Friday, June 25, 2010

Friday, June 11, 2010

उजाड़ ओलंपिक...

राष्ट्रमंडल खेल की तैयारी के दौरान उसका भयानक चेहरा सामने आया है। एक तरफ हजारों परिवार उजाड़े गए हैं। दूसरी तरफ पूरी रफ्तार से चल रहा निर्माण-कार्य मजदूरों की जान पर बन आया है। ख्वाबों के इस खेल की तैयारी में मेहनत-मशक्कत करने वाले मजदूर अपनी जान गंवा रहे हैं। मार्च 2008 में ही सौ से अधिक मजदूरों की मौत हो गई थी। यह आंकड़ा केवल राष्ट्रमंडल खेल गांव (सीडब्ल्यूजी) के निर्माण स्थल का है। इन बातों की चर्चा हाउसिंग एंड लैंड राइट्स नेटवर्क (एचएलआरएन) की हालिया रिपोर्ट में है। रिपोर्ट से यह भी साफ होता है कि शहर को खूबसूरत बनाने के नाम पर हजारों लोगों से उनका रोजगार छीना जा रहा है। उन्हें उजाड़ा जा रहा है। इन दिनों पूरे शहर का यही मंजर है।

एचएलआरएन की यह रिपोर्ट 13 मई को जारी की गई है। इससे मालूम पड़ता है कि मानवीय जीवन को दाव पर लगाकर खेल की तैयारियां हो रही हैं। कहा गया है कि राष्ट्रमंडल खेल की विभिन्न परियोजनाओं के बहाने राजधानी में अबतक एक लाख से भी अधिक परिवार उजाड़े जा चुके हैं। अगले कुछेक महीने में उजाड़े गए लोगों की संख्य 30 से 40 हजार तक और बढ़ सकती है। 
पिछले दिनों खबर आई थी कि जंगपुरा स्थित बारापुलाह नुलाह इलाके से 368 दलित तमिल परिवारों को उजाड़ दिया गया। वे लोग गत 35 वर्षों से वहां रह रहे थे। अब भीषण गर्मी में बेघर कर दिए गए हैं। वे खुले आसमान के नीचे हैं। इस तपती धूप में सिर छुपाने के लिए उन्हें कोई स्थान मुहैया नहीं कराया गया है। कहा जा रहा है कि वहां खेल के दौरान आने वाली गाड़ियां खड़ी की जाएंगी। यानी उक्त स्थान को पार्किंग स्थल के रूप में विकसित किया जाएगा। यह उस घटना का एक हालिया उदाहरण है, जो पिछले पांच-छह सालों से चल रहा है। दिल्ली श्रमिक संगठन के मुताबिक वर्ष 2003 से 2008 के बीच 350 झुग्गी बस्तियों को उजाड़ गया था। इससे करीब तीन लाख लोग बेघर हो गए। घर-बदर करने का यह सिलसिला अब भी जारी है। और यह सब राष्ट्रमंडल खेल के मद्देनजर किया जा रहा है।

इस रिपोर्ट में उन हालातों की गहरी पड़ताल है, जिसका मजदूरों के स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ रहा है। और वह उनकी जान पर बन आता है। राष्ट्रमंडल खेल गांव, इंदिरा गांधी स्टेडियम, दिल्ली विश्वविद्यालय, नेहरू स्टेडियम आदि निर्माणाधीन स्थलों पर मजदूरों के रहने की व्यवस्था है। इनका अस्थाई बसेरा टीन के बड़े-बड़े चदरों का इस्तेमाल कर बनाया गया है। ताज्जुब की बात है कि एक कमरे में छह से आठ मजदूरों को ठहराया जाता है। जबकि, इसका आकार 10 बाय 10 का है। 
यहां हजारों प्रवासी मजदूरों को अपनी न्यूनतम जरूरत की चीजों के लिए भी संघर्ष करना पड़ता है।  रिपोर्ट में इस बात की चर्चा है कि इंदिरा गांधी स्टेडियम के नजदीक जिन मजदूरों को रखा गया है, वहां 107 मजदूरों पर केवल एक शौचालय की व्यवस्था है। वैसे दिल्ली हाई कोर्ट ने मजदूरों की स्थिति का जायजा लेने के लिए एक समिति गठित की तो पाया कि वहां 50 मजदूरों पर एक शौचालय है।
राष्ट्रमंडल खेल के निर्माणाधीन स्थलों से कई मजदूरों के मरने की खबर आई है। पीपुल्स यूनियन फॉर डेमोक्रेटिक राइट (पीयूडीआर) ने विभिन्न निर्माणाधीन स्थलों पर 49 मजदूर की मौत होने की बात कही है। दरअसल, इन स्थानों पर प्रवासी मजदूरों को उन हालातों में रखा गया है, जिससे उनके बीमार पड़ने की संभावना 80 प्रतिशत से अधिक है।
खैर, यह आश्चर्य की बात है कि अबतक किसी मृतक मजदूर के परिवार वालों को बतौर मुआवजा एक रुपया भी नहीं मिला है। जबकि, सरकार लगातार दावा कर रही है कि परियोजना से जुड़े मजदूरों का पूरा ख्याल रखा जा रहा है। उनके लिए एक खास राशि रखी गई है। पर यह रपट उन दावों की पोल खलती है। परियोजना में 2000 से अधिक बाल मजदूर काम कर रहे हैं। इनकी आयु 14 से 16 वर्ष के बीच है। इन्हें सरकार की तरफ से न्यूनतम निर्धारित मजदूरी से भी कम दिहाड़ी मिल रही  है। इन नन्हें मजदूरों पर भी समय रहते परियोजना को पूरा करने का जो दबाव है, सो अलग।
ताज्जुब की बात है, परियोजना से जुड़ी तमाम एजेंसियां इन बातों को छुपा रही हैं। परियोजना स्थल या प्रवासी मजदूरों के लिए बनाए गए आवासीय इलाकों में भी दूसरे लोगों को जाने की इजाजत नहीं है। एचएलआरएन की एसोसिएट कॉर्डिनेटर शिवानी चौधरी ने बताया कि रिपोर्ट तैयार करने के लिए कई फिल्ड वर्क किए गए हैं। सूचना का अधिकार (आरटीआई) और समय दर समय मीडिया में आई खबरों से जो जानकारी मिली उसका पूरा उपयोग किया गया। हालांकि, ऐसा कई बार अनुभव हुआ कि जानकारियां छुपाई जा रही हैं। जहां पहुंचने पर स्थितियों से रूबरू हुआ जा सकता है वहां जाने नहीं दिया जा रहा है।
राष्ट्रमंडल खेल का सीधा असर शहर की उस अर्थव्यवस्था पर भी पड़ रहा है, जिससे निम्न वर्ग जुड़ा है। यहां विभिन्न स्थानों से रेड़ी-खोमचे वाले को हटाया जा रहा है। यह खेल के दौरान शहर को खूबसूरत दिखाने की कवायत है। एक आंकड़े के मुताबिक शहर में तकरीबन तीन लाख रेड़ी-खोमचे और फेरीवाले हैं, जिनका सालाना व्यापार 3,500 करोड़ रुपए का है। पर अब सरकार को इसका आबाद होना पसंद नहीं। इन्हें हटाने का काम जारी है। 19 जनवरी, 2010 को एक लाख से अधिक आवेदन दिल्ली नगर निगम के पास आए थे। पर, 14,000 रेड़ी-खोमचे वालों को ही नए लाइसेंस जारी किए गए। रिक्शा चालकों, गलि-कूची में चलने वाली फुटकर दुकानें और ऐसे ही दूसरे छोटे-मोटे रोजगार के साधनों को सरकार बंद करने पर तुली है। कायदे-कानून व न्यायालय के आदेश को ताक पर रखकर शहर को सुंदर बनाने का तानाबाना बुना जा रहा है।
खेल के दौरान राजधानी में भिखारी दिखे यह दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित व समाज कल्याण मंत्री मंगतराम सिंघल को पसंद नहीं। इस समय सरकार ऐसे लोगों को नजर से बहुत दूर पहुंचा देने पर अमादा है। उसे अपने लोगों से ज्यादा खेल के दौरान आने वाले अमीर मेहमानों के मिजाज की चिंता है।
अब राष्ट्रमंडल खेल के निर्माण कार्यों में जुटे प्रवासी मजदूरों, रोजाना कमाने-खाने वाले छोटे व्यापारियों व भिखारियों के लिए कौन बोले ? और उनकी पीड़ा को व्यक्त करे ? ये ऐसे सवाल है, जो हमारी वर्तमान राजनीति और समाज को नाप देते हैं। शुरू में इस खेल के लिए 1,900 हजार करोड़ रुपए का बजट रखा गया था। पर विशेषज्ञों के अनुमान के मुताबिक अबतक 70,000 हजार करोड़ रुपए खर्च हो चुके हैं। सरकारी आंकड़ 30,000 हजार रुपए का है। पर तैयारी अधूरी है।

वर्ष   1988   के सिओल ओलंपिक  में 720,000 लोगों को उजाड़ा गया था। जबकि 1992  के  बार्सिलोना ओलंपिक   में  600 से अधिक परिवार उजाड़े गए थे। अटलांटा ओलंपिक का भी यही आलम था। वर्ष 2008  में हुए बीजिंग ओलंपिक   में  1,500,000 लोगों को उजाड़ा गया है।

राष्ट्र क्या है?

राष्ट्र एक आत्मा है, एक आध्यात्मिक सिद्धान्त है। दो चीज़ें, जो वास्तव में एक ही हैं, इस आध्यात्मिक सिद्धान्त की रचना करती हैं। एक भूत काल में है और दूसरे वर्तमान में। एक है स्मृतियों की एक समृद्ध धरोहर पर साझा अधिकार; और दूसरी है आज की तारीख़ में साथ रहने की कामना, हमें समूचे रूप में मिली धरोहर को आगे ले जाने का संकल्प। आदमी, भला आदमी, तात्कालिकता में नहीं जीता। राष्ट्र, व्यक्ति की ही तरह, उद्यमों, बलिदानों और निष्ठा की एक लम्बी परम्परा का परिणाम है। सारे पूजा पंथों में पूर्वजो का पंथ सबसे अधिक संगत है क्योंकि हम जो आज हैं उन्ही की ही वजह से हैं। एक उदात्त अतीत, महान नायक, गौरव (मेरा अर्थ सच्चे गौरव से है), यही है वो सामाजिक सम्पदा जिस पर एक राष्ट्र के विचार की नींव रखी जाती है। अतीत में साझा गौरव और वर्तमान में साझे संकल्प का होना, साथ हासिल की हुई उपलब्धियाँ, भविष्य में वैसी ही और हासिल करने की कामनाएं- यही एक क़ौम होने की पूर्व शर्ते हैं। उन बलिदानों जिसमें उसकी सहमति थी और झेली गई तक़लीफ़ों के अनुपात में ही आदमी प्रेम करता है। आदमी प्रेम करता है उस मकान से जो उसने बनाया है या उसे विरासत में मिला है। स्पार्टन लोगों का गीत - "हम हैं जो तुम हो, हम होंगे जो तुम हो" - हर राष्ट्र गान का, सरल रूप में, संक्षेप है।


रणनीतिक लिहाज़ से साझी सरहदों और चौकियों की तुलना में अतीत में साझी गौरवशाली धरोहर और हसरतें, और भविष्य में लागू करने के लिए (साझी) योजनाएं या साथ झेली हुई तक़लीफ़ें, साथ लिए हुए मज़े और साझी उम्मीदें कहीं अधिक मूल्यवान होती हैं। यही वो चीज़ें है जो प्रजाति और भाषा के फ़र्क़ों के बावजूद समझी जा सकती हैं। मैं ने अभी कहा 'साथ झेली हुई तक़लीफ़ें' और सच में पीड़ा, आनन्द से अधिक एका पैदा करती हैं। जहाँ तक राष्ट्रीय स्मृतियों का सवाल है, तक़लीफ़ें, विजयोल्लास से अधिक मूल्यवान होती हैं, क्योंकि वे कर्तव्य आरोपित करती हैं और एक साझी कोशिश की तलबगार होती हैं।


तो इसलिए अतीत में किए गए और भविष्य में किए जाने वाले उन बलिदानों- जिन्हे करने के लिए लोग तैयार हैं- की भावनाओं से संघटित, राष्ट्र एक व्यापक भाईचारा है। इसमें अतीत की कल्पना पहले से मौजूद है,जबकि ये वर्तमान में एक ठोस तथ्य से परिभाषित होता है, जो है सहमति- एक साझा जीवन बनाए रखने की स्पष्ट अभिव्यक्ति। जैसे एक व्यक्ति का अस्तित्व, जीवन के प्रति उसकी निरन्तर स्वीकृति है उसी तरह, यदि आप मेरे रूपक को क्षमा करें, एक राष्ट्र का अस्तित्व दैनिक जनमत-संग्रह है। और मैं जानता हूँ कि यह दैवीय अधिकार से कम आध्यात्मिक और ऐतिहासिक अधिकार से कम क्रूर है। मैं जो आप के सामने रख रहा हूँ उस विचार के अनुसार एक राष्ट्र के पास किसी राजा से अधिक अधिकार नहीं है कि वो किसी प्रदेश से कह सके, 'तुम मेरे हो, मैं तुम को हस्तगत कर रहा हूँ'। कोई भी प्रदेश, मेरे हिसाब से, उसके लोग हैं; अगर ऐसे मामलों में किसी की रायशुमारी होनी चाहिये तो वे वहाँ के लोग हैं। किसी राष्ट्र का किसी अन्य देश पर, उसकी ख़ाहिशों के ख़िलाफ़ क़ब्ज़ें में उसका अपना कोई सच्चा हित नहीं है। राष्ट्र की इच्छा ही एकमात्र वैधानिक आधार है, और वही हमेशा होना भी चाहिये।


हमने राजनीति में से आध्यात्मिक और धार्मिक अमूर्तन को निकाल फेंका है। तो बचता क्या है? आदमी; अपनी कामनाओं और ज़रूरतों के साथ। आप कहते हैं, कि लम्बी अवधि में अलगाव, राष्ट्रों का बिखराव एक ऐसे विधान का नतीजा होगा जो इन पुरानी संरचनाओं को उन इच्छाओं के रहमो करम पर छोड़ देता है जिन तक ज्ञान का उजाला नहीं पहुँचा है। ज़ाहिर है कि इन मामलों में किसी भी सिद्धान्त पर बहुत बल नहीं देना चाहिये। इस श्रेणी के सत्य एक बहुत ही आम ढंग से ही लागू करने योग्य हैं। मनुष्य के संकल्प बदलते हैं, और यहाँ भी ऐसा क्या है जो नहीं बदलता? राष्ट्र कोई शाश्वत चीज़ नहीं हैं। उनका एक आदि था और एक अन्त भी होना है। एक योरोपियन यूनियन सम्भवतः उनकी जगह ले लेगी। लेकिन जिस सदी में हम रहे हैं उसका ऐसा क़ानून नहीं है। इस दौर में, राष्ट्रों का अस्तित्व एक हितकारी चीज़ है, बल्कि एक ज़रूरत। उनका अस्तित्व आज़ादी की पूर्व-शर्त है, जो दुनिया में एक क़ानून और एक शासक होने से खो जाएगी।


अपनी विविध और अक्सर विरोधी शक्तियों के ज़रिये राष्ट्र, सभ्यता के साझे कार्य में हिस्सा लेते हैं; मानवता के महायज्ञ में अपनी आहुति देते हैं, जो (मानवता) आख़िरकार, वो उच्चतम आदर्श है जिसे हम हासिल कर सकते हैं। अकेले में, सबकी अपनी कमज़ोरियाँ हैं। अपने झूठे गौरव में फूलते रहना, हद दरज़े तक ईर्ष्यालु होना, अंहकारी और झगड़ालू होना, हर छोटे-बड़े बहाने पर अपनी तलवारें खींच लेना- ये सब गुण जो कि एक राष्ट्र के लिए बड़े सद्‌गुण समझे जाते हैं अगर किसी व्यक्ति में ऐसी ख़ामियाँ होती तो वो आदमी सबसे असहिष्णु माना जाता। मगर फिर भी ये विसंगतियाँ बड़े परिदृश्य में विलीन हो जाती हैं। बेचारी मानवता, तुम तुमने कितना कष्ट सहा है। और न जाने कितने इम्तहान तुम्हारा इंतज़ार कर रहे हैं। कामना करता हूँ कि विवेक तुम्हारे साथ रहे और तुम्हारे रास्ते में बिछे अनगिनत ख़तरों से तुम्हारी रक्षा करे!


सार ये है सज्जनों, कि आदमी न तो अपनी भाषा का दास है न प्रजाति का, न अपने धर्म का, न नदियों के मार्ग का, और न पर्वतमालाओं की दिशा का। सर से सतर्क और दिल से जोशीले मनुष्यों का एक बड़ा समूह उस प्रकार की नैतिक चेतना की रचना करता है जिसे हम राष्ट्र कहते हैं। जब तक यह नैतिक चेतना अपने उन बलिदानों के ज़रिये, जो समुदाय के हित में व्यक्ति के आत्म-त्याग की माँग करते हैं, अपनी शक्ति का सबूत देती है,वो वैध है और उस अस्तित्व में बने रहने का अधिकार है। अगर सरहदों के बारे में दुविधा पैदा होती है तो विवादित क्षेत्र की जनता से मशविरा करें। बेशक़, इस मामले में उन्हें अहम राय देन का हक़ है। यह सिफ़ारिश राजनीति के मुस्काने पर मजबूर कर देगी उन कुलीनों को, उन अमोघ हस्तियों को जो जीवन भर ख़ुद को धोखा देते हैं और फिर अपने उत्कृष्ट सिद्धान्तों की ऊँचाई से हमारी नश्वर चिंताओ पर रहम खाते हैं। "जनता से मशविरा, हे भगवान! क्या मूर्खता है।" मगर ज़रा इन्तज़ार कीजिय़े, सज्जनों; कुलीनों का दौर गुज़र जाने दीजिये; बलशालियों की नफ़रत को धीरज से सह जाइय़े। हो सकता है, कई असफल गठजोड़ों के बाद, लोग हमारे मामूली मगर व्यावहारिक हल की ओर लौट आयें। भविष्य में सही होने का सबसे सही तरीक़ा है, कुछ दौरों में, कि आप अपने आप को फ़ैशन से बाहर होना स्वीकार कर लें।

: अर्न्स्ट रेनान


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अर्न्स्ट रेनान (१८३२-९२) एक अहम फ़्रेंच विचारक थे जिन्होने मुख़्तलिफ़ मसलों पर लिखा। उनका ये प्रसिद्ध लेख "राष्ट्र क्या है?" पहली बार १८८२ में सोबन्न में पढ़ा गया था। विद्वानों के बीच आज भी इसकी एक ख़ास जगह बनी हुई है।


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इस लेख का विशेष सन्दर्भ योरोप ही है और उनकी भविष्यवाणी कितनी सही साबित हुई, आज योरोप के  सभी राष्ट्र एक यूनियन में आबद्ध हो चुके हैं। इस लेख के नज़रिये से देखें तो, एक स्तर पर,  भारत एक राष्ट्र और कई राष्ट्रों के यूनियन के बीच में कहीं हैं; और दूसरे स्तर पर हम कश्मीर, नागालैण्ड और दूसरे अलगाववादी वृत्तियों का दमन ऐतिहासिक अधिकार से करते हैं।

देवदासी यानी...

धर्म और सामाजिक परंपरा के नाम पर औरतों के कितने नरक हो सकते हैं, इसे अगर जानना हो तो आप कुछपुरदर गांव की सरपंच रत्न कुमारी से बात कर सकते हैं. रत्न कुमारी यूं तो समाज सेवा के लिये ढेरों काम करती हैं, बाढ़ राहत से लेकर नारी शिक्षा तक लेकिन उनके मन में औरतों का नरक किसी फांस की तरह है. दलित समुदाय से जुड़ी हुई रत्न कुमारी ऐसे ही नरक के सफाये के लिये जी जान से जुटी हुई हैं. जानते हैं, इस नरक का नाम ? इस नरक का नाम है- कोलकुलम्मा.
कोलकुलम्मा यानी जोगिनी, यानी मातंगी यानी देवदासी. अलग-अलग भाषाओं में अलग-अलग संबोधन लेकिन हश्र सबका एक जैसा. यानी धर्म के नाम पर लड़कियों को मंदिर में ईश्वर की सेवा के लिए रखा जाना.

यह बात बहुत साफ है कि कोलकुलम्मा के तहत मंदिरों में रखी गई इन लड़कियों का स्थानीय आर्थिक-सामाजिक शक्ति संपन्न लोग शारीरिक शोषण भी करते हैं. ये शक्ति संपन्न लोग ही मंदिर में उस स्त्री के खाने पीने और रहने की व्यवस्था करते हैं. एक तरह से यह प्रथा पुरुषों द्वारा एक स्त्री को रखैल बनाकर रखने को सामाजिक मान्यता प्रदान करता है.

धर्म के नाम पर चल रही इस तरह की वेश्यावृत्ति 1988 से आंध्रप्रदेश में प्रतिबंधित है, लेकिन इस कानून को सख्ती से लागू करने में राज्य सरकार अब तक नाकाम रही है. रत्न कुमारी के अनुसार, उन्होंने पिछले कुछ समय में गुंटूर और आस पास के जिलों में एक दर्जन से अधिक कोलकुलम्माओं की पहचान की है और इन कोलकुलम्माओं को इस नर्क की जिंदगी से निकालने के लिए लगातार कोशिश कर रही हैं.

रत्न कुमारी कहती हैं- “छोटी उम्र की लड़कियों का परंपरा के नाम पर कोलकुलम्मा बनाकर समाज के दबंग लोग यौन शोषण करते हैं. यह सब आजादी के साठ साल बाद भी हमारे समाज में बचा हुआ है. इसे खत्म होना ही चाहिए.”

आंध्र प्रदेश के इलाके में कोलकुलम्मा के लिए चुनकर आने वाली लड़कियां एक खास दलित जाति मडिगा समाज से चुनकर आती हैं. रत्न बताती हैं, किस प्रकार एक कोलकुलम्मा को उसके गांव से बाहर निकालना मुश्किल होता है, क्योंकि उस वक्त समाज तो आपका दुश्मन होता ही है, कई मौकों पर कोलकुलम्मा के परिवार वाले भी आपके खिलाफ हो जाते हैं. उस समय साहस और संयम से काम लेना होता है.

हालांकि मडिगा समाज के लोग भी धीरे-धीरे रत्न के इस अभियान में धीरे-धीरे शामिल हो रहे हैं. रत्न की आने वाले समय में मडिगा समाज के लोगों को आत्मनिर्भर बनाने के लिए उनके बीच स्वयं सहायता समूह जैसे प्रयास प्रारंभ करने की योजना है.

आरंभ
रत्न कुमारी के सामाजिक जीवन की शुरूआत कॉलेज में राष्ट्रीय सेवा योजना के साथ काम करते हुए हुई. लगातार तीन सालों तक उन्हें कॉलेज में बेस्ट वालेंटियर का अवार्ड मिला. घर में पिता की सराहना मिली. कॉलेज की पढ़ाई के समय ही लगा कि कुछ अलग करना है. कुछ ऐसा, जिससे समाज बदले.

एक दोस्त निर्मला ने हौसला बढ़ाया और फिर दोनों ने मिलकर 1993 में एक संस्था का निर्माण किया. नाम रखा ‘डेवलपमेन्ट एक्शन फॉर वूमेन इन नीड सोसायटी’, संक्षिप्त नाम हुआ, ‘डॉन’ यानी सूर्योदय.

इसी संस्था के बैनर तले रत्न ने अपने समाज के लोगों को शिक्षित करने की जिम्मेवारी ली. रत्न के अनुसार- “यह जरूरी था, क्योंकि हमारे समाज के लोग अधिक पढ़े लिखे नहीं थे. वे यदि पढ़ जाते हैं, साक्षर होते हैं, उसके बाद वे अपने लिए सही-गलत का फैसला कर सकते हैं. वे अपने अधिकारों से वाकिफ हो सकते हैं.”

जब उन्होंने यह संस्था शुरू की, उस वक्त एक जुनून था. 1993 से 1999 तक उन्होंने अपने समाज के लोगों से मिले छोटी सहायताओं के दम से ही समाज के बीच अपना अभियान जारी रखा. 1999 में अपने एक साथी की सलाह पर बच्चों के लिये काम करने वाली संस्था क्राई से उन्होंने संपर्क साधा. जब वह अपना आवेदन लेकर गुंटूर से बैंगलोर गई तो वहां 300 आवेदकों को देखकर उनके होश उड़ गए. बकौल रत्न- “वहां एक से एक शक्ल सूरत वाले, धारा प्रवाह अंग्रेजी बोलने वाले लोग मौजूद थे और मैं उसके उलट सीधी-साधी तेलुगु भाषी महिला थी.”
वह साक्षात्कार से पहले ही हिम्मत हार कर बैठ गईं. लेकिन जब निर्णय आया तो यह जानकर उन्हें बेहद हैरानी हुई कि क्राई ने मदद करने के लिए जिन छह संस्थाओं का चयन किया है, उसमें एक उनकी संस्था भी है.

हौसले की उड़ान
आर्थिक मदद के बाद तो रत्न कुमारी ने एक नई उड़ान शुरु की. संस्था से जो पैसा मिला, उसकी मदद से उन्होंने चुंडूर मंडल के अंदर पेडगाडलवाड़ू, चिंगाडलवाडू, कारुमू, पारिमी और रिम्पालम गांव में शिक्षा केन्द्र प्रारंभ किए. यह शिक्षा केन्द्र खास तौर से दलित छात्रों के लिए थे. रत्न की हमेशा कोशिश रही कि दलित परिवार के जिन बड़े बुजुर्गों ने पढ़ाई नहीं की है, उनको भी पढ़ाया जाए. इस तरह के काम के लिये हैदराबाद की निर्णय ट्रस्ट और डीवीएएफ से भी समय समय पर मदद मिलती रही है.

आज की तारीख में रत्न कुमारी इलाके में समाजसेवी संस्थाओं के लिये मिसाल बन गई हैं.

रत्न के पति बाबू राव से अपनी पत्नी के काम के साथ कदम से कदम मिलाकर चल रहे हैं. कई बार जरुरत होने पर वे अपने काम से छुट्टी लेकर रत्न के साथ खड़े होते हैं. गुंटूर में बाढ़ के दौरान वे लंबे समय तक रत्न के साथ बाढ़ पीड़ितों के बीच ही रहे. रत्न की सेवा निष्ठा को देखकर ही उनके तेनाली से छह किलोमीटर की दूरी पर स्थित गांव कुछपुरदर के लोगों ने उन्हें अपना सरपंच चुना.

गांव वालों की अपनी अपेक्षायें हैं, अपनी उम्मीदें हैं. लेकिन रत्न कुमारी की आंखों में एक सपना बराबर तैरता रहता है-“कोलकुलम्मा समाज पर एक कलंक की तरह है. इसका जल्दी से जल्दी खत्म होना ही देश और समाज के हित में है.”

आँखों देखी...


जहां-तहां इस्तेमाल किए गए जूठे कंडोम,बीयर की केन और बोतलें,पांच फुट के घेरे में बिछे अखबार और कई बार दिल्ली ट्रैफिक पुलिस और मोबाईल कंपनियों के नोचकर लाए गए बैनर से बने टैम्पररी बिस्तर कूड़े-कचरे का नहीं बल्कि किसी खेल के लगातार चलने का ईशारा करते हैं। आप इस सेटअप को देखते ही अंदाजा लगा सकते हैं कि यहां क्या चलता होगा? ये सारी चीजें हर दो-चार कदम की दूरी पर आपको मिलेंगे। वन-विभाग और एमसीडी की ओर से बैठने के लिए जो बेंचें लगायी गयी हैं, जिसे कि सीमेंट से जमाया तक गया है,उनमें से कईयों को उखाड़कर बिल्कुल अंदर झाड़ियों में टिका दिया गया है। इस बियावान रिज में जहां कि सुबह और शाम तो हजारों लोग मार्निंग वॉक के लिए आते हैं लेकिन दोपहर में कहीं-कोई दिखाई नहीं देता,वहां भी आपको दाम से दुगनी कीमत पर कोक-पेप्सी,पानी बोतल बेचते कई छोकरे मिल जाएंगे। इन छोकरें से आप कई तरह की सुविधाएं ले सकते हैं। ये नजारा है दिल्ली विश्वविद्यालय से सटे उस रिज का जिसका एक हिस्सा सीधे-सीधे कैंपस को छूता है,दूसरा हिस्सा राजपुर रोड को,सामने खैबर पास का इलाका पड़ता है और उसके ठीक विपरीत कमलानगर।

हॉस्टल के कुछ दोस्तों ने जब बताया कि यहां सौ-दो सौ रुपये देकर जगह मुहैया कराया जाता है,आप किसी लड़की के साथ जाओ..वहां जो चौकीदार,वन-विभाग के कर्मचारी है उन्हें कुछ माल-पानी पकड़ाओ,फिर तुम्हें कहीं कोई रोकने-टोकनेवाला नहीं है। एकबारगी तो हमें इस बात पर यकीन ही नहीं हुआ,लेकिन जब कल मैंने अपने जीमेल स्टेटस पर लिखा कि जूठे कंडोम से अटा-पड़ा है डीयू रिज,जल्द ही पढ़िए तो देर रात कुछ लोगों ने फोन करके अपने अनुभव शेयर किए। एक ने साफ कहा कि अगर आप शाम को जब थोड़ा-थोड़ा अंधेरा हो जाता है,रिज के अंदर नहीं बल्कि बाहर ही जहां कि बेंचें लगायी गयी हैं,वहां अपनी दोस्त के साथ बैठते हो तो थोड़ी ही देर में आपके पास कोई आएगा और पूछेगा- आपको जगह चाहिए? आप को ये स्थिति एम्बैरेसिंग लग सकती है लेकिन कैंपस के ठीक बगल में ये धंधा बड़े आराम से सालों से चल रहा है। इतना ही नहीं डीयू कैंपस के रिज का ये पूरा इलाहा ड्रग,गांजा आदि के अभ्यस्त लोगों के लिए स्वर्ग है। ड्रग तो नहीं लेकिन गांजा और शराब के लिए ये ऐशगाह है,इसे तो हमने अपनी आंखों से देखा है।

रिज के भीतर कुछ चायवाले हैं जो कि अपने लकड़ी के बक्से और ठीया रखते हैं। वो इस तरह से बने और रखे हैं कि आपको पता तक नहीं चलेगा कि यहां कोई इस तरह से भी कुछ रखता है। उसमें उनके चाय का सारा सामान होता है। दिन में तो चाय की सेवा दी जाती है लेकिन रात के आठ-दस बजे तक शहर के शौकीन लोग सीधे उन ठिकानों पर पहुंचते हैं। उसे कुछ पैसे देते हैं और फिर दौर शुरु होता है। जिस रिज में रात को गुजरने में रोंगटे खड़े हो जाए वही रिज कुछ लोगों के लिए एशगाह बन जाता है। शराब का ये अड्डा रिज से बाहर निकलकर अब फैकल्टी ऑफ आर्ट्स तक फैल गया है। फैकल्टी ऑफ आर्टस की मेन गेट जो कि लॉ फैकल्टी की तरफ है,सामने पार्किंग है वहां शाम को मजमा लगते हमने कई बार अपनी आंखों से देखा है।

2004 में जब मशहूर पटकथा लेखक और राजस्थानी कथाकार विजयदान देथा के पोते की देर रात रिज में मौत हुई थी,इसके पहले भी रिज के भीतर खूनी खा झील में कुछ लोगों की मौत हुई थी तो रिज के भीतर सुरक्षा व्यवस्था काफी बढ़ा दी गयी थी। ये सुरक्षा कागजी तौर पर आज भी बरकरार है। बीच में इसी सुरक्षा के बीच ऐसी स्थिति बनी कि अकेले किसी लड़के को जाने नहीं दिया जाता,अगर उसके साथ लड़की होती तो कोई दिक्कत नहीं होती। इसी में गुपचुप तरीके से लेकिन जाननेवालों और लगातार जाने के अभ्यस्त लोगों के लिए ये सबकुछ खुल्ल्-खुल्ला है। रिज में कई तरह के अवैध काम होने की जब तब जानकारी हमें सालों से टुकड़ों-टुकड़ों में मिलती रही है। तब हॉस्टल के लड़कों के बीच ये गप्प हांकने से ज्यादा कुछ नहीं होता। लोग अक्सर गर्मियों में लंच करने के बाद रिज के भीतर जाते,ऐसी जगहों पर जहां कि फ्रीक्वेंटली नहीं जाया जा सकता,कई तरह की झाडियां,कांटेदार पेड़ जिससे होकर गुजरना मुश्किल होता। वहां से लौटकर आते तो बताते कि उसने कैसे-कैसे सीन देखें हैं। संभव हो कि वो इसमें कुछ अपनी तरफ से जोड़ देते। लेकिन मैंने कई बार देखा कि झाड़ियों में जो गुलाबी और पीले फूल खिलते हैं,कपल बिल्कुल उसी के रंग के कपड़ों में जगह का चुनाव करते हैं ताकि दूर से कुछ अलग दिखाई न दे।

कॉमनवेल्थ की तैयारी के नाम पर जैसे-जैसे पूरे कैंपस में डेमोलिशन और नए कन्सट्रक्शन का काम होने शुरु हुए,हम थोड़े ज्यादा कन्सर्न बनाने लगे। हमने देखना शुरु किया कि कहां पर गया बन-बदल रहा है। जो फुटपाथ अभी छ महीने पहले ही बनाए गए थे उसे पूरी तरह तोड़कर दुबारा बनाया जा रहा है। जो दीवारें काफी मजबूत और नयी थी,उसे पूरी तरह ढाह दिया गया है और फिर से बनाया जा रहा है। इसी क्रम में हमने रिज में भी जाना-झांकना शुरु किया। पेड़ों की छटाई पहले से बहुत बेहतर हुई है। नयी बेंचें लग गयी है,मेन्टेनेंस पर पहले से बहुत ज्यादा ध्यान दिया जा रहा है। इस भयंकर गर्मी में जबकि आधी से ज्यादा दिल्ली पानी के लिए बिलबिला रही है,वहां पानी की इतनी मोटी धार से पेड़ों को धोया जा रहा है कि आप हैरान हो जाएं। कुल मिलाकर कॉमनवेल्थ की तैयारी का असर हमें इस रिज में साफ तौर पर दिखाई दे रहे हैं। इधर छ महीने से एक और नजारा आपको देखने को मिलने लगेंगे। सुबह-सुबह माला-ताबीज,चूर्ण,आयुर्वेदिक दवाई,ठेले पर मोटर लगाकर जूस आदि की अस्थायी दूकानें रोज खुलती हैं। ये बाबा रामदेव के उस शिविर का असर है जो कि पिछले तीन-चार महीने से वो इस पूरे इलाके में लगवा रहे हैं।..तो कहानी ये है कि जिस रिज को पर्यावरण के लिहाज से,हरा-भरा रखने के लिहाज से बचाने की कवायदें चल रही है,उसके भीतर कई किस्म के धंधे एक सात पनप रहे हैं।

आज से चार दिन पहले हमें पूरी रात नहीं आयी। कुछ भी करने का मन नहीं किया,पढ़ने या सर्फिंग करने तक का नहीं। अंत में साढ़े चार बजे होते-होते जुबली हॉल के उन दोस्तों के जागने का इंतजार करने लगे जो सात बजे तक थोड़ी मशक्कत के बाद उठ जाते हैं। तब हम फिर रिज गए। इस बार विश्वविद्यालय वाले रास्ते से नहीं बल्कि खैबरपास वाले रास्ते सर। थोड़ी दूर जाने के बाद अगर पेड़ों की संख्या और हरियाली को छोड़ दें तो कहीं से हमें नहीं लगा कि ये भी रिज का ही हिस्सा है। कदम दर कदम उसी तरह बिछे अखबार,बीयर की बोतलें,इस्तेमाल किए कंड़ोम,उसके फेंके गए पैकेट। कुछ बोतलें तो इतनी नयी कि जिसमें बीयर का कुछ हिस्सा अब भी बच्चा था,कुछ कंडोम तो इतने ताजे कि उसमें स्पर्म अब भी मौजूद थे, कुछ अखबार तो ऐसे बिछे कि लगा नहीं कि पिछले घंटों हवा चली हो। उपर जो और सुविधाओं वाली जो बात हम कह रहे थे,उसके निशान हमें यहां दिखाई देने लगे। हमने नोटिस किया है कि अंदर जितने भी कंड़ोम के पैकेट मिले उसमें 'कोबरा'नाम के कंड़ोम के पैकेट सबसे ज्यादा थे। उसके बाद डीलक्स निरोध,कुछ मूड्स के और बहुत कम ही कामसूत्र या फिर कोई दूसरे। इससे क्या इस बात का अंदाजा लगाया जा सकता है कि कोबरा नाम का कंडोम अंदर से ही सप्लाय की जाती हो।

कौन करते हैं सेक्स और किनके लिए है ये धंधा,आगे की किस्त में.

जब विद्यासागर जी ने चप्पल फेंकी

जब विद्यासागर जी ने चप्पल फेंकी फिर एक चप्पल चली। रोज ही कहीं ना कहीं यह पदत्राण थलचर हाथों में आ कर नभचर बन अपने गंत्वय की ओर जाने क...