Wednesday, September 6, 2017

2014 की कॉरपोरेट फंडिग ने बदल दी है देश की सियासत Punya Prasun Bajpai


चुनाव की चकाचौंध भरी रंगत 2014 के लोकसभा चुनाव की है। और क्या चुनाव के इस हंगामे के पीछे कारपोरेट का ही पैसा रहा। क्योंकि पहली बार एडीआर ने कारपोरेट फंडिग के जो तथ्य जुगाड़े हैं, उसके मुताबिक 2014 के आम चुनाव में राजनीतिक दलो को जितना पैसा कारपोरेट फंडिंग से हुआ उतना पैसा उससे पहले के 10 बरस में नहीं हुआ। एडीआर के मुताबिक 2004 से 2013 तक कारपोरेट ने 460 करोड 83 लाख रुपये राजनीतिक दलों को फंड किया। वहीं 2013 से 2015 तक के बीच में कारपोरेट ने 797 करोड़ 79 लाख रुपये राजनीतिक दलों को फंड किया।
ये आंकडे सिर्फ राष्ट्रीय राजनीतिक दलों के हैं। यानी बीजेपी, कांग्रेस, एनसीपी और वामपंथी दलो को दिये गये फंड । यानी 2014 के चुनाव में कारपोरेट ने दिल खोल कर फंडिंग की। तो चुनाव प्रचार के आधुनिकतम तरीके जब 2014 के चुनाव में बीजेपी ने आजमाये। तो उसके पीछे का क सच एडीआर की इस रिपोर्ट से भी निकलता है कि 80 फिसदी से ज्यादाकारपोरेट फंडिंग बीजेपी को मिल रही थी। क्योंकि याद किजिये मनमोहन सिंह सरकार जब घोटाले दर घोटाले के दायरे में फंस रही थी तब 20 कारपोरेट घरानों में 2011-12 के बीच मनमोहन सरकार की गवर्नेंस, पर सवाल उठाते हुये पत्र लिखे। और उसी के बाद देश में बनते चुनावी माहौल में कारपोरेट फंडिंग में कितनी तेजी आई ये एडीआर की रिपोर्ट से पता चलता है। अप्रैल 2012 से अप्रैल 2016 के बीच 956 करोड 77 लाख रुपये की कारपोरेट फंडिग हुई। इसमें से 705 करोड़ 81 लाख रुपये बीजेपी के पास गये । तो 198 करोड़ 16 लाख रुपये कांग्रेस के पास गये। महत्वपूर्ण ये भी है कि बीजेपी को दिये जाने वाली फंडिग में ही इजाफा नहीं हुआ। बल्कि कारपोरेट फंडिंग के इतिहास में ये पहला मौका आया जब पॉलिटिकल फंड देने वालो की तादाद तीन हजार से ज्यादा हुआ जिसमें 99 दी दाताओ ने फंड बीजेपी को दिया।
यानी 2014 की चुनावी हवा कारपोरेट के लिये बीजेपी के अनुकूल हो चुकी थी। लेकिन फंडिंग के इस खेल में काला धन कौन दे रहा है। या कालाधन ना लें, इस दिशा से राजनीतिक दलो ने आखे भी मूंद ली। और एडीआर की रिपोर्ट के मुताबिक 1933 दाताओं ने बिना पैन नंबर दिये ही 384 करोड रुपये पॉलिटिकल दानपेटी में डाल दिया। वहीं 1546 दाताओं ने पैन तो दिया लेकिन कोई पचा नहीं दिया और 355 करोड दान कर दिये। और खास बात ये है कि 160 करोड रुपये बिना पैन, बिना पते के पॉलिटिकल फंड में आये । इसमें 99 फिसदी दान बीजेपी के खाते में गये । तो 2014 में कांग्रेस हार रही थी। बीजेपी जीत रही थी । तब कारपोरेट पॉलिटिकल फंडिंग अगर 80 फिसदी बीजेपी के खाते में जा रही थी तो फिर 2019 के लिये देश में बनते राजनीतिक माहौल में अगर विपक्ष की राजनीतिक शून्यता अभी से बीजेपी को जीता रही है तो फिर आखरी सवाल यही होगा कि कारपोरेट फंड के भरोसे जो राजनीतिक दल राजनीति करते है उनके दफ्तरों में ताला लग जायेगा । क्योंकि बीजेपी ही सरकार होगी तो बीजेपी की ही दान पेटी हर किसी को दिखायीदेगी। यानी वैकल्पिक राजनीति को साधे बगैर कारपोरेट फंड पर टिकी राजनीति बीजेपी के सामने किसी की चल नहीं पायेगी। ये आखिरी सच है। तो क्या बीजेपी ने सत्ता में आने के बाद राजनीति की उस बिसात को ही नीतियों के आसरे देश में बिछा दिया है, जहां कारपोरेट अब 2014 की तर्ज पर सत्ता बदलने की दिशा में ना आ जाये। या फिर कारपोरेट को इसका एहसास हो कि अगर उसने विपक्ष के झोली भरनी चाही तो उसे सरकारी एजेंसियों के जरीये ही नहीं बल्कि जिस क्षेत्र में कारपोरेट का धंधा है, उसके दायरे में ही उसे लपेटा जा सकता है।
यहां ये सवाल खड़ा हो सकता है कि क्या वाकई लोकतंत्र का मापक आम चुनाव कारपोरेट पूंजी पर टिक गया है। यानी वोट तो आम जनता देती है। फिर कारपोरेट पूंजी से सत्ता कैसे उलटी पलटी जा सकती है। तो इसका जबाव सीधा है सत्ता के खिलाफ जन भावना राजनीतिक तौर पर अपने वोट से सत्ता परिवर्तन तो कर सकती है । लेकिन जन भावना को प्रभावित करने वाले जो भी औजार होते है अगर उसपर सत्ता कब्जा कर लें तो फिर विपक्ष की राजनीति टिकेगी कैसे। मौजूदा वक्त में ये सवाल इसलिये क्योंकि 1975-77 की तर्ज पर कोई आंदोलन तो देश में हो नहीं रहा है। उस वक्त इमरजेन्सी के खिलाफ आंदोलन मीडिया से बड़ा था। इसी तरह बोफोर्स को लेकर करप्शन के मुद्दा आंदोलन की तर्ज पर खड़ा हुआ। अयोध्या कांड भी कारसेवकों के जरीये देश में फैलता चला गया। और 2014 से ठीक पहले अन्ना आंदोलन ने मनमोहन सरकार की कब्र सामाजिक तौर पर बना दी थी। और कारपोरेट पूंजी ने अपना हित साधने के लिये बीजेपी को फंडिग की । लेकिन 2014 के बाद राजनीति के तौर तरीकों जिस तरह पूरी तरह चुनाव पर आ टिके हैं। यानी विपक्ष गठबंधन इसलिये हो रहा है कि चुनाव का हिसाब-किताब बदला जा सके। नीतीश सरीखे 2014 के विपक्ष इसलिये टूट रहे हैं, क्योंकि उन्हे लग रहा है कि 2019 में तो बीजेपी ही जीतेगी। यानी राजनीतिक जोड-तोड जब चुनाव जीतने पर आ टिकी हो और पूंजी की ताकत के बगैर चुनाव जीतने मुश्किल माना जाता रहा है और इसे ना सिर्फ वोटर बल्कि चुनाव आयोग भी महसूस करने लगा हो तो फिर अब कारपोरेट फंडिग कैसी होगी। क्योंकि 2014 ने चुनाव के तौर तरीके बदल दिये ये सच है । क्योंकि आजाद भारत में पहली बार 2014 का चुनाव ना सिर्फ सबसे महंगा हुआ बल्कि 1952 से 1991 तक के चुनाव में जितना खर्च हुआ। उतना ही खर्च 1996 से 2009 तक के चुनाव में हुआ। और अकेले 2014 के चुनाव में इतना ही खर्च हो गया। ये आंकड़ा 3870 करोड़ का है । तो ये कल्पना से परे है कि 2014 के बाद अब 2019 में कितना खर्च होगा। लेकिन आखिरी सच ये भी समझना होगा कि जिन
कारपोरेट ने फंड किया उसमें खनन , रियल इस्टेट , उर्जा और न्यूजपेपर इंडस्ट्री अव्वल रही। लेकिन मौजूदा वक्त में यही सारे क्षेत्रों को सरकार ने अपने हथेली पर नचाने शुरु किये हैं। यानी ये तबका अब विपक्ष को फंड ना
करें व्यवस्था इसकी भी है और सरकार के इशारे पर कारपोरेट चले तो ही बचेगा निशानदेही इसकी भी है।

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