Friday, June 11, 2010

देवदासी यानी...

धर्म और सामाजिक परंपरा के नाम पर औरतों के कितने नरक हो सकते हैं, इसे अगर जानना हो तो आप कुछपुरदर गांव की सरपंच रत्न कुमारी से बात कर सकते हैं. रत्न कुमारी यूं तो समाज सेवा के लिये ढेरों काम करती हैं, बाढ़ राहत से लेकर नारी शिक्षा तक लेकिन उनके मन में औरतों का नरक किसी फांस की तरह है. दलित समुदाय से जुड़ी हुई रत्न कुमारी ऐसे ही नरक के सफाये के लिये जी जान से जुटी हुई हैं. जानते हैं, इस नरक का नाम ? इस नरक का नाम है- कोलकुलम्मा.
कोलकुलम्मा यानी जोगिनी, यानी मातंगी यानी देवदासी. अलग-अलग भाषाओं में अलग-अलग संबोधन लेकिन हश्र सबका एक जैसा. यानी धर्म के नाम पर लड़कियों को मंदिर में ईश्वर की सेवा के लिए रखा जाना.

यह बात बहुत साफ है कि कोलकुलम्मा के तहत मंदिरों में रखी गई इन लड़कियों का स्थानीय आर्थिक-सामाजिक शक्ति संपन्न लोग शारीरिक शोषण भी करते हैं. ये शक्ति संपन्न लोग ही मंदिर में उस स्त्री के खाने पीने और रहने की व्यवस्था करते हैं. एक तरह से यह प्रथा पुरुषों द्वारा एक स्त्री को रखैल बनाकर रखने को सामाजिक मान्यता प्रदान करता है.

धर्म के नाम पर चल रही इस तरह की वेश्यावृत्ति 1988 से आंध्रप्रदेश में प्रतिबंधित है, लेकिन इस कानून को सख्ती से लागू करने में राज्य सरकार अब तक नाकाम रही है. रत्न कुमारी के अनुसार, उन्होंने पिछले कुछ समय में गुंटूर और आस पास के जिलों में एक दर्जन से अधिक कोलकुलम्माओं की पहचान की है और इन कोलकुलम्माओं को इस नर्क की जिंदगी से निकालने के लिए लगातार कोशिश कर रही हैं.

रत्न कुमारी कहती हैं- “छोटी उम्र की लड़कियों का परंपरा के नाम पर कोलकुलम्मा बनाकर समाज के दबंग लोग यौन शोषण करते हैं. यह सब आजादी के साठ साल बाद भी हमारे समाज में बचा हुआ है. इसे खत्म होना ही चाहिए.”

आंध्र प्रदेश के इलाके में कोलकुलम्मा के लिए चुनकर आने वाली लड़कियां एक खास दलित जाति मडिगा समाज से चुनकर आती हैं. रत्न बताती हैं, किस प्रकार एक कोलकुलम्मा को उसके गांव से बाहर निकालना मुश्किल होता है, क्योंकि उस वक्त समाज तो आपका दुश्मन होता ही है, कई मौकों पर कोलकुलम्मा के परिवार वाले भी आपके खिलाफ हो जाते हैं. उस समय साहस और संयम से काम लेना होता है.

हालांकि मडिगा समाज के लोग भी धीरे-धीरे रत्न के इस अभियान में धीरे-धीरे शामिल हो रहे हैं. रत्न की आने वाले समय में मडिगा समाज के लोगों को आत्मनिर्भर बनाने के लिए उनके बीच स्वयं सहायता समूह जैसे प्रयास प्रारंभ करने की योजना है.

आरंभ
रत्न कुमारी के सामाजिक जीवन की शुरूआत कॉलेज में राष्ट्रीय सेवा योजना के साथ काम करते हुए हुई. लगातार तीन सालों तक उन्हें कॉलेज में बेस्ट वालेंटियर का अवार्ड मिला. घर में पिता की सराहना मिली. कॉलेज की पढ़ाई के समय ही लगा कि कुछ अलग करना है. कुछ ऐसा, जिससे समाज बदले.

एक दोस्त निर्मला ने हौसला बढ़ाया और फिर दोनों ने मिलकर 1993 में एक संस्था का निर्माण किया. नाम रखा ‘डेवलपमेन्ट एक्शन फॉर वूमेन इन नीड सोसायटी’, संक्षिप्त नाम हुआ, ‘डॉन’ यानी सूर्योदय.

इसी संस्था के बैनर तले रत्न ने अपने समाज के लोगों को शिक्षित करने की जिम्मेवारी ली. रत्न के अनुसार- “यह जरूरी था, क्योंकि हमारे समाज के लोग अधिक पढ़े लिखे नहीं थे. वे यदि पढ़ जाते हैं, साक्षर होते हैं, उसके बाद वे अपने लिए सही-गलत का फैसला कर सकते हैं. वे अपने अधिकारों से वाकिफ हो सकते हैं.”

जब उन्होंने यह संस्था शुरू की, उस वक्त एक जुनून था. 1993 से 1999 तक उन्होंने अपने समाज के लोगों से मिले छोटी सहायताओं के दम से ही समाज के बीच अपना अभियान जारी रखा. 1999 में अपने एक साथी की सलाह पर बच्चों के लिये काम करने वाली संस्था क्राई से उन्होंने संपर्क साधा. जब वह अपना आवेदन लेकर गुंटूर से बैंगलोर गई तो वहां 300 आवेदकों को देखकर उनके होश उड़ गए. बकौल रत्न- “वहां एक से एक शक्ल सूरत वाले, धारा प्रवाह अंग्रेजी बोलने वाले लोग मौजूद थे और मैं उसके उलट सीधी-साधी तेलुगु भाषी महिला थी.”
वह साक्षात्कार से पहले ही हिम्मत हार कर बैठ गईं. लेकिन जब निर्णय आया तो यह जानकर उन्हें बेहद हैरानी हुई कि क्राई ने मदद करने के लिए जिन छह संस्थाओं का चयन किया है, उसमें एक उनकी संस्था भी है.

हौसले की उड़ान
आर्थिक मदद के बाद तो रत्न कुमारी ने एक नई उड़ान शुरु की. संस्था से जो पैसा मिला, उसकी मदद से उन्होंने चुंडूर मंडल के अंदर पेडगाडलवाड़ू, चिंगाडलवाडू, कारुमू, पारिमी और रिम्पालम गांव में शिक्षा केन्द्र प्रारंभ किए. यह शिक्षा केन्द्र खास तौर से दलित छात्रों के लिए थे. रत्न की हमेशा कोशिश रही कि दलित परिवार के जिन बड़े बुजुर्गों ने पढ़ाई नहीं की है, उनको भी पढ़ाया जाए. इस तरह के काम के लिये हैदराबाद की निर्णय ट्रस्ट और डीवीएएफ से भी समय समय पर मदद मिलती रही है.

आज की तारीख में रत्न कुमारी इलाके में समाजसेवी संस्थाओं के लिये मिसाल बन गई हैं.

रत्न के पति बाबू राव से अपनी पत्नी के काम के साथ कदम से कदम मिलाकर चल रहे हैं. कई बार जरुरत होने पर वे अपने काम से छुट्टी लेकर रत्न के साथ खड़े होते हैं. गुंटूर में बाढ़ के दौरान वे लंबे समय तक रत्न के साथ बाढ़ पीड़ितों के बीच ही रहे. रत्न की सेवा निष्ठा को देखकर ही उनके तेनाली से छह किलोमीटर की दूरी पर स्थित गांव कुछपुरदर के लोगों ने उन्हें अपना सरपंच चुना.

गांव वालों की अपनी अपेक्षायें हैं, अपनी उम्मीदें हैं. लेकिन रत्न कुमारी की आंखों में एक सपना बराबर तैरता रहता है-“कोलकुलम्मा समाज पर एक कलंक की तरह है. इसका जल्दी से जल्दी खत्म होना ही देश और समाज के हित में है.”

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