Monday, May 16, 2016

"क्लासमेट" से "क़त्ल" तक के सफ़र में राजदेव और शहाबुद्दीन




पटना। ऐसे "कलम के सिपाही" बड़े ही विरले ही होते है जो अपने "जीवन पर छाये मौत के साये" के बावजूद सच के खातिर बेधड़क बेलाग बेख़ौफ़ होकर लिखते रहते है। धन दौलत और तमाम प्रलोभवनो के बावजूद राजदेव " सच की शम्मा" जलाते रहे।                      
 दिवंगत पत्रकार राजदेव रंजन के बारे कहा जा सकता है कि वह एक व्यवहार कुशल, कलम से समझौता करने से कोसों दूर एक निडर पत्रकार और एक सम्मानित बैनर के सहारे " सच को सच" कहने वाले पत्रकार थे। एक ही इलाके एक ही परिवेश में पीला बढे शहाबुद्दीन और राजदेव एक दूर से परिचित थे। साथ ही वक्त के बदलते दौर में दोनों दो अलग अलग राहो पर चल निकले।लेकिन एक दौर वो भी आया जब वो और शहाबुद्दीन के क्लास मेट भी रहे। दोनो ने एस साथ पीजी किया था।इसी की वजह से इलाके में माना जाता था कि वह सांसद के करीब होंगे लेकिन उनकी कालान्तर में उनकी धारदार और ईमानदार लेखनी ऐसा समझने की इजाजत नहीं देती थी। पत्रकारिता की में कलम की धार और प्रखर करते हुए राजदेव अपनी पढाई भी जारी रखे हुए थे। अपनी अपराध से जुडी रिपोर्टिंग को और सशक्त करने के खातिर वकालत की भी डिग्री ली थी राजदेव ने। इसी का असर था की वो कानून की बारीकियों को समझते हुए अपराध की खबरों की हर बारीकी को तह दर तह उधेड़ कर रख देते थे।                       
 सिवान की जमीनी हक़ीक़त के हर  उस सच से राजदेव ने अखबार के माध्य से उजागर किया और मार दिए जाने तक करते रहे। उनकी कलम ने हर उस सच को सच लिखा हर उस सियासी उत्पात से लोगो को रूबरू कराया बिना किसी हिचक के। उस वक्त भी राजदेव नहीं डरे जब "सिवान की फिज़ा" साहब के अलावा कोई और शब्द नहीं उड़ा करता था।                          
राजदेव रंजन ने सीवान में पिछले 24 सालों पत्रकारिता कर रहे थे। इस सच से भी आगत थे की वो विगत 9 सालों से अपराधियों के निशाने पर थे। यही कारण रहा है कि एक बार उनके दफ्तर पर भी अपराधियों ने उन पर हमला बोला था। राजदेव पर  2005 में भी उनके दफ्तर पर हमला हुआ था। राजदेव रंजन के सहयोगी रहे दुर्गाकांत उस समय उनके मौजूद थे। यह हमला अक्तूबर 2005 में हुआ था। रात आठ बजे के करीब कुछ लोगों ने ऑफिस के बाहर से राजदेव को आवाज देकर बाहर बुलाया और धमकाने के बाद बुरी तरह से पीटा था।लेकिन तब संयोगवश राजदेव को ज्यादा चोटे नहीं आई थी, क्योकि आस पास के लोगो के जुट जाने से हमलावर भाग गए थे। इसके बाद भी राजदेव ने अपने जीवन पर आफत आने के बाद भी सच को सच कहने वाली निर्भीक पत्रकारिता को जिंदा रखा था।                                                     
अपने जीवन पर अपराधियों की गिद्ध दृष्टि होने से राजदेव हमेशा से अवगत रहे थे। सीवान पुलिस को 2007 में ही पुलिस की स्पेशल ब्रांच ने जिले के 24 लोगों की जान को खतरा होने का इनपुट दिया था।इसकी जानकारी जिले के पुलिस कप्तान को भी दी गई थी।अपराधियो की इस हिटलिस्ट में राजदेव का भी नाम था। उस वक्त की जानकारी के मुताबिक तब सीवान जेल से ही 24 लोगों के नाम डेथ वारंट की लिस्ट जारी की गई थी। राजदेव के साथ काम करने वाले लोग भी बताते हैं कि सच को सच कहने की जुनूनी रिपोर्टिंग के कारण भी राजदेव को कई बार सीवान जेल से धमकी मिल चुकी थी। फिर भी निडर राजदेव न डरे न झुके न टूटे।                       
90 के दशक में शहाबुद्दीन ने बाहुबल और सियासत का कॉकटेल तैयार कर देश के प्रथम राष्ट्रपति की जन्मस्थली जीरादेई से बतौर निर्दलीय चुनाव लड़ा और सफल भी रहे। ये दौर बिहारमे लालू यादव के सियासी उत्कर्ष का था। जीरादेई से मिली शहाबु की जीत ने लालू का ध्यान इस युवा तुर्क की ओर गया। फिर क्या था लालू के ऑफर को लपकते हुए शहाबुद्दीन ने सिवान के साहब की पदवी पा ली। फिर  आया वो दौर जब सांसद बन बैठे शहाबुद्दीन ने सिवान की धड़कनो पर भी अपनी हुकुमत कायम कर ली। दौर ऐसा भी आया जब बिहार पुलिस और साहब की फ़ौज प्रतापपुर गाँव में भीड़ गई। दोनों तरफ से कई लोग वीरगति को प्राप्त हुए। जिस तरह के अत्याधुनिक हथियारों का प्रयोग राजद सांसद के गुर्गो ने किया बिहार कुलिस समेत सभी सुरक्षा एजेंसियों के होश पूड गए।                  
अब बारी सरकार की थी। बात 2005 की है। फरवरी का विधान सभा चुनाव शुरू होने ही वाला था। दस फरवरी को चुनाव आयोग के निर्देश पर जिले में नए डीएम और बारह फरवरी को नए एसपी की पोस्टिंग सीवान में हुयी। डीएम सीके अनिल ने दस फरवरी को फर्स्ट हाफ में ही अपनी ज्वाइनिंग दी और अपने कंफिडेंशियल रूम में कैद हो गये। किसी से मुलाकात नहीं की सिवाय मण्डल कारा सिवान के जेल अधीक्षक के। कानून की सारी बारीकियों को दिन भर में सीके अनिल ने खंगाल डाला और दूसरे दिन ग्यारह फरवरी की रात बाहुबली राजद सांसद मो. शहाबुद्दीन को आदर्श कारा पटना भेज दिया। यह सब इतनी खामोशी से हुआ कि मीडिया को भी इसकी जानकारी 12 फरवरी को ही हुयी। बहरहाल, उसी दिन  नये एसपी रत्न संजय ने भी अपनी ज्वाइनिंग दे दी थी। इन दोनो अधिकारियों का जलवा ऐसा ही था जो सीवान की लगभग हर जरूरत पूरी करता रहा और इसका असर यह हुआ 10 फरवरी के पहले तक जिसका नाम जिले के तीस-बत्तीस लाख की आबादी की जुबान पर दहशतगर्द के रूप में आता था उसे बदलने में जरा भी देर नहीं लगी। विधि-व्यवस्था पूरी तरह नियंत्रण में और राजद के बाहुबली सांसद मो. शहाबुद्दीन के सारे गुर्गे भूमिगत। लेकिन सभी देश के चार कोनो में छिपे हुए। यह इकबाल था सिवान जिला प्रशासन का। चुनाव परिणाम जो भी रहे, मुख्य विशेषता लॉ एण्ड आर्डर थी और लोग राहत की सांस ले रहे थे। इस दौर में भी राजदेव की रिपोर्ट में हर उस सच को लिखा जो पुरे देश के लोगो ने पढ़ा।                 
 इन सालो में खौफ़ और उपद्रव की।कहानियों ने एक नए क्षितिज को छु लिया था। सीवान की सामाजिक केमिस्ट्री बिलकुल ख़त्म हो गई थी।प्रशासन का इकबाल लौटते ही शहर और जिले की समरसता लौटी। बुद्दीजीवि व्र्ग के सहयोग से बेशक उसमे सुधार लाने का काम वहां की मीडिया ने किया और उसमे राजदेव रंजन की महती भूमिका रही थी। सीवान ने बहुत कुछ खोया है और उस सूची में राजदेव रंजन का भी नाम शुमार होगा, शायद इसकी कल्पना किसी ने नहीं की होगी। पर अब यही सच है। बिहार सरकार ने इस हत्याकांड की जांच सीबीआई को सौपने की अनुशंसा कर दी है। उम्मीद है कि इस सच के चितेरे की हत्यारों को कानून सजा भी देगा। लेकिन ये भी एक जाते जाते भी राजदेव बता गए की " सच की राह बलिदान " मागती है। -

यह नंबर की माला नहीं, मौत का नंबर है

आर्इएएस से लेकर दसवीं तक के परिणामों की घोषणा हर छात्र आैर छात्राआें को उसके पढार्इ का पैगाम लेकर आ रही है. हर जगह उल्लास दिख रहा है मीडिया में भी नुमार्इश जारी है.बडा अच्छा लग रहा है देखकर फलां टाॅपर है आैर माला पहने एक अखबार से दूसरे अखबार के कार्यालय फोटो खींचाने के लिए घूम रहा है लेकिन बडा अचंभा होता है कि कोटा से खबर आती है की फलां लडकी ९२ प्रतिशत अंक लार्इ थी लेकिन फिर भी ९८ प्रतिशत अंक नहीं लाने के कारण फंदे से झूलग गर्इ
मां-बाप या फिर सामाजिक प्राणियों द्वारा डाली गर्इ यह मालाएं नंबर लाने की खुशी कम बल्कि उनके मां बाप के शौर्य का भौडा प्रदर्शन है.इसी की बेदी पर चढकर आगे इन्हीं छात्रों में से कुछ छात्र आत्महत्या कर लेते हैं.छोटे-छोटे बच्चे हाथों में मिठार्इ का डब्बा लिए अखबार के दफतरों में मिठार्इ खिला रहे हैं मां बाप अपनी अपेक्षाआें को बढाए ही जा रहे हैं.यह मालाएं खुशी के बोध से ज्यादा अपेक्षाआें का नया फंदा बनकर उभरने जा रही हैं जो हर समय टीस देंगी की हम ही हैं चाहे कुछ भी हो.अच्छी बात है जब सब नैर्सिगक हो लेकर सब का सब बनावटी है
गले में लटक रही मालाएं मां बाप की अपेक्षाआें का नया फंदा है आैर मीडिया में लिए नया धंधा जो कि पिछले कुछ वर्षों में कोचिंग संस्थानों के उगने के साथ आया है; यह विज्ञापन तो वसूल करता है लेकिन बचपन छीन कर. मानव संसाधन मंत्री रहे कपिल सिब्बल ने नंबर खत्म करने के लिए ग्रेड प्रणाली लागू तो की लेकिन अभी तक वह लागू सही तरीके से नहीं हो पार्इ है
नंबर का यह खेल हर साल मासूमों की आत्महत्या का नंबर बढा रहा है.मीडिया का चेहरा दिखाने का यह धंधा बहुत सारे मासूमों के गले का फंदा बन रहा है. मीडिया हीरो बनाता है लेकिन अगर हीरो नसरूदीन शाह जैसा नैर्सिक हो तो अच्छा रहता है वरना तो माॅडलिंग वाले हीरो की तरह हालत होती है कि कुछ समय बात साबुन का विज्ञापन मिलाना भी बंद हो जाता है.
हम इस बात से भी इत्तेफाक रखते हैं कि इस बात के दूसरे तर्क आैर पहलू भी हैं लेकिन मौत की माला के इस पहलू से कोर्इ इंकार करे शायद मुझे नहीं लगता.अपील की अपने बच्चे को खूब पढाए आगे बढाए साहस दें लेकिन शाैर्य प्रदर्शन करने के लिए अखबारों आैर टीवी के दफतरों का चक्कर न लगाएं.इस चमकते गलियारें की कर्इ स्याह रास्ते आैर रातें है आैर इन बच्चों के पास उजाला भविष्य
इस बीच बाहर टहल रहा था तो एक छोटा बालक माला पहने नजर आया.पीछे देखा तो ५६ इंच से ज्यादा सीना चौडाकर पिता खडे थे मजरा समझते देर न लगी बालक ने महज १२ साल ८ माह की उम्र में १२वीं पास कर ली.वैसे तो यह बच्चा अकेले में ३डी मोगली फिल्म भी नहीं देख पाए इस नन्हे मुन्हें राही ने फुटबाल क्रिकेट आैर अन्य किसी खेल में भी हाथ नहीं आजमाए पता नहीं ये आगे बढने की दौड कितने आंइस्टीन खोज पाएगी.मुझे तो लगता है दिखावा ज्यादा दम कम हर जगह यही नुमाया हो रहा है.चलो अब पूर्वांचल से लेकर केरल अम्मा ममता के रिजल्ट भी कल नजर दौडा लेना.

...बाकी जो है सो हाइए है

जब विद्यासागर जी ने चप्पल फेंकी

जब विद्यासागर जी ने चप्पल फेंकी फिर एक चप्पल चली। रोज ही कहीं ना कहीं यह पदत्राण थलचर हाथों में आ कर नभचर बन अपने गंत्वय की ओर जाने क...