राष्ट्रमंडल खेल की तैयारी के दौरान उसका भयानक चेहरा सामने आया है। एक तरफ हजारों परिवार उजाड़े गए हैं। दूसरी तरफ पूरी रफ्तार से चल रहा निर्माण-कार्य मजदूरों की जान पर बन आया है। ख्वाबों के इस खेल की तैयारी में मेहनत-मशक्कत करने वाले मजदूर अपनी जान गंवा रहे हैं। मार्च 2008 में ही सौ से अधिक मजदूरों की मौत हो गई थी। यह आंकड़ा केवल राष्ट्रमंडल खेल गांव (सीडब्ल्यूजी) के निर्माण स्थल का है। इन बातों की चर्चा हाउसिंग एंड लैंड राइट्स नेटवर्क (एचएलआरएन) की हालिया रिपोर्ट में है। रिपोर्ट से यह भी साफ होता है कि शहर को खूबसूरत बनाने के नाम पर हजारों लोगों से उनका रोजगार छीना जा रहा है। उन्हें उजाड़ा जा रहा है। इन दिनों पूरे शहर का यही मंजर है।
एचएलआरएन की यह रिपोर्ट 13 मई को जारी की गई है। इससे मालूम पड़ता है कि मानवीय जीवन को दाव पर लगाकर खेल की तैयारियां हो रही हैं। कहा गया है कि राष्ट्रमंडल खेल की विभिन्न परियोजनाओं के बहाने राजधानी में अबतक एक लाख से भी अधिक परिवार उजाड़े जा चुके हैं। अगले कुछेक महीने में उजाड़े गए लोगों की संख्य 30 से 40 हजार तक और बढ़ सकती है।
पिछले दिनों खबर आई थी कि जंगपुरा स्थित बारापुलाह नुलाह इलाके से 368 दलित तमिल परिवारों को उजाड़ दिया गया। वे लोग गत 35 वर्षों से वहां रह रहे थे। अब भीषण गर्मी में बेघर कर दिए गए हैं। वे खुले आसमान के नीचे हैं। इस तपती धूप में सिर छुपाने के लिए उन्हें कोई स्थान मुहैया नहीं कराया गया है। कहा जा रहा है कि वहां खेल के दौरान आने वाली गाड़ियां खड़ी की जाएंगी। यानी उक्त स्थान को पार्किंग स्थल के रूप में विकसित किया जाएगा। यह उस घटना का एक हालिया उदाहरण है, जो पिछले पांच-छह सालों से चल रहा है। दिल्ली श्रमिक संगठन के मुताबिक वर्ष 2003 से 2008 के बीच 350 झुग्गी बस्तियों को उजाड़ गया था। इससे करीब तीन लाख लोग बेघर हो गए। घर-बदर करने का यह सिलसिला अब भी जारी है। और यह सब राष्ट्रमंडल खेल के मद्देनजर किया जा रहा है।
इस रिपोर्ट में उन हालातों की गहरी पड़ताल है, जिसका मजदूरों के स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ रहा है। और वह उनकी जान पर बन आता है। राष्ट्रमंडल खेल गांव, इंदिरा गांधी स्टेडियम, दिल्ली विश्वविद्यालय, नेहरू स्टेडियम आदि निर्माणाधीन स्थलों पर मजदूरों के रहने की व्यवस्था है। इनका अस्थाई बसेरा टीन के बड़े-बड़े चदरों का इस्तेमाल कर बनाया गया है। ताज्जुब की बात है कि एक कमरे में छह से आठ मजदूरों को ठहराया जाता है। जबकि, इसका आकार 10 बाय 10 का है।
यहां हजारों प्रवासी मजदूरों को अपनी न्यूनतम जरूरत की चीजों के लिए भी संघर्ष करना पड़ता है। रिपोर्ट में इस बात की चर्चा है कि इंदिरा गांधी स्टेडियम के नजदीक जिन मजदूरों को रखा गया है, वहां 107 मजदूरों पर केवल एक शौचालय की व्यवस्था है। वैसे दिल्ली हाई कोर्ट ने मजदूरों की स्थिति का जायजा लेने के लिए एक समिति गठित की तो पाया कि वहां 50 मजदूरों पर एक शौचालय है।
राष्ट्रमंडल खेल के निर्माणाधीन स्थलों से कई मजदूरों के मरने की खबर आई है। पीपुल्स यूनियन फॉर डेमोक्रेटिक राइट (पीयूडीआर) ने विभिन्न निर्माणाधीन स्थलों पर 49 मजदूर की मौत होने की बात कही है। दरअसल, इन स्थानों पर प्रवासी मजदूरों को उन हालातों में रखा गया है, जिससे उनके बीमार पड़ने की संभावना 80 प्रतिशत से अधिक है।
खैर, यह आश्चर्य की बात है कि अबतक किसी मृतक मजदूर के परिवार वालों को बतौर मुआवजा एक रुपया भी नहीं मिला है। जबकि, सरकार लगातार दावा कर रही है कि परियोजना से जुड़े मजदूरों का पूरा ख्याल रखा जा रहा है। उनके लिए एक खास राशि रखी गई है। पर यह रपट उन दावों की पोल खलती है। परियोजना में 2000 से अधिक बाल मजदूर काम कर रहे हैं। इनकी आयु 14 से 16 वर्ष के बीच है। इन्हें सरकार की तरफ से न्यूनतम निर्धारित मजदूरी से भी कम दिहाड़ी मिल रही है। इन नन्हें मजदूरों पर भी समय रहते परियोजना को पूरा करने का जो दबाव है, सो अलग।
ताज्जुब की बात है, परियोजना से जुड़ी तमाम एजेंसियां इन बातों को छुपा रही हैं। परियोजना स्थल या प्रवासी मजदूरों के लिए बनाए गए आवासीय इलाकों में भी दूसरे लोगों को जाने की इजाजत नहीं है। एचएलआरएन की एसोसिएट कॉर्डिनेटर शिवानी चौधरी ने बताया कि रिपोर्ट तैयार करने के लिए कई फिल्ड वर्क किए गए हैं। सूचना का अधिकार (आरटीआई) और समय दर समय मीडिया में आई खबरों से जो जानकारी मिली उसका पूरा उपयोग किया गया। हालांकि, ऐसा कई बार अनुभव हुआ कि जानकारियां छुपाई जा रही हैं। जहां पहुंचने पर स्थितियों से रूबरू हुआ जा सकता है वहां जाने नहीं दिया जा रहा है।
राष्ट्रमंडल खेल का सीधा असर शहर की उस अर्थव्यवस्था पर भी पड़ रहा है, जिससे निम्न वर्ग जुड़ा है। यहां विभिन्न स्थानों से रेड़ी-खोमचे वाले को हटाया जा रहा है। यह खेल के दौरान शहर को खूबसूरत दिखाने की कवायत है। एक आंकड़े के मुताबिक शहर में तकरीबन तीन लाख रेड़ी-खोमचे और फेरीवाले हैं, जिनका सालाना व्यापार 3,500 करोड़ रुपए का है। पर अब सरकार को इसका आबाद होना पसंद नहीं। इन्हें हटाने का काम जारी है। 19 जनवरी, 2010 को एक लाख से अधिक आवेदन दिल्ली नगर निगम के पास आए थे। पर, 14,000 रेड़ी-खोमचे वालों को ही नए लाइसेंस जारी किए गए। रिक्शा चालकों, गलि-कूची में चलने वाली फुटकर दुकानें और ऐसे ही दूसरे छोटे-मोटे रोजगार के साधनों को सरकार बंद करने पर तुली है। कायदे-कानून व न्यायालय के आदेश को ताक पर रखकर शहर को सुंदर बनाने का तानाबाना बुना जा रहा है।
खेल के दौरान राजधानी में भिखारी दिखे यह दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित व समाज कल्याण मंत्री मंगतराम सिंघल को पसंद नहीं। इस समय सरकार ऐसे लोगों को नजर से बहुत दूर पहुंचा देने पर अमादा है। उसे अपने लोगों से ज्यादा खेल के दौरान आने वाले अमीर मेहमानों के मिजाज की चिंता है।
अब राष्ट्रमंडल खेल के निर्माण कार्यों में जुटे प्रवासी मजदूरों, रोजाना कमाने-खाने वाले छोटे व्यापारियों व भिखारियों के लिए कौन बोले ? और उनकी पीड़ा को व्यक्त करे ? ये ऐसे सवाल है, जो हमारी वर्तमान राजनीति और समाज को नाप देते हैं। शुरू में इस खेल के लिए 1,900 हजार करोड़ रुपए का बजट रखा गया था। पर विशेषज्ञों के अनुमान के मुताबिक अबतक 70,000 हजार करोड़ रुपए खर्च हो चुके हैं। सरकारी आंकड़ 30,000 हजार रुपए का है। पर तैयारी अधूरी है।
वर्ष 1988 के सिओल ओलंपिक में 720,000 लोगों को उजाड़ा गया था। जबकि 1992 के बार्सिलोना ओलंपिक में 600 से अधिक परिवार उजाड़े गए थे। अटलांटा ओलंपिक का भी यही आलम था। वर्ष 2008 में हुए बीजिंग ओलंपिक में 1,500,000 लोगों को उजाड़ा गया है।
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