Wednesday, September 6, 2017

पटरी की कमी लिख रही मौत की पटकथा

ट्रेनों के बढ़ने पर नए ट्रैक भी बनने चाहिए. लेकिन बीते 15 साल में ट्रेनों की संख्या में 50 फीसदी से ज्यादा की बढ़ोतरी के बावजूद ट्रैक सिर्फ 12 फीसदी ही बढ़े हैं 

बीती 19 अगस्त को उत्तर प्रदेश में खतौली के पास कलिंग उत्कल एक्सप्रेस पटरी से उतर गई. इस हादसे में 21 यात्रियों की मौत हो गई जबकि 200 से ज्यादा घायल हो गए. इसके चार दिन बाद औरैया के पास कैफियत एक्सप्रेस के भी पटरी से उतरने और हादसे में 70 लोगों के घायल होने की खबर आई. इसी साल 21 जनवरी को आंध्र प्रदेश के विजयनगर में हीराखंड एक्सप्रेस पटरी से उतर गई थी. हादसे में 39 लोगों की मौत हो गई थी जबकि 70 से ज्यादा घायल हो गए थे. इसमें पहले 20 नवंबर 2016 को कानपुर के पास इंदौर-पटना एक्सप्रेस पटरी से उतर गई थी. इस हादसे में 149 यात्री मरे थे.इन सभी हादसों में एक समानता है. ये चारों उन रेल लाइनों पर हुए हैं जिन पर क्षमता से कहीं ज्यादा बोझ है. किसी रेल लाइन की क्षमता का मतलब होता है कि वह लाइन 24 घंटे में कितनी ट्रेनों की आवाजाही संभाल सकती है. अगर इस क्षमता का 80 फीसदी इस्तेमाल हो रहा है तो इसका मतलब है कि स्थिति सामान्य है. अगर यह आंकड़ा 90 फीसदी से आगे चला जाता है तो इसका मतलब है कि अब और बोझ डालना ठीक नहीं. लेकिन भारत में हाल यह है कि रेल ट्रैक के 40 फीसदी हिस्से में यह आंकड़ा 100 या उससे ऊपर चला गया है. इसका सुरक्षा पर सीधा असर पड़ा है.बीते 15 सालों में यात्री ट्रेनों की संख्या में 56 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है जबकि मालगाड़ियों की संख्या 59 फीसदी बढ़ी है. कायदे से ट्रेनों के बढ़ने पर नए ट्रैक भी बनने चाहिए. लेकिन ट्रेनों की संख्या में 50 फीसदी से ज्यादा बढ़ोतरी के बावजूद नए ट्रैक का आंकड़ा सिर्फ 12 फीसदी ही है. एक ही ट्रैक पर ट्रेनों की संख्या बढ़ते जाने का मतलब है भीड़. इसका मतलब मेंटेनेंस के लिए कम समय मिलना भी है.ज्यादा ट्रैफिक वाले ज्यादातर रूटगंगा के मैदान वाले इलाके में हैं. 2010 में टक्कर या ट्रेन पटरी से उतरने की वजह से 11 बड़े हादसे हुए. इनमें से आठ गंगा के मैदान वाले इलाके में ही हुए थे. सरकार हर साल ट्रेनों की संख्या बढ़ाने का ऐलान कर देती है. लेकिन उसके हिसाब से ट्रैक बढ़ाने का वादा नहीं करती. रेल सुरक्षा पर बनी तमाम रिपोर्टों का निष्कर्ष यही है कि जरूरी बुनियादी ढांचे के बिना नई ट्रेनें शुरू करना मुसीबत को न्योता देना है. इसके बावजूद हालात जस के तस हैंसरकार अब भी कहती है कि प्रति एक लाख किलोमीटर पर होने वाले हादसों के लिहाज से भारत और यूरोप का हाल कोई खास जुदा नहीं है. लेकिन वह यह नहीं देख रही यूरोप में ट्रेन की औसत गति 250 किमी प्रति घंटा है जबकि अपने यहां यह आंकड़ा 60-70 किमी प्रति घंटा है. इसलिए ऐसी तुलना से अच्छी तस्वीर का भ्रम पैदा होता है

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