Friday, February 26, 2010

अगला विश्व युद्ध होगा फसलों का ...आनंद कुमार त्रिपाठी

तुम्हे और क्या दे महंगाई के शिवाए

तुम्हे महंगाई का दंश लग जाए
टूटे कमर चाहे,भूखे किसान मर जाए
पर भत्ते में इनके कोई कमी न आए,
कंपनीयो देंगे ये सारी राहत,
आम लोग चाहे नंगे रह जाए
चंदा लेके मोटा इनसे
देंगे अर्थ जगत थामये
ऐसा कर के एक दिन फिर
हम देंगे गुलाम बनाये
अभी तो चंगुल में फंसा है
किसानो को
धीरे से लेंगे खेत कब्जाए
इससे भी न बात बनी तो
देंगे डेल्ही को उलटाये
अगला विश्व युद्ध होगा फसलों  का 
तब लेंगे ताकत अजमाए
ऐसा करके बठेंगे दिल्ली पैर
भारत के नेताओ की जय हो जय
.....जय हो ....जय हो

क्या यही प्यार है

क्या उपहारों के माध्यम से ही अपने प्यार को प्रकट किया जा सकता है? पिछले सप्ताह मैंने जहां भी देखा, वहां एक ही शोर सुनाई दिया- ये खरीदो, वो खरीदो.
पहले जो बात मुझे मजेदार लग रही थी, वह अंतत: मुझ पर इस कदर छा गई कि उत्पादों की बिक्री बढ़ाने के तौर-तरीकों से घृणा होने के बावजूद मुझे भी इस अपराधबोध ने जकड़ लिया कि मैं क्यों उपहार नहीं खरीद रहा? मेरे आसपास हर व्यक्ति मानो क्रेडिट कार्ड चमका रहा था.
हमारे उपभोक्ता समाज ने मदर टेरेसा की बातों को अक्षरश: स्वीकार कर लिया है : तब तक देते रहो, जब तक कि आपको तकलीफ न होने लगे. इसलिए यदि उसके लिए आप एक प्लैटिनम अंगूठी नहीं खरीद सकते या किसी महंगे रेस्तरां में कैंडललाइट डिनर नहीं दे सकते तो इसका मतलब है कि आप उसे ‘अफोर्ड’ नहीं कर सकते. इससे भी बदतर, आप उसके लायक नहीं हैं. वैलेंटाइन डे प्रेम दिवस से अब आपके प्यार की परीक्षा का दिवस बन गया है.
दरअसल यह एक नई अवधारणा है कि प्यार में खर्च करने की क्षमता होनी चाहिए. यह वैसा ही है, जैसा कि पानी जो कुछ साल पहले तक मुफ्त में उपलब्ध था. ऐसा लगता है कि वह जमाना कुछ और था, जब बीटल्स ने गाया था, ‘कांट बाय मी लव.’ लेकिन अब प्यार ‘एवियन’ (फ्रांस का एक मिनरल वॉटर ब्रांड) की तरह ही बेहद महंगा और ब्रांडेड है. ब्रांड जितना बड़ा होगा और उपहार जितना प्रभावी होगा, आपके प्यार का दावा भी उतना ही दमदार होगा.
अब यह नया उपभोक्ता मूल्य बन गया है : ‘मनी, मनी, मनी, इट इज रिच मैंस वर्ल्ड’ और इसे इस बार बीटल्स ने नहीं, बल्कि अब्बा (स्वीडन का प्रसिद्ध म्यूजिक ग्रुप) ने और भी जोर-शोर से प्रतिष्ठापित किया है. यह मामला केवल महिलाओं तक ही सीमित नहीं है. इसका विस्तार ईश्वर तक हो चुका है. तिरुपति और सिद्धिविनायक साल दर साल और भी धनवान होते जा रहे हैं. चढ़ावा और भी तड़क-भड़क वाला होता जा रहा है. हम उस स्तर पर पहुंचते जा रहे हैं, जहां हमसे कह दिया जाएगा कि यदि आप भगवान में आस्था जताने के लिए पर्याप्त चंदा नहीं दे सकते तो आने की जरूरत नहीं है.
विज्ञापन मुझे आगाह करते हैं कि यदि मैं समुचित बीमा योजनाएं नहीं खरीदता हूं तो इसका मतलब है कि मैं अपने परिवार से पर्याप्त प्यार नहीं करता हूं. यदि मैं अपने लिए सही मेडिकल प्लान नहीं खरीदता हूं तो इसका मतलब है कि मुझे परिवार की बहुत ज्यादा फिक्र नहीं है. यदि मैं विदेश के किसी बिजनेस स्कूल में अपने बच्चों के पढ़ने की व्यवस्था नहीं करता हूं तो इसका मतलब है कि मैं जिंदगी के लिए उन्हें सही ढंग से तैयार नहीं कर रहा हूं.
यदि मैं सही म्यूचुअल फंड में निवेश नहीं करता हूं तो उनके भविष्य के लिए निवेश नहीं कर रहा हूं. यदि मैं परिवार के लिए सही सेलफोन प्लान नहीं लेता हूं तो इसका मतलब है कि मैं उन्हें रात-दिन एक-दूसरे के साथ बातचीत करने में सहायता नहीं कर रहा हूं और इस तरह एक परिवार के सदस्यों के बीच जितना अटूट संबंध होना चाहिए, उसमें मददगार नहीं हो रहा हूं. इन सभी में जमकर पैसा खर्च होना है. आज प्यार की यही सबसे बड़ी परीक्षा है.
लेकिन क्या यही बात है जो आपका दिल कहता है? क्या यही बात आपसे वे लोग कहते हैं जिनसे आप प्यार करते हैं? शायद अब तक नहीं, लेकिन आपको जोर-शोर से यह मनवाया जा रहा है कि आप जो चीजें एक-दूसरे को खरीदकर देते हैं, वही प्यार है. वापस प्लैटिनम की अंगूठी पर आएं तो निश्चित रूप से यह एक बहुत ही सुंदर तोहफा है और मुझे पूरा यकीन है कि हममें से कई यह उपहार उसे देना चाहेंगे, जिसे वे दिलो जान से चाहते हैं. लेकिन हममें से सभी उसे खरीद नहीं सकते.
हर दिन वैलेंटाइन डे हो सकता है, बस यह आप पर निर्भर करेगा कि आप उसे कैसे वैलेंटाइन डे में तब्दील करते हैं.
जो प्लैटिनम की अंगूठी नहीं खरीद सकते, ऐसा भी नहीं है कि वे संभवत: उन लोगों की तुलना में अपने अजीज से कम प्यार करते हैं, जो महंगा उपहार खरीद सकते हैं. लेकिन क्या वास्तव में हम इसमें यकीन करते हैं, खासकर उस दुनिया में जहां हमने प्यार को इन घिसी-पिटी वस्तुओं की खरीदी तक सीमित कर दिया है? सर्वव्यापी गुलाब के गुलदस्ते से हॉलमार्क कार्डस और ब्ल्यू टिफनी बॉक्स तक हर चीज अब बेहद उबाऊ है और पूर्वानुमानित भी. हम अच्छी तरह से रचे हुए, हाथ से लिखे संदेशों और छिपकर दिए चुंबन की ताकत को भूल चुके हैं.
उपहार का लेन-देन नीरस सा अनुष्ठान बन चुका है. उपहार जितना महंगा होगा, वह उतना ही आपके बारे में बताएगा, न कि इस बारे में कि आप अपनी प्रेयसी को लेकर क्या महसूस करते हैं. यह कहना तो गलत होगा कि लोग उपहार पसंद नहीं करते, लेकिन यह मानना कि उपहार प्यार का विकल्प हो सकता है, अहंकार से ज्यादा कुछ नहीं है. इसीलिए साहिर ने लिखा है कि ताजमहल प्रेम का नहीं, बल्कि एक शहंशाह के अहंकार का प्रतीक है.
आज शादी से लेकर वैलेंटाइन डे तक प्रत्येक अवसर प्यार की परीक्षा लेता है. लेकिन अपने पड़ोसी की पत्नी को शानदार लाल रंग की चमकती पोर्श कार देकर क्या उसका दिल जीता जा सकता है? उपहार प्यार का विकल्प कदापि नहीं है, चाहे वह कितना भी महंगा हो या सस्ता. उपहार तो इसी बात की पोल खोलते हैं कि आपके पास मौलिक विचारों का कितना अभाव है.
अपनी पत्नी या प्रेयसी के लिए क्यों न सालसा सीखा जाए. उसके लिए कोई कविता लिखें. उसे कोई गीत ई-मेल करें. उसके लिए कार का दरवाजा खोलें. अपने शहर के किसी मनोरम स्थान पर उसे कहीं घूमने के लिए ले जाएं. अपनी कल्पनाओं को चुनौती दें. कुछ ऐसा करें कि वह आश्चर्यचकित रह जाए. उसे मोहित करें, उसे आकर्षित करें, उसे बहलाएं. हर दिन वैलेंटाइन डे हो सकता है, बस यह आप पर निर्भर करेगा कि आप उसे कैसे वैलेंटाइन डे में तब्दील करते हैं. उसके साथ लड़ाई-झगड़ा करें, उसके साथ तर्क-वितर्क करें, उसके साथ हंसें-हंसाएं. यही प्यार है, न कि वह जो आप उसके लिए खरीदते हैं.
वैलेंटाइन डे के नाम पर पॉपकॉर्न चबाते और एक असहनीय फिल्म पर नजरें गड़ाए बोरियत से भरे युवा जोड़ों के बीच जब मैंने एक अंधेरे हॉल में अपने को पाया तो मुझे याद आया कि प्यार कितना सुंदर, लेकिन क्षणभंगुर है. इसे बनाए रखने के लिए, इसे दिल से लगाए रखने के लिए आपको कल्पनाओं और साहस की जरूरत है. आपको ऐसे दिल की जरूरत है जो हर बार उसके पास जाते ही तेजी से धड़क सके, ऐसी धड़कन की जरूरत है जो हर बार तेजी से दौड़ सके. जहां तक मेरा सवाल है, मैं जब भी उससे बात करता हूं, यहां तक कि फोन पर भी, तो मेरा दिल धड़कने लगता है. मेरी जिंदगी में उसकी मौजूदगी ही मेरे लिए सबसे बड़ा उपहार है.

                                                                                                        -प्रीतीश नंदी

Wednesday, February 24, 2010

एक प्रेम कहानी सिनेमा की......

हर दौर की अपनी एक प्रेम कहानी होती है। और हमें वे प्रेम कहानियां हमारी फिल्मों ने दी हैं। अगर मेरे पिता  में थोड़े-से 'बरसात की रात' के भारत भूषण बसते हैं तो मेरे भीतर 'कभी हां कभी ना' के शाहरुख की उलझन दिखाई देगी। हमने अपने नायक हमेशा चाहे सिनेमा से न पाए हों लेकिन प्यार का इजहार तो बेशक उन्हीं से सीखा है। हिंदी सिनेमा इस मायने में भी एक अनूठी दुनिया रचता है कि यह हमारी उन तमाम कल्पनाओं को असलियत का रंग देता है, जिन्हें हिंदुस्तान के छोटे कस्बों और बीहड़ शहरों में जवान होते पूरा करना हमारे जैसों के लिए मुमकिन नहीं।
सिनेमा और उसके सिखाए प्रेम के इस फलसफे का असल मतलब पाना है तो इस महादेश के भीतर जाइए, अंदरूनी हिस्सों में। व्यवस्था के बंधनों के उलट जन्म लेती हर प्रेम कहानी पर सिनेमा की छाप है। किसी ने पहली मुलाकात के लिए मुहल्ले के थियेटर का पिछवाड़ा चुना है तो किसी ने एक फिल्मी गीत कागज पर लिख पत्थर में लपेटकर महबूबा की ओर उछाला है। हम सब ऐसे ही बड़े हुए हैं, थोड़े-से बुद्धू, थोड़े-से फिल्मी। हिंदी सिनेमा के 10 बेहतरीन रोमानी दृश्य बयां कर रहे हैं मिहिर पंड्या :
1. प्यासा
सिगरेट का धुआं उड़ाते गुरुदत्त और दूर से उन्हें तकती वहीदा
यह एक साथ हिंदी सिनेमा का सबसे इरॉटिक और सबसे पवित्र प्रेम-दृश्य है। अभी-अभी नायिका गुलाबो (वहीदा रहमान) को एक पुलिसवाले के चंगुल से बचाने के लिए नायक विजय (गुरुदत्त) ने अपनी पत्नी कहकर संबोधित किया है। नायिका जो पेशे से तवायफ है, अपने लिए इस 'पवित्र' संबोधन को सुनकर अचरज में है। न जाने किस अदृश्य बंधन में बंधी नायक पीछे-पीछे आ गई है। नायक छत की रेलिंग के सहारे खड़ा सिगरेट का धुआं उड़ा रहा है और नायिका दूर से खड़ी उसे ताक रही है। कुछ कहना चाहती है शायद, कह नहीं पाती, लेकिन बैकग्राउंड में साहिर का लिखा, एस. डी. द्वारा संगीतबद्ध और गीता दत्त का गाया भजन 'आज सजन मोहे अंग लगा लो, जनम सफल हो जाए' बहुत कुछ कह जाता है। इस 'सभ्य समाज' द्वारा हाशिए पर डाल बार-बार तिरस्कृत की गई दो पहचानें, एक कवि और दूसरी वेश्या, मिलकर हमारे लिए प्रेम का सबसे पवित्र अर्थ गढ़ते हैं।
2. मुगल-ए-आजम
मधुबाला को टकटकी लगाकर निहारते दिलीप
कहते हैं कि मुंबई फिल्म इंडस्ट्री में डायरेक्टर से लेकर स्पॉट बॉय तक हर आदमी के पास सुनाने के लिए 'मुगल-ए-आजम' से जुड़ी एक कहानी होती है। के. आसिफ की 'मुगल-ए-आजम' हिंदुस्तान में बनी पहली मेगा फिल्म थी, जिसने आगे आने वाली पुश्तों के लिए फिल्म निर्माण के पैमाने ही बदल दिए, लेकिन 'मुगल-ए-आजम' कोरा इतिहास नहीं, हिंदुस्तान के लोकमानस में बसी प्रेम-कथा का पुनराख्यान है। एक बांदी का राजकुमार से प्रेम शहंशाह को नागवार है लेकिन वह प्रेम ही क्या, जो बंधनों में बंधकर हो। चारों ओर से बंद सामंती व्यवस्था के गढ़ में प्रेम की खुली उद्घोषणा स्वरूप 'प्यार किया तो डरना क्या' गाती अनारकली को कौन भूल सकता है। यही याद बसी है हम सबके मन में। शहजादा सलीम (दिलीप कुमार) एक पंखुड़ी से हिंदी सिनेमा की अनिन्द्य सुंदरी अनारकली (मधुबाला) के मुखड़े को सहला रहे हैं और बैकग्राउंड में तानसेन की आवाज बनकर खुद उस्ताद बड़े गुलाम अली खां 'प्रेम जोगन बनके' गा रहे हैं। 'मुगल-ए-आजम' सामंती समाज में विरोध स्वरूप तन-कर खड़े 'प्रेम' का अमर दस्तावेज है।
3. दिल चाहता है
एक बार घूंसा, दूसरी बार इकरार
एक ही डायलॉग 'दिल चाहता है' के दो सबसे महत्वपूर्ण अंश रचता है। वह डायलॉग है एक कवितामय-सा प्यार का इजहार। पहली बार कॉलेज की पार्टी में यह फिल्म का सबसे हंसोड़ प्रसंग है तो दूसरी बार आने पर यह आपकी आंखें गीली कर देता है। बेशक आकाश (आमिर खान) को शालिनी (प्रीटि जिंटा) से प्यार है लेकिन बकौल समीर कौन जानता था कि उसे यह प्यार का इजहार किसी दूसरे की शादी में 200 लोगों के सामने करना पड़ेगा! लेकिन क्या करें कि इस भागती जिंदगी में रुककर प्यार जैसे मुलायम अहसास को समझने में अक्सर ऐसी देर हो जाया करती है। 'दिल चाहता है' ट्रेंड-सेटर फिल्म थी। नई पीढ़ी के लिए आज भी नैशनल एंथम सरीखी है और यह 'इजहार-ए-दिल' प्रसंग उसके भीतर जड़ा सच्चा हीरा।
4. मिस्टर ऐंड मिसेज अय्यर
एक हनीमून की कहानी, जो कभी मनाया ही नहीं गया
कल्पनाएं हमेशा हमारे सामने असलियत से ज्यादा रोमानी और दिलकश मंजर रचती हैं। ख्वाब हमेशा जिंदगी से ज्यादा दिलफरेब होते हैं। एक दक्षिण भारतीय गृहणी मीनाक्षी अय्यर (कोंकणा सेन) ने अपने मुस्लिम सहयात्री (राहुल बोस) की दंगाइयों से जान बचाने के लिए उन्हें अपना पति 'मि. अय्यर' घोषित कर दिया है और अब पूरी यात्रा उन्हें इस झूठ को निबाहना है। और इसी कोशिश में 'मि. अय्यर' साथ सफर कर रही लड़कियों को अपने हनिमून की कहानी सुनाते हैं। नीलगिरी के जंगलों में एक पेड़ के ऊपर बना छोटा-सा घर, पूरे चांद वाली रात, यह एक फोटोग्राफर की आंख से देखा गया दृश्य है। और पीछे उस्ताद जाकिर हुसैन का धीमे-धीमे ऊंचा उठता संगीत। नायिका को पता ही नहीं चलता और वह इस नयनाभिराम मंजर में डूबती जाती है। सबसे मुश्किल वक्तों में ही सबसे मुलायम प्रेम कहानियां देखी जाती हैं। 'मि. ऐंड मिसेस अय्यर' ऐसी ही प्रेम कहानी है।
5. स्पर्श
प्रेम की सुगंध-आवाज-स्पर्श का अहसास
सई परांजपे की 'स्पर्श' इस चयन में शायद थोड़ी अजीब लगे, लेकिन उसका होना जरूरी है। फिल्म के नायक अनिरुद्ध (नसीरुद्दीन शाह) जो एक ब्लाइंड स्कूल के प्रिंसिपल हैं, देख नहीं सकते। वह हमारी नायिका कविता (शबाना आजमी) से जानना चाहते हैं कि वह दिखती कैसी हैं? अब कविता उन्हें बोल-बोलकर बता रही हैं, अपनी सुंदरता की वजहें। अपनी आंखों के बारे में, अपनी जुल्फों के बारे में, अपने रंग के बारे में लेकिन इसका याद रह जाने वाला हिस्सा आगे है, जहां अनिरुद्ध बताते हैं कि यह रूप-रंग तो मेरे लिए बेकार है। मेरे लिए तुम इसलिए सुंदर हो क्योंकि तुम्हारे बदन की खुशबू लुभावनी है, निषिगंधा के फूलों की तरह। तुम्हारी आवाज मर्मस्पर्शी है, सितार की झंकार की तरह और तुम्हारा स्पर्श कोमल है, मखमल की तरह। यह प्रसंग हिंदी सिनेमा में 'प्रेम' को एक और आयाम पर ले जाता है।
6. सोचा न था
ईमानदार दुविधाओं से निकलकर इज़हाए-ए-इश्क
आज की पीढ़ी के पसंदीदा 'लव गुरु' इम्तियाज अली की वही अकेली प्रेम-कहानी को अपने सबसे प्रामाणिक और सच्चे फॉर्म में आप उनकी पहली फिल्म 'सोचा न था' में पाते हैं। नायक आधी रात नायिका की बालकनी फांदकर उसके घर में घुस आया है और पूछ रहा है, आखिर क्या है मेरे-तुम्हारे बीच अदिति? दरअसल यह वह सवाल है, जो उस रात वीरेन (अभय देओल) और अदिति (आयशा टाकिया) एक-दूसरे से नहीं, अपने आप से पूछ रहे हैं और जब उस निर्णायक क्षण में उन्हें अपने दिल से वह सही जवाब मिल जाता है तो देखिए कैसे दोनों सातवें आसमान पर हैं! इस इजहार-ए-मोहब्बत के पहले नायिका जितनी मुखर है, बाद में उतनी ही खामोश, बरबस 'मुझे चांद चाहिए' की वर्षा वशिष्ठ याद आती है। इम्तियाज की प्रेम-कहानियों में प्यार को लेकर वही संशय भाव मिलता है, जिसे हम मनोहर श्याम जोशी के उपन्यास 'कसप' में पाते हैं। उनकी इन दुविधाग्रस्त लेकिन हद दर्जे तक ईमानदार प्रेम-कहानियों ने हमारे समय में 'प्रेम' के असल अर्थ को बचाकर रखा है।
7. दिलवाले दुल्हनियां ले जाएंगे
पलट...
'राज, अगर ये तुझे प्यार करती है तो पलट के देखेगी। पलट... पलट...' और बनती है मेरे दौर की सबसे चहेती प्रेम कहानी। उस पूरे दौर को ही 'डीडीएलजे' हो गया था जैसे। हमारी प्रेमिकाओं के कोडनेम 'सिमरन' होने लगे थे और हमारी पीढ़ी ने अपना बिगड़ैल नायक पा लिया था। हम लड़कपन की देहरी पर खड़े थे और अपनी देहभाषा से खुद को अभिव्यक्त करने वाला शाहरुख हमारे लिए प्यार के नए फलसफे गढ़ रहा था। हर दौर की अपनी एक प्रेम-कहानी होती है। परियों वाली प्रेम-कहानी। मेरे समय ने अपनी 'परियों वाली प्रेम कहानी' शाहरुख की इस एक 'पलट' के साथ पाई।
8. दिल से
ढाई मिनट की प्रेम कहानी
हिंदी सिनेमा में आई सबसे छोटी प्रेम-कहानी। नायक (शाहरुख खान) रेडियो पर नायिका (मनीषा कोइराला) से अपनी पहली मुलाकात का किस्सा एक गीतों भरी कहानी में पिरोकर सुना रहा है और नायिका अपने कमरे में बैठी उस किस्से को सुन रही है, समझ रही है कि यह उसके लिए ही है। इस किस्से में सब-कुछ है, अकेली रात है, बरसात है, सुनसान प्लैटफॉर्म है, दौड़ते हुए घोड़े हैं, बिखरते हुए मोती हैं। यही वह दृश्य है, जिसके अंत में रहमान और गुलजार द्वारा रचा सबसे खूबसूरत और हॉन्टिंग गीत 'ए अजनबी' आता है। नायक अभी नायिका का नाम तक नहीं जानता है लेकिन ये कमबख्त इश्क कब नाम पूछकर हुआ है भला।

9. तेरे घर के सामने
कुतुब के भीतर 'दल का भंवर करे पुकार'
दिल्ली की कुतुब मीनार के भीतर नूतन देव आनंद से पूछती हैं कि क्या तुम्हें खामोशी की आवाज सुनाई देती है? और देव आनंद अपने चुहल भरे अंदाज में नूतन से कहते हैं कि हमें तो बस एक ही आवाज सुनाई देती है, 'दिल की आवाज' और हसरत जयपुरी का लिखा एवं एस. डी. बर्मन का रचा गीत आता है 'दिल का भंवर करे पुकार, प्यार का राग सुनो'। यह आजाद भारत की सपने देखती नई युवा पीढ़ी है, बंधनों और रूढ़ियों से मुक्त। इस प्रसंग में आप एक साथ दो प्रेम कहानियों को बनता पाएंगे। और गौर से देखें तो ये दोनों ही प्रेम-कहानियां सामाजिक रूढ़ियों को तोड़ने वाली हैं। नए-नए आजाद हुए मुल्क की नई बनती राजधानी इस प्रेम का घटनास्थल है और कुतुब से देखने पर इस प्यार का कद थोड़ा और ऊंचा उठ जाता है।
10. शोले
माउथऑर्गन बजाते अमिताभ और लैंप बुझाती जया
क्या शोले' के बिना लोकप्रिय हिंदी सिनेमा से जुड़ा कोई भी चयन पूरा हो सकता है? वीरू और बसंती की मुंहफट और मुखर प्रेम कहानी के बरक्स एक साइलेंट प्रेम कहानी है जय और राधा की, जिसके बैकग्राउंड में जय के माउथऑर्गन का संगीत घुला है। हिंदी सिनेमा की सबसे खामोश प्रेम कहानी। अमिताभ नीचे बरामदे में बैठे माउथऑर्गन बजा रहे हैं और जया ऊपर एक-एक कर लैंप बुझा रही हैं। आज भी शोले का यह आइकॉनिक शॉट हिंदुस्तानी जन की स्मृतियों में जिंदा है।


                                               साभार -मिहिर पांडिया

Friday, February 19, 2010

परछाई

तुम्हारी परछाई आईने में,
मेरी सबसे प्यारी ग़ज़ल है;
मगर जरा जल्दी करो,
यही मेरी आखिरी निशानी है!

Friday, February 12, 2010

इब्न-इ-बतूता-गुलज़ार-ए- नक़ल

इब्न-इ-बतूता 
इब्न-इ-बतूता

बगल  में  जूता 
पहने  तो  करता  है,  चुर्र
उड़  उड़  आवे , दाना  चुगेवे 
उड़  जावे  चिड़िया  फुर्र 
अगले  मोड़  पे , मौत  खडी है
अरे  मरने  की भी  क्या  जल्दी  है
होर्न बज के, आ  बगियाँ  में
हो  दुर्घटना  से देर  भली  है
चल  उड़  जा  उड़  जा  फुर्र
दोनों  तरफ  से बजती  है  यह
आइ  है ज़िन्दगी  क्या ढोलक  है
होर्न  बज के  आ   बगियाँ  में
अरे  थोडा  आगे  गतिरोधक  है
इब्न-इ-बतूता

असली इब्नबत्तुता का जूता

इब्न  बत्तुता 


पहन  के  जूता 

निकल  पड़ा  तूफ़ान  में 

थोड़ी  हवा  नाक  में  घुस  गयी 

थोड़ी  घुस गयी  कान  में

कभी नाक  को 

कभी  कान  को

मलते  इब्न  बत्तुता 

इसी  बीच  में  निकल  पड़ा

उनके  पैरों  का  जूता

उड़ते  उड़ते  उनका  जूता

पहुँच  गया  जापान  में

इब्न  बत्तुता  खड़े  रह  गए 

मोची  की दुकान  में 
                       -सर्वेश्वेर दयाल सक्सेना


Thursday, February 11, 2010

आनंद अखंड घना था- जयशंकर प्रसाद

तब वृषभ सोमवाही भी
अपनी घंटा-ध्वनि करता,
बढ चला इडा के पीछे
मानव भी था डग भरता।

हाँ इडा आज भूली थी
पर क्षमा न चाह रही थी,
वह दृश्य देखने को निज
दृग-युगल सराह रही थी

चिर-मिलित प्रकृति से पुलकित
वह चेतन-पुरूष-पुरातन,
निज-शक्ति-तरंगायित था
आनंद-अंबु-निधि शोभन।

भर रहा अंक श्रद्धा का
मानव उसको अपना कर,
था इडा-शीश चरणों पर
वह पुलक भरी गदगद स्वर

बोली-"मैं धन्य हुई जो
यहाँ भूलकर आयी,
हे देवी तुम्हारी ममता
बस मुझे खींचती लायी।

भगवति, समझी मैं सचमुच
कुछ भी न समझ थी मुझको।
सब को ही भुला रही थी
अभ्यास यही था मुझको।

हम एक कुटुम्ब बनाकर
यात्रा करने हैं आये,
सुन कर यह दिव्य-तपोवन
जिसमें सब अघ छुट जाये।"

मनु ने कुछ-कुछ मुस्करा कर
कैलास ओर दिखालाया,
बोले- "देखो कि यहाँ
कोई भी नहीं पराया।

हम अन्य न और कुटुंबी
हम केवल एक हमीं हैं,
तुम सब मेरे अवयव हो
जिसमें कुछ नहीं कमीं है।

शापित न यहाँ है कोई
तापित पापी न यहाँ है,
जीवन-वसुधा समतल है
समरस है जो कि जहाँ है।

चेतन समुद्र में जीवन
लहरों सा बिखर पडा है,
कुछ छाप व्यक्तिगत,
अपना निर्मित आकार खडा है।

इस ज्योत्स्ना के जलनिधि में
बुदबुद सा रूप बनाये,
नक्षत्र दिखाई देते
अपनी आभा चमकाये।

वैसे अभेद-सागर में
प्राणों का सृष्टि क्रम है,
सब में घुल मिल कर रसमय
रहता यह भाव चरम है।

अपने दुख सुख से पुलकित
यह मूर्त-विश्व सचराचर
चिति का विराट-वपु मंगल
यह सत्य सतत चित सुंदर।

सबकी सेवा न परायी
वह अपनी सुख-संसृति है,
अपना ही अणु अणु कण-कण
द्वयता ही तो विस्मृति है।

मैं की मेरी चेतनता
सबको ही स्पर्श किये सी,
सब भिन्न परिस्थितियों की है
मादक घूँट पिये सी।

जग ले ऊषा के दृग में
सो ले निशी की पलकों में,
हाँ स्वप्न देख ले सुदंर
उलझन वाली अलकों में

चेतन का साक्षी मानव
हो निर्विकार हंसता सा,
मानस के मधुर मिलन में
गहरे गहरे धँसता सा।

सब भेदभाव भुलवा कर
दुख-सुख को दृश्य बनाता,
मानव कह रे यह मैं हूँ,
यह विश्व नीड बन जाता"

श्रद्धा के मधु-अधरों की
छोटी-छोटी रेखायें,
रागारूण किरण कला सी
विकसीं बन स्मिति लेखायें।

वह कामायनी जगत की
मंगल-कामना-अकेली,
थी-ज्योतिष्मती प्रफुल्लित
मानस तट की वन बेली।

वह विश्व-चेतना पुलकित थी
पूर्ण-काम की प्रतिमा,
जैसे गंभीर महाह्नद हो
भरा विमल जल महिमा।

जिस मुरली के निस्वन से
यह शून्य रागमय होता,
वह कामायनी विहँसती अग
जग था मुखरित होता।

क्षण-भर में सब परिवर्तित
अणु-अणु थे विश्व-कमल के,
पिगल-पराग से मचले
आनंद-सुधा रस छलके।

अति मधुर गंधवह बहता
परिमल बूँदों से सिंचित,
सुख-स्पर्श कमल-केसर का
कर आया रज से रंजित।

जैसे असंख्य मुकुलों का
मादन-विकास कर आया,
उनके अछूत अधरों का
कितना चुंबन भर लाया।

रूक-रूक कर कुछ इठलाता
जैसे कुछ हो वह भूला,
नव कनक-कुसुम-रज धूसर
मकरंद-जलद-सा फूला।

जैसे वनलक्ष्मी ने ही
बिखराया हो केसर-रज,
या हेमकूट हिम जल में
झलकाता परछाई निज।

संसृति के मधुर मिलन के
उच्छवास बना कर निज दल,
चल पडे गगन-आँगन में
कुछ गाते अभिनव मंगल।

वल्लरियाँ नृत्य निरत थीं,
बिखरी सुगंध की लहरें,
फिर वेणु रंध्र से उठ कर
मूर्च्छना कहाँ अब ठहरे।

गूँजते मधुर नूपुर से
मदमाते होकर मधुकर,
वाणी की वीणा-धवनि-सी
भर उठी शून्य में झिल कर।

उन्मद माधव मलयानिल
दौडे सब गिरते-पडते,
परिमल से चली नहा कर
काकली, सुमन थे झडते।

सिकुडन कौशेय वसन की थी
विश्व-सुन्दरी तन पर,
या मादन मृदुतम कंपन
छायी संपूर्ण सृजन पर।

सुख-सहचर दुख-विदुषक
परिहास पूर्ण कर अभिनय,
सब की विस्मृति के पट में
छिप बैठा था अब निर्भय।

थे डाल डाल में मधुमय
मृदु मुकुल बने झालर से,
रस भार प्रफुल्ल सुमन
सब धीरे-धीरे से बरसे।

हिम खंड रश्मि मंडित हो
मणि-दीप प्रकाश दिखता,
जिनसे समीर टकरा कर
अति मधुर मृदंग बजाता।

संगीत मनोहर उठता
मुरली बजती जीवन की,
सकेंत कामना बन कर
बतलाती दिशा मिलन की।

रस्मियाँ बनीं अप्सरियाँ
अतंरिक्ष में नचती थीं,
परिमल का कन-कन लेकर
निज रंगमंच रचती थी।

मांसल-सी आज हुई थी
हिमवती प्रकृति पाषाणी,
उस लास-रास में विह्वल
थी हँसती सी कल्याणी।

वह चंद्र किरीट रजत-नग
स्पंदित-सा पुरष पुरातन,
देखता मानसि गौरी
लहरों का कोमल नत्तर्न

प्रतिफलित हुई सब आँखें
उस प्रेम-ज्योति-विमला से,
सब पहचाने से लगते
अपनी ही एक कला से।

समरस थे जड‌़ या चेतन
सुन्दर साकार बना था,
चेतनता एक विलसती

प्यार ही को क्या नश्वर हम कहेंगे-सचिदानंद

हमने
शिखरों पर जो प्यार किया
घाटियों में उसे याद करते रहे!
फिर तलहटियों में पछताया किए
कि क्यों जीवन यों बरबाद करते रहे!

पर जिस दिन सहसा आ निकले
सागर के किनारे—
ज्वार की पहली ही उत्ताल तरंग के सहारे
पलक की झपक-भर में पहचाना
कि यह अपने को कर्त्ता जो माना—
यही तो प्रमाद करते रहे!

शिखर तो सभी अभी हैं,
घाटियों में हरियालियाँ छाई हैं;
तलहटियाँ तो और भी
नई बस्तियों में उभर आई हैं।

सभी कुछ तो बना है, रहेगा:
एक प्यार ही को क्या
नश्वर हम कहेंगे—
इस लिए कि हम नहीं रहेंगे?

अमावस की काली रातो में - कुमार विश्वास

अमावस की काली रातों में दिल का दरवाजा खुलता है,
जब दर्द की प्याली रातों में गम आंसू के संग होते हैं,
जब पिछवाड़े के कमरे में हम निपट अकेले होते हैं,
जब घड़ियाँ टिक-टिक चलती हैं,सब सोते हैं, हम रोते हैं,
जब बार-बार दोहराने से सारी यादें चुक जाती हैं,
जब ऊँच-नीच समझाने में माथे की नस दुःख जाती है,
तब एक पगली लड़की के बिन जीना गद्दारी लगता है,
और उस पगली लड़की के बिन मरना भी भारी लगता है।



जब पोथे खाली होते है, जब हर सवाली होते हैं,
जब गज़लें रास नही आती, अफ़साने गाली होते हैं,
जब बासी फीकी धूप समेटे दिन जल्दी ढल जता है,
जब सूरज का लश्कर चाहत से गलियों में देर से जाता है,
जब जल्दी घर जाने की इच्छा मन ही मन घुट जाती है,
जब कालेज से घर लाने वाली पहली बस छुट जाती है,
जब बेमन से खाना खाने पर माँ गुस्सा हो जाती है,
जब लाख मन करने पर भी पारो पढ़ने आ जाती है,
जब अपना हर मनचाहा काम कोई लाचारी लगता है,
तब एक पगली लड़की के बिन जीना गद्दारी लगता है,
और उस पगली लड़की के बिन मरना भी भारी लगता है।


जब कमरे में सन्नाटे की आवाज़ सुनाई देती है,
जब दर्पण में आंखों के नीचे झाई दिखाई देती है,
जब बड़की भाभी कहती हैं, कुछ सेहत का भी ध्यान करो,
क्या लिखते हो दिन भर, कुछ सपनों का भी सम्मान करो,
जब बाबा वाली बैठक में कुछ रिश्ते वाले आते हैं,
जब बाबा हमें बुलाते है,हम जाते हैं,घबराते हैं,
जब साड़ी पहने एक लड़की का फोटो लाया जाता है,
जब भाभी हमें मनाती हैं, फोटो दिखलाया जाता है,
जब सारे घर का समझाना हमको फनकारी लगता है,
तब एक पगली लड़की के बिन जीना गद्दारी लगता है,
और उस पगली लड़की के बिन मरना भी भारी लगता है।


दीदी कहती हैं उस पगली लडकी की कुछ औकात नहीं,
उसके दिल में भैया तेरे जैसे प्यारे जज़्बात नहीं,
वो पगली लड़की एक दिन मेरे लिए भूखी रहती है,
चुप चुप सारे व्रत करती है, मगर मुझसे कुछ ना कहती है,
जो पगली लडकी कहती है, हाँ प्यार तुझी से करती हूँ,
लेकिन मैं हूँ मजबूर बहुत, अम्मा-बाबा से डरती हूँ,
उस पगली लड़की पर अपना कुछ अधिकार नहीं बाबा,
ये कथा-कहानी-किस्से हैं, कुछ भी सार नहीं बाबा,
बस उस पगली लडकी के संग जीना फुलवारी लगता है,
और उस पगली लड़की के बिन मरना भी भारी लगता है |||

Tuesday, February 9, 2010

ये दिल्ली है ...दिल्ली.

यह कैसी चांदनी अम के मलिन तमिस्र गगन में
कूक रही क्यों नियति व्यंग से इस गोधूलि-लगन में ?

मरघट में तू साज रही दिल्ली कैसे श्रृंगार?
यह बहार का स्वांग अरी इस उजड़े चमन में!

इस उजाड़ निर्जन खंडहर में
छिन्न-भिन्न उजड़े इस घर मे

तुझे रूप सजाने की सूझी
इस सत्यानाश प्रहर में !

डाल-डाल पर छेड़ रही कोयल मर्सिया-तराना,
और तुझे सूझा इस दम ही उत्सव हाय, मनाना;

हम धोते हैं घाव इधर सतलज के शीतल जल से,
उधर तुझे भाता है इनपर नमक हाय, छिड़काना !

महल कहां बस, हमें सहारा
केवल फ़ूस-फ़ास, तॄणदल का;

अन्न नहीं, अवलम्ब प्राण का
गम, आँसू या गंगाजल का;

रामधारी सिंह दिनकर

जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनके भी अपराध..समर शेष है

वह संसार जहाँ तक पहुँची अब तक नहीं किरण है
जहाँ क्षितिज है शून्य, अभी तक अंबर तिमिर वरण है
देख जहाँ का दृश्य आज भी अन्त:स्थल हिलता है
माँ को लज्ज वसन और शिशु को न क्षीर मिलता है

पूज रहा है जहाँ चकित हो जन-जन देख अकाज
सात वर्ष हो गये राह में, अटका कहाँ स्वराज?

अटका कहाँ स्वराज? बोल दिल्ली! तू क्या कहती है?
तू रानी बन गयी वेदना जनता क्यों सहती है?
सबके भाग्य दबा रखे हैं किसने अपने कर में?
उतरी थी जो विभा, हुई बंदिनी बता किस घर में

समर शेष है, यह प्रकाश बंदीगृह से छूटेगा
और नहीं तो तुझ पर पापिनी! महावज्र टूटेगा

समर शेष है, उस स्वराज को सत्य बनाना होगा
जिसका है ये न्यास उसे सत्वर पहुँचाना होगा
धारा के मग में अनेक जो पर्वत खडे हुए हैं
गंगा का पथ रोक इन्द्र के गज जो अडे हुए हैं

कह दो उनसे झुके अगर तो जग मे यश पाएंगे
अड़े रहे अगर तो ऐरावत पत्तों से बह जाऐंगे

समर शेष है, जनगंगा को खुल कर लहराने दो
शिखरों को डूबने और मुकुटों को बह जाने दो
पथरीली ऊँची जमीन है? तो उसको तोडेंगे
समतल पीटे बिना समर कि भूमि नहीं छोड़ेंगे

समर शेष है, चलो ज्योतियों के बरसाते तीर
खण्ड-खण्ड हो गिरे विषमता की काली जंजीर

समर शेष है, अभी मनुज भक्षी हुंकार रहे हैं
गांधी का पी रुधिर जवाहर पर फुंकार रहे हैं
समर शेष है, अहंकार इनका हरना बाकी है
वृक को दंतहीन, अहि को निर्विष करना बाकी है

समर शेष है, शपथ धर्म की लाना है वह काल
विचरें अभय देश में गाँधी और जवाहर लाल

तिमिर पुत्र ये दस्यु कहीं कोई दुष्काण्ड रचें ना
सावधान हो खडी देश भर में गाँधी की सेना
बलि देकर भी बलि! स्नेह का यह मृदु व्रत साधो रे
मंदिर औ' मस्जिद दोनों पर एक तार बाँधो रे

समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध
जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनके भी अपराध
   -रामधारी सिंह दिनकर

शोक की संतान

हृदय छोटा हो,
तो शोक वहां नहीं समाएगा।
और दर्द दस्तक दिये बिना
दरवाजे से लौट जाएगा।
टीस उसे उठती है,
जिसका भाग्य खुलता है।
वेदना गोद में उठाकर
सबको निहाल नहीं करती,
जिसका पुण्य प्रबल होता है,
वह अपने आसुओं से धुलता है।
तुम तो नदी की धारा के साथ
दौड़ रहे हो।
उस सुख को कैसे समझोगे,
जो हमें नदी को देखकर मिलता है।
और वह फूल
तुम्हें कैसे दिखाई देगा,
जो हमारी झिलमिल
अंधियाली में खिलता है?
हम तुम्हारे लिये महल बनाते हैं
तुम हमारी कुटिया को
देखकर जलते हो।
युगों से हमारा तुम्हारा
यही संबंध रहा है।
हम रास्ते में फूल बिछाते हैं
तुम उन्हें मसलते हुए चलते हो।
दुनिया में चाहे जो भी निजाम आए,
तुम पानी की बाढ़ में से
सुखों को छान लोगे।
चाहे हिटलर ही
आसन पर क्यों न बैठ जाए,
तुम उसे अपना आराध्य
मान लोगे।
मगर हम?
तुम जी रहे हो,
हम जीने की इच्छा को तोल रहे हैं।
आयु तेजी से भागी जाती है
और हम अंधेरे में
जीवन का अर्थ टटोल रहे हैं।
असल में हम कवि नहीं,
शोक की संतान हैं।
हम गीत नहीं बनाते,
पंक्तियों में वेदना के
शिशुओं को जनते हैं।
झरने का कलकल,
पत्तों का मर्मर
और फूलों की गुपचुप आवाज़,
ये गरीब की आह से बनते हैं। 
 
- राम धारी सिंह दिनकर

बालिका से वधू

माथे में सेंदूर पर छोटी
दो बिंदी चमचम-सी,
पपनी पर आँसू की बूँदें
मोती-सी, शबनम-सी।
लदी हुई कलियों में मादक
टहनी एक नरम-सी,
यौवन की विनती-सी भोली,
गुमसुम खड़ी शरम-सी।
पीला चीर, कोर में जिसके
चकमक गोटा-जाली,
चली पिया के गांव उमर के
सोलह फूलों वाली।
पी चुपके आनंद, उदासी
भरे सजल चितवन में,
आँसू में भींगी माया
चुपचाप खड़ी आंगन में।
आँखों में दे आँख हेरती
हैं उसको जब सखियाँ,
मुस्की आ जाती मुख पर,
हँस देती रोती अँखियाँ।
पर, समेट लेती शरमाकर
बिखरी-सी मुस्कान,
मिट्टी उकसाने लगती है
अपराधिनी-समान।
भींग रहा मीठी उमंग से
दिल का कोना-कोना,
भीतर-भीतर हँसी देख लो,
बाहर-बाहर रोना।
तू वह, जो झुरमुट पर आयी
हँसती कनक-कली-सी,
तू वह, जो फूटी शराब की
निर्झरिणी पतली-सी।
तू वह, रचकर जिसे प्रकृति
ने अपना किया सिंगार,
तू वह जो धूसर में आयी
सुबज रंग की धार।
मां की ढीठ दुलार! पिता की
ओ लजवंती भोली,
ले जायेगी हिय की मणि को
अभी पिया की डोली।
कहो, कौन होगी इस घर की
तब शीतल उजियारी?
किसे देख हँस-हँस कर
फूलेगी सरसों की क्यारी?
वृक्ष रीझ कर किसे करेंगे
पहला फल अर्पण-सा?
झुकते किसको देख पोखरा
चमकेगा दर्पण-सा?
किसके बाल ओज भर देंगे
खुलकर मंद पवन में?
पड़ जायेगी जान देखकर
किसको चंद्र-किरन में?
महँ-महँ कर मंजरी गले से
मिल किसको चूमेगी?
कौन खेत में खड़ी फ़सल
की देवी-सी झूमेगी?
बनी फिरेगी कौन बोलती
प्रतिमा हरियाली की?
कौन रूह होगी इस धरती
फल-फूलों वाली की?
हँसकर हृदय पहन लेता जब
कठिन प्रेम-ज़ंजीर,
खुलकर तब बजते न सुहागिन,
पाँवों के मंजीर।
घड़ी गिनी जाती तब निशिदिन
उँगली की पोरों पर,
प्रिय की याद झूलती है
साँसों के हिंडोरों पर।
पलती है दिल का रस पीकर
सबसे प्यारी पीर,
बनती है बिगड़ती रहती
पुतली में तस्वीर।
पड़ जाता चस्का जब मोहक
प्रेम-सुधा पीने का,
सारा स्वाद बदल जाता है
दुनिया में जीने का।
मंगलमय हो पंथ सुहागिन,
यह मेरा वरदान;
हरसिंगार की टहनी-से
फूलें तेरे अरमान।
जगे हृदय को शीतल करने-
वाली मीठी पीर,
निज को डुबो सके निज में,
मन हो इतना गंभीर।
छाया करती रहे सदा
तुझको सुहाग की छाँह,
सुख-दुख में ग्रीवा के नीचे
रहे पिया की बाँह।
पल-पल मंगल-लग्न, ज़िंदगी
के दिन-दिन त्यौहार,
उर का प्रेम फूटकर हो
आँचल में उजली धार।
        राम धारी सिंह दिनकर 

Monday, February 8, 2010

राजनीति की नीति

राजनीति की नीति का, है ना पारावार

जैसे चाहो मोड़ दो अर्थों का संसार



पल पल निष्ठा बदलना, राजनीति का खेल

आज गले जो मिल रहे कल वे ही अनमेल



मनुज बदलते हैं नहीं, बदल रहे हैं अर्थ

कल जिनके गुन गा रहे, अब दिखते वे व्यर्थ



मंत्री पद के लोभ में दल निष्ठा को तोड़

छोड़ छाड़ कर जा रहे ऐसी देखी होड़



संप्रदाय अरु जाति की राजनीति बेकार

कटुता दिन दिन बढ़ रही नफ़रत का संसार



सत्ता के सुख भोग की होड़ लगी चहुँ ओर

लूट मची सब ओर है, जित देखो तित चोर
              कन्हेया लाल शर्मा

kumar visvash

दीवाना कहता है, कोई पागल समझता है !


मगर धरती की बेचैनी को बस बादल समझता है !!

मैं तुझसे दूर कैसा हूँ , तू मुझसे दूर कैसी है !

ये तेरा दिल समझता है या मेरा दिल समझता है !!



मोहब्बत एक एहसासों की पावन सी कहानी है !

कभी कबीरा दीवाना था कभी मीरा दीवानी है !!

यहाँ सब लोग कहते हैं, मेरी आंखों में आँसू हैं !

जो तू समझे तो मोती है, जो ना समझे तो पानी है !!



समंदर पीर का है अन्दर, लेकिन रो नही सकता !

यह आँसू प्यार का मोती है, इसको खो नही सकता !!

मेरी चाहत को दुल्हन बना लेना, मगर सुन ले !

जो मेरा हो नही पाया, वो तेरा हो नही सकता !!



भ्रमर कोई कुमुदनी पर मचल बैठा तो हँगामा

हमारे दिल में कोई ख्वाब पला बैठा तो हँगामा,

अभी तक डूब कर सुनते थे हम किस्सा मुहब्बत का

मैं किस्से को हक़ीक़त में बदल बैठा तो हँगामा !!!

जब विद्यासागर जी ने चप्पल फेंकी

जब विद्यासागर जी ने चप्पल फेंकी फिर एक चप्पल चली। रोज ही कहीं ना कहीं यह पदत्राण थलचर हाथों में आ कर नभचर बन अपने गंत्वय की ओर जाने क...