Friday, June 11, 2010

आँखों देखी...


जहां-तहां इस्तेमाल किए गए जूठे कंडोम,बीयर की केन और बोतलें,पांच फुट के घेरे में बिछे अखबार और कई बार दिल्ली ट्रैफिक पुलिस और मोबाईल कंपनियों के नोचकर लाए गए बैनर से बने टैम्पररी बिस्तर कूड़े-कचरे का नहीं बल्कि किसी खेल के लगातार चलने का ईशारा करते हैं। आप इस सेटअप को देखते ही अंदाजा लगा सकते हैं कि यहां क्या चलता होगा? ये सारी चीजें हर दो-चार कदम की दूरी पर आपको मिलेंगे। वन-विभाग और एमसीडी की ओर से बैठने के लिए जो बेंचें लगायी गयी हैं, जिसे कि सीमेंट से जमाया तक गया है,उनमें से कईयों को उखाड़कर बिल्कुल अंदर झाड़ियों में टिका दिया गया है। इस बियावान रिज में जहां कि सुबह और शाम तो हजारों लोग मार्निंग वॉक के लिए आते हैं लेकिन दोपहर में कहीं-कोई दिखाई नहीं देता,वहां भी आपको दाम से दुगनी कीमत पर कोक-पेप्सी,पानी बोतल बेचते कई छोकरे मिल जाएंगे। इन छोकरें से आप कई तरह की सुविधाएं ले सकते हैं। ये नजारा है दिल्ली विश्वविद्यालय से सटे उस रिज का जिसका एक हिस्सा सीधे-सीधे कैंपस को छूता है,दूसरा हिस्सा राजपुर रोड को,सामने खैबर पास का इलाका पड़ता है और उसके ठीक विपरीत कमलानगर।

हॉस्टल के कुछ दोस्तों ने जब बताया कि यहां सौ-दो सौ रुपये देकर जगह मुहैया कराया जाता है,आप किसी लड़की के साथ जाओ..वहां जो चौकीदार,वन-विभाग के कर्मचारी है उन्हें कुछ माल-पानी पकड़ाओ,फिर तुम्हें कहीं कोई रोकने-टोकनेवाला नहीं है। एकबारगी तो हमें इस बात पर यकीन ही नहीं हुआ,लेकिन जब कल मैंने अपने जीमेल स्टेटस पर लिखा कि जूठे कंडोम से अटा-पड़ा है डीयू रिज,जल्द ही पढ़िए तो देर रात कुछ लोगों ने फोन करके अपने अनुभव शेयर किए। एक ने साफ कहा कि अगर आप शाम को जब थोड़ा-थोड़ा अंधेरा हो जाता है,रिज के अंदर नहीं बल्कि बाहर ही जहां कि बेंचें लगायी गयी हैं,वहां अपनी दोस्त के साथ बैठते हो तो थोड़ी ही देर में आपके पास कोई आएगा और पूछेगा- आपको जगह चाहिए? आप को ये स्थिति एम्बैरेसिंग लग सकती है लेकिन कैंपस के ठीक बगल में ये धंधा बड़े आराम से सालों से चल रहा है। इतना ही नहीं डीयू कैंपस के रिज का ये पूरा इलाहा ड्रग,गांजा आदि के अभ्यस्त लोगों के लिए स्वर्ग है। ड्रग तो नहीं लेकिन गांजा और शराब के लिए ये ऐशगाह है,इसे तो हमने अपनी आंखों से देखा है।

रिज के भीतर कुछ चायवाले हैं जो कि अपने लकड़ी के बक्से और ठीया रखते हैं। वो इस तरह से बने और रखे हैं कि आपको पता तक नहीं चलेगा कि यहां कोई इस तरह से भी कुछ रखता है। उसमें उनके चाय का सारा सामान होता है। दिन में तो चाय की सेवा दी जाती है लेकिन रात के आठ-दस बजे तक शहर के शौकीन लोग सीधे उन ठिकानों पर पहुंचते हैं। उसे कुछ पैसे देते हैं और फिर दौर शुरु होता है। जिस रिज में रात को गुजरने में रोंगटे खड़े हो जाए वही रिज कुछ लोगों के लिए एशगाह बन जाता है। शराब का ये अड्डा रिज से बाहर निकलकर अब फैकल्टी ऑफ आर्ट्स तक फैल गया है। फैकल्टी ऑफ आर्टस की मेन गेट जो कि लॉ फैकल्टी की तरफ है,सामने पार्किंग है वहां शाम को मजमा लगते हमने कई बार अपनी आंखों से देखा है।

2004 में जब मशहूर पटकथा लेखक और राजस्थानी कथाकार विजयदान देथा के पोते की देर रात रिज में मौत हुई थी,इसके पहले भी रिज के भीतर खूनी खा झील में कुछ लोगों की मौत हुई थी तो रिज के भीतर सुरक्षा व्यवस्था काफी बढ़ा दी गयी थी। ये सुरक्षा कागजी तौर पर आज भी बरकरार है। बीच में इसी सुरक्षा के बीच ऐसी स्थिति बनी कि अकेले किसी लड़के को जाने नहीं दिया जाता,अगर उसके साथ लड़की होती तो कोई दिक्कत नहीं होती। इसी में गुपचुप तरीके से लेकिन जाननेवालों और लगातार जाने के अभ्यस्त लोगों के लिए ये सबकुछ खुल्ल्-खुल्ला है। रिज में कई तरह के अवैध काम होने की जब तब जानकारी हमें सालों से टुकड़ों-टुकड़ों में मिलती रही है। तब हॉस्टल के लड़कों के बीच ये गप्प हांकने से ज्यादा कुछ नहीं होता। लोग अक्सर गर्मियों में लंच करने के बाद रिज के भीतर जाते,ऐसी जगहों पर जहां कि फ्रीक्वेंटली नहीं जाया जा सकता,कई तरह की झाडियां,कांटेदार पेड़ जिससे होकर गुजरना मुश्किल होता। वहां से लौटकर आते तो बताते कि उसने कैसे-कैसे सीन देखें हैं। संभव हो कि वो इसमें कुछ अपनी तरफ से जोड़ देते। लेकिन मैंने कई बार देखा कि झाड़ियों में जो गुलाबी और पीले फूल खिलते हैं,कपल बिल्कुल उसी के रंग के कपड़ों में जगह का चुनाव करते हैं ताकि दूर से कुछ अलग दिखाई न दे।

कॉमनवेल्थ की तैयारी के नाम पर जैसे-जैसे पूरे कैंपस में डेमोलिशन और नए कन्सट्रक्शन का काम होने शुरु हुए,हम थोड़े ज्यादा कन्सर्न बनाने लगे। हमने देखना शुरु किया कि कहां पर गया बन-बदल रहा है। जो फुटपाथ अभी छ महीने पहले ही बनाए गए थे उसे पूरी तरह तोड़कर दुबारा बनाया जा रहा है। जो दीवारें काफी मजबूत और नयी थी,उसे पूरी तरह ढाह दिया गया है और फिर से बनाया जा रहा है। इसी क्रम में हमने रिज में भी जाना-झांकना शुरु किया। पेड़ों की छटाई पहले से बहुत बेहतर हुई है। नयी बेंचें लग गयी है,मेन्टेनेंस पर पहले से बहुत ज्यादा ध्यान दिया जा रहा है। इस भयंकर गर्मी में जबकि आधी से ज्यादा दिल्ली पानी के लिए बिलबिला रही है,वहां पानी की इतनी मोटी धार से पेड़ों को धोया जा रहा है कि आप हैरान हो जाएं। कुल मिलाकर कॉमनवेल्थ की तैयारी का असर हमें इस रिज में साफ तौर पर दिखाई दे रहे हैं। इधर छ महीने से एक और नजारा आपको देखने को मिलने लगेंगे। सुबह-सुबह माला-ताबीज,चूर्ण,आयुर्वेदिक दवाई,ठेले पर मोटर लगाकर जूस आदि की अस्थायी दूकानें रोज खुलती हैं। ये बाबा रामदेव के उस शिविर का असर है जो कि पिछले तीन-चार महीने से वो इस पूरे इलाके में लगवा रहे हैं।..तो कहानी ये है कि जिस रिज को पर्यावरण के लिहाज से,हरा-भरा रखने के लिहाज से बचाने की कवायदें चल रही है,उसके भीतर कई किस्म के धंधे एक सात पनप रहे हैं।

आज से चार दिन पहले हमें पूरी रात नहीं आयी। कुछ भी करने का मन नहीं किया,पढ़ने या सर्फिंग करने तक का नहीं। अंत में साढ़े चार बजे होते-होते जुबली हॉल के उन दोस्तों के जागने का इंतजार करने लगे जो सात बजे तक थोड़ी मशक्कत के बाद उठ जाते हैं। तब हम फिर रिज गए। इस बार विश्वविद्यालय वाले रास्ते से नहीं बल्कि खैबरपास वाले रास्ते सर। थोड़ी दूर जाने के बाद अगर पेड़ों की संख्या और हरियाली को छोड़ दें तो कहीं से हमें नहीं लगा कि ये भी रिज का ही हिस्सा है। कदम दर कदम उसी तरह बिछे अखबार,बीयर की बोतलें,इस्तेमाल किए कंड़ोम,उसके फेंके गए पैकेट। कुछ बोतलें तो इतनी नयी कि जिसमें बीयर का कुछ हिस्सा अब भी बच्चा था,कुछ कंडोम तो इतने ताजे कि उसमें स्पर्म अब भी मौजूद थे, कुछ अखबार तो ऐसे बिछे कि लगा नहीं कि पिछले घंटों हवा चली हो। उपर जो और सुविधाओं वाली जो बात हम कह रहे थे,उसके निशान हमें यहां दिखाई देने लगे। हमने नोटिस किया है कि अंदर जितने भी कंड़ोम के पैकेट मिले उसमें 'कोबरा'नाम के कंड़ोम के पैकेट सबसे ज्यादा थे। उसके बाद डीलक्स निरोध,कुछ मूड्स के और बहुत कम ही कामसूत्र या फिर कोई दूसरे। इससे क्या इस बात का अंदाजा लगाया जा सकता है कि कोबरा नाम का कंडोम अंदर से ही सप्लाय की जाती हो।

कौन करते हैं सेक्स और किनके लिए है ये धंधा,आगे की किस्त में.

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