Wednesday, September 30, 2015

१६ आना सच पत्रकारिता के दो रंग


अंग्रेजी और हिंदी पत्रकारिता में जमीन-आसमान का फर्क है, ये सब कहते हैं मगर ये कोई नहीं कहता कि हिंदी और अंग्रेजी में वेतन के बड़े अंतर के साथ-साथ काम करने के माहौल और तौर-तरीके में भी बहुत फर्क है
प्रियंका दुबे
साभार-प्रियंका दुबे
अपने एक कमरे के छोटे-से किराये के ‘घर’ के दरवाजे पर ताला मारकर मैं दौड़ी-दौड़ी घर के सामने वाले चौराहे पर पहुंची. ‘ब्लू डार्ट’ से मेरे लिए एक लिफाफा आया था. जल्दी से दस्तखत कर कुरियर वाले को पर्ची पकड़ाई और लिफाफा लेकर वापस कमरे की तरफ दौड़ी. लिफाफे के एक सिरे को धीरे से फाड़ा और अंदर मौजूद पेमेंट इनवॉइस और 32 हजार रुपये का चेक निकाल कर देखा. यह एक स्वतंत्र पत्रकार के तौर पर मेरी पहली कमाई थी और मुझे याद है कि चेक हाथ में लेकर मैं खुशी से उछल पड़ी थी. खुश होने की वजह भी थी. अब मैं भारत भर में फैली करोड़ों खबरों में से अपनी पसंद की स्टोरी चुनकर उसे कर सकती थी, उस पर दस दिन का समय खर्च कर सकती थी, ग्राउंड पर जाकर उसे रिपोर्ट कर सकती थी और फिर कम से कम तीन हजार शब्दों में दिल खोलकर लिख सकती थी. साथ में तस्वीरें भी भेज सकती थी और कम से कम छह रुपये हर एक शब्द के हिसाब से पैसे भी ले सकती थी. मतलब मैं बिना किसी दफ्तर में काम किए अपनी पसंद की इन-डेप्थ स्टोरीज कर सकती थी और पैसे भी कमा सकती थी. ज्यादा नहीं तो कम से रिपोर्ट के फील्ड वर्क के दौरान होने वाली यात्राओं में ट्रांसपोर्ट का खर्चा तो अलग से पेमेंट में जुड़कर मिल ही रहा था.
मेरे लिए यह सेटअप एक स्वतंत्र जीवन, मनचाहे काम और जरूरत भर पैसों की चाभी था. बहुत संभव है कि अंग्रेजी में काम कर रहे स्वतंत्र पत्रकारों को सिर्फ 6 रुपये प्रति शब्द की दर कम लगे या फील्ड बजट का कम होना अखरे या हर फिर पेमेंट में से दस फीसदी की कर कटौती तकलीफ दे. अंग्रेजी में स्वतंत्र तौर पर काम कर रहे मेरे बहुत से मित्र जब मुझसे कहते थे कि फ्रीलांसिंग की कमाई से उनका खर्च चलना मुश्किल है तब मैं सिर्फ मुस्कुरा कर उनकी बात सुन लेती थी. और आज अपना पहला चेक आने पर मैं इतनी खुश थी जैसे उतने पैसो से सारी जिंदगी गुजर सकती हो.
वजह शायद हिंदी पत्रकारिता में गुजारे गए साढ़े तीन साल का अनुभव था. हिंदी में काम करते हुए मैंने बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और राजस्थान जैसे राज्यों की राजधानियों में फोटो पत्रकारों को सिर्फ सौ-सौ रुपये में तस्वीरें बेचते और कॉलम लिखने वालों को सिर्फ चार या पांच सौ रुपये में खुशी से लिखते हुए देखा था. मैंने देखा था कि कैसे एक ही मीडिया संस्थान की हिंदी इकाई में एक प्रशिक्षु की भर्ती 12 हजार रुपये/महीने पर होती है और ज्यादा सुविधाओं के साथ वही काम उसी संस्था की अंग्रेजी इकाई में करने वाले प्रशिक्षु की भर्ती कम से कम 25 हजार रुपये/महीने पर होती है. मैंने देखा था कि कैसे एक हिंदी के पत्रकार को खबर के लिए जाते वक्त थर्ड एसी का किराया भी मुश्किल से जारी होता है जबकि अंग्रेजी में सभी ज्यादातर हवाई जहाज से यात्रा करते थे. अंग्रेजी की दो पेज की रिपोर्ट पर होने वाले खर्च में हम हिंदी में दस-दस पेजों की कवर स्टोरी फाइल कर दिया करते थे.
हिंदी में कभी हमारे पास अंग्रेजी के बराबर संसाधन नहीं रहे और अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए अच्छे काम के सिवा कोई दूसरा रास्ता भी नहीं था. इसलिए हमने कम बजट में काम करने के लिए खुद को ट्रेन कर लिया था. उदाहरण के लिए सिर्फ 30 हजार रुपयों में देश के सुदूर कोनों में एक हफ्ते काम करना और दस पन्ने से ज्यादा लंबी पड़ताल के साथ लौटना. इसी बजट में फोटोग्राफर को भी दफ्तर से साथ ले जाना होता था. पत्रकार अगर कोई लड़की है तो दिक्कत दोगुनी. बाहर रुकने के लिए एक सुरक्षित जगह चाहिए और फोटोग्राफर के लिए अलग कमरा भी. हिंदी पत्रिका या अखबार के दफ्तर में ज्यादा बजट की मांग भी नहीं कर सकते वर्ना स्टोरी पर जाने से ही रोक दिए जाने का खतरा रहता है और अगर पत्रकार स्टोरी नहीं करेगा तो करेगा क्या? ऐसे में हिंदी का पत्रकार जुगाड़ के जरिए सारे काम करना सीख जाता है.
कम बजट में रिपोर्ट करने के लिए वह अपना ह्यूमन रिसोर्स नेटवर्क और बड़ा करता है. यही ‘नेटवर्क’ हिंदी के हर पत्रकार की असली पूंजी होता है. हर जिले, हर शहर में उसके चार मित्र, दो परिचित तो होते ही हैं. सस्ते होटलों, धर्मशालाओं, मस्जिदों, गुरुद्वारों और चर्च से लेकर गांव-खेड़े में चारपाई या फिर तिरपाल बिछाकर भी सो जाता है. वह फिर भी खुश है क्योंकि उसकी कंडीशनिंग ऐसे वातावरण में की गई है जहां उसकी रिपोर्ट प्रकाशित करके संपादक उस पर एक तरह से एहसान करता है और उसे इसी पुरस्कार के लिए संस्था का शुक्रगुजार होना चाहिए. उसने जहां अंग्रेजी के बराबर तनख्वाह या काम करने की बेहतर स्थितियों की मांग की, पहले खुद लाखों रुपये पा रहे संपादक उसको ‘देश या पत्रकारिता के नाम पर शहीद होने’ की समझाइश देंगे और दोबारा कहने पर तो उसे तुरंत रिपोर्टिंग छोड़ने को कह दिया जाएगा या फिर सेमी-पोर्न खबरें वेबसाइट पर अपलोड कर रहे साथियों की टीम में शामिल हो जाने के लिए कहा जाएगा.
अंग्रेजी और हिंदी पत्रकारिता (आउटपुट) में जमीन-आसमान का फर्क है यह तो सभी कहते हैं मगर यह कोई नहीं कहता कि हिंदी और अंग्रेजी में ‘विशाल सैलरी गैप’ के साथ-साथ काम करने के माहौल और काम करने के तौर-तरीके में भी बहुत फर्क है.
उदाहरण के लिए मुख्यधारा के समाचार प्रकाशनों में (अपवादों को छोड़कर) 
  •  हिंदी के ज्यादातर संस्थानों में आगे बढ़ने की सीढ़ी चमचागिरी की चाशनी में लिपटी हुई है. स्टाफ अपना मत, खास तौर पर मतभेद, एडिटोरियल मीटिंग में नहीं रख सकता. अगर रख दिया तो संपादक और वरिष्ठों के पास स्टाफ को परेशान करने के सौ तरीके हैं. अंग्रेजी में ज्यादा लोकतांत्रिक तरीके से बहस होती है और काम से संबंधित किसी भी बात पर आपत्ति जताने पर वरिष्ठ उसे अपने ईगो पर नहीं लेते.
  • हिंदी अखबारों के ज्यादातर संपादकों और वरिष्ठों का मानसिक  स्तर और नजरिया बहुत राष्ट्रवादी है. महिलाओं से जुड़े मुद्दों पर इनके संपादकीय पढ़कर ऐसा लगता है जैसे संघ की शाखा से लौटकर लिखे गए हों. किसी भी प्रोग्रेसिव स्टोरी आइडिया पास करवाने की प्रक्रिया में रिपोर्टर दीवार से सर फोड़ लेगा फिर भी दस में से नौ बार आइडिया रिजेक्ट कर दिया जाएगा. अल्टरनेटिव सेक्सुअलिटी तो दूर की बात है, सेक्सुअलिटी शब्द से ही न्यूज रूम में असहजता फैल जाती है. अपराध और रक्षा से जुड़े मामलों को हिंदी के सबसे बड़े अखबार ऐसे कवर करते हैं जैसे वे अखबार नहीं, पुलिस और आर्मी के माउथपीस हैं! अंग्रेजी में हर तरह की कहानियों के लिए जगह है. हर तरह के पत्रकारों के लिए जगह है. अंग्रेजी में आलोचनात्मक नजरिया अब भी जिंदा है इसलिए उनकी रिपोर्ट्स में भी फर्क दिखता है.
  • हिंदी अखबारों के दफ्तरों में गणेश पूजन, नवरात्रि आदि मनाए जाते हैं. आरती, टीका और प्रसाद का पूरा कार्यक्रम होता है जबकि ईद और क्रिसमस के दौरान स्टाफ के लिए अलग से प्रार्थना करने की जगह तक नहीं बनवाई जाती. अंग्रेजी दफ्तरों में किसी भी तरह की पूजा नहीं होती.
  • हिंदी में छुट्टी-बाईलाइन से लेकर प्रमोशन तक सब कुछ ‘वरिष्ठ’ की कृपा पर निर्भर करता है. अंग्रेजी के पत्रकार का करिअर ग्राफ उसके काम पर निर्भर करता है.
  •  अंग्रेजी में किसी बड़ी रिपोर्ट के समय जिस शिद्दत से डेस्क के कर्मचारी, रिपोर्टर के साथ खड़े रहते हैं (इंटरव्यू टेप सुनकर लिखने से लेकर रिसर्च और एडिटिंग में मदद करने तक) हिंदी में ऐसा कभी नहीं होता. हिंदी डेस्क के लोग ‘बाईलाइन देकर एहसान किया है’ वाले सिंड्रोम से ही बाहर नहीं निकल पाते.
  • अंग्रेजी के पत्रकार के पास किताबें खरीदने, उन्हें पढ़ने, फिल्में देखने और दुनिया में हो रही घटनाओं पर सोच पाने के लिए समय और पैसा, दोनों ही हिंदी के पत्रकारों से ज्यादा होता है. वहीं हिंदी के पत्रकार को छह दिन दफ्तर में बैलों की तरह जोता जाता है और सातवां दिन वह हफ्ते भर के जमा कपड़े धोने में निकल जाता है
मगर हिंदी और अंग्रेजी में इतने फर्क के बावजूद भी, आज तक सभी पत्रकारों के लिए ‘समान रैंक पर समान वेतन और समान सुविधाएं’ दिए जाने को लेकर कोई लंबा आंदोलन नहीं किया गया और न ही दुनियाभर में मानवाधिकारों के लिए आवाज उठाने वाले अंग्रेजी के साथी हिंदी के अपने साथियों लिए आवाज उठाने उनके साथ आए. एक ही अखबार की अंग्रेजी विंग में जा रहे रिपोर्टर ने कभी नहीं सोचा कि उसी के साथ हेल्थ बीट कवर करने वाले उसी की रैंक के हिंदीे रिपोर्टर को उससे आधा मेहनताना क्यों दिया जा रहा है? हिंदी में जब नौकरीपेशा पत्रकारों की ये हालत है आप अंदाजा लगा ही सकते हैं की 500 रुपये में रिपोर्ट लिखने वाले हिंदी के फ्रीलांसर का भूखों मर जाना तय है.
लेखिका स्वतंत्र पत्रकार हैं

‘पत्रकार महोदय’

'इतने मरे'
यह थी सबसे आम,
 सबसे ख़ास ख़बर
छापी भी जाती थी सबसे चाव से
जितना खू़न सोखता था
उतना ही भारी होता था अख़बार
 अब सम्पादक
 चूंकि था प्रकाण्ड बुद्धिजीवी
 लिहाज़ा अपरिहार्य था
ज़ाहिर करे वह भी अपनी राय...
मृत्यु की महानता की उस साठ प्वाइंट काली
चीख़ के बाहर था जीवन
 वेगवान नदी सा हहराता
काटता तटबंध
तटबंध जो अगर चट्टान था
तब भी रेत ही था
गर समझ सको तो, महोदय पत्रकार.’
-वीरेन डंगवाल जी 

Tuesday, September 29, 2015

एेसे ही कोर्इ यशवंत व्यास नहीं बनता...

आप उनकी तरह पहनावा करें
आप उनकी तरह चेहरे में बदलाव आैर बाल रखें
आप उनको पूरी तरह कापी कर लें
फिर भी यूं ही कोर्इ यशवंत व्यास नहीं बनता
बहुत ही गहरार्इ बहुत ही लगाव आैर बहुत ही समझ हो तो फिर कोर्इ भले ही मुकाबला कर ले
पत्रकारिता में अतुल महेश्वरी जी के बाद, वीरेन डंगवाल जी की संस्कृति को कोर्इ अगर नए आयाम के साथ आत्मसात कर बढा रहा है तो वह व्यास जी हैं
मैं यह यूं ही नहीं लिख रहा हूं, जिस व्यक्ति में एक अखबार को खडा करने की कूबत हो उसका जलाल क्या होगा आप समझ सकते हैं
आजकल कर्इ लोग मिलकर अखबार सही से निकाल नहीं पा रहे हैं हर सोच में संशय है कि युवा को पकडे या फिर बुजुर्ग को इसी चक्कर में अखबार घनचक्कर बने हुए हैं
एक तरह अमर उजाला जैसे पेशेवर अखबार को नया आयाम दिया तो दूसरी तरफ अहा जिंदगी जैसी मैगजीन से नए मायने बताए आमीश त्रिपाठी के उपन्यास बाद में आए लेकिन यह परिचय पहले ही इन्होंने करा दिया अब एकदम अलग आयुर्वेद पर बेहतरीन मैगजीन लेकर आएं है यानी खुद इनके अंदर इतने आयाम हैं कि शायद वह खुद ही न भांप पाते हों...

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YASHWANT VYAS is a well known author, journalist, media critic, consultant, designer and columnist having more than thirty years experience in print and related media. Known for his experimental approach, he has been associated with many prestigious news groups. As editor, he had been heading an Indian multilingual portal group in 90’s and three prestigious national newspapers. Besides regular columns in print Yashwant vyas has published more than ten books, written scripts, translated and edited works. Khwab ke Do Din, Comrade Godse and Chintaghar (Novels), Amitabh ka A (Brand analysis of Amitabh Bachchan – the legend), Apne Girebaan Men,Kal Ki Taza Khabar (Research on Hindi print media) and Ab Tak 56 (collection of satires) are his known works.

His off-beat experiment ‘HIT UPDESH: The book of razor management for employees only’ was a big hit.

He was awarded a national journalism fellowship to research on changing face of vernacular press and also awarded for his novels -Chinta Ghar and Comrade Godse.

He created first Hindi-Gujarati NEW AGE monthly- AHA! ZINDAGI, launched with 1.5 lac print order and achieved more than 10.6 lac readers certified by IRS within 6 months, for a multi-edition newspaper group DB Corp.

He recently launched a unique wellness journal AYURVED SUTRA for international audience with OCS.

He is co-founder of Antara Infomedia, a venture dedicated to the multidisciplinary media for greater good and is working on “JALEBI -the sweet puzzles” (a special project for teenagers) . He is also working on a special project to create a bridge between senior citizens and new generation. For that he has constituted GULLUCK (Generations unite for love, life, culture and knowledge.) Thefridaypost.com, Studio YV Ink, R4Research and so many other experiments are also in his account.

He has a special association with one of the most reputed media group Amar Ujala which has 20 editions in north India with a huge circulation. As Group adviser to Amar Ujala he launched several new projects and revamped the newspaper content & design.

He is behind the Indian Literary Review.com, to be launched soon as the first website in its genre.

Yashwant Vyas, also, has been consultant to some prestigious Indian language Publishers.

He writes, edits, makes strategies and creates something new and unique with each and every assignment.

Collective wisdom of the east and rational modern approach with simplicity of a basic human being is his life force…


आप ही बताइए कि हिंदी पत्रकारिता में इस तरह के कितने व्यक्ति दिखार्इ देते हैं...



Monday, September 28, 2015

राजस्थान का आरके मार्बल, बिहार का चुनाव आैर आयकर का छापा

राजस्थान का चिकना संगमरमर उतना ही मशहूर है जितना की बिहार में लालू आैर बाॅलीवुड में हेमामालिनी के गाॅल
राजस्थान के उदयपुर में हाल ही में आरके मार्बल पर मारा गया छापा अनायास ही नहीं था दरअसल बिहार चुनाव में जातिबल के बाद धन बल का सबसे ज्यादा इस्तेमाल ज्यादा होता है.इसी की आपूर्ति के लिए राहुल गांधी का विमान कहने के लिए डायवर्ट होकर लेकिन उसका रास्ता खुद बदलवा १९ सितंबर को जयपुर आ गया शनिवार के दिन रात में करीब ९ बजे हुए इस घटनाक्रम में अशोक गहलोत ने राहुल गांधी से मुलाकात की आैर वह उनके साथ उसी विमान से दिल्ली चले गए
अशोक गहलोत आैर राहुल गांधी
अशोक गहलाेत जितना सोनिया के नजदीक है उतना राहुल के नहीं लेकिन धन की जरूरत ने इन दोनों को करीब ला दिया अशोक गहलोत संगमरमर व्यवसायी से ५० करोड रुपए कैश लेकर विमान में राहुल गांधी के साथ रवाना हुए. इस बात का भनक जब तक एजेंसियाें को लगी देर हो चुकी थी फिर आरके मार्बल निशाने पर आ गया. रविवार सोमवार आैर मंगलवार रेकी की गर्इ पाया कि अभी आैर पैसा है आैर वह रकम १०० करोड से अधिक है आैर फिर दिल्ली से संकेत मिलते ही बुधवार को उदयपुर सहित करीब ३६ ठिकानेां पर छापेमारी हुर्इ
बिडला के बाद मार्बल
यह बिडला हाउस पर छापे में मिले २५ करोड नकद के बाद देश २४ करोड २० लाख की सबसे बडी कार्रवार्इ है; राजस्थान में हुर्इ आयकर की कार्रवार्इ में अब तक की सबसे बडी बरामदगी है.इससे पहले सात आठ साल पहले १० लाख नकदी की कार्रवार्इ सबसे बडी रही है 
आयकर की भूमिका
येनकेन प्रकाणेन। कालाधन जो भी बरामद हो जिससे भी बरामद हो कैसे भी बरामद हो सभी तरह से सही है हो सकता है कि सूचना राजनीतिक कारणों से लिक की गर्इ लेकिन जो हुआ अच्छा हुआ आखिर विकास के लिए धन कर से आता है आैर यह कर चोर हैं तो इन्हें इनका परिणाम मिलना चाहिए
आयकर सरेंडर के मायने
आरके मार्बल ने जितनी आसानी से २०१.२६ करोड की आघोषित आय पर कर देना स्वीकार किया है इसका मतलब यह है कि यह खेल छोटा नहीं काफी बडा है अगर कमार्इ ज्यादा न होती तो या कर चोरी ज्यादा न हाेती तो इतनी आसानी से इतनी बडी रकम पर ३० प्रतिशत रकम यानी करीब ६० करोड रुपए कर देने को यह व्यवसायी तैयार न होता खैर यह भी है कि इसके अलावा आैर काेर्इ रास्ता भी इसके पास नहीं था

प्रधान सेवक ने रोया-धोया लेकिन मिला क्या

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कभी बिहार में रोते हैं तो कभी अमेरिका में.भारत की जनता ने इस रोने धोने की कला पर प्रसन्न होकर तो उन्हें प्रधान सेवक की बजाय राजगदी तो देदी लेकिन अभी तक यह चालू है लाख टके का सवाल है कि रोने धोने से मिला क्या.मोदी शायद है भूल गए है कि यह सिलीकाॅनवैली है सिसक वैली नहीं सिलीकाॅन वह पदार्थ होता है जिस पर सब फिसलता है इससे चमकता है तो सबसे तेज बनता है आैर फिसलता है तो वह कहीं का नहीं रहता सत्यम इसका उदाहरण है फेसबुक इसका प्रमाण
अब आते हैं नौटंकी पर 
मोदी जी के कहने पर एक भी निवेशक निवेश के लिए आगे नहीं आया है भले ही वह रो लिए, दूसरी खास बात यह है कि गूगल ने जिन ४०० रेलवे स्टेशनों पर वार्इ फार्इ देने की बात कर रहा था उसे रेलमंत्री अपने बजट भाषण में पिछली बार मुफत में वार्इ फार्इ करने की बात कह चुके हैं लेकिन गूगल यहां पर पैसे लेगा १०० स्टेशन यानी कम से कम एक करोड नेट उपयाेग कर्ता आैर फिर गूगल की आमदनी का अंदाजा लगाए गौरतबल है कि रेलटेल पहले ही इसे कर रहा है
पहले पात्र बने, फिर निवेश मिलेगा
कोर्इ भी व्यवसायी घाटे का व्यवसाय नहीं करता फिर वह चाहे कितना भी भूमि प्रेमी क्यों न हो.अब जब राजस्थान के एक खान सचिव खान चलाने वालों से करोडो रुपए की घूस ले रहा हो ता अंदाज लगाए कि इस रास्ते में कितने कांटे खडे कर वह काम करता होगा
सिंगापुर आैर दुबर्इ
मोदी जी विदेशों में जाकर निवेशकों को आमंत्रित करने से पहले अपने देश में र्इमानदार आैर स्वच्छ वातावरण बनाइए सिंगापुर की तरह सिस्टम तैयार करिए दुबर्इ की तरह किसी एक इलाके का उदार बनाइंए फिर आगे बढिए,निवेशक अपने आप दौडे आएंगे
अमेरिका आैर अर्थव्यवस्था
अमेरिका में या फिर मीडिया में हीरो बनने से काम नहीं चलेगा वरना हश्र वही फील गुड का होगा आप भाषण पढने के लिए भले ही एेसा स्टैंड लगाते हैं कि आपकी अंग्रेजी योग्यता छुप जाती है लेकिन अर्थव्यवस्था में बाजार में वही खिलाडी रहता है जो योग्य होता है
कुछ अच्छा भी है
एेसा नहीं है कि सब कुछ बुरा ही है मोदी बहुत कुछ अच्छा भी कर रहे हैं; मोदी का अस्पताल जोडो मिशन बहुत अच्दा है. देश में आदमी तीन चीज से बर्बाद होता है दवा,दारू आैर दीवानी इसमें से दवा का इंतजाम करने के लिए अस्पतालों को जोडा जा रहा है http://epaper.patrika.com/c/6547444 आैर http://ors.gov.in/copp/ पर आप जाकर इसका लाभ उठा सकते हैं

जब विद्यासागर जी ने चप्पल फेंकी

जब विद्यासागर जी ने चप्पल फेंकी फिर एक चप्पल चली। रोज ही कहीं ना कहीं यह पदत्राण थलचर हाथों में आ कर नभचर बन अपने गंत्वय की ओर जाने क...