताल पहुंचकर निश्चिंत हो जा रही है । ऐसे में,इलाज भी ठीक संभव नहीं हो पाता । होश आने में दिन-महीने लगते हैं । पहचान/देख-रेख के अभाव में गिरोह के शिकार रेल यात्रियों की मौत की संख्‍या बढ़ती लगातार बढ़ती जा रही है । आप मेरे इस पोस्‍ट को दिवाली-छठ के समय बिहार आ रहे प्रत्‍येक अपने को शेयर कर सकते हैं,ताकि जागरूकता बढ़े । इस पोस्‍ट में प्रयुक्‍त तस्‍वीर पटना जंक्‍शन पर चस्‍पां रेल क्षेत्र के सक्रिय अपराधियों की है । आप इनकी पहचान कर सकते हैं,वैसे मुश्किल काम है । लेकिन याद रखें,बड़ी संख्‍या में अज्ञात हैं,जो सदैव आपके पीछे लगे हैं । अपनी सतर्कता ही हमें-आपको बचा सकती है । घटना बाद आज की व्‍यवस्‍था में पुलिस से कोई उम्‍मीद बेमानी है ।

समुंदर पार पेरिस और मुंबई हमलों के बीच सात समानताएं



मुंबई में हुआ आतंकी हमला भी नवंबर में हुआ था और पेरिस  में हुआ हमला भी नवंबर में हुआ है लेकिन महीने की समानता के अलावा अगर हम बारीकी से गौर करें तो पाएंगे कि पेरिस और मुंबई के हमलो के बीच कर्इ समानताएं है। इसमें से सात आपकी नजर ...

१)  भीड़भाड़ वाला इलाका
दोनों शहरों में आतंकियों ने भीड़ भाड़ वाले इलाको  को चुना था अपने टारगेट के तौर पैर।  मुंबई में हुए हमले का सबसे बड़ा टारगेट था CST  रेलवे स्टेशन जहां पर अजमल कसाब और उसके साथी इस्माइल  ने  ट्रेन पकड़ने के लिए आए मुसाफिरों  पर अंधाधुंध गोलियां बरसाई।   अकेले CST रेलवे स्टेशन पर ही 56 लोगों की मौत हो गई जिसमें रेलवे मुसाफिर भी थे और पुलिस कर्मचारी भी।

२) खानेपीने वाली जगह
दोनों ही  हमलो में  खाने पीने के  रेस्टोरेंट्स को आतंकियों ने अपना निशाना बनाया जैसे कि मुंबई में उतरे आतंकियों के पहले गुट ने सबसे पहले कोलाबा इलाके के इस मशहूर लियोपोल्ड  कैफ़े में अंधाधुंध फायरिंग की जिस में की 11 लोग मारे गए।

३)एक साथ कर्इ निशाना
आतंकियों ने एक ही शहर मे हमला करने के लिए एक से ज्यादा ठिकाने चुने।फ्रांस में आतंकियों ने 6 अलग-अलग ठिकानों पर हमला किया जबकि मुंबई में  भी आतंकियों ने ७ ठिकानो पर हमला किया था।

४)फिदायीन
पेरिस और मुंबई दोनों ही शहर के हमलो में शामिल आतंकवादी फिदाइन थे यानी कि वो मरने के लिए तैयार। अजमल कसाब ने जो अपना बयान दिया था उसमे उसने बताया था कि उन्हें उनके  handler ने निर्देश दिए थे कि जब तक मारे ना जाओ तब तक मारते रहो, लड़ते रहो।

५) बंधक
दोनों ही हमलो में आतंकियों ने कई लोगों को बंधक बना लिया था और उन्हें चुन-चुन कर मारा गया जैसे कि Trident होटल में घुसे दो आतंकियों ने तमाम लोगों को बंधक बनाया था।  उन्हें एक कतार में खड़ा किया गया और फिर चुन-चुन कर उन्हें गोली मार दी गई।

६) एके ४७
दोनों हमलो में एक ही जैसे हथियारों का इस्तेमाल हुआ।मुंबई में भी आतंकी अपने साथ AK-47 जैसे हथियार लेकर आए थे और पेरिस में भी  AK 47  का इस्तेमाल हुआ
७)आतंकी की संख्या
दोनों शहर में आतंकियों की संख्या लगभग बराबर ही रही। जब मुंबई में हमला हुआ था तो पाकिस्तान से 10 आतंकीऔर पेरिस के हमले में  आठ आतंकी शामिल हुए।
पेरिस में हुआ आतंकी हमला उतना ही बड़ा था जितना कि 26 नवंबर 2008 को मुंबई में हुआ हमला। दोनों ही हमने अपने अपने देशों के सबसे बड़े आतंकी हमले थे पर इतिहास में काली स्याही से दर्ज किए जाएंगे।

Sunday, October 4, 2015

मंगल के पानी पर...मोदी, राहुल गांधी, केजरीवाल, आेवैसी, लालू यादव, जी न्यूज, दीपक चौरसिया आैर फेसबुकिया भक्त


अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा ने घोषणा की कि उन्होंने मंगल ग्रह पर पानी खोज निकाला है। अब इस घटना पर हमारे देश की राजनीति में कैसी प्रतिक्रिया हुईं, जरा देखिए:
नरेन्द्र मोदी :
मितरों … 60 साल हो गए देश आजाद हुए, आज तक पानी मिला क्या? (जनता – नहीं मिला …) तो अब मंगल ग्रह पर पानी मिलने के बाद मैं आप सबसे पूछना चाहता हूँ कि …
आपको बुध पर पानी चाहिए कि नहीं चाहिए ?… (जनता – चाहिए …)
आपको शुक्र पर पानी चाहिए कि नहीं चाहिए ?… (जनता – चाहिए…)
आपको शनि पर पानी चाहिए कि नहीं चाहिए ?… (जनता – चाहिए …)
तो आपसे मेरी हाथ जोड़कर प्रार्थना है, भाईयो और बहनो, कि इस बिहार चुनाव में मुझे अपना आशीर्वाद दीजिए और भाजपा की सरकार बनवाइए ...
राहुल गांधी :
पानी … पानी क्या होता है ? ... आज मैं आपको बताता हूँ कि पानी क्या होता है ? ... पानी, दरअसल पानी होता है … ये जो मंगल ग्रह का पानी है, वो किसानों और मजदूरों का पानी है …. गरीबों का पानी है।और ये सूटबूट की सरकार, ये मोदी सरकार, उस पानी को उद्योगपतियों को देना चाहती है ... लेकिन मैं आपको ये बताने आया हूँ कि हम ऐसा होने नहीं देंगे ...
अरविन्द केजरीवाल :
मंगल पर पानी ढूंढ़ने के लिए मैं वैज्ञानिकों को बधाई देता हूँ। लेकिन ये केंद्र की सरकार ... पानी का कंट्रोल अपने हाथों में रखना चाहती है, दिल्ली की चुनी हुई सरकार को पानी से दूर रखना चाहती है …
ओवैसी :
कोई ये न समझे कि मंगल के पानी पर सिर्फ किसी एक कौम का हक है ... ध्यान रहे कि उस पानी पर मुसलमानों का भी बराबर का हक है …
लालू यादव :
ई मंगल पे पानी, मंगल पे पानी, मंगल पे पानी का करता है रे ? धुत …! अरे ऊ तो बिहार का पानी है जो हमरे गया से जाता है … गया में जा के पुरखों को पानी देते हो कि नहीं? बोलिए? उहै पानी पहुँचता है मंगल पे … बुडबक!
ज़ी न्यूज़ :
यहाँ आपके लिए ये जानना बेहद जरूरी है कि मोदीजी इस देश के ऐसे पहले प्रधानमन्त्री बन गए हैं, जिनके कार्यकाल में मंगल पर पानी मिला है ....
दीपक चौरसिया :
इस वक्त मैं मंगल पर हूँ और जैसा कि यहाँ मैं देख पा रहा हूँ, ये दरअसल एक स्विमिंग पूल है, जो ललित मोदी का है, जो अपनी पत्नी के इलाज के लिए पेरिस हिल्टन के साथ यहाँ आए हुए हैं ...
फेसबुकिया मोदी-भक्त :
देख लो, इसे कहते हैं अच्छे दिन! मंगल ग्रह पर पानी मिला ...
तुम लोग साले दाल की महँगाई का रोना ही रोते रहना, बस!
आशीष पाठक

Saturday, October 3, 2015

वीरेन डंगवाल जी ये कविता

आतंक सरीखी बिछी हुई हर ओर बर्फ़
है हवा कठिन, हड्डी-हड्डी को ठिठुराती
आकाश उगलता अन्धकार फिर एक बार
संशय विदीर्ण आत्मा राम की अकुलाती
होगा वह समर, अभी होगा कुछ और बार
तब कहीं मेघ ये छिन्न -भिन्न हो पाएँगे
तहखानों से निकले मोटे-मोटे चूहे
जो लाशों की बदबू फैलाते घूम रहे
हैं कुतर रहे पुरखों की सारी तस्वीरें
चीं-चीं, चिक-चिक की धूम मचाते घूम रहे
पर डरो नहीं, चूहे आखिर चूहे ही हैं
जीवन की महिमा नष्ट नहीं कर पाएँगे
यह रक्तपात यह मारकाट जो मची हुई
लोगों के दिल भरमा देने का ज़रिया है
जो अड़ा हुआ है हमें डराता रस्ते पर
लपटें लेता घनघोर आग का दरिया है
सूखे चेहरे बच्चों के उनकी तरल हँसी
हम याद रखेंगे, पार उसे कर जाएँगे
मैं नहीं तसल्ली झूठ-मूठ की देता हूँ
हर सपने के पीछे सच्चाई होती है
हर दौर कभी तो ख़त्म हुआ ही करता है
हर कठिनाई कुछ राह दिखा ही देती है
आए हैं जब चलकर इतने लाख बरस
इसके आगे भी चलते ही जाएँगे
आएँगे उजले दिन ज़रूर आएँगे

बिल्डर, बर्बादी , वसुधरा आैर एक हवार्इअडृा जो कभी नहीं बनेगा

राजस्थान की वसुंधरा पर बिल्डरों का इतना आतंक है कि सरकार हर जनहित त्याग कर बिल्डरहित का बीडा उठा लिया है। जयपुर में ७४७ जंबो जेट उतारने की क्षमता वाला हवार्इअडृडा पहले से ही है लेकिन बिल्डरों को लाभ पहुंचाने के लिए जेडीए ने एक आैर घोषणा कर दी कि शिवदासपुरा में एक आैर हवार्इ अडडा बनाने की घोषणा कर दी। हवार्इक्षेत्र से जुडे पायलट आैर विशेषज्ञ विपुल सक्सेना बताते हैं कि पहली बात तो यह किसी कीमत पर हो नहीं सकता आैर राजनीतिक हस्ताक्षेप से हो भी गया तो यह विमान हादसों का अडडा होगा। असली बात यही है कि यह बन ही नहीं सकता क्योंकि यह इंटरनेशनल गाइड लाइन है अगर इसे तोडा गया तो वैश्विक स्तर चलने वाले विमान जयपुर से नहीं उडेेंगे। यह सिर्फ खेल है।
 
https://www.youtube.com/watch?v=JhOruafz4DQ
जयपुर के स्थानीय वरिष्ठ पत्रकार अशोक शर्मा बताते हैं कि यह जयपुर विकास प्राधिकरण का यह पुराना खेला है पहले प्रोजेक्ट की घोषणा, फिर उसके आसपास की जमीन महंगी आैर उसकी बिक्री फिर मुनाफा आैर रिश्वत की वसूली आैर फिर बहाना की यह फिजीबल नहीं है आैर प्रोजेक्ट बंद कर दिया जाता है। इस प्रोजेक्ट में भी एेसा ही होना तय है। एेसे में लोगों को जमीन खरीददारी से बचना चाहिए। जेडीए इस खेल में इसलिए भी शामिल हो जाता है क्यों तमाम प्रकार के शुल्क वह वसूल करता है। बाकी सांठगांठ का खेल तो सब जानते ही हैं
राजनीति से जुडे एक व्यक्ति का कहना है की वसुंधरा का वसुंधरा से बडा प्रेम है। इनके आते ही एेसा खेल शुरू हो जाता है। पहली बार जब राजनीति में राजस्थान में जयपुर आर्इ तो यह जिसके मकान में ठहरी अब वह उनका ही हो गया। खैर वह व्यक्ति भी अब बडे बिल्डर में आता है।


इसलिए नहीं बन सकता नया हवार्इअडडा

३२ हजार फीट तक १०० किलोमीटर तक चढता आैर उतरता है
२० किलोमीटर रनवे क्षेत्र होता है बन ही नहीं सकता
१ ही होगा एटीसी तो फिर जरूरत क्या
१ दिन में करीब९ ०० विमान लैंड आैर टेकआॅफ कर सकता है जयपुर एयरपोर्ट फिर जरूरत नहीं
 २ टर्मिनल आैर बनाए जा सकते हैं
१ साल में अब तक २२ लाख यात्री अधिकतम

तो सलाह यह है कि एयरपोर्ट के नाम पर जमीन के खेल में अपने पैसे रूपी विमान की क्रास लैडिंग न करें






Wednesday, September 30, 2015

१६ आना सच पत्रकारिता के दो रंग


अंग्रेजी और हिंदी पत्रकारिता में जमीन-आसमान का फर्क है, ये सब कहते हैं मगर ये कोई नहीं कहता कि हिंदी और अंग्रेजी में वेतन के बड़े अंतर के साथ-साथ काम करने के माहौल और तौर-तरीके में भी बहुत फर्क है
प्रियंका दुबे
साभार-प्रियंका दुबे
अपने एक कमरे के छोटे-से किराये के ‘घर’ के दरवाजे पर ताला मारकर मैं दौड़ी-दौड़ी घर के सामने वाले चौराहे पर पहुंची. ‘ब्लू डार्ट’ से मेरे लिए एक लिफाफा आया था. जल्दी से दस्तखत कर कुरियर वाले को पर्ची पकड़ाई और लिफाफा लेकर वापस कमरे की तरफ दौड़ी. लिफाफे के एक सिरे को धीरे से फाड़ा और अंदर मौजूद पेमेंट इनवॉइस और 32 हजार रुपये का चेक निकाल कर देखा. यह एक स्वतंत्र पत्रकार के तौर पर मेरी पहली कमाई थी और मुझे याद है कि चेक हाथ में लेकर मैं खुशी से उछल पड़ी थी. खुश होने की वजह भी थी. अब मैं भारत भर में फैली करोड़ों खबरों में से अपनी पसंद की स्टोरी चुनकर उसे कर सकती थी, उस पर दस दिन का समय खर्च कर सकती थी, ग्राउंड पर जाकर उसे रिपोर्ट कर सकती थी और फिर कम से कम तीन हजार शब्दों में दिल खोलकर लिख सकती थी. साथ में तस्वीरें भी भेज सकती थी और कम से कम छह रुपये हर एक शब्द के हिसाब से पैसे भी ले सकती थी. मतलब मैं बिना किसी दफ्तर में काम किए अपनी पसंद की इन-डेप्थ स्टोरीज कर सकती थी और पैसे भी कमा सकती थी. ज्यादा नहीं तो कम से रिपोर्ट के फील्ड वर्क के दौरान होने वाली यात्राओं में ट्रांसपोर्ट का खर्चा तो अलग से पेमेंट में जुड़कर मिल ही रहा था.
मेरे लिए यह सेटअप एक स्वतंत्र जीवन, मनचाहे काम और जरूरत भर पैसों की चाभी था. बहुत संभव है कि अंग्रेजी में काम कर रहे स्वतंत्र पत्रकारों को सिर्फ 6 रुपये प्रति शब्द की दर कम लगे या फील्ड बजट का कम होना अखरे या हर फिर पेमेंट में से दस फीसदी की कर कटौती तकलीफ दे. अंग्रेजी में स्वतंत्र तौर पर काम कर रहे मेरे बहुत से मित्र जब मुझसे कहते थे कि फ्रीलांसिंग की कमाई से उनका खर्च चलना मुश्किल है तब मैं सिर्फ मुस्कुरा कर उनकी बात सुन लेती थी. और आज अपना पहला चेक आने पर मैं इतनी खुश थी जैसे उतने पैसो से सारी जिंदगी गुजर सकती हो.
वजह शायद हिंदी पत्रकारिता में गुजारे गए साढ़े तीन साल का अनुभव था. हिंदी में काम करते हुए मैंने बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और राजस्थान जैसे राज्यों की राजधानियों में फोटो पत्रकारों को सिर्फ सौ-सौ रुपये में तस्वीरें बेचते और कॉलम लिखने वालों को सिर्फ चार या पांच सौ रुपये में खुशी से लिखते हुए देखा था. मैंने देखा था कि कैसे एक ही मीडिया संस्थान की हिंदी इकाई में एक प्रशिक्षु की भर्ती 12 हजार रुपये/महीने पर होती है और ज्यादा सुविधाओं के साथ वही काम उसी संस्था की अंग्रेजी इकाई में करने वाले प्रशिक्षु की भर्ती कम से कम 25 हजार रुपये/महीने पर होती है. मैंने देखा था कि कैसे एक हिंदी के पत्रकार को खबर के लिए जाते वक्त थर्ड एसी का किराया भी मुश्किल से जारी होता है जबकि अंग्रेजी में सभी ज्यादातर हवाई जहाज से यात्रा करते थे. अंग्रेजी की दो पेज की रिपोर्ट पर होने वाले खर्च में हम हिंदी में दस-दस पेजों की कवर स्टोरी फाइल कर दिया करते थे.
हिंदी में कभी हमारे पास अंग्रेजी के बराबर संसाधन नहीं रहे और अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए अच्छे काम के सिवा कोई दूसरा रास्ता भी नहीं था. इसलिए हमने कम बजट में काम करने के लिए खुद को ट्रेन कर लिया था. उदाहरण के लिए सिर्फ 30 हजार रुपयों में देश के सुदूर कोनों में एक हफ्ते काम करना और दस पन्ने से ज्यादा लंबी पड़ताल के साथ लौटना. इसी बजट में फोटोग्राफर को भी दफ्तर से साथ ले जाना होता था. पत्रकार अगर कोई लड़की है तो दिक्कत दोगुनी. बाहर रुकने के लिए एक सुरक्षित जगह चाहिए और फोटोग्राफर के लिए अलग कमरा भी. हिंदी पत्रिका या अखबार के दफ्तर में ज्यादा बजट की मांग भी नहीं कर सकते वर्ना स्टोरी पर जाने से ही रोक दिए जाने का खतरा रहता है और अगर पत्रकार स्टोरी नहीं करेगा तो करेगा क्या? ऐसे में हिंदी का पत्रकार जुगाड़ के जरिए सारे काम करना सीख जाता है.
कम बजट में रिपोर्ट करने के लिए वह अपना ह्यूमन रिसोर्स नेटवर्क और बड़ा करता है. यही ‘नेटवर्क’ हिंदी के हर पत्रकार की असली पूंजी होता है. हर जिले, हर शहर में उसके चार मित्र, दो परिचित तो होते ही हैं. सस्ते होटलों, धर्मशालाओं, मस्जिदों, गुरुद्वारों और चर्च से लेकर गांव-खेड़े में चारपाई या फिर तिरपाल बिछाकर भी सो जाता है. वह फिर भी खुश है क्योंकि उसकी कंडीशनिंग ऐसे वातावरण में की गई है जहां उसकी रिपोर्ट प्रकाशित करके संपादक उस पर एक तरह से एहसान करता है और उसे इसी पुरस्कार के लिए संस्था का शुक्रगुजार होना चाहिए. उसने जहां अंग्रेजी के बराबर तनख्वाह या काम करने की बेहतर स्थितियों की मांग की, पहले खुद लाखों रुपये पा रहे संपादक उसको ‘देश या पत्रकारिता के नाम पर शहीद होने’ की समझाइश देंगे और दोबारा कहने पर तो उसे तुरंत रिपोर्टिंग छोड़ने को कह दिया जाएगा या फिर सेमी-पोर्न खबरें वेबसाइट पर अपलोड कर रहे साथियों की टीम में शामिल हो जाने के लिए कहा जाएगा.
अंग्रेजी और हिंदी पत्रकारिता (आउटपुट) में जमीन-आसमान का फर्क है यह तो सभी कहते हैं मगर यह कोई नहीं कहता कि हिंदी और अंग्रेजी में ‘विशाल सैलरी गैप’ के साथ-साथ काम करने के माहौल और काम करने के तौर-तरीके में भी बहुत फर्क है.
उदाहरण के लिए मुख्यधारा के समाचार प्रकाशनों में (अपवादों को छोड़कर) 
  •  हिंदी के ज्यादातर संस्थानों में आगे बढ़ने की सीढ़ी चमचागिरी की चाशनी में लिपटी हुई है. स्टाफ अपना मत, खास तौर पर मतभेद, एडिटोरियल मीटिंग में नहीं रख सकता. अगर रख दिया तो संपादक और वरिष्ठों के पास स्टाफ को परेशान करने के सौ तरीके हैं. अंग्रेजी में ज्यादा लोकतांत्रिक तरीके से बहस होती है और काम से संबंधित किसी भी बात पर आपत्ति जताने पर वरिष्ठ उसे अपने ईगो पर नहीं लेते.
  • हिंदी अखबारों के ज्यादातर संपादकों और वरिष्ठों का मानसिक  स्तर और नजरिया बहुत राष्ट्रवादी है. महिलाओं से जुड़े मुद्दों पर इनके संपादकीय पढ़कर ऐसा लगता है जैसे संघ की शाखा से लौटकर लिखे गए हों. किसी भी प्रोग्रेसिव स्टोरी आइडिया पास करवाने की प्रक्रिया में रिपोर्टर दीवार से सर फोड़ लेगा फिर भी दस में से नौ बार आइडिया रिजेक्ट कर दिया जाएगा. अल्टरनेटिव सेक्सुअलिटी तो दूर की बात है, सेक्सुअलिटी शब्द से ही न्यूज रूम में असहजता फैल जाती है. अपराध और रक्षा से जुड़े मामलों को हिंदी के सबसे बड़े अखबार ऐसे कवर करते हैं जैसे वे अखबार नहीं, पुलिस और आर्मी के माउथपीस हैं! अंग्रेजी में हर तरह की कहानियों के लिए जगह है. हर तरह के पत्रकारों के लिए जगह है. अंग्रेजी में आलोचनात्मक नजरिया अब भी जिंदा है इसलिए उनकी रिपोर्ट्स में भी फर्क दिखता है.
  • हिंदी अखबारों के दफ्तरों में गणेश पूजन, नवरात्रि आदि मनाए जाते हैं. आरती, टीका और प्रसाद का पूरा कार्यक्रम होता है जबकि ईद और क्रिसमस के दौरान स्टाफ के लिए अलग से प्रार्थना करने की जगह तक नहीं बनवाई जाती. अंग्रेजी दफ्तरों में किसी भी तरह की पूजा नहीं होती.
  • हिंदी में छुट्टी-बाईलाइन से लेकर प्रमोशन तक सब कुछ ‘वरिष्ठ’ की कृपा पर निर्भर करता है. अंग्रेजी के पत्रकार का करिअर ग्राफ उसके काम पर निर्भर करता है.
  •  अंग्रेजी में किसी बड़ी रिपोर्ट के समय जिस शिद्दत से डेस्क के कर्मचारी, रिपोर्टर के साथ खड़े रहते हैं (इंटरव्यू टेप सुनकर लिखने से लेकर रिसर्च और एडिटिंग में मदद करने तक) हिंदी में ऐसा कभी नहीं होता. हिंदी डेस्क के लोग ‘बाईलाइन देकर एहसान किया है’ वाले सिंड्रोम से ही बाहर नहीं निकल पाते.
  • अंग्रेजी के पत्रकार के पास किताबें खरीदने, उन्हें पढ़ने, फिल्में देखने और दुनिया में हो रही घटनाओं पर सोच पाने के लिए समय और पैसा, दोनों ही हिंदी के पत्रकारों से ज्यादा होता है. वहीं हिंदी के पत्रकार को छह दिन दफ्तर में बैलों की तरह जोता जाता है और सातवां दिन वह हफ्ते भर के जमा कपड़े धोने में निकल जाता है
मगर हिंदी और अंग्रेजी में इतने फर्क के बावजूद भी, आज तक सभी पत्रकारों के लिए ‘समान रैंक पर समान वेतन और समान सुविधाएं’ दिए जाने को लेकर कोई लंबा आंदोलन नहीं किया गया और न ही दुनियाभर में मानवाधिकारों के लिए आवाज उठाने वाले अंग्रेजी के साथी हिंदी के अपने साथियों लिए आवाज उठाने उनके साथ आए. एक ही अखबार की अंग्रेजी विंग में जा रहे रिपोर्टर ने कभी नहीं सोचा कि उसी के साथ हेल्थ बीट कवर करने वाले उसी की रैंक के हिंदीे रिपोर्टर को उससे आधा मेहनताना क्यों दिया जा रहा है? हिंदी में जब नौकरीपेशा पत्रकारों की ये हालत है आप अंदाजा लगा ही सकते हैं की 500 रुपये में रिपोर्ट लिखने वाले हिंदी के फ्रीलांसर का भूखों मर जाना तय है.
लेखिका स्वतंत्र पत्रकार हैं

‘पत्रकार महोदय’

'इतने मरे'
यह थी सबसे आम,
 सबसे ख़ास ख़बर
छापी भी जाती थी सबसे चाव से
जितना खू़न सोखता था
उतना ही भारी होता था अख़बार
 अब सम्पादक
 चूंकि था प्रकाण्ड बुद्धिजीवी
 लिहाज़ा अपरिहार्य था
ज़ाहिर करे वह भी अपनी राय...
मृत्यु की महानता की उस साठ प्वाइंट काली
चीख़ के बाहर था जीवन
 वेगवान नदी सा हहराता
काटता तटबंध
तटबंध जो अगर चट्टान था
तब भी रेत ही था
गर समझ सको तो, महोदय पत्रकार.’
-वीरेन डंगवाल जी 

Tuesday, September 29, 2015

एेसे ही कोर्इ यशवंत व्यास नहीं बनता...

आप उनकी तरह पहनावा करें
आप उनकी तरह चेहरे में बदलाव आैर बाल रखें
आप उनको पूरी तरह कापी कर लें
फिर भी यूं ही कोर्इ यशवंत व्यास नहीं बनता
बहुत ही गहरार्इ बहुत ही लगाव आैर बहुत ही समझ हो तो फिर कोर्इ भले ही मुकाबला कर ले
पत्रकारिता में अतुल महेश्वरी जी के बाद, वीरेन डंगवाल जी की संस्कृति को कोर्इ अगर नए आयाम के साथ आत्मसात कर बढा रहा है तो वह व्यास जी हैं
मैं यह यूं ही नहीं लिख रहा हूं, जिस व्यक्ति में एक अखबार को खडा करने की कूबत हो उसका जलाल क्या होगा आप समझ सकते हैं
आजकल कर्इ लोग मिलकर अखबार सही से निकाल नहीं पा रहे हैं हर सोच में संशय है कि युवा को पकडे या फिर बुजुर्ग को इसी चक्कर में अखबार घनचक्कर बने हुए हैं
एक तरह अमर उजाला जैसे पेशेवर अखबार को नया आयाम दिया तो दूसरी तरफ अहा जिंदगी जैसी मैगजीन से नए मायने बताए आमीश त्रिपाठी के उपन्यास बाद में आए लेकिन यह परिचय पहले ही इन्होंने करा दिया अब एकदम अलग आयुर्वेद पर बेहतरीन मैगजीन लेकर आएं है यानी खुद इनके अंदर इतने आयाम हैं कि शायद वह खुद ही न भांप पाते हों...

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YASHWANT VYAS is a well known author, journalist, media critic, consultant, designer and columnist having more than thirty years experience in print and related media. Known for his experimental approach, he has been associated with many prestigious news groups. As editor, he had been heading an Indian multilingual portal group in 90’s and three prestigious national newspapers. Besides regular columns in print Yashwant vyas has published more than ten books, written scripts, translated and edited works. Khwab ke Do Din, Comrade Godse and Chintaghar (Novels), Amitabh ka A (Brand analysis of Amitabh Bachchan – the legend), Apne Girebaan Men,Kal Ki Taza Khabar (Research on Hindi print media) and Ab Tak 56 (collection of satires) are his known works.

His off-beat experiment ‘HIT UPDESH: The book of razor management for employees only’ was a big hit.

He was awarded a national journalism fellowship to research on changing face of vernacular press and also awarded for his novels -Chinta Ghar and Comrade Godse.

He created first Hindi-Gujarati NEW AGE monthly- AHA! ZINDAGI, launched with 1.5 lac print order and achieved more than 10.6 lac readers certified by IRS within 6 months, for a multi-edition newspaper group DB Corp.

He recently launched a unique wellness journal AYURVED SUTRA for international audience with OCS.

He is co-founder of Antara Infomedia, a venture dedicated to the multidisciplinary media for greater good and is working on “JALEBI -the sweet puzzles” (a special project for teenagers) . He is also working on a special project to create a bridge between senior citizens and new generation. For that he has constituted GULLUCK (Generations unite for love, life, culture and knowledge.) Thefridaypost.com, Studio YV Ink, R4Research and so many other experiments are also in his account.

He has a special association with one of the most reputed media group Amar Ujala which has 20 editions in north India with a huge circulation. As Group adviser to Amar Ujala he launched several new projects and revamped the newspaper content & design.

He is behind the Indian Literary Review.com, to be launched soon as the first website in its genre.

Yashwant Vyas, also, has been consultant to some prestigious Indian language Publishers.

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Collective wisdom of the east and rational modern approach with simplicity of a basic human being is his life force…


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Monday, September 28, 2015

राजस्थान का आरके मार्बल, बिहार का चुनाव आैर आयकर का छापा

राजस्थान का चिकना संगमरमर उतना ही मशहूर है जितना की बिहार में लालू आैर बाॅलीवुड में हेमामालिनी के गाॅल
राजस्थान के उदयपुर में हाल ही में आरके मार्बल पर मारा गया छापा अनायास ही नहीं था दरअसल बिहार चुनाव में जातिबल के बाद धन बल का सबसे ज्यादा इस्तेमाल ज्यादा होता है.इसी की आपूर्ति के लिए राहुल गांधी का विमान कहने के लिए डायवर्ट होकर लेकिन उसका रास्ता खुद बदलवा १९ सितंबर को जयपुर आ गया शनिवार के दिन रात में करीब ९ बजे हुए इस घटनाक्रम में अशोक गहलोत ने राहुल गांधी से मुलाकात की आैर वह उनके साथ उसी विमान से दिल्ली चले गए
अशोक गहलोत आैर राहुल गांधी
अशोक गहलाेत जितना सोनिया के नजदीक है उतना राहुल के नहीं लेकिन धन की जरूरत ने इन दोनों को करीब ला दिया अशोक गहलोत संगमरमर व्यवसायी से ५० करोड रुपए कैश लेकर विमान में राहुल गांधी के साथ रवाना हुए. इस बात का भनक जब तक एजेंसियाें को लगी देर हो चुकी थी फिर आरके मार्बल निशाने पर आ गया. रविवार सोमवार आैर मंगलवार रेकी की गर्इ पाया कि अभी आैर पैसा है आैर वह रकम १०० करोड से अधिक है आैर फिर दिल्ली से संकेत मिलते ही बुधवार को उदयपुर सहित करीब ३६ ठिकानेां पर छापेमारी हुर्इ
बिडला के बाद मार्बल
यह बिडला हाउस पर छापे में मिले २५ करोड नकद के बाद देश २४ करोड २० लाख की सबसे बडी कार्रवार्इ है; राजस्थान में हुर्इ आयकर की कार्रवार्इ में अब तक की सबसे बडी बरामदगी है.इससे पहले सात आठ साल पहले १० लाख नकदी की कार्रवार्इ सबसे बडी रही है 
आयकर की भूमिका
येनकेन प्रकाणेन। कालाधन जो भी बरामद हो जिससे भी बरामद हो कैसे भी बरामद हो सभी तरह से सही है हो सकता है कि सूचना राजनीतिक कारणों से लिक की गर्इ लेकिन जो हुआ अच्छा हुआ आखिर विकास के लिए धन कर से आता है आैर यह कर चोर हैं तो इन्हें इनका परिणाम मिलना चाहिए
आयकर सरेंडर के मायने
आरके मार्बल ने जितनी आसानी से २०१.२६ करोड की आघोषित आय पर कर देना स्वीकार किया है इसका मतलब यह है कि यह खेल छोटा नहीं काफी बडा है अगर कमार्इ ज्यादा न होती तो या कर चोरी ज्यादा न हाेती तो इतनी आसानी से इतनी बडी रकम पर ३० प्रतिशत रकम यानी करीब ६० करोड रुपए कर देने को यह व्यवसायी तैयार न होता खैर यह भी है कि इसके अलावा आैर काेर्इ रास्ता भी इसके पास नहीं था

प्रधान सेवक ने रोया-धोया लेकिन मिला क्या

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कभी बिहार में रोते हैं तो कभी अमेरिका में.भारत की जनता ने इस रोने धोने की कला पर प्रसन्न होकर तो उन्हें प्रधान सेवक की बजाय राजगदी तो देदी लेकिन अभी तक यह चालू है लाख टके का सवाल है कि रोने धोने से मिला क्या.मोदी शायद है भूल गए है कि यह सिलीकाॅनवैली है सिसक वैली नहीं सिलीकाॅन वह पदार्थ होता है जिस पर सब फिसलता है इससे चमकता है तो सबसे तेज बनता है आैर फिसलता है तो वह कहीं का नहीं रहता सत्यम इसका उदाहरण है फेसबुक इसका प्रमाण
अब आते हैं नौटंकी पर 
मोदी जी के कहने पर एक भी निवेशक निवेश के लिए आगे नहीं आया है भले ही वह रो लिए, दूसरी खास बात यह है कि गूगल ने जिन ४०० रेलवे स्टेशनों पर वार्इ फार्इ देने की बात कर रहा था उसे रेलमंत्री अपने बजट भाषण में पिछली बार मुफत में वार्इ फार्इ करने की बात कह चुके हैं लेकिन गूगल यहां पर पैसे लेगा १०० स्टेशन यानी कम से कम एक करोड नेट उपयाेग कर्ता आैर फिर गूगल की आमदनी का अंदाजा लगाए गौरतबल है कि रेलटेल पहले ही इसे कर रहा है
पहले पात्र बने, फिर निवेश मिलेगा
कोर्इ भी व्यवसायी घाटे का व्यवसाय नहीं करता फिर वह चाहे कितना भी भूमि प्रेमी क्यों न हो.अब जब राजस्थान के एक खान सचिव खान चलाने वालों से करोडो रुपए की घूस ले रहा हो ता अंदाज लगाए कि इस रास्ते में कितने कांटे खडे कर वह काम करता होगा
सिंगापुर आैर दुबर्इ
मोदी जी विदेशों में जाकर निवेशकों को आमंत्रित करने से पहले अपने देश में र्इमानदार आैर स्वच्छ वातावरण बनाइए सिंगापुर की तरह सिस्टम तैयार करिए दुबर्इ की तरह किसी एक इलाके का उदार बनाइंए फिर आगे बढिए,निवेशक अपने आप दौडे आएंगे
अमेरिका आैर अर्थव्यवस्था
अमेरिका में या फिर मीडिया में हीरो बनने से काम नहीं चलेगा वरना हश्र वही फील गुड का होगा आप भाषण पढने के लिए भले ही एेसा स्टैंड लगाते हैं कि आपकी अंग्रेजी योग्यता छुप जाती है लेकिन अर्थव्यवस्था में बाजार में वही खिलाडी रहता है जो योग्य होता है
कुछ अच्छा भी है
एेसा नहीं है कि सब कुछ बुरा ही है मोदी बहुत कुछ अच्छा भी कर रहे हैं; मोदी का अस्पताल जोडो मिशन बहुत अच्दा है. देश में आदमी तीन चीज से बर्बाद होता है दवा,दारू आैर दीवानी इसमें से दवा का इंतजाम करने के लिए अस्पतालों को जोडा जा रहा है http://epaper.patrika.com/c/6547444 आैर http://ors.gov.in/copp/ पर आप जाकर इसका लाभ उठा सकते हैं

जब विद्यासागर जी ने चप्पल फेंकी

जब विद्यासागर जी ने चप्पल फेंकी फिर एक चप्पल चली। रोज ही कहीं ना कहीं यह पदत्राण थलचर हाथों में आ कर नभचर बन अपने गंत्वय की ओर जाने क...