Friday, September 8, 2017

जब अंग्रेजों ने किया भारतीय रेलवे में पटरी घोटाला

एक के बाद एक रेल हादसों ने देश को इस कदर हिला कर रख दिया कि आख़िरकार सुरेश प्रभु की रेल मंत्रालय से छुट्टी हो गयी. पीयूष गोयल की नियुक्ति क्या रंग दिखाएगी, यह तो भविष्य ही बताएगा पर आज रेल से जुड़े इतिहास की बात करते हैं. भारतीय रेल के दो चेहरे दिखाते हैं जो बताते हैं कि अंग्रेजों द्वारा बनाई गई भारतीय रेल उपनिवेशवाद के साथ-साथ जवाबदेही का भी उदाहरण थी. वह जवाबदेही जो आज के हालात में दूर-दूर तक नजर नहीं आती.
भारतीय रेल और उपनिवेशवाद
भारतीय रेल को अंग्रेजों की देश को सबसे बड़ी सौगात के तौर पर बताया जाता रहा है. लेकिन भारत में ब्रिटिश राज पर लिखी क़िताब ‘एन एरा ऑफ़ डार्कनेस’ में शशि थरूर यह मिथक तोड़ते हैं कि अंग्रेजों ने इसे हिन्दुस्तानी लोगों के लिए बनवाया था. उनके मुताबिक़ ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपनी सेना के स्थानान्तरण और व्यापारिक सामानों के आवागमन के मद्देनज़र इसका निर्माण करवाया था.1843 में तत्कालीन गवर्नर जनरल हार्डिंग ने अपनी रिपोर्ट में लिखा था, ‘रेल हिंदुस्तान में ब्रिटिश व्यापार, सरकार और सेना और इस देश पर मज़बूत पकड़ के लिए सहायक होगी.’ बाद में डलहौज़ी ने इसकी पैरवी करते हुए कहा था कि इससे ब्रिटिश उत्पादों को पूरा हिंदुस्तान मिल जाएगा और खनिजों को बंदरगाह तक लाया जा सकेगा जहां से उन्हें इंग्लैंड भेजा जाएगा. तब ईस्ट इंडिया कंपनी ने इंग्लैंड में निविदाएं जारी करके निवेशकों को इसकी तरफ आकर्षित किया था. लिहाज़ा, इसका निर्माण भी काफ़ी ऊंची कीमत पर हुआ.
दु​निया को स्टील देना वाला टाटा स्टील को जब किया गया इंकार
बीसवीं शताब्दी की शरुआत में दुनिया भर में दो तरह का स्टील इस्तेमाल में लाया जाता था. एक ब्रिटिश मानक द्वारा सत्यापित स्टील और दूसरा ग़ैर ब्रिटिश मानक सत्यापित. ब्रिटिश मानक स्टील महंगा होता था. अंग्रेजों ने इसी स्टील को भारत में रेल की पटरियों के लिए पास करवा लिया था. इसका एक नतीजा यह हुआ कि टाटा स्टील जैसी कंपनियों का सस्ता स्टील काम में नहीं लाया जा सका.  मशहूर लेखक गुरचरण दास अपनी किताब ‘उन्मुक्त भारत’ में लिखते हैं कि निर्माण की लागत काफ़ी ऊंची रखी गयी थी क्योंकि जो ब्रिटिश कंपनियां इसमें निवेश कर रही थीं उन्हें रकम की निश्चित अदायगी के साथ पांच प्रतिशत का ब्याज देना भी तय किया गया था. इसलिए इन कंपनियों को कीमत की कोई परवाह नहीं थी और उन्होंने इसे बड़े ही लापरवाह और शाही अंदाज़ में बनाया. पटरी बिछाने में ज़रा सी भी ख़ामी आती तो उसे पूरा उखाड़कर नया बनाया जाता. स्टेशनों को बनाने में ज़रुरत से ज़्यादा ख़र्च किया गया और अंग्रेज़ यात्रियों के लिए उच्च दर्जे के रेल के कूपे बनाये गए.
अंग्रेजों ने भी किया था पटरी बिछाने में घोटाला
रेलवे में घोटाला कोई नया नहीं है रेलवे की नींव ही घोटालों के साथ पडी थी.‘एन एरा ऑफ़ डार्कनेस’ में शशि थरूर लिखते हैं, ‘ज़्यादा ख़र्च करने पर ब्रिटिश कंपनियों को ज़्यादा मुनाफा होता. 1850 से 1860 के बीच प्रति मील रेल की पटरी बिछाने की लागत तकरीबन 18 हज़ार पौंड थी. वहीं अमेरिका में यह आंकड़ा मात्र दो हज़ार पौंड था.’ थरूर इसे तब का सबसे बड़ा घोटाला करार देते हैं. सारा मुनाफ़ा अंग्रेजों का और इसकी भरपाई भारतीय टैक्स देनदारों से हो रही थी. चूंकि ग़ैर ब्रिटिश मानक स्टील इस्तेमाल में नहीं लिया जा सकता था, लिहाज़ा, पटरी से लेकर डिब्बों तक सब इंग्लैंड से मंगवाया गया.
13 लाख लोगों को रोजगार देनी वाली रेलवे ने जब छीना रोजगार
देश में सेना के बाद सबसे ज्यादा रोजगार का अवसर दे रही रेलवे कभी रोजगार छिनने का कारण भी बनी थी.इतिहासकार विल दुरैंट भारतीय रेल का एक आश्चर्यजनक पहलु खोलते हैं. उनके मुताबिक रेल का मकसद ब्रिटेन की सेना और उसके व्यापार को फ़ायदा पहुंचाना था, पर रेल को सबसे ज़्यादा आय अपने तीसरे दर्जे के डिब्बों में हिंदुस्तानियों के सफ़र करने से होती थी जिनमें आदमी भेड़-बकरियों की तरह ठूंस दिए जाते थे. उनके लिए कोई सहूलियतें नहीं दी जाती थीं.अंततः, रेलों के ज़रिये इंग्लैंड में बनाये गए सामानों की आवाजाही शुरू हो गयी. भारतीय कामगारों के उत्पाद इंग्लैंड के उत्पादों से टक्कर नहीं ले पाए और धीरे-धीरे घरेलु उद्योग बंद होने लग गए. तब एक बांग्ला अखबार में छपे लेख में कहा गया था कि ये लोहे की पटरियां नहीं बल्कि ज़ंजीरें हैं जिन्होंने भारतीय उद्ध्योग ठप्प कर दिए. दादा भाई नौरोजी ने भी अपनी किताब ‘पॉवर्टी एंड अनब्रिटिश रूल इन इंडिया’ में रेल से हिंदुस्तान को कम और अंग्रेजों को ज़्यादा फ़ायदा होने की बात कही है.
रेल ने फैलाया प्लेग
महात्मा गांधी ने अपनी किताब ‘स्वराज’ में रेल को बंगाल में फैली प्लेग की महामारी के लिए ज़िम्मेदार माना था. बंगाल में जब रेल निर्माण किया गया तो गंगा और उसकी सहायक नदियों के पानी को जगह-जगह रोका गया. इससे खेती पर ज़बरदस्त असर पड़ा और अनाज की पैदावार कम हुई. 1918 में बंगाल में आई बाढ़ का कहर रेल की वजह से कई गुना हो गया था.
जवाबदेही की दो मिसालें
1.इंजीनियर ने की आत्महत्या तो साधु ने बनवाई शिमला रेलवे की सुरंग
हालांकि इसके इतर भारतीय रेल के इतिहास को कुछ अच्छी बातों के संदर्भ में भी याद किया जा सकता है. हिमाचल प्रदेश के सोलन जिले में एक छोटा सा पर खूबसूरत हिल स्टेशन है जिसका नाम है बड़ोग. 1905 में बनी शिमला-कालका रेल लाइन, तब भी और आज भी, इंजीनियरिंग का शानदार नमूना है. इस रेल लाइन पर कुल 107 छोटे-बड़ी सुरंगें हैं. इनमें से 33 नंबर की सुरंग का अपना अलग किस्सा है. यह तबकी सबसे लंबी सुरंगों में से एक थी. करीब डेढ़ किलोमीटर इस लंबी सुरंग को बनाने का ज़िम्मा ब्रिटिश इंजीनियर कर्नल बड़ोग को दिया गया था. उन्होंने काम को जल्दी ख़त्म करने के लिहाज़ से फ़ैसला लिया कि पहाड़ के दोनों सिरों से सुरंग खोदने का काम शुरू किया जाए और बीच में उन्हें मिला दिया जाए. दोनों सिरों पर लगे कारीगर इंजिनियर बड़ोग की गणतीय गणना के आधार पर सुरंग खोदते गए. पर दोनों सिरे बीच में नहीं मिले. गणना में कुछ भूल हो गयी थी! बड़ोग और कारीगर बेहद हताश हो गए क्योंकि उनकी मेहनत बेकार हो गयी थी. ब्रिटिश सरकार को यह बात नागवार गुजरी. उसने कर्नल बड़ोग पर तब एक रुपये का जुर्माना लगा दिया. इंजीनियर जो पहले ही अपनी ग़लती पर पछता रहा था, उसे यह अपना अपमान लगा. एक दिन सुबह सैर करने के बहाने वह घर से निकला और खुद को गोली मारकर आत्महत्या कर ली. बाद में इंजीनियर हर्लिंगटन ने एक साधु भाल्कू की मदद से दूसरी सुरंग का निर्माण किया. कर्नल बड़ोग को सम्मानित करने के लिए सुरंग नंबर 33 को उनके नाम पर रखा गया.
2.ईंट खंभों ने उगली चिंगारी
एक और किस्सा है. उत्तर प्रदेश का जौनपुर जिला पांच नदियों से सिंचित है. इन नदियों पर मुगल काल के शाही ब्रिज से लेकर ब्रिटिश काल के कर्ज़न पुल और बाद में बने कई सारे पुल हैं. इनमें से एक पुल है जिसका निर्माण तकरीबन 1904 में एक ब्रिटिश कंपनी के हाथों हुआ था. कॉन्ट्रैक्ट की शर्तों के मुताबिक़ निश्चित समयावधि पर उस कंपनी के इंजीनियर को जौनपुर जाकर उस पुल की जांच पड़ताल करनी होती था.
कंपनी ने हिंदुस्तान के आज़ाद होने के बाद भी अपनी ज़िम्मेदारी निभायी. यहां आकर उसके इंजीनियर पुल की पड़ताल करते और अपनी रिपोर्ट पेश करते. कुछ साल पहले उस कंपनी ने भारतीय सरकार को पत्र लिखकर सूचित किया कि उसके द्वारा बनाये गए पुल की मियाद अब पूरी हो गयी है लिहाज़ा उसे गिराकर नया बना दिया जाए. और यह भी कि कॉन्ट्रैक्ट की शर्त के मुताबिक़ कंपनी अब इस ज़िम्मेदारी से मुक्त होती है.
इसके बाद भारतीय रेल मंत्रालय ने उस पुल को गिराकर नया पुल बनाने का काम शुरू किया. बताते हैं कि जब मशीनें उस पुल को गिरा रही थीं तो इंजीनियर खंभों की मज़बूती देखकर हैरान हो गए. ईंट के बने खंभों पर मशीनों से प्रहार करने पर उनमें से चिंगारियां फूट रही थीं. यह देखकर एक इंजीनियर ने अपने अफसर से कहा, ‘सर अब विकसित तकनीक होने बाद भी क्या हम इतना मज़बूत पुल बना पाएंगे?’ आज निश्चित ही देश को भारतीय रेल से इस तरह की जवाबदेही की ज़रूरत है.
कुछ पुल कमज़ोर हो गए हैं. कुछ पटरियां मज़बूत होनी बाकी हैं. डर तब लगता है जब ठेकेदार पटरियों को मज़बूती देने के लिए पत्थरों की गिट्टियां भी तयशुदा मानकों से कम डालते हैं. उम्मीद है पीयूष गोयल बुलेट ट्रेन से ज़्यादा इस और ध्यान देंगे.

Wednesday, September 6, 2017

संयोग या संघ के प्रभाव से निकलने की नई सियासत

 सत्ता परिवर्तन से पहले विदेश यात्रा 
राष्ट्रपति भवन में पहले सुबह दस बजे का वक्त मुकर्रर किया गया फिर उसे बढ़ाकर साढ़े दस कर दिया गया. शपथ ग्रहण आधे घंटे में खत्म हुआ और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दो घंटे के अंदर चीन के लिए रवाना हो गए. ऐसा पहली बार होता तो इत्तेफाक माना जा सकता था. लेकिन मोदी सरकार ने करीब तीन साल में तीसरी बार मंत्रिमंडल विस्तार किया और तीनों बार नए मंत्रियों को शपथ दिलाने के बाद प्रधानमंत्री विदेश यात्रा पर निकल गए. इस बार तो उनके रवाना होने के बाद ही मंत्रियों के विभागों की सूची सार्वजनिक की गई. कुछ मंत्रियों को तो मीडिया से ही पता चला कि उनका विभाग बदल गया है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने मंत्रिमंडल का पहला विस्तार 9 नवंबर 2014 को किया. उस बार 21 नए मंत्री बनाए गए. लेकिन दो दिन बाद ही प्रधानमंत्री दस दिन लंबी विदेश यात्रा पर निकल गए. वे अपनी इस यात्रा में म्यांमार, ऑस्ट्रेलिया और फीजी के राष्ट्राध्यक्षों से मिले.
 प्रधानमंत्री की विदेश यात्राओं की तारीखें तो महीनों पहले तय हो जाती हैं, लेकिन शपथ ग्रहण की तारीख हमेशा एक दिन पहले तय की जाती है. करीब डेढ़ साल बाद मोदी मंत्रिमंडल का दूसरा विस्तार हुआ. 5 जुलाई 2016 को मंत्रियों ने शपथ ली और 7 जुलाई रात सवा 12 बजे प्रधानमंत्री एक बार फिर विदेश यात्रा पर रवाना हो गये. इस बार मोदी अफ्रीका के चार देशों की यात्रा पर निकले थे - मोज़ांबिक, दक्षिण अफ्रीका, तंज़ानिया और केन्या. इस बार 3 सितंबर को केंद्रीय मंत्रिमंडल में फेरबदल किया गया और प्रधानमंत्री की विदेश यात्रा शपथ ग्रहण कार्यक्रम खत्म होते ही शुरू हो गई. राष्ट्रपति भवन में 4 राज्यमंत्रियों का प्रमोशन हुआ, 9 नए राज्यमंत्री बनाए गए और दोपहर एक बजे प्रधानमंत्री चीन के लिए रवाना हो चुके थे. सुनी-सुनाई है कि मंत्रिमंडल विस्तार के बाद प्रधानमंत्री का विदेश जाना इत्तेफाक से बहुत ज्यादा है. भाजपा में गिनकर तीन-चार लोगों को छोड़ दें तो बाकी मंत्रियों या नेताओं को ये पता नहीं होता है कि मंत्रिमंडल विस्तार के बाद किसे, कौन सा मंत्रालय मिलने वाला है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हर बार आखिर तक सस्पेंस बनाकर रखने में कामयाब रहते हैं. जब सस्पेंस खत्म होता है तो मंत्रियों से लेकर भाजपा नेताओं और आरएसएस नेतृत्व में भी जबरदस्त बेचैनी देखी जा सकती है. भाजपा में तो किसी नेता की ऐसी स्थिति नहीं कि वह प्रधानमंत्री से अपना विभाग बदले जाने पर बात कर सके. इसलिए ऐसे नाराज़ मंत्री संघ के नागपुर कार्यालय और दिल्ली में भाजपा से समन्वय करने वाले संघ नेताओं की शरण में जाते हैं.
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संघ की अपनी एक परंपरा और कार्यपद्धति है. उसके ज्यादातर नेता फोन पर बात कर कुछ भी कहने-सुनने से बचा करते हैं. जो लोग संघ को जानते हैं वे मानते हैं कि वह अपने सारे संदेश आमने-सामने की चर्चा के जरिए ही पहुंचाता है. ज्यादातर वक्त संघ इस काम के लिए अपने किसी दूत का इस्तेमाल करता है और कभी-कभार उसके पदाधिकारी खुद भी बातचीत में शामिल होते हैं. ऐसे में जब मंत्रिमंडल विस्तार के बाद प्रधानमंत्री देश में नहीं होते हैं तो उनसे हर तरह के संवाद की गुंजाइश खत्म हो जाती है. जब तक प्रधानमंत्री विदेश यात्रा से लौटते हैं तब तक जिनका विभाग बदलता है वे मंत्री मन मसोसकर नए मंत्रालय का कार्यभार संभाल चुके होते हैं और नए मंत्री भी अपने नए दफ्तर में प्रवेश कर चुके होते हैं. बाकी काम संभालने के लिए अमित शाह हैं ही.
सुनी-सुनाई है कि भाजपा अध्यक्ष के दफ्तर से इस बार भी सभी मंत्रियों को कहलवाया गया कि हर बार की तरह इस बार भी पुराने मंत्री खुद नए मंत्री का स्वागत करेंगे और उन्हें मंत्रालय का प्रभार सौंपेंगे. मन में कितना भी दुख हो, कैमरे पर हर मंत्री एक दूसरे की तारीफ करता दिखा. इसीलिए कल तक नाराज़ बताई जा रहीं उमा भारती ने जब गंगा सफाई मंत्रालय का काम नितिन गडकरी को सौंपा तो वे कह रही थी तीन साल से वे कैबिनेट मंत्री होने के बावजूद राज्यमंत्री की तरह काम कर रहीं थी क्योंकि मंत्रालय के असली कैबिनेट मंत्री तो शुरू से नितिन गडकरी ही थे. अब समझने वाले समझ ही गए होंगे उमा क्या कहना चाहती थीं?

पटरी की कमी लिख रही मौत की पटकथा

ट्रेनों के बढ़ने पर नए ट्रैक भी बनने चाहिए. लेकिन बीते 15 साल में ट्रेनों की संख्या में 50 फीसदी से ज्यादा की बढ़ोतरी के बावजूद ट्रैक सिर्फ 12 फीसदी ही बढ़े हैं 

बीती 19 अगस्त को उत्तर प्रदेश में खतौली के पास कलिंग उत्कल एक्सप्रेस पटरी से उतर गई. इस हादसे में 21 यात्रियों की मौत हो गई जबकि 200 से ज्यादा घायल हो गए. इसके चार दिन बाद औरैया के पास कैफियत एक्सप्रेस के भी पटरी से उतरने और हादसे में 70 लोगों के घायल होने की खबर आई. इसी साल 21 जनवरी को आंध्र प्रदेश के विजयनगर में हीराखंड एक्सप्रेस पटरी से उतर गई थी. हादसे में 39 लोगों की मौत हो गई थी जबकि 70 से ज्यादा घायल हो गए थे. इसमें पहले 20 नवंबर 2016 को कानपुर के पास इंदौर-पटना एक्सप्रेस पटरी से उतर गई थी. इस हादसे में 149 यात्री मरे थे.इन सभी हादसों में एक समानता है. ये चारों उन रेल लाइनों पर हुए हैं जिन पर क्षमता से कहीं ज्यादा बोझ है. किसी रेल लाइन की क्षमता का मतलब होता है कि वह लाइन 24 घंटे में कितनी ट्रेनों की आवाजाही संभाल सकती है. अगर इस क्षमता का 80 फीसदी इस्तेमाल हो रहा है तो इसका मतलब है कि स्थिति सामान्य है. अगर यह आंकड़ा 90 फीसदी से आगे चला जाता है तो इसका मतलब है कि अब और बोझ डालना ठीक नहीं. लेकिन भारत में हाल यह है कि रेल ट्रैक के 40 फीसदी हिस्से में यह आंकड़ा 100 या उससे ऊपर चला गया है. इसका सुरक्षा पर सीधा असर पड़ा है.बीते 15 सालों में यात्री ट्रेनों की संख्या में 56 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है जबकि मालगाड़ियों की संख्या 59 फीसदी बढ़ी है. कायदे से ट्रेनों के बढ़ने पर नए ट्रैक भी बनने चाहिए. लेकिन ट्रेनों की संख्या में 50 फीसदी से ज्यादा बढ़ोतरी के बावजूद नए ट्रैक का आंकड़ा सिर्फ 12 फीसदी ही है. एक ही ट्रैक पर ट्रेनों की संख्या बढ़ते जाने का मतलब है भीड़. इसका मतलब मेंटेनेंस के लिए कम समय मिलना भी है.ज्यादा ट्रैफिक वाले ज्यादातर रूटगंगा के मैदान वाले इलाके में हैं. 2010 में टक्कर या ट्रेन पटरी से उतरने की वजह से 11 बड़े हादसे हुए. इनमें से आठ गंगा के मैदान वाले इलाके में ही हुए थे. सरकार हर साल ट्रेनों की संख्या बढ़ाने का ऐलान कर देती है. लेकिन उसके हिसाब से ट्रैक बढ़ाने का वादा नहीं करती. रेल सुरक्षा पर बनी तमाम रिपोर्टों का निष्कर्ष यही है कि जरूरी बुनियादी ढांचे के बिना नई ट्रेनें शुरू करना मुसीबत को न्योता देना है. इसके बावजूद हालात जस के तस हैंसरकार अब भी कहती है कि प्रति एक लाख किलोमीटर पर होने वाले हादसों के लिहाज से भारत और यूरोप का हाल कोई खास जुदा नहीं है. लेकिन वह यह नहीं देख रही यूरोप में ट्रेन की औसत गति 250 किमी प्रति घंटा है जबकि अपने यहां यह आंकड़ा 60-70 किमी प्रति घंटा है. इसलिए ऐसी तुलना से अच्छी तस्वीर का भ्रम पैदा होता है

क्या प्रभाष जोशी होने के लिये रामनाथ गोयनका चाहिए? उधार का माल


मालवा के पठार की काली मिट्टी और लुटियन्स की दिल्ली के राजपथ की लाल बजरी के बीच प्रभाष जोशी की पत्रकारिता । ये प्रभाष जोशी का सफर नहीं है । ये पत्रकारिता की वह सुरंग है, जिसमें से निकलकर मौजूदा वक्त की पत्रकारिता को समझने के लिये कई आंखों, कई कान मिल सकते है तो कई सच, कई अनकही सियासत समझ में आ सकती है । और पत्रकारिता की इस सुरंग को वही ताड़ सकता है जो मौजूदा वक्त में पत्रकारिता कर रहा हो । जिसने प्रभाष जोशी को पत्रकारिता करते हुये देखा होऔर जिसके हाथ में रामबहादुर राय और सुरेश सर्मा के संपादन में लेखक रामाशंकर कुशवाहा की किताब "लोक का प्रभाष " हो । यूं " लोक का प्रभाष " जीवनी है । प्रभाष जोशी की जीवनी । लेकिन ये पुस्तक जीवनी कम पत्रकारीय समझ पैदा करते हुये अभी के हालात को समझने की चाहे अनचाहे एक ऐसी जमीन दे देती है, जिस पर अभी प्रतिबंध है । प्रतिबंध का मतलब इमरजेन्सी नहीं है । लेकिन प्रतिबंध का मतलब प्रभाष जोशी की पत्रकारिता को सत्ता के लिये खतरनाक मानना तो है ही । और उस हालात में ना तो रामनाथ गोयनका है ना इंडियन एक्सप्रेस। और ना ही प्रभाष जोशी हैं। तो फिर बात कहीं से भी शुरु कि जा सकती है ।
बस शर्त इतनी है कि अतीत के पन्नों को पढ़ते वक्त मौजूदा सियासी धड़कन के साथ ना जोडें । नहीं तो प्रतिबंध लग जायेगा । तो टुकड़ों में समझें। रामनाथ गोयनका ने जब पास बैठे धीरुभाई अंबानी से ये सुना कि उनके एक हाथ में सोने की तो दूसरे हाथ में चांदी की चप्पल होती है । और किस चप्पल से किस अधिकारी को मारा जाये ये अधिकारी को ही तय करना है तो गोयनका समझ गये कि हर कोई बिकाऊ है, इसे मानकर धीरुभाई चल रहे हैं । और उस मीटिंग के बाद एक्सप्रेस में अरुण शौऱी की रिपोर्ट और जनसत्ता में प्रभाष जोशी का संपादकपन । नजर आयेगा कैसी पत्रकारिता की जरुरत तब हुई । अखबार सत्ता के खिलाफ तो खड़े होते रहे हैं । लेकिन अखबार विपक्ष की भूमिका में आ जाये ऐसा होता नहीं । लेकिन ऐसा हुआ । यूं "लोक का प्रभाष " में कई संदर्भों के आसरे भी हालात नत्थी किये गये है। मसलन वीपी सिंह से रामबहादुर राय के इंटरव्यू से बनी किताब "मंजिल से ज्यादा सफर" के अंश का जिक्र। किताब
का सवाल - जवाब का जिक्र । सवाल-कहा जाता है हर सरकार से रिलायंस ने मनमाफिक काम करवा लिये। वाजपेयी सरकार तक से । जवाब-ऐसा होता रहा होगा । क्योंकि धीरुभाई ने चाणक्य सूत्र को आत्मसात कर लिया । राज करने की कोशिश कभी मत करो, राजा को खरीद लो ।
तो क्या राजनीतिक शून्यता में पत्रकारिता राजनीति करती है । या फिर पत्रकारिता राजनीतिक शून्यता को भर देती है । ये दोनो सवाल हर दौर में उठ सकते है । और ऐसा नहीं है कि प्रभाष जोशी ने इसे ना समझा हो । पत्रकारिता कभी एक पत्रकार के आसरे नहीं मथी जा सकती । हां, चक्रव्यूह को हर कोई तोड़ नहीं पाता। और तोड कर हर कोई निकल भी नहीं पाता । तभी तो प्रभाष जोशी को लिखा रामनाथ गोयनका के उस पत्र से शुरुआत की जाये जो युद्द के लिये ललकारता है। जनसत्ता शुरु करने से पहले रामनाथ अगर गीता के अध्याय दो का 38 वां श्लोक का जिक्र अपने दो पेजी पत्र में करते हैं, जो उन्होंने प्रभाष जोशी को लिखा, " जय पराजय, लाभ-हानी तथा सुख-दुख को समान मानकर युद्द के लिये तत्पर हो जाओ - इस सोच के साथ कि युद्द करने पर पाप के भागी नहीं बनोगे। " और कल्पना कीजिये प्रभाष जोशी ने भी दो पेज के जवाबी पत्र में रामनाथ गोयनका को गीता के श्लोक से पत्र खत्म किया , " समदु:खे
समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ । ततो युद्दाय युज्यस्व नैंव पापमवायस्यसि ।।" और इसके बाद जनसत्ता की उड़ान जिसके सवा लाख प्रतियां छपने और खरीदे जाने पर लिखना पड़ा- बांच कर पढे । ना ना बांट कर पढ़ें का जिक्र था। लेकिन बांटना तो बांचने के ही समान होता है। यानी लिखा गया दीवारों के कान होते है लेकिन अखबारो को पंख । तो प्रभाष जोशी की पत्रकारीय उड़ान हवा में नहीं थी। कल्पना कीजिये राकेश कोहरवाल को इसलिये निकाला गया क्योंकि वह सीएम देवीलाल के साथ बिना दफ्तर की इजाजत लिये यात्रा पर निकल गये । और देवीलाल की खबरें भेजते रहें। तो देवीलाल ने भी रामनाथ गोयनका को चेताया कि खबर क्यों नहीं छपती । और जब यह सवाल रामनाथ गोयनका ने प्रभाष जोशी से पूछा तो संपादक प्रभाष जोशी का जवाब था । देवीलाल खुद को मालिक
संपादक मान रहे हैं। बस रिपोर्टर राकेश कोहरवाल की नौकरी चली गई। लेकिन रामभक्त पत्रकार हेमंत शर्मा की नौकरी नहीं गई। सिर्फ उन्हें रामभक्त का नाम मिला। और हेमंत शर्मा " लोक का प्रभाष " में उस दौर को याद कर कहने से नहीं चूकते कि प्रभाष जी ने रिपोर्टिंग की पूरी स्वतंत्रता दी । रिपोर्टर की रिपोर्ट के साथ खडे होने वाले संपादकों की कतार खासी लंबी हो सकती है । या आप सोचे अब तो कोई बचा नहीं तो रिपोर्टर भी कितने बचे हैं ये भी सोचना चाहिये ।
लेकिन प्रभाष जोशी असहमति के साथ रिपोर्टर के साथ खड़े होते। तो उस वक्त रामभक्त होना और जब खुद संपादक की भूमिका में हो तब प्रभाष जोशी की जगह रामभक्त संपादक हो जाना। ये कोई संदर्भ नहीं है । लेकिन ध्यान देने वाली बात जरुर है कि चाहे प्रभाष जोशी हो या सुरेन्द्र प्रताप सिंह । कतार वाकई लंबी है इनके साथ काम करते हुये आज भी इनके गुणगान करने वाले संपादको की । लेकिन उनमें कोई भी अंश क्यो अपने गुरु या कहे संपादक का आ नहीं पाया । यो सोचने की बात तो है । मेरे ख्याल से विश्लेषण संपादक रहे प्रभाष जोशी का होना चाहिये । विश्लेषण हर उस संपादक का होना चाहिये जो जनोन्मुखी पत्रकारिता करता रहा। आखिर क्यों उनकी हथेली तले से निकले पत्रकार रेंगते देखायी देते है। क्यों उनमें संघर्ष का माद्दा नहीं होता। क्यों वे आज भी प्रभाष जोशी या एसपी सिंह या
राजेन्द्र माथुर को याद कर अपने कद में अपने संपादकों के नाम नत्थी करनाचाहते है। खुद की पहचान से वह खुद ही क्यों बचना चाहते है। रामबहादुरराय में वह क्षमता रही कि उन्होंने किसी को दबाया नहीं। हर लेखन को जगह दी। आज भी देते है। चाहे उनके खिलाफ भी कलम क्यों न चली। लेकिन राम बहादुर राय का कैनवास उनसे उन संपादकों से कहीं ज्यादा मांगता है जो रेग रहे है। ये इसलिये क्योंकि ये वाकई अपने आप में अविश्वसनिय सा लगता है कि जब प्रभाष जी ने एक्सप्रेस में बदली सत्ता के कामकाज से नाखुश हो कर जनसत्ता से छोड़ने का मन बनाया तो रामबहादुर राय ने ना सिर्फ मुंबई में विवेक गोयनका से बात की बल्कि 17 नवंबर 1975 को पहली बार अखबार के मालिक विवेक गोयनका को पत्र लिखकर कहा गया कि प्रभाष जोशी को रोके। बकायदा बनवारी से लेकर जवाहर लाल कौल । मंगलेश डबराल से लेकर रामबहादुर राय । कुमार आंनद से लकेर प्रताप सिंह । अंबरिश से लेकर राजेश जोशी । ज्योतिर्मय से लेकर राजेन्द्र धोड़पकर तक ने तमाम तर्क रखते हुये साफ लिखा । "हमें लगता है कि आपको प्रभाषजी को रोकने की हर संभव कोशिश करनी चाहिये ।" जिन दो दर्जन पत्रकारों ने तब प्रभाष जोशी के लिये आवाज उठायी । वह सभी आज के तारिख में जिन्दा है । सभी की धारायें बंटी हुई है। आप कह सकते है कि प्रभाष जोशी की खासियत यही थी कि वह हर धारा को अपने साथ लेकर चलते। और यही मिजाज आज संपादकों की कतार से गायब है। क्योंकि संपादकों ने खुद को संपादक भी एक खास धारा के साथ जोड़कर बनाया है।
दरअसल, प्रभाष जोशी के जिन्दगी के सफर में आष्ठा यानी जन्मस्थान । सुनवानी महाकाल यानी जिन्दगी के प्रयोग । इंदौर यानी लेखन की पहचान । चडीगढ़ यानी संपादकत्व का निखार । दिल्ली यानी अखबार के जरीये संवाद । और इस दौर में गरीबी । मुफ्लिसी । सत्ता की दरिद्रगी । जनता का संघर्ष । सबकुछ प्रभाष जोशी ने जिया । और इसीलिये सत्ता से हमेशा सम्मानजनक दूरी बनाये रखते हुये उसी जमीन पर पत्रकारिता करते रहे जिसे कोई भी सत्ता में आने के बाद भूल जाता है । सत्ता का मतलब सिर्फ सियासी पद नहीं होता चुनाव में जीत नहीं होती । संपादक की भी अपनी सत्ता होती है । और रिपोर्टर की भी । लेकिन जैसे ही सत्ता का स्वाद कोई भी चखने लगता है वैसे ही पत्रकारिता कैसे पीछे छूटती है इसका एहसास हो सकता है प्रभाष जोशी ने हर किसी को कराया हो । लेकिन खुद सत्ता के आसरे देश के राजनीतिक समाधान की दिशा में कई मौको पर प्रभाष जोशी इतने आगे बढे कि वह भी इस हकीकत को भूले कि राजनीति हर मौके पर मात देगी । अयोध्या आंदोलन उसमें सबसे अग्रणी कह सकते है । क्योंकि 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद ध्वंस हुआ तो प्रभाष जोशी ये
लिखने से नहीं चूके , ' राम की जय बोलने वाले धोखेबाज विध्वंसको ने कल मर्यादा पुरुषोत्तम राम के रधुकुल की रिती पर कालिख पोत दी...... "। सवाल इस लेखन का नहीं सवाल है कि उस वक्त संघ के खिलाफ डंडा लेकर कूद पडे प्रभाष जोशी के डंडे को भी रामभक्तों ने अपनी पत्रकारिता से लेकर अपनी राजनीति का हथियार बनाया । कहीं ढाल तो कही तलवार । और प्रभाष जी की जीवनी पढ़ते वक्त कई पन्नो में आप ये सोच कर अटक जायेंगे कि क्या वाकई जो लिखा गया वही प्रभाष जोशी है ।
लेकिन सोचिये मत । वक्त बदल रहा है । उस वक्त तो पत्रकार-साहित्यकारों की कतार थी । यार दोस्तो में भवानी प्रसाद मिश्र से लेकर कुमार गंधर्व तक का साथ था । लेखन की विधा को जीने वालो में रेणु से लेकर रधुवीर सहाय थे। वक्त को उर्जावान हर किसी ने बनाया हुआ था । कही विनोबा भावे अपनी सरलता से आंदोलन को भूदान की शक्ल दे देते । तो कही जेपी राजनीतिक डुगडुगी बजाकर सोने वालो को सचेत कर देते । अब तो वह बिहार भी सूना है । चार लाइन न्यूज चैनलो की पीटीसी तो छोड़ दें कोई अखबारी रपट भी दिखायी ना दी जिसने बिहार की खदबदाती जमीन को पकडा और बताय़ा कि आखिर क्यो कैसे पटना में भी लुटिसन्स का गलियारा बन गया । इस सन्नाटे को भेदने के लिये अब किसी नेता का इंतजार अगर पत्रकारिता कर रही है तो फिर ये विरासत को ढोते पत्रकारो का मर्सिया है । क्योकि बदलते हालात में प्रभाष जोशी की तरह सोचना भी ठीक नहीं कि गैलिलियो को फिर पढे और सोचे " वह सबसे दूर जायेगा जिसे मालूम नहीं कि कहा जा रहा है " । हा नौकरी की जगह पत्रकारिता कर लें चाहे घर के टूटे सोफे पर किसी गोयनका को बैठाने की हैसियत ना बन पाये । लेकिन पत्रकार होगा तो गोयनका भी पैदा हो जायेगा, ये मान कर चलें।

कहीं इन पांच लेखों ने तो नहीं लिखी लंकेश के हत्या की पटकथा

गौरी लंकेश साप्ताहिक पत्रिका 'लंकेश पत्रिके' की संपादक थीं. उनकी मैग्जीन के पिछले पांच संस्करणों पर गौर करें।

1. 5 सितंबर, 2017
'लंकेश पत्रिके' के सितंबर महीने के इस संस्करण में कवर पेज पर बीजेपी नेता और कर्नाटक के पूर्व सीएम बीएस येदुरप्पा की तस्वीर थी. इस संस्करण में येदुरप्पा को लेकर कवर स्टोरी की गई. स्टोरी में कहा गया कि येदुरप्पा पर भूमि अधिसूचना रद्द करने का खुलासा सिद्धरमैया ने नहीं बल्कि सदानंद गौड़ा ने किया.
बता दें कि येदियुरप्पा पर आरोप है कि उन्होंने बतौर मुख्यमंत्री अपने कार्यकाल के दौरान कथित रूप से शिवराम करांत लेआउट के निर्माण के लिए आवंटित जमीन को गैरअधिसूचित किया था.
2. 30 अगस्त, 2017
गौरी लंकेश की मैग्जीन के इस संस्करण में कवर पेज पर बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह की तस्वीर के साथ स्टोरी की गई. अमित शाह के कर्नाटक दौरे पर स्टोरी में लिखा गया कि भगवा ब्रिगेड राज्य में आग लगाने के लिए आ चुकी है. ये भी कहा गया कि अमित शाह मीडिया का भगवाकरण करने के लिए कर्नाटक आए हैं. पेज नंबर 8 पर स्टोरी की हेडलाइन दी गई 'क्या अमित शाह सांप्रदायिक हिंसा भड़काने आए हैं?'
इसी संस्करण के संपादकीय में गौरी लंकेश ने गोरखपुर में बच्चों की मौत का मुद्दा उठाया. संपादकीय में उन्होंने बीआरडी कॉलेज के डॉक्टर कफील खान के खिलाफ साजिश का जिक्र किया.
3. 23 अगस्त, 2017
इस एडिशन की कवर स्टोरी में कांग्रेस नेता डीके शिवकुमार, बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह और छात्रा काव्या की आत्महत्या का जिक्र था. कवर स्टोरी में 'डीके जीते, शाह हारे, काव्या की आत्महत्या या मर्डर' पर स्टोरी की गई. स्टोरी में काव्या की मौत पर सवाल उठाए गए और कहा गया कि बैडमिंटन खिलाड़ी ने आत्महत्या की या ये हत्या है?
4. 16 अगस्त, 2017
इस संस्करण की कवर स्टोरी के साथ लिंगायत समुदाय की महिला गुरु माते महादेवी की तस्वीर लगाई गई है. स्टोरी में लिखा गया कि लिंगायतों का उदय येदुरप्पा के लिए डर बन गया है. माते महादेवी ने कहा कि येदुरप्पा लिंगायत नहीं हैं और भगवा असामाजिक तत्वों ने चित्रदुर्गा में सांप्रदायिक तनाव पैदा करने की कोशिश की.
5. 2 अगस्त, 2017
इस संस्करण की कवर स्टोरी पर कर्नाटक का झंडा बताते हुए एक तस्वीर लगाई गई. साथ ही लिखा गया कि अपनी जमीन, अपना झंडा. कवर स्टोरी में कर्नाटक के लिए अलग झंडे की मांग का समर्थन किया गया.
बता दें कि गौरी लंकेश वामपंथी विचारों की कट्टर समर्थक और दक्षिणपंथी विचारधारा का धुर विरोधी माना जाती रही हैं. ऐसे में उनकी हत्या पर सियासी आरोप-प्रत्यारोप भी जमकर हो रहे हैं. उनके राज्य कर्नाटक में अगले साल चुनाव होना है।

अमजद खान : एक ऐसा खलनायक जिसे नायकों से बेहतर होने के लिए आलोचनाएं झेलनी पड़ीं


वो गझिन कांटेदार दाढ़ी और उससे टपकती क्रूरता. न दिखने वाली गर्दन में फंसा ताबीज, कंधे पर लटकी कारतूस की पेटी, कमर के बजाय हाथ में झूलती बेल्ट, वो ‘अरे ओ सांभा! कितने आदमी थे’ वाला सवाल, वो खूंखार हंसी और बात-बात के बाद आ..थू!
सही समझे हैं (ऐसा शायद ही कोई हो जो इसे न समझे). बात गब्बर सिंह की ही हो रही है. वही गब्बर जो धधकते ‘शोले’ से तपकर निकला था. वही गब्बर जिसके लिए अमजद खान पहली पसंद नहीं थे. (पहली पसंद डैनी थे, जो उन दिनों फिल्म धर्मात्मा की शूटिंग में व्यस्त थे) वही अमजद जिनकी आवाज को जावेद अख्तर ने यह कहकर नकार दिया था कि इस रोल के लिए यह कमजोर है. आज 24 बरस बीत गए अमजद जकारिया खान के निधन को, लेकिन उनकी वो अलहदा आवाज और जुदा अंदाज 100 साल से ऊपर के भारतीय सिनेमा में अमर है.
अमजद रंगमंच के आदमी थे. उनके बारे में विकीपीडिया लिखता है कि ‘नाजनीन’ उनकी पहली फिल्म थी. लेकिन नहीं, उन्होंने चार साल की उम्र में बाल कलाकार के रूप में पहला रोल अपने चाचा की ‘चार पैसा’ में किया था. कह सकते हैं कि खलनायकी अमजद को विरासत में मिली थी. अमजद ने जन्म ही 50-60 के दशक के टॉप विलेन जयंत खान के घर में लिया था. वो 1940 के 11वें महीने की 12 तारीख थी.
‘मेरे हिसाब से अमजद खान गब्बर के रोल में अद्भुत थे. लेकिन पूरी इंडस्ट्री फिल्म की शुरुआती नाकामी की वजह उन्हें ही मान रही थी. उनकी पर्सनेलिटी, उनकी आवाज सभी आलोचनाओं के घेरे में थी.’
कुछ साल पहले जब हिंदुस्तानी सिनेमा के 100 साल का जश्न मनाया जा रहा था तो इस एक सदी के टॉप 10 डायलॉग्स में गब्बर रूपी अमजद खान का ‘कितने आदमी थे’ भी शुमार था. इस डायलॉग के बारे में आज भी उसी अंदाज में पूछा जाता है- कितने रीटेक थे? जवाब है- 40 सरदार.
अमजद दर्शन शास्त्र में पोस्ट ग्रेजुएट थे. शायद तभी वे यह डायलॉग इतने परफेक्शन से बोल पाये कि जो ‘डर गया, समझो मर गया.’ शोले फिल्म का उनका एक और डायलॉग तो खुद उस दौर का दर्शन था. वही डायलॉग जब गब्बर जय और वीरू से मात खाकर लौटे अपने आदमियों पर मारता है- ‘यहां से पचास-पचास कोस दूर जब बच्चा रात में रोता है तो मां कहती है, बेटा सो जा. सो जा नहीं तो गब्बर सिंह आ जाएगा. और ये तीन हरामजादे गब्बर सिंह का नाम पूरा मिट्टी में मिलाय दिए.’ यह डायलॉग तब के चंबल का आईना है. जाहिर है कि इस संवाद को लिखने वाले सलीम-जावेद का योगदान इसमें बहुत बड़ा है. लेकिन अमजद खान अगर इसे न बोलते तो?
शोले अगर सिनेमैटिक मास्टरपीस कही गई तो अमजद खान की ही वजह से. नसीरुद्दीन शाह ने अपनी किताब आत्मकथा ‘एंड देन वन डेः अ मेमॉयर’ में लिखा है- ‘मेरे हिसाब से अमजद खान गब्बर के रोल में अद्भुत थे. लेकिन पूरी इंडस्ट्री फिल्म की शुरुआती नाकामी की वजह उन्हें ही मान रही थी. उनकी पर्सनैलिटी, उनकी आवाज सभी आलोचनाओं के घेरे में थी.’ डैनी ने भी बाद में एक इंटरव्यू के दौरान कहा था कि ‘यदि मैंने शोले की होती तो भारतीय सिनेमा अमजद खान जैसे एक अद्भुत कलाकार को खो देता.’
डाकू गब्बर सिंह की कल्पना उस खाकी वर्दी के बिना नहीं की जा सकती. वो खाकी वर्दी किसी कॉस्ट्यूम डिजाइनर ने नहीं, बल्कि खुद अमजद खान ने सुझाई थी जिसे वे मुंबई के चोर बाजार से खरीदकर लाए थे.
शोले से पहले अमजद दो फिल्मों में असिस्ट कर चुके थे. ‘हिंदुस्तान की कसम’ में काम भी कर चुके थे. लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली थी. इसके बाद ही रमेश सिप्पी ने अमजद खान को शोले में लॉन्च किया था. यह लॉन्चिंग ऐसी रही कि शोले और गब्बर एक दूसरे के पर्याय बन गए. डाकू गब्बर सिंह की कल्पना उस खाकी वर्दी के बिना नहीं की जा सकती. वो खाकी वर्दी किसी कॉस्ट्यूम डिजाइनर ने नहीं, बल्कि खुद अमजद खान ने सुझाई थी जिसे वे मुंबई के चोर बाजार से खरीदकर लाए थे.
गब्बर हिंदी सिनेमा का पहला खलनायक था जिसने नायक-सी लोकप्रियता हासिल की. तभी तो ब्रिटैनिया ने गब्बर को अपने ग्लूकोज बिस्किट के विज्ञापन के लिए चुना. यह विज्ञापन ‘गब्बर की असली पसंद’ की पंचलाइन के साथ लोकप्रिय हुआ था. भारतीय समाज में यह पहली बार था जब किसी कंपनी ने अपने प्रोडक्ट के प्रचार के लिए किसी खलनायक को चुना था. हालांकि कई मानते हैं कि शोले का असली खलनायक तो ठाकुर था. जिसने अपने आदमी खड़े किए और अंत में गब्बर को मरवा दिया.
अमजद ने ‘चोर सिपाही’ और ‘अमीर गरीब आदमी’ नाम की दो फिल्मों का निर्देशन भी किया. लेकिन दूसरी फिल्म नहीं चली तो दोबारा निर्देशन में हाथ नहीं डाला. जब तक जिये गब्बर बनकर ही जिये और इस किरदार को इस कदर अमर कर गए कि गब्बर की चमक आज भी कायम है. तभी तो चार दशक बाद ‘गब्बर’ (अक्षय कुमार अभिनीत फिल्म) वैसी ही दाढ़ी के साथ लौटता है और उस दौर के खलनायक का नाम इस दौर के नायक को दे दिया जाता है. गोया उस दौर का वह नायक ही हो.
ब्रिटानिया ने गब्बर को अपने ग्लूकोज बिस्किट के विज्ञापन के लिए चुना. भारतीय समाज में यह पहली बार था जब किसी कंपनी ने अपने प्रोडक्ट के प्रचार के लिए किसी खलनायक को चुना था.
फिल्मी पर्दे का यह दुर्दांत खलनायक असल जिंदगी में कैसा था, इसे शायद यह किस्सा सबसे अच्छी तरह बयां करता है. यह 1980 के दशक की बात है. शोले हिट हो चुकी थी और अमजद खान शिखर पर थे. उसी दौर में उन्होंने एक ऐसी फिल्म साइन की जिसमें उस वक्त के तमाम बड़े स्टार थे. फिल्म एक बड़े प्रोड्यूसर की थी. लेकिन डायरेक्टर की यह पहली फिल्म थी तो जिसका अंदेशा था वही हो रहा था. सारे स्टार सेट घंटों लेट आते. अपने डॉयलॉग खुद लिखने लगते और कई बार तो स्क्रिप्ट को अंगूठा दिखाते हुए अपने लिए नए सीन भी. मतलब कुल जमा ये कि डायरेक्टर को कोई कुछ समझ ही नहीं रहा था. एक दिन उसका सब्र जवाब दे गया. वह एक कोने में बैठकर सुबकने लगा.
संयोग से अमजद खान की नजर उस पर पड़ गई. उन्होंने माजरा पूछा. डायरेक्टर का कहना था कि बहुत हुआ, उसे नहीं करनी यह फिल्म. अमजद ने उसे ढांढस बंधाया और फिर एक फॉर्मूला सुझाया. उन्होंने कहा कि अगले दिन वे सबसे लेट आएंगे और जैसे ही वे सेट पर पहुंचें, वह उन्हें लेट होने के लिए सबके सामने, बिना हिचके ऊंची आवाज में डांट लगाए. प्लान यह था कि इसके बाद अमजद माफी मांग लेंगे.
यही हुआ. अगले दिन वे बाकी स्टारों के आने के बाद सेट पर पहुंचे. डायरेक्टर भी पूरी तैयारी करके बैठा था. कुछ समय पहले यह किस्सा सुनाते हुए अमजद खान के बेटे शादाब का कहना था कि इसके बाद तो न कोई स्टार लेट हुआ और न ही किसी की स्क्रिप्ट में कोई बदलाव करने की हिम्मत हुई. फिल्म सुपरहिट हुई. वह डायरेक्टर भी बड़ा नाम बना और अमजद खान की दरियादिली उसे हमेशा याद रही

2014 की कॉरपोरेट फंडिग ने बदल दी है देश की सियासत Punya Prasun Bajpai


चुनाव की चकाचौंध भरी रंगत 2014 के लोकसभा चुनाव की है। और क्या चुनाव के इस हंगामे के पीछे कारपोरेट का ही पैसा रहा। क्योंकि पहली बार एडीआर ने कारपोरेट फंडिग के जो तथ्य जुगाड़े हैं, उसके मुताबिक 2014 के आम चुनाव में राजनीतिक दलो को जितना पैसा कारपोरेट फंडिंग से हुआ उतना पैसा उससे पहले के 10 बरस में नहीं हुआ। एडीआर के मुताबिक 2004 से 2013 तक कारपोरेट ने 460 करोड 83 लाख रुपये राजनीतिक दलों को फंड किया। वहीं 2013 से 2015 तक के बीच में कारपोरेट ने 797 करोड़ 79 लाख रुपये राजनीतिक दलों को फंड किया।
ये आंकडे सिर्फ राष्ट्रीय राजनीतिक दलों के हैं। यानी बीजेपी, कांग्रेस, एनसीपी और वामपंथी दलो को दिये गये फंड । यानी 2014 के चुनाव में कारपोरेट ने दिल खोल कर फंडिंग की। तो चुनाव प्रचार के आधुनिकतम तरीके जब 2014 के चुनाव में बीजेपी ने आजमाये। तो उसके पीछे का क सच एडीआर की इस रिपोर्ट से भी निकलता है कि 80 फिसदी से ज्यादाकारपोरेट फंडिंग बीजेपी को मिल रही थी। क्योंकि याद किजिये मनमोहन सिंह सरकार जब घोटाले दर घोटाले के दायरे में फंस रही थी तब 20 कारपोरेट घरानों में 2011-12 के बीच मनमोहन सरकार की गवर्नेंस, पर सवाल उठाते हुये पत्र लिखे। और उसी के बाद देश में बनते चुनावी माहौल में कारपोरेट फंडिंग में कितनी तेजी आई ये एडीआर की रिपोर्ट से पता चलता है। अप्रैल 2012 से अप्रैल 2016 के बीच 956 करोड 77 लाख रुपये की कारपोरेट फंडिग हुई। इसमें से 705 करोड़ 81 लाख रुपये बीजेपी के पास गये । तो 198 करोड़ 16 लाख रुपये कांग्रेस के पास गये। महत्वपूर्ण ये भी है कि बीजेपी को दिये जाने वाली फंडिग में ही इजाफा नहीं हुआ। बल्कि कारपोरेट फंडिंग के इतिहास में ये पहला मौका आया जब पॉलिटिकल फंड देने वालो की तादाद तीन हजार से ज्यादा हुआ जिसमें 99 दी दाताओ ने फंड बीजेपी को दिया।
यानी 2014 की चुनावी हवा कारपोरेट के लिये बीजेपी के अनुकूल हो चुकी थी। लेकिन फंडिंग के इस खेल में काला धन कौन दे रहा है। या कालाधन ना लें, इस दिशा से राजनीतिक दलो ने आखे भी मूंद ली। और एडीआर की रिपोर्ट के मुताबिक 1933 दाताओं ने बिना पैन नंबर दिये ही 384 करोड रुपये पॉलिटिकल दानपेटी में डाल दिया। वहीं 1546 दाताओं ने पैन तो दिया लेकिन कोई पचा नहीं दिया और 355 करोड दान कर दिये। और खास बात ये है कि 160 करोड रुपये बिना पैन, बिना पते के पॉलिटिकल फंड में आये । इसमें 99 फिसदी दान बीजेपी के खाते में गये । तो 2014 में कांग्रेस हार रही थी। बीजेपी जीत रही थी । तब कारपोरेट पॉलिटिकल फंडिंग अगर 80 फिसदी बीजेपी के खाते में जा रही थी तो फिर 2019 के लिये देश में बनते राजनीतिक माहौल में अगर विपक्ष की राजनीतिक शून्यता अभी से बीजेपी को जीता रही है तो फिर आखरी सवाल यही होगा कि कारपोरेट फंड के भरोसे जो राजनीतिक दल राजनीति करते है उनके दफ्तरों में ताला लग जायेगा । क्योंकि बीजेपी ही सरकार होगी तो बीजेपी की ही दान पेटी हर किसी को दिखायीदेगी। यानी वैकल्पिक राजनीति को साधे बगैर कारपोरेट फंड पर टिकी राजनीति बीजेपी के सामने किसी की चल नहीं पायेगी। ये आखिरी सच है। तो क्या बीजेपी ने सत्ता में आने के बाद राजनीति की उस बिसात को ही नीतियों के आसरे देश में बिछा दिया है, जहां कारपोरेट अब 2014 की तर्ज पर सत्ता बदलने की दिशा में ना आ जाये। या फिर कारपोरेट को इसका एहसास हो कि अगर उसने विपक्ष के झोली भरनी चाही तो उसे सरकारी एजेंसियों के जरीये ही नहीं बल्कि जिस क्षेत्र में कारपोरेट का धंधा है, उसके दायरे में ही उसे लपेटा जा सकता है।
यहां ये सवाल खड़ा हो सकता है कि क्या वाकई लोकतंत्र का मापक आम चुनाव कारपोरेट पूंजी पर टिक गया है। यानी वोट तो आम जनता देती है। फिर कारपोरेट पूंजी से सत्ता कैसे उलटी पलटी जा सकती है। तो इसका जबाव सीधा है सत्ता के खिलाफ जन भावना राजनीतिक तौर पर अपने वोट से सत्ता परिवर्तन तो कर सकती है । लेकिन जन भावना को प्रभावित करने वाले जो भी औजार होते है अगर उसपर सत्ता कब्जा कर लें तो फिर विपक्ष की राजनीति टिकेगी कैसे। मौजूदा वक्त में ये सवाल इसलिये क्योंकि 1975-77 की तर्ज पर कोई आंदोलन तो देश में हो नहीं रहा है। उस वक्त इमरजेन्सी के खिलाफ आंदोलन मीडिया से बड़ा था। इसी तरह बोफोर्स को लेकर करप्शन के मुद्दा आंदोलन की तर्ज पर खड़ा हुआ। अयोध्या कांड भी कारसेवकों के जरीये देश में फैलता चला गया। और 2014 से ठीक पहले अन्ना आंदोलन ने मनमोहन सरकार की कब्र सामाजिक तौर पर बना दी थी। और कारपोरेट पूंजी ने अपना हित साधने के लिये बीजेपी को फंडिग की । लेकिन 2014 के बाद राजनीति के तौर तरीकों जिस तरह पूरी तरह चुनाव पर आ टिके हैं। यानी विपक्ष गठबंधन इसलिये हो रहा है कि चुनाव का हिसाब-किताब बदला जा सके। नीतीश सरीखे 2014 के विपक्ष इसलिये टूट रहे हैं, क्योंकि उन्हे लग रहा है कि 2019 में तो बीजेपी ही जीतेगी। यानी राजनीतिक जोड-तोड जब चुनाव जीतने पर आ टिकी हो और पूंजी की ताकत के बगैर चुनाव जीतने मुश्किल माना जाता रहा है और इसे ना सिर्फ वोटर बल्कि चुनाव आयोग भी महसूस करने लगा हो तो फिर अब कारपोरेट फंडिग कैसी होगी। क्योंकि 2014 ने चुनाव के तौर तरीके बदल दिये ये सच है । क्योंकि आजाद भारत में पहली बार 2014 का चुनाव ना सिर्फ सबसे महंगा हुआ बल्कि 1952 से 1991 तक के चुनाव में जितना खर्च हुआ। उतना ही खर्च 1996 से 2009 तक के चुनाव में हुआ। और अकेले 2014 के चुनाव में इतना ही खर्च हो गया। ये आंकड़ा 3870 करोड़ का है । तो ये कल्पना से परे है कि 2014 के बाद अब 2019 में कितना खर्च होगा। लेकिन आखिरी सच ये भी समझना होगा कि जिन
कारपोरेट ने फंड किया उसमें खनन , रियल इस्टेट , उर्जा और न्यूजपेपर इंडस्ट्री अव्वल रही। लेकिन मौजूदा वक्त में यही सारे क्षेत्रों को सरकार ने अपने हथेली पर नचाने शुरु किये हैं। यानी ये तबका अब विपक्ष को फंड ना
करें व्यवस्था इसकी भी है और सरकार के इशारे पर कारपोरेट चले तो ही बचेगा निशानदेही इसकी भी है।

Thursday, August 31, 2017

जब चीन हुआ हादसा तो हुआ रेल मंत्रालय हुआ भंग, मंत्री गया जेल

चीन में 2011 में हुए हादसे में कम से कम 35 लोगों की मौत हो गई थी.
चीन के जिझियांग में 24 जुलाई, 2011 को एक रेल हादसा हुआ था. इसमें दो हाई स्पीड ट्रेनें एक ही पटरी पर आ गई थीं. हादसे में 35 लोगों की मौत हो गई थी और 200 से ज्यादा लोग घायल हो गए थे. इस हादसे को चीन के सबसे बड़े हादसों में से एक करार दिया जाता है. हादसे के तुरंत बाद ही रेल मंत्री शेंग गुआंझू मौके पर पहुंच गए. उन्होंने इस हादसे के लिए माफी मांगी और जांच के आदेश जारी कर दिए. चीन के उपप्रधानमंत्री झांग डेजियांग भी तत्काल मौके पर पहुंचे और राहत-बचाव कार्य की देखभाल करने लगे. इसके तत्काल बाद रेलवे की ओर से बताया गया कि रेल विभाग के तीन बड़े अधिकारियों को तुरंत सस्पेंड कर दिया गया. इनमें शंघाई रेलवे ब्यूरो के प्रमुख, उप प्रमुख और पार्टी महासचिव शामिल थे. हादसे के बाद रेल मंत्रालय की ओर से 2 महीने के लिए सेफ्टी कैंपेन भी चलाया गया. हादसे की जांच के दौरान पता चला था कि हादसा सिग्नल फेल होने की वजह से हुआ था. इसके बाद 2013 में रेल मंत्रालय को भंग कर दिया गया. चीन ने हादसे के बाद ट्रेन की रफ्तार को 350 किलोमीटर प्रति घंटा से घटाकर 250 से 300 किलोमीटर प्रति घंटा पर ला दिया. इतना ही नहीं रेलवे के किराए में भी पांच फीसदी की कमी कर दी गई.
चीन के पूर्व रेल मंत्री लियू झीजून जो अब भी जेल में हैं.
चीन में फरवरी 2011 तक रेल मंत्री थे लियू झीजून. हाई-स्पीड रेल नेटवर्क के विस्तार के लिए 800 मिलियन युआन घूस लेने का आरोप लगा, जिसके बाद चीन की सरकार ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया. चीन के डिप्टी चीफ इंजीनियर झांस शुजुआंग को भी फरवरी 2011 में ही गिरफ्तार कर लिया गया. 8 मई, 2013 को चीन की एक अदालत ने घूस लेने और अपने पद का दुरुपयोग करने के आरोप में फांसी की सजा सुना दी. हालांकि दिसंबर 2015 में कोर्ट ने लियू की फांसी की सजा को उम्रकैद में बदल दिया था.अब यहां भी वक्त आ गया है कि रेल हादसों की जिम्मेदारी तय की जाए. हम चीन जैसी सख्ती दिखाने की बात नहीं कर रहे, लेकिन कम से कम ऐसे इंतजाम तो हो ही जाएं कि कुछ खास वजहों से हो रहे रेल हादसों पर रोक लगाई जा सके.

Wednesday, August 30, 2017

यश भारती पुरस्कार के चाटुकार और लंपट पत्रकार


यश भारती पुरस्कार के चाटुकार और लंपट पत्रकार
शिखा पाण्डे- दूरदर्शन की एक्सटर्नल कोऑर्डिनेटर। 2016 में उनके नाम की अनुशंसा लखनऊ के तत्कालीन एडीएम जय शंकर दुबे ने की थी। पाण्डेय की सीवी में लिखा है कि उन्होंने चार साल तक मुख्यमंत्री आवास पर आयोजित कार्यक्रम का आयोजन किया जिसकी प्रशंसा सीएम ने भी की।
नोट—पांडे जी आप ने कमाल की कर दिया, वैसे कई पांडे देखा चुका हूं लेकिन सब आप से तरे तरे हैं, मुख्यमंत्री आवास पर कार्यक्रम के लिए तो नहीं लेकिन लगता है बच्चों को खिलाने लिए पुरस्कार मिला है
अशोक निगम- 2013 में यश भारत पाने वाले निगम ने सीवी में लिखा है, “संप्रति समाजवादी पार्टी की पत्रिका समाजवादी बुलेटिन का कार्यकारी संपादक।” निगम ने खुद को समाजवादी विचारधारा का लेखक बताया था।
नोट—इनसे मिलिए समाजवादी विचारधारा के ये दल्ले दामाद हैं ये
हेमंत शर्मा- हाल ही में इंडिया टीवी से इस्तीफा देने वाले पत्रकार। उनकी सीवी में लिखा है, “पहले लेखन को गुजर बसर का सहारा माना, अब जीवन जीने का।” शर्मा की सीवी में दावा किया गया है कि वो 1989, 2001 और 2013 का महाकुम्भ कवर करने वाले एकलौते पत्रकार हैं।
नोट—इतना बडा फर्जी आदमी कि 2013 में ये अकेला पैदा हुआ था कुंभ में ये, सुना है इसके साथ जयपुर में भी कुछ छेडछाड हुई थी दारू को लेकर
अब मिलिए नवाबजादे से हूकुमत चली गई लेकिन अभी भी नशे में 
नवाब जफर मीर अब्दुल्लाह- नवाब को खेल वर्ग में यश भारती मिला। वो अवध रियासत के वजीर रहे नवाब अहमद अली खान के वंशज हैं। उनकी सीवी में लिखा है कि वो “कारोबारी” हैं और उनका आवास “लखनऊ और पूरा भारत” है।
समाजवादी नचनिए को भी मिला यश भारती, फिर तो सलमान के बैक डांसर को भी मिलना चाहिए था
काशीनाथ यादव- समाजवादी पार्टी के सांस्कृतिक सेल के राष्ट्रीय अध्यक्ष। उन्होंने 27 अप्रैल 2016 को पार्टी के लेटरहेड पर अपनी सीवी भेजी। उनकी सीवी में लिखा है कि उन्होंने कई सांस्कृतिक कार्यक्रम किए, गीत गाए और समाजवादी पार्टी की योजनाओं का प्रचार-प्रसार किया। काशीनाथ यादव ने ये भी लिखा कि उन्होंने 1997 में सैफई महोत्सव में भोजपुरी लोकगीत गाया था।
बढिया लौंडा पैदा किया नेता जी ने
मणिन्द्र कुमार मिश्रा- सपा नेता मुरलीधर मिश्रा के बेटे। आईआईएमसी से पत्रकारिता की पढ़ाई करने वाले मिश्रा ने अपने सीवी में लिखा है कि उन्होंने साल 2010 में मेघालय के खासी जनजाति के बीच रहकर दो महीने तक फील्डवर्क किया था। मिश्रा ने अखिलेश यादव पर “समाजवादी मॉडल के युवा ध्वजवाहक” नामक किताब भी लिखी है।
जिसकी मनोदशा ही ठीक नहीं उसे मनोविज्ञान में यशभारती
ओमा उपाध्याय- साल 2016 में यश भारती पाने वाले उपाध्याय ने अपनी सीवी में लिखा है कि उन्होंने 2010 में ज्योतिष और मनोविज्ञान आधारित विशेष वस्त्र बनाने की युगांतकारी तकनीकी विकसित की थी।
लो ये भी हैं इन्हें छम्मा छम्मा के लिए मिला यश भारती 
अर्चना सतीश- अर्चना सतीश के नाम को 27 अक्टूबर 2016 को यश भारती पुरस्कार समारोह में ही मंच पर अखिलेश यादव ने मंजूरी दे दी। अर्चना सतीश कार्यक्रम का संचालन कर रही थीं। उनकी सीवी में लिखा है, “प्रतिष्ठित सैफई महोत्सव का पिछले तीन सालों से संचालन”,  और ” 4-5 जनवरी 2016 को आगरा में यूपी सरकार के अतिप्रतिष्ठित एनआरआई दिवस कार्यक्रम का संचालन”
अब बंट ही रहा है प्रसाद तो थोडा हम ले लें तो क्या हरज
सुरभी रंजन- उस समय यूपी के मुख्य सचिव आलोक रंजन की पत्नी। उन्हें एक प्रतिष्ठित गायिका बताया गया है।
कांग्रेजी बिटिया होना का कुछ तो फायदा होना ही चाहिए न
शिवानी मतानहेलिया– दिवंगत कांग्रेसी नेता जगदीश मतानहेलिया की बेटी। शिवानी प्रतापगढ़ के एक कॉलेज में संगीत पढ़ाती हैं।

...जो लौटकर सत्ता में न आए,

राजनीति में पैराशूट नेता तो आपने बहुत देखे होंगे लेकिन पैराशूट मुख्यमंत्री भी कई पाए गए हैं, यहां पैराशूट का पर्याय बदल रहा है और इसे अब उच्च सदन का नाम दिया जा रहा है, देखने में यह आया है कि जो नेता उच्च सदन से मुख्यमंत्री बना है वह दुबारा मुख्यमंत्री नहीं बना है, इसकी बानगी देखिए ...ऐसे में योगी का योग कुछ ठीक नहीं लग रहा है
उत्तर प्रदेश में उच्च सदन से मुख्यमंत्री बनने वाले दोबारा सत्ता में नहीं लौटे। उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री के तौर पर सबसे लंबा कार्यकाल सम्पूर्णानंद का और दूसरे नंबर अखिलेश यादव का रहा। उच्च सदन से मुख्यमंत्री बनने के बाद दुबारा सत्ता में न आने का रिकार्ड मायावती 2007, अखिलेश यादव 2012 के नाम है। अब आदित्य योगी नाथ भी विधान परिषद के सदस्य बनेंगे। 
उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री के तौर पर सबसे लंबा कार्यकाल सम्पूर्णानंद जी का रहा। जो वाराणसी दक्षिण से विधायक हुआ करते थे। 5 वर्ष, 344 दिन तक मुख्यमंत्री रहे। दूसरे नंबर पर अखिलेश यादव 5 वर्ष, 108 दिन तीसरे नंबर पर मायावती 4 वर्ष, 360 दिन, चौथे नंबर पर पहले मुख्यमंत्री गोविंद वल्लभ पंत 4 वर्ष, 335 दिन जो बरेली नगरपालिका से चुनाव जीते थे। सबसे छोटा कार्यकाल चन्द्रभानु गुप्ता का रहा जो 19 दिन तक मुख्यमंत्री रहे।
चौधरी चरण सिंह 328 दिन, त्रिभुवन नारायण सिंह 167 दिन, कमलापति त्रिपाठी 2 वर्ष, 69 दिन, राम नरेश यादव 1 वर्ष, 249 दिन, बनारसी दास 354 दिन, विश्वनाथ प्रताप सिंह 2 वर्ष, 39 दिन, श्रीपति मिश्र 2 वर्ष, 14 दिन, मुलायम सिंह यादव 3 वर्ष, 257 दिन, कल्याण सिंह 2 वर्ष, 52 दिन, राजनाथ सिंह 1 वर्ष, 131 दिन, रामप्रकाश गुप्त 351 दिन उत्तर प्रदेश की बागडोर संभाली है।

Tuesday, August 29, 2017

रेलवे है या मौत होने के बाद आने वाला महापं​डित

अब कह रहा है कि हर आदमी से चाहिए 11 हजार तब होगा उदधार
वैतरणी पार लगाने के लिए जिस तरह पंडित मांगते है उसी तरह अब रेलवे का चा​हिए 
रेल मंत्रालय को अलग-अलग कामों के लिए 8,56,020 करोड़ रुपये की जरूरत है. 
सुरक्षित और मुनाफे की रेल के लिए का यह एक्शन प्लान अगले 5 साल के लिए है.
यात्री किराए से घाटा --(लगभग 34,000 करोड़ रुपये)
7वें वेतन आयोग का भार--- (30,000 करोड़ रुपये) 
प्रोजेक्ट्स के लिए-- 4.83 लाख करोड़ रुपये
पंचवर्षीय जीर्णोद्धार--- 14,03,020 करोड़ रुपये की जरूरत है.
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5 साल तक इन कामों के लिए चाहिए लाखों करोड़ 
नेटवर्क डीकंजेशन : 1,99,320 करोड़
नेटवर्क विस्तार (इलेक्ट्रिफिकेशन शामिल है): 1,93,000 करोड़
सुरक्षा के लिए (ट्रैक रिन्यूवल और ब्रिज निर्माण): 1,27,000 करोड़
लोकोमोटिव, कोच और वैगन (प्रोडक्शन और मेंटेनेंस): 1,02,000 करोड़
रेलवे स्टेशन विकसित करने और लॉजिस्टिक पार्क : 1,00,000 करोड़
हाई स्पीड रेल और एलीवेटेड कॉरिडोर : 65,000 करोड़
नॉर्थ ईस्ट और जम्मू-कश्मीर तक रेलवे कनेक्टिविटी: 39,000 करोड़
पैसेंजर सुविधा, इंफॉर्मेशन टेक्नोलॉजी और अन्य : 30,700 करोड़
इन स्थितियों में आपकी जेब से कितना जाएगा
--सबसे टैक्स वसूला जाता है तो सभी 10,792 रुपये देने होंगे.
--टैक्स पेयर से वसूला जाता है तो प्रति टैक्सपेयर 2 लाख 80 हजार रुपये देय है.

Friday, August 18, 2017

एक कहानी सोनार की...

आनंद मणि समुद्री तट से
ये बात ​​​पिछले साल की ही तो है.हम 36 पत्रकार एक ऐसी यात्रा पर थे जहां हम दुबारा किसी भी सूरत में नहीं जाए सकते, एक माह के लिए एक साथ. सुबह सात बजे से ही प्रक्रिया शुरू हो गई .हम बस से यथास्थान पहुंच गए.आज के दिन हम ऐसी जगह थे.जहां हर किसी को प्रवेश नहीं मिलता,जगह का उल्लेख इसलिए नहीं क्योंकि यही करना जरूरी है. जल की जान बसती है
​​पोत का प्राण होता है 
सोने से महंगा सोनार 
पहली बार यहीं सुना हमनें 

यह वह सोनार है जिसने गाजी को चकमा देकर उसका तख्ता पलट दिया था और पाकिस्तान को अपने दूसरे युद्ध में मुंह की खानी पडी. हमने यहां देखा किस तरह से कागज पानी में डूब जाए तो भी वह गिला नहीं होता. पानी को उल्टा लटका दो फिर भी वह गिरता नहीं.पहली बार लोहार से खतरनाक सोनार देखा .सोनार इतना खतरनाक की वह अलग—अलग विमानों की ​फ्रिक्वेंसी छोड सकता है.

ऐसी कई नायाब चीजें हमने देखीं बेहद नजदीक से आप यूं भले ही लगता हो कि वैज्ञानिक कुछ नहीं कर रहे हैं लेकिन जितने सी​मित साधन में वह अपने लक्ष्य को साध रहे हैं शायद ही कोई देश होगा जो इतना बेहतर परिणाम इतने कम संसाधन में दे सके और अंत आप लोगों को लजीज व्यंजन का स्वाद याद ही होगा 
बाकी अगले अंक में 
राय देते रहिए कुछ याद दिलाते रहिए अगले तीस दिन तक हम आपको यूं ही दोबारा यात्रा कराने की को​शिश करेंगे




सरकार राज 


दादा भात और रॉयल राजेश 

कन्या ग्रुप 

खास लोगो के साथ आम 36 


Monday, May 1, 2017

चीन खेल रहा है कश्मीर में खून की होली...

आज अखबार शहीदों की खबर से रंग गए हैं आैर सरकार जुमलों के रंग से...रटा रटाया बयान आ गया है कि शहादत बेकार नहीं जाएगी...तो भार्इ शहादत बेकार कब गर्इ है...आज मैं आपको बताने की कोशिश करूंगा कि कश्मीर में असल में क्या हो रहा है आैर फिर इसके पीछे की कहानी क्या है...

पत्थरबाजी-इन दिनों कश्मीर में जिस तरह से पत्थरबाजी बढी इसके मायने बहुत दूसरे हैं..पहले यह पत्थरबाजी पैसे के लिए सिर्फ युवा करते नजर आते थे अब इसमें स्कूली बच्चे भी शामिल हो गए हैं दरअसल अब कश्मीर में सिर्फ पकिस्तान का इंटेरेस्ट नहीं है इसमें चीन भी शामिल हो गया है.इसके इशारे पर अब पत्थर का इस्लामीकरण कर दिया गया है...युवाआें काे बरगलाकर यह परिभाषित किया गया कि जिस तरह मक्का मदीना में हज करके शैतान को पत्थर मारने से बरकत मिलती है..वही बरकत मिलेगी आैर इसमें आतंकी मौलाना कामयाब रहे आैर इस समय बच्चों को सेना शैतान की शक्ल में नजर आ रही है.

चीन-पकिस्तान की कश्मीर नीति अब चीन ही तय कर रहा है.इसी नीति के तहत अब बलूचिस्तान को पांचवा राज्य घोषित करने जा रहा है.यह विवादित क्षेत्र है आैर एेसा हाेता है तो फिर भारत के लिए चिंता की बात है.दूसरी बात जमात उद दावा के प्रमुख हाफिज सर्इद पर वीटो लगाकर उसने चरमपंथी गुटों को भी अपने पक्ष में कर लिया है...या यूं कहें कि उन्हें हफता दिया है उनकी जान बचाने का
आैर अब पूरे पकिस्तान में उसकी सडक परियोजना भी आरपार हो रही है जाे चीन के लिए न केवल नया बाजार बनेगी बल्कि रणनीतिक रूप से भी यह बेहद कारगर होगी. चीन अपने पर्ल नेक कार्यक्रम के तहत पूरे भारत को घेरने में लगा हुआ है आैर पिछले साल हुर्इ राजनीतिक चूक के कारण चीन नेपाल में घुसने में कामयाब रहा आैर वह अब रेललाइन बिछाने जा रहा है...यानी अब भारत के भीतर अब नक्सलियाें को वह नेपाल में बैठकर मदद करेगा
पत्थरबाजी को लेकर पकिस्तान की बदली रणनीति चीन की है.चीन की गोद में बैठकर पाकिस्तान वही कर रहा है जो चीन कह रहा है.चीन चाहता है कि चाहता है की कश्मीर का मुददा गर्म रहे आैर भारत इससे बाहर न निकल पाए.इसमें अगर कोर्इ स्कूली बच्चा मौत का शिकार हो जाए तो उसे अंतरराष्टीय मुददा बना पाए आैर फिर दबाव बने टेबल पर आकर बात करने का...उनकी शर्त पर
पकिस्तान-पकिस्तान में सरकार सेना चलाती है तो उसे मुल्क से बहुत मतलब नहीं है जितना ही युद्घ होगा उतना ही धनअर्जन होगा...इसी रणनीति पर काम करती है...रही बात अन्य चीजों की तो वहां उनके पास खोने के लिए कुछ नहीं...परजीवी स्टेट की तरह कभी अमेरिका के रहमों करम पर ताे कभी चीन के रहमोंकरम पर अपने आप को जिंदा रखे हुए है.
भारत-भारत को रणनीति बदलनी होगी.पकिस्तान से काम नहीं चलेगा बल्कि आतंक की आहट क्या है उसे चीन को बताना होगा...वियतनाम से कुछ बात करनी होगी रूस से भी चर्चा जरूरी है...बाकी डोभाल से बताएंगी
सेना-यह पहली बार नहीं है.१९५० से यह चला आ रहा है.यह टेरन इतनी खतरनाक है कि यहां यह सब हाेता रहता है...यह अलग बात है की कारगिल की युद्घ के बाद शहीद घर पहुंचने लगे हैं आैर सब बातें सामने आने लगी हैं वरना यह बातें सेना बताती नहीं थी.उसे अपने तरीके से सुलझाती थी...अब सेना का तरीका क्या है यह बताने की जरूरत नहीं है
मायने---मतलब यह कि अब असली जंग पकिस्तान से नहीं अर्थव्यवस्था से है जो कि चीन की है...अगर उसे तोडना है ताे उससे व्यापार बंद करना होगा...चीन से व्यापार आज अगर बंद करने की घोषणा हो जाए तो कश्मीर में पत्थरबाजी कल ही रूक जाएगी.सबसे बडा आयात हम चीन से करते हैं आैर इसे तोडना होगा...एेसा होते ही पूरी चीनी अर्थव्यवस्था हिल जाएगी आैर हमें जरूरत नहीं होगी जंग की...सीधी बात की कश्मीर में छदम हस्ताक्षेप चीन बंद करें...वरना जंग का तरीका बदलने में हम कम नहीं है...सरकार को अब हवार्इ दौरे के बजाय जमीन पर, अर्थव्यवस्था पर जंग की तैयारी करनी होगी

कश्मीर-यहां सरकार को भी समझाने का तरीका बदलना होगा आैर युवाआें को भी समझने का...२०१० में मैने कश्मीर गया था वहां मैने सीधे बात की कि अगर अवसर मिले तो कहां जाएंगे पकिस्तान...चीन...आजादी या भारत...साफ कहा था पकिस्तान में हम मुहाजिर हो जाएंगे जनाब जाने का मतलब ही नहीं...चीन से तो कोर्इ मतलब ही नहीं है आैर आजाद होकर करेंगे क्या है क्या हमारे पास...भूखे मरने की नौबत आ जाएगी...भारत ही हमारे लिए बेहतर है...अब अगर ये बात है तो फिर इसे बढानी होगी एक बात आैर कही थी कि हमें मुफती आैर अब्दुल्ला परिवार से आजादी चाहिए अब इसके मायने में नहीं समझ पाया...कश्मीरियों को तय करना होगा कि उन्हें सच में क्या चाहिए

Monday, February 6, 2017

पत्रिका में पांच साल

आज की एेसी ही शाम करीब ७ बजे राजस्थान पत्रिका को पांच साल पहले मैनें ज्वाइन किया था.हालांकि आधिकारिक रूप में ७ फरवरी को ज्वाइनिंग हुर्इ लेकिन झालाना कार्यालय में ६ फरवरी को ही पहुंच गया था. तत्कालीन संपादक श्री मनोज माथुर ने मुझे ब्यूरो चीफ राकेश शर्मा जी के नेतृत्व में काम करने के आदेश दिया. धर्म, पर्यटन, कृषि से शुरू हुआ सिलसिला रेलवे, एयरपोर्ट, मौसम, परिवहन, रोडवेज, एसीबी, सीबीआर्इ, फाइनेंस, डीआरआर्इ, र्इडी के रास्ते पर निकल पडा.
यहीं मुलाकात हुर्इ श्री अशोक शर्मा जी से आैर संपादक आशुतोष जी से. अशोक जी ने खबरों की बारीकियां इतनी सिखार्इं कि एक माह में ३७ एक्सक्लूसिव खबर आैर फिर एक ही दिन तीन बार्इलाइन तक मिली.आशुतोष जी ने खबर के हर पहलु को लाने के लिए टकराने की ताकत दी.हर खबर पर हमेशा नजर मारने का मौका मिला.
यहीं आगरा से आए श्यामवीर के साथ मिलकर हमने खबर ब्रेक की थी कि युवा देश से आतंकी बनने जा रहे हैं. कुछ कारणों से छप नहीं पार्इ लेकिन इंडियन एक्सप्रेस ने जब तीन महीने बार खबर मुंबर्इ से ब्रेक की तो बहुत खुशी हुर्इ देख कि खबर हमारे पास जयपुर में भी थी.
तत्कालीन डेस्क हेड राजीव जैन जी की बात किए बिना बता अधूरी है.फोन पर खबर आैर किसी भी अंतिम समय पर खबर देने के बाद भी खबर का टीरटमेंट दे देना, एेसा व्यक्ति अब तक नहीं देखा, यही वजह रही कि खबरों की धुंआधर बैटिंग हुर्इ. हमारे लिए यह तिकडी तबाडतोड खबरें लिखने का मौका लेकर आर्इ; बाद में क्राइम कल्स्टर हेड फिर आशुतोष जी के सन्निध्य में स्टेट ब्यूरो, भोपाल स्टेट ब्यूरो फिर लौट कर साफ सीधी बात वाले शख्सदौलत सिंह चौहान जी के साथ भी काम करने का मौका मिला. २०१६ में मेरे जीवन की सबसे बडी बात हुर्इ सुरेश व्यास सर ने मुझे सैन्य बलों की खबरों को लिखना सिखाया, रात में बैठाकर इसकी पढार्इ करार्इ. संस्थान ने इस दौरान मुझे सैन्य बलों की एक माह का प्रशिक्षण लेने का भी अवसर दिया.
इन पांच सालों के दौरान अधीर हो जाने पर कर्इ वरिष्ठजन ने मुझे बल दिया.जैन सर, तिवारी सर, पाराशर सर, मलिक सर, गांधी सर, संदीप सर सहित कर्इ एेसी शख्सियत हैं.

जब विद्यासागर जी ने चप्पल फेंकी

जब विद्यासागर जी ने चप्पल फेंकी फिर एक चप्पल चली। रोज ही कहीं ना कहीं यह पदत्राण थलचर हाथों में आ कर नभचर बन अपने गंत्वय की ओर जाने क...