Saturday, April 24, 2010

कोशिश करने वालों की / हरिवंशराय बच्चन

लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की हार नहीं होती।

नन्हीं चींटी जब दाना लेकर चलती है,
चढ़ती दीवारों पर, सौ बार फिसलती है।
मन का विश्वास रगों में साहस भरता है,
चढ़कर गिरना, गिरकर चढ़ना न अखरता है।
आख़िर उसकी मेहनत बेकार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की हार नहीं होती।

डुबकियां सिंधु में गोताखोर लगाता है,
जा जा कर खाली हाथ लौटकर आता है।
मिलते नहीं सहज ही मोती गहरे पानी में,
बढ़ता दुगना उत्साह इसी हैरानी में।
मुट्ठी उसकी खाली हर बार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की हार नहीं होती।

असफलता एक चुनौती है, स्वीकार करो,
क्या कमी रह गई, देखो और सुधार करो।
जब तक न सफल हो, नींद चैन को त्यागो तुम,
संघर्ष का मैदान छोड़ मत भागो तुम।
कुछ किये बिना ही जय जय कार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की हार नहीं होती।

Thursday, April 22, 2010

साढ़े तीन साल में डॉक्टर बनाने की कैसी तरकीब

डीडीएस कम्यूनिटी सेन्टर के लिए काम करने वाली पूण्यम्मा जो किसानों की समस्या पर डाक्यूमेन्ट्री फिल्म बनाती हैं, आन्ध्र प्रदेश में बीटी कॉटन पर फिल्म बनाने के दौरान अपनी खुली जीप से नीचे गिर पड़ी। उन्हें चोट आई, जिससे उनकी कलाई की हड्डी टूट गई। उसके बाद वह अपनी टूटी हुई हड्डी को जुड़वाने के लिए हैदराबाद के एक सरकारी अस्पताल ‘निजाम इंस्टीटयूट फॉर मेडिकल साइंस’ में गई। सरकारी अस्पताल होने की वजह से उनका ईलाज तो यहां मुफ्त में हो रहा था लेकिन दवा और दूसरी सामग्रियों का खर्च 30,000 रुपए आ रहा था। यह ईलाज के लिए एक बड़ी रकम थी इसलिए उन्होंने पिटला जाने का निर्णय लिया। पिटला उस गांव का नाम है, जो टूटी हड्डी को जोड़ने के लिए उस क्षेत्र में प्रसिध्द है। उस गांव में देसी तरिके से ईलाज कराने के बाद उनका एक पैसा खर्च नहीं हुआ और तीन महीने में वे तंदरुस्त हो गईं।

पूण्यम्मा का अनुभव आप में से कइयों का होगा। इस देश में सरकारी अस्पताल में ईलाज कराने का अर्थ बिल्कुल यह नहीं है कि आपका ईलाज निशुल्क हो रहा है। पटना के एक प्रतिष्ठित सरकारी अस्पताल में मरीजों को दवा की पर्ची एक खास दुकान से दवा लाने की हिदायत के साथ दी जाती थी और उस दुकान पर सारी दवाएं एमआरपी पर मिलती थी। जबकि बाकि कोई भी दवा दुकानदार उन्हीं दवाओं पर तीस फीसद तक की छूट आसानी से दे देता था।
अब सरकार पूरे देश में ग्रामीण एमबीबीएस डॉक्टरों का नेटवर्क खड़ा करने वाली है। ऐसे में स्वास्थ की वर्तमान व्यवस्था पर सवाल उठना लाजमी है। एमसीआई (मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया) के प्रस्ताव को गंभीरता से लेते हुए स्वास्थ एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ने 300 जिलों में मेडिकल कॉलेज खोलने की घोषणा कर दी है। गांव की स्वास्थ्‍य सेवा को बेहतर करने के लिए खुलने वाले इस कॉलेज में किसी प्रकार की प्रवेश परीक्षा नहीं होगी। बच्चों का दाखिला 10वी और 12वीं के प्राप्त अंकों के आधार पर किया जाएगा। हर एक मेडिकल कॉलेज में 30 से 50 तक सीटें होंगी। मेडिकल स्कूल से स्नातक अपने गृह राज्य के गांवों में कम से कम पांच साल के लिए पदस्थापित किए जाएंगे। पहले पांच सालों तक के लिए उन्हें राज्य का मेडिकल काउंसिल लायसेंस देगा। जिसे पांच सालों तक प्रत्येक साल नवीकृत कराना अनिवार्य होगा। पांच साल के बाद उनका यह लायसेंस स्थायी हो जाएगा। लायसेंस मिलने के बाद यह ग्रामीण डॉक्टर अपने राज्य के गांवों में या किसी शहर में क्लिनिक खोल पाएंगे। इन पांच सालों में गांवों में जाने के लिए नया बैच तैयार हो चुका होगा। इस तरह गांव की स्वास्थ व्यवस्था को तंदरुस्त करने की एक स्थायी व्यवस्था एमसीआई और स्वास्थ मंत्रालय के संयुक्त प्रयासों से की जा रही है।
बीएचआरसी (बैचलर ऑफ रुरल हेल्थ केयर) के नाम से तैयार किया गया साढ़े तीन साल का यह पाठयक्रम ग्रामीण एमबीबीएस के नाम से लोगों के बीच पहचान पा रहा है। यह ग्रामीण डॉक्टर गांव के प्राथमिक स्वास्थ केन्द्र और उपकेन्द्र स्वास्थ्य केन्द्रों पर तैनात होंगे। वर्तमान स्थिति यह है कि देश के 80 फीसद डॉक्टर 20 फीसद शहरी जनता की सेवा में लगे हैं, और बाकि बचे 80 फीसद गांव और छोटे शहर के लोगों को 20 फीसद डॉक्टरों के भरोसे छोड़ दिया गया है। अब ऐसे में गांव वालों का विश्वास झाड़-फूंक, और झोला छाप डॉक्टरों पर ना बढ़े तो क्या हो? एक अनुमान के अनुसार हमारे देश की 75 फीसद आबादी अब भी झोला छाप डॉक्टरों के भरोसे ही है। देश में सरकार की तरफ से दी जा रही स्वास्थ सुविधाओं में असंतुलन दिखता है। गांव-शहर का असंतुलन। राज्य-राज्य का असंतुलन।
स्वास्थ एवं परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा 2008 में जारी विज्ञप्ति के अनुसार देश में मेडिकल कॉलेजों की कुल संख्या 271 है। राज्यवार यदि इन कॉलेजों की उपस्थिति का आंकड़ा देखें तो यह बेहद असंतुलित है। 19 करोड़ आबादी वाले उत्तार प्रदेश में कुल 19 मेडिकल कॉलेज हैं और 03 करोड़ आबादी वाले केरल में मेडिकल कॉलेजों की संख्या 18 है। खैर, बात पूरे भारत की करें तो यहां प्रति 1500 लोगों पर एक डॉक्टर नियुक्त है। जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन 1:250 के अनुपात की अनुशंसा करता है। अब ऐसे समय में अपने अनुपात को दुरुस्त करने की जल्दबाजी में साढे तीन साल की पढ़ाई कराके ग्रामीण एमबीबीएस के नाम पर जो पढ़े लिखे झोला छाप डॉक्टर बनाने की कवायद सरकार कर रही है, उसकी जगह पर यदि वह थोड़ा ध्यान हमारे वैकल्पिक चिकित्सा पध्दतियों मसलन आयुर्वेद, यूनानी चिकित्सा पध्दति, एक्युप्रेशर, एक्यूपंक्चर पर देती तो वह अधिक कारगर साबित हो सकता है। वर्तमान में यदि हम पारंपरिक तरह से ईलाज करने वालों की संख्या भी एमबीबीएस डॉक्टरों के साथ जोड़ लें तो 1:1500 का अनुपात घटकर 1:700 का हो जाएगा।
यदि सरकार की तरफ से अपनी स्वास्थ्य व्यवस्था को दुरुस्त करने के लिए किसी नई योजना पर काम करने की जगह सिर्फ अपने स्वास्थ के मौजूदा ढांचे को मजबूत करने की कोशिश की जाए तो यह देश की स्वास्थ व्यवस्था को दुरुस्त करने की राह में बड़ी पहल होगी। देश में 10 लाख के आस-पास प्रशिक्षित नर्स हैं, 03 लाख के आस-पास सहायक नर्स हैं। 07 लाख से अधिक आशा (एक्रेडिएटेड सोशल हेल्थ एक्टिविस्ट) हैं। गांवों के लिए नर्स, पुरुष कार्यकर्ता, आंगनवाड़ी कार्यकर्ता हैं। यदि इन लोगों की सहायता ही सही तरह से ली जाए तो देश की स्वास्थ समस्या काफी हद तक सुलझ सकती है।
बहरहाल सन् 1946 में सर जोसेफ भोर की कमिटी की रिपोर्ट भी मेडिकल की शिक्षा के लिए कम से कम साढ़े पांच साल अवधि की अनुशंसा करती है। अचानक साढ़े तीन साल में डॉक्टर बनाने की कौन सी कीमिया हमारे स्वास्थ एवं परिवार कल्याण मंत्री ढूंढ़ लाएं हैं, इस संबंध में उन्हें देश को दो-चार शब्द अवश्य कहना चाहिए।


आशीष कुमार 'अंशु'

लखनऊ की सियासत

पंद्रहवीं लोकसभा के लिए 'स्वयंवर' रचा रही लखनऊ की सियासत में यूं तो इस बार भी कुछ कम सज-धज नहीं, लेकिन गांधी-नेहरू परिवार की लाड़ली से लेकर संघ परिवार के दुलारे तक की हमसफर रह चुकी यह सियासत इस बार चाहे जिस गले में 'वरमाला' डाले, गुजरे जमाने की यादें उसे थोड़ा मायूस जरूर करेंगी। 'स्टार उम्मीदवारों' की नामौजूदगी के कारण अरसे बाद लखनऊ के 'राजनीतिक चरित्र' में भी बदलाव आना तय है, जो अब तक अपने नुमाइंदे का चयन 'दिल की आवाज' पर करता रहा है। आजादी के बाद पहले चुनाव में लखनऊ का दिल विजय लक्ष्मी पंडित पर आया, तो फिर अगले चुनावों में पुलिन वी।बनर्जी, वी.के.धवन, आनन्द एम.मुल्ला, शीला कौल, हेमवतीनंदन बहुगुणा, मांधाता सिंह व अटल बिहारी वाजपेयी पर।

अटल 1955 में हुए उपचुनाव में पहली बार उम्मीदवार बने, इसके बाद उन्होंने 1957 व 1962 में आम चुनाव लड़े, लेकिन लखनऊ का दिल जीतने में उन्हें करीब तीन दशक लगे। अटल 1991 में दुबारा लखनऊ पर 'फिदा' हुए, और इस बार लखनऊ भी उन्हें दिल देने में पीछे नहीं रहा। अटल और लखनऊ के भावुक रिश्ते की 'भूलभुलैया' में राजबब्बर, मुजफ्फर अली, डा.कर्ण सिंह व राम जेठमलानी जैसे 'सितारे' भी राह भटक गये, और अन्तत: इस रिश्ते के आगे घुटने टेकने पर बाध्य हुए। वक्त व बीमारी ने लखनऊ और अटल के संसदीय रिश्ते पर पूर्णविराम लगा दिया है। मौजूदा चुनाव में जो विकल्प हैं, उनमें भाजपा के लालजी टंडन और बसपा के अखिलेश दास लखनऊ के पुराने नेता हैं, जबकि कांग्रेस की रीता बहुगुणा जोशी व सपा की नफीसा अली बाहरी। लखनऊ के प्रतिनिधि की हैसियत से टंडन सभासद से लेकर विधायक व मंत्री जैसी भूमिकाएं निभा चुके हैं। लखनऊ से उनका लंबा जुड़ाव उनकी खूबी भी है, खामी भी। यही बात अखिलेश दास के भी साथ है। वह शहर के मेयर रह चुके हैं, साथ ही पिछले काफी समय से स्थानीय राजनीति में उनकी परोक्ष या अपरोक्ष भूमिका जरूर रही। दोनों उम्मीदवारों को अपनी पृष्ठभूमि का नफा-नुकसान होगा। कांग्रेस उम्मीदवार रीता बहुगुणा जोशी लखनऊ को अपनी विरासत बता सकती हैं, जिनके पिता हेमवती नन्दन बहुगुणा 1977 में 73 फीसदी वोट पाकर लखनऊ के सांसद बने थे। जहां तक सपा उम्मीदवार नफीसा अली का सवाल है, उनके पास लखनऊ से जुड़ाव का कोई ठोस तर्क नहीं है। जाहिर है कि उन्हें सपा के जनाधार पर ही आगे बढ़ना होगा, जिसके बूते पार्टी उम्मीदवार अटल के मुकाबले पांच में से तीन चुनावों में उनके निकटतम प्रतिद्वंद्वी रहे। वैसे तमाम सियासी जोड़-बाकी से हटकर उम्मीदवारों के सामने सबसे बड़ी चुनौती मतदान दर को लेकर होगी। दरअसल, लखनऊ की बेपरवाह जीवनशैली की छाप यहां के चुनाव पर भी पड़ती है।

2004 लोकसभा चुनाव में प्रदेश में न्यूनतम 35.28 फीसदी मतदान इसी सीट पर हुआ, यद्यपि अटल इसमें 56.12 फीसदी वोट पाकर भारी अंतर से चुनाव जीते थे। 1996 के एकमात्र अपवाद को छोड़ पिछले आठ लोकसभा चुनावों में मतदान दर हमेशा 50 फीसदी से भी कम रही। वास्तव में लखनऊ के नव-विकसित इलाकों में आबाद सरकारी अधिकारी व कर्मचारी मतदान में रुचि नहीं लेते, जबकि अटल बिहारी की लोकप्रियता के कारण मुस्लिम इलाकों में मतदान दर कम रहती थी। ये दोनों वर्ग इस बार किसी 'स्टार उम्मीदवार' की नामौजूदगी में किस तरह प्रतिक्रिया करते हैं, यह फैक्टर नतीजे पर गहरा असर डालेगा। इसी प्रकार लखनऊ के पारंपरिक मतदाता चुनाव अभियान में उग्रता पसंद नहीं करते। समीक्षक इस तर्क के पक्ष में 1967 चुनाव का संदर्भ देते हैं, जब कांग्रेस की घोर लोकप्रियता के दौर में उसके उम्मीदवार पीआर मोहन निर्दलीय आनन्द एम मुल्ला से पराजित हो गये थे। लखनऊ के संसदीय इतिहास में यह एकमात्र चौंकाने वाला चुनाव नतीजा था। एक और खास बात थी 1967 में भी कोई 'स्टार उम्मीदवार' मैदान में नहीं था। वैसे यह घटना 42 वर्ष पुरानी है। इस कालखंड में सियासत का रंग-रूप बहुत बदल गया, साथ ही लखनऊ का भी। बेशक इस बार भी कोई 'स्टार' मैदान में नहीं है, लेकिन इस बार लखनऊ के 'दिल' में क्या है, 16 मई को ही पता चलेगा।

चिडिया गुलाब और प्यार

एक चिडिया को एक सफ़ेद गुलाब से प्यार हो गया , उसने गुलाब को प्रपोस किया , गुलाब ने जवाब दिया की जिस दिन मै लाल हो जाऊंगा उस दिन मै तुमसे प्यार करूँगा , जवाब सुनके चिडिया गुलाब के आस पास काँटों में लोटने लगी और उसके खून से गुलाब लाल हो गया, ये देखके गुलाब ने भी उससे कहा की वो उससे प्यार करता है पर तब तक चिडिया मर चुकी थी इसीलिए कहा गया है की सच्चे प्यार का कभी भी इम्तहान नहीं लेना चाहिए, क्यूंकि सच्चा प्यार कभी इम्तहान का मोहताज नहीं होता है , ये वो फलसफा; है जो आँखों से बया होता है , ये जरूरी नहीं की तुम जिसे प्यार करो वो तुम्हे प्यार दे , बल्कि जरूरी ये है की जो तुम्हे प्यार करे तुम उसे जी भर कर प्यार दो, फिर देखो ये दुनिया जन्नत सी लगेगी प्यार खुदा की ही बन्दगी है ,खुदा भी प्यार करने वालो के साथ रहता है....

'फेसबुक' के संस्थापक 25 वर्षीय मार्क दुनिया के सबसे युवा अरबपति

सामान्यत : लोग इंटरनेट को जानकारी लेने, लोगों से जुडऩे और चैटिंग करने के लिए ही इस्तेमाल करते है। बहुत कम लोग ऐसे होते हैं जो साइबर संसार से जुड़ी हर चीज का इस्तेमाल भली प्रकार करना और इनमें इनोवेशन करना जानते है। इन्हीं में से एक है 'फेसबुक' नामक सोशल नेटवर्किंग वेबसाइट के संस्थापक 25 वर्षीय मार्क जुकरबर्ग, जो इसकी वजह से बन गए है दुनिया के सबसे युवा अरबपति। व्यवसाय से कंप्यूटर प्रोग्रामर मार्क ने हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में पढ़ते समय फेसबुक का निर्माण किया, जो आज विश्व भर के छात्रों और युवाओं के बीच प्रसिद्ध है। फेसबुक के सीईओ मार्क को 'टाइम' मैग्जीन ने वर्ष के सबसे अमीर व्यक्तियों की सूची में शामिल किया है। इस सूची में उन्हे अंतर्राष्ट्रीय पटल पर नई क्रांति लाने वाले बराक ओबामा, दलाई लामा और माइकल फेल्प्स के साथ जगह दी गई है। बचपन से कंप्यूटर प्रेमी14 मई 1984 को न्यूयार्क के डॉक्टर दंपति एडवर्ड और कैरन जुकरबर्ग के घर जन्मे मार्क बचपन से ही कंप्यूटर प्रेमी थे। मिडिल स्कूल में पढ़ते समय ही उन्होंने कंप्यूटर प्रोग्रामिंग शुरू कर दी थी। उन्हे नए-नए प्रोग्राम, कम्युनिकेशन टूल्स और गेम्स बनाना पसंद था। हाईस्कूल में पढ़ते समय मार्क ने पिता के ऑफिस में काम करने वाले कर्मचारियों के बात करने के लिए कम्युनिकेशन प्रोग्राम तैयार किया। उसके बाद उन्होंने 'सिनैप्स' नामक म्यूजिक प्लेयर बनाया, जो उसे इस्तेमाल करने वाले की आदतों को ट्रैक कर लेता था। माइक्रोसॉफ्ट और एओएल ने सिनैप्स खरीदने और मार्क को जॉब देने का प्रयास किया, लेकिन उन्होंने हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में प्रवेश लेने का निर्णय लिया। हॉस्टल रूम में बनाई फेसबुकमार्क ने फेसबुक का प्रारंभ अपने हॉस्टल के रूम से 4 फरवरी 2004 में किया। यह बहुत जल्दी हार्वर्ड में प्रसिद्ध हो गई और कालेज के दो-तिहाई छात्र पहले दो सप्ताह में ही इसमें शामिल हो गए। हार्वर्ड में प्रसिद्ध होने के बाद मार्क ने इसे अन्य शैक्षिक संस्थानों में भी फैलाने की ठानी और इसके लिए उन्होंने अपने रूम पार्टनर डस्टिन मोस्कोविट्ज की सहायता ली। 2004 की गर्मियों में मार्क और मोस्कोविट्ज ने इसे पैंतालिस शैक्षिक संस्थानों में विस्तृत कर दिया और जल्द ही इसमें हजारों छात्र शामिल हो गए। कैलिफोर्निया का क्रांतिकारी सफर2004 की गर्मियों में ही मार्क व मोस्कोविट्ज अपने कुछ अन्य मित्रों के साथ पालो अल्टो, कैलिफोर्निया आ गए। मार्क के अनुसार, कैलिफोर्निया में बर्फ गिरने के कारण ग्रूप ने वापस हार्वर्ड लौटने की तैयारी शुरू की, लेकिन फिर अचानक हमने निर्णय किया कि हमें यहीं रहना चाहिए। उस दिन के बाद वह एक छात्र के रूप में लौटकर हार्वर्ड नहीं गए। उन्होंने कैलिफोर्निया में एक छोटा सा घर किराए पर लिया और ऑफिस के रूप में वहां काम करना शुरू किया। गर्मियों के बाद उनकी मुलाकात पीटर थील से हुई, जो मार्क की कंपनी में पूंजी लगाने को तैयार हो गए। कुछ माह बाद पालो अल्टो स्थित यूनिवर्सिटी के पास उन्हें अपना पहला 'असली ऑफिस' मिला। आज वहां सात इमारतों में फेसबुक के सैकड़ों कर्मचारी काम कर रहे है। मार्क ने इस जगह को 'अर्बन कैंपस' का नाम दिया है। नई सेवाओं ने बढ़ाई गुणवत्ता5 सितंबर 2006 को मार्क ने फेसबुक की गुणवत्ता बढ़ाते हुए उसमें कुछ बदलाव किए। अब फेसबुक में यूजर यह भी देख सकते थे कि उनका मित्र साइट पर क्या कर रहा है? 24 मई 2007 को मार्क ने फेसबुक प्लेटफॉर्म की घोषणा की। इस प्लेटफॉर्म पर प्रोग्रामर सोशल एप्लीकेशन विकसित कर सकते थे। एक सप्ताह में ही इसमें कई प्रोग्रामर ने सोशल एप्लीकेशन बनाई और उन एप्लीकेशन को लाखों उपभोक्ता भी मिल गए। आज फेसबुक प्लेटफॉर्म का फायदा दुनिया भर में करीब 4,00,000 लोग उठा रहे है। इसके दो साल बाद फेसबुक ने विश्व के नंबर एक सर्च इंजन गूगल की बोली को नकार कर अपने शेयरों की 1।6 प्रतिशत साझेदारी माइक्रोसॉफ्ट कॉरपोरेशन को 240 मिलियन डॉलर में बेच दी। इस बोली के समय यह तथ्य भी सामने आया कि उस समय फेसबुक की कुल मार्केट वैल्यू 515 बिलियन डॉलर थी!

Tuesday, April 20, 2010

ग्रह के सामान्य स्वास्थ्य





 जो प्रदूषण कम करने के लिए कर सकते हैं 



  प्रदूषण कम करके भी प्लास्टिक reusing सकते हैं
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यातायात संबंधी वायु - प्रदूषण 




  . यातायात संबंधी वायु प्रदूषण राजमार्गों पर खराब है.
 


  अम्लीय होता जा रहा  हैं समुद्र

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. महासागर अम्लीकरण मूंगों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है


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  बहुत ही शांत और बहुत कुशल है.
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पानी जैसा साफ प्रशासन


राकेश दीवान
तालाब निर्माण के दौर में गोंड राजाओं ने प्रशासन की पद्धति भी विकसित की थी। वे मालगुजार की नियुक्ति करते थे जिसका काम राजस्व की वसूली करना और पूरे इलाके का सामान्य प्रशासन देखना था। मालगुजार को निर्धारित राजस्व राज्य के खजाने में देना पड़ता था अब यदि मालगुजार अधिक राजस्व उगाह लेता था तो उसे लाभ होता था लेकिन कम राजस्व उगाहने पर उसे अपनी तरफ से भरपाई करनी होती थी। इसलिए बेहतर उत्पादन की खातिर मालगुजार खुद तालाब बनवाते और उनके रख-रखाव की व्यवस्था करवाते थे ताकि नुकसान न उठाना पड़े। तालाब, नहर या किसी ढाँचे के टूटने-फूटने पर मालगुजार की निगरानी में ग्रामीण उसे ठीक करते थे।

पानी के वितरण के लिए मालगुजार और गाँव के चार-पाँच सम्मानित व्यक्तियों की एक समिति होती थी। यह समिति पानी की उपलब्धता आदि को देखकर उसके हिसाब से वितरण की व्यवस्था करती थी जिसे सभी किसान मानते थे। यह समिति ‘पानकर’ की नियुक्ति करती थी जो आमतौर पर ऐसा भूमिहीन मजदूर होता था जिसकी सिंचाई में कोई दिलचस्पी नहीं होती। ‘पानकर’ तालाबों से पानी खोलने और समिति के निर्देशों का पालन करवाने का काम करता था। बदले में गाँव भर के किसान ‘पानकर’ के लिए अनाज और कपड़ों की व्यवस्था करते थे। किसी वजह से कोई किसान ‘पानकर’ का हिस्सा देने से चूक जाता था तो वह खुद जाकर ले लेता था। यदि ‘पानकर’ किसी को स्वार्थवश ज्यादा लाभ देता था तो समिति उसे उसके तमाम अधिकार और लाभ छीनकर निकाल देती थी। तालाब या नहर को तोड़ने वालों को उसके हिस्से का पानी नहीं दिया जाता था। यदि ऐसे आदमी ने पहले ही पानी ले लिया है तो उस पर अर्थदण्ड लगाया जाता था और इसे भी न देने पर अगले साल ऐसे व्यक्ति को पानी नहीं दिया जाता था।

तालाब निर्माण में काम करने वाले किसानों को बिना मूल्य के पानी दिया जाता था। तालाब की देखभाल व मरम्मत करने वालों को भी मुफ्त पानी देने की व्यस्था थी। तालाब के रख-रखाव की जिम्मेदारी उसके आस-पास के किसानों की होती थी और उसके लिए बाकायदा कानून बने थे।

तीन-चार सालों में एक बार तालाब की सफाई की जाती थी और इससे निकलने वाली बेहद उपजाऊ गाद, जिसे ‘पाकन’ कहा जाता था, को मालगुजार किसानों में बँटवा देता था। वैसे मालगुजार से पूछकर कोई भी किसान तालाब की गाद ले सकता था। रख-रखाव, सफाई, निर्माण और टूट-फूट के सुधार के लिए पैसा देने के बजाय मुफ्त में तालाब से पानी और गाद लेने का प्रावधान था।

गोंड़ों के चाँदा राज्य में बने तालाब की यह प्रथा मध्यप्रदेश के छिंदवाड़ा, बालाघाट, मंडला आदि जिलों समेत महाराष्ट्र के कई इलाकों में आज भी दिखाई देती है। यह तालाब आज भी समाज की पानी की जरूरतों को पूरा कर रहे हैं।

याद रखें इन जलस्रोतों को



राकेश दीवान

पहले हम कोइतुरों को जानें

महाकौशल में पानी के स्रोतों तथा सार्वजनिक हित के निर्माण कार्यों को बनवाने और रख-रखाव करने का अधिकतर काम 12-13वीं से 17-18वीं सदी के बीच वहाँ राज करने वाले गोंड राजाओं के जमाने का है। सन् 1801 के मई महीने में इस इलाके का भ्रमण करने वाले एक यूरोपीय पर्यटक कोलब्रुक ने लिखा है कि ‘इस प्रदेश की समृद्धि के लिए, जिसका पता उसकी राजधानी से चलता है तथा जिसकी पुष्टि उन जिलों से होती है। जिनका हमने भ्रमण किया। मैं इस प्रदेश के राजाओं की सराहना अंतर्राज्यीय वाणिज्य के बिना गोंड राजाओं की छत्रछाया में अनेक व्यक्तियों ने उर्वर भूमि में कृषि व्यवसाय अपनाया तथा उसकी समृद्धि के अमिट चिन्ह आज भी साफ-सुथरे भवनों में, मंदिरों की संख्या और उसकी भव्यता में, उनके तालाबों और अन्य लोकोपयोगी निर्माण कार्यों में, उनके नगरों के विस्तार में तथा उनके द्वारा किए गए वृक्षारोपणों में सुरक्षित है। इन सबका श्रेय पूर्ववर्ती शासन को है।’

इनके अलावा पानी की व्यवस्था के कुछ और भी उदाहरण मिलते हैं लेकिन समय और समाज की लापरवाही के चलते इनमें से कई धीरे-धीरे खत्म हो गए। फिर भी इतिहास में अल्हण देवी सरीखे उदाहरण मिल जाते हैं जिन्होंने चेदि वंश के राजा गयाकर्णदेव (1123ई. से 1156ई. तक) से विवाह किया था। ये वे ही अल्हण देवी हैं जिन्होंने जबलपुर के पास भेड़ाघाट में चौंसठ योगिनी का मंदिर और उससे जुड़े मठ तथा व्याख्यान शाला बनवाकर इन्दुमाली के नाम से भगवान शिव को समर्पित किए थे। इस मंदिर से दो गाँव लगे थे जिनकी आय से मंदिर तथा दूसरे धार्मिक कार्य चलाए जाते थे। गयाकर्णदेव और अल्हण देवी के पुत्र जयसिंह देव ने उस प्रसिद्ध गोसल देवी से विवाह किया था। जिनके नाम से जबलपुर में आज भी एक मोहल्ला गोसलपुर मौजूद है। इससे पहले 9वीं शताब्दी में कलचुरी वंश ने इस इलाके पर राज किया था। उनकी राजधानी त्रिपुरी थी जहाँ बाद में आजादी पूर्व कांग्रेस का ऐतिहासिक सम्मेलन हुआ था। एक समय की यह राजधानी आजकल तेवर नाम के गाँव के रूप में जानी जाती है।

आज के छिंदवाड़ा जिले में बिछुआ विकासखंड के एक गाँव नीलकंठी में 14 वीं शताब्दी के राजा कृष्णदेव राय का बनवाया शिव मंदिर प्रसिद्ध है, जहाँ तिफना नदी से तीन छोटी-छोटी नदियों का संगम है। उसी के पास का नीलकंठी परसगांव के राजा के अधीन था। कहते हैं कि इस गाँव की एक गुफा में दो शिल्पकार भाई नग्न होकर मूर्तियाँ बनाते थे। उनकी बहन जब भोजन लाती थी तो घण्टी बजाकर अपने आने की सूचना देती थी। एक बार उसने यह नहीं किया और नतीजे में दोनों भाई पत्थर की मूर्ति में बदल गए।

चेदि और कलचुरी वंशों के राज-काज में तालाबों, बावड़ियों का निर्माण भी किया गया था। जबलपुर का प्रसिद्ध हनुमान ताल कलचुरी वंश के राजा जाजल्ल देव ने इसी दौर में बनवाया था। इसी वंश के राजा रतन देव ने छत्तीसगढ़ की अपनी राजधानी रतनपुर को बसाया था, जहाँ कहा जाता है कि 1600 तालाब थे और इस तरह बरसात का बूंद-बूद पानी रोक लिया जाता था। इसी दौर में खेड़ला राज्य का भी जिक्र आता है, जो गोंड़ों के आधीन नहीं था।

खेड़ला राज्य के बारे में अधिकतम जानकारी एक संत मुकंदराव स्वामी के ग्रंथ ‘विवेकसिंधु’ से मिलती है। जो कि 13 वीं शताब्दी के अंत तक रहे थे। मराठी के आदि कवि माने गए मुकुंदराव स्वामी के दौर में खेड़ला साम्राज्य की गद्दी पर जैतपाल नामक राजा का राज्य था और मुकंदराव स्वामी ने अपने जीवन का अंतिम हिस्सा जैतपाल के संरक्षण में ही बिताया था।

बैतूल के पास खेड़ला में वन विभाग के कई एकड़ रकबे में फैले किले के अवशेष आज भी खेड़ला राज्य की स्मृति को जिंदा रखे हैं। कहते हैं कि खेड़ला के एक प्रसिद्ध राजा नरसिंह राय ने घोषणा की थी कि जो भी उन्हें तुरत-फुरत ब्रह्म दिखा देगा उसे राजपाट दिया जाएगा। लेकिन इस कोशिश में जो सफल न हो तो उसे किले से लगे रावनबाड़ी गाँव में तालाब खोदने में लगा दिया जाएगा। राजा का कहना था कि ‘गाबड़ी में पाँव, ब्रह्म दिखाओ’ यानि कि जब तक घोड़े पर चढ़ने की रकाब, गाबड़ी में पाँव जाए उतने में ब्रह्म के दर्शन करवाए जाएँ। इस घोषणा को सुनकर कई ब्राह्मण, पंडित, विद्वान आए लेकिन कोई भी राजा को ब्रह्म नहीं दिखा सका और सब के सब तालाब खोदने में लग गए।

तभी काशी से पैदल चलकर मुकुंदराव स्वामी आए और उन्होंने राजा को ब्रह्म के दर्शन करवाए। कहा जाता है कि राजा तब 7-8 दिन समाधि में डूब गए थे, उन्हें लगा कि सच्चा गुरू मिल गया है।

मुकुंदराव स्वामी के आते ही तालाब खोदने में लगे विद्वान उनके दर्शनों के लिए दौड़ पड़े। लेकिन तभी चमत्कारित रूप से कुदाल और फावड़े अपने आप चलने लगे। कहते हैं कि इस प्रकार एक रात में रावन बाड़ी का विशाल 20 एकड़ का तालाब तैयार हुआ।

खेड़ला के राजा नरसिंहराय के जमाने में 300 कुएँ और बावड़ियाँ थीं और उसने किले के पास मुकुंदराव स्वामी के लिए एक भव्य मंदिर बनवाया था। इस मंदिर के पास एक तालाब और मुकुंदराव स्वामी की समाधि आज भी मौजूद है। कहा जाता है कि राजा ने अपने पास मौजूद पारस पत्थर, जिसे छुआने से लोहा सोना बन जाता है, को इसी तालाब में फेंक दिया था। बाद में अंग्रेजों ने लोहे की जंजीर बनवाकर तालाब में डाली तो वह सोने की हो गई थी। किले के पास ही एक सुन्दर चोर बावड़ी है। जो सामान्य तौर पर दिखाई नहीं पड़ती। यह बावड़ी राजा हरदेव के जमाने में बनी थी। इसमें आज भी अथाह पानी मौजूद है। इतिहासविद् वाकणकर के अनुसार के अनुसार खेड़ला के किले में पानी का गड्ढा था जिसके तल में चूने का प्लास्टर किया था। यह एक तरह की जल भंडारण की टंकी थी।

कोईतुर कौन हैं?


चेदि और कलचुरियों के बाद गोंडों ने कई राज्यों को जीता और महाकौशल में लगभग 400 साल तक राज किया। अंग्रेजों के जमाने से ही अनुसूचित जनजाति के खाँचे में पड़े और आज भी पिछड़े कहे जाने वाले गोंडों का अपना गौरवशाली लंबा इतिहास रहा है। भाषा के हिसाब से गोंडी द्रविड़ भाषा समूह की एक शाखा है जिसमें तेलुगू के कई शब्द प्रचलित हैं। गोंड दक्षिण से आए थे और उन्होंने बस्तर, छत्तीसगढ़ की भारिया और मुंडा जातियों को पहाड़ों की तरफ धकेल कर अपना राज स्थापित किया था।

गोंडों को नाम हिन्दुओं और अन्य लोगों ने दिया है। हालांकि वे खुद को ‘कोइतुर’ कहते और कहलाना पसंद भी करते हैं। फादर हिस्लाप, जो इस विषय के ज्ञाता रहे थे, के अनुसार गोंड शब्द तेलुगू के कोंड या कोंडा से आया है जिसका मतलब है पहाड़ यानि गोंड पहाड़ी लोग हैं। मंडला के सेटलमेंट अधिकारी कैप्टन वॉर्ड के अनुसार गोंड संस्कृत के ‘गो’ और ‘उंड’ शब्दों से बना है। जिनका मतलब है पृथ्वी एवं शरीर यानि गोंड का अर्थ है। पृथ्वी या जमीन के आदमी। यह वैसे गलत है क्योंकि संस्कृत साहित्य में गैर-आर्य जाति गोंड का कोई जिक्र नहीं है। संस्कृत साहित्य में एक गैर-आर्य जाति शबर का जिक्र है जो भूभाग के एक हिस्से पर काबिज थे, लेकिन गोंड नहीं थे। जनरल कनिंघम के अनुसार गोंड ‘गौर’ शब्द से बना है।

यहाँ उल्लेखनीय है कि गोंड किस तरह अपने जन्म को देखते हैं। फादर हिस्लॉप ने गोंडों के प्रधान पुजारी से बात करके उनके जन्म की कहानी लिखी है। इस कहानी में हिन्दू मान्यताएँ भी घूल-मिल गई हैं। इसके अनुसार-

शुरुआत में चारों तरफ पानी ही पानी था और भगवान ने कमल के पत्ते पर जन्म लिया था जहाँ वे अकेले ही रहते थे। उन्होंने पहले एक कौआ और एक केकड़ा बनाया। केकड़ा डुबकी लगाकर समुद्र के तल में पहुँचा तो वहाँ उसने एक केंचुआ देखा। केंचुआ ऊपर लाया गाया तो वह अपने मुँह में मिट्टी भी साथ लाया। भगवान ने इस मिट्टी से जमीन के कुछ टुकड़े बनाये और वे उस पर चले। इस दौरान उन्हें एक बुल-बुला मिला जिससे महादेव और पार्वती निकले। फिर पार्वती ने 22 ब्राह्म देवों और 18 गोंड देवों को जन्म दिया। गोंड इधर-उधर रह रहे थे और इससे दुखी होकर महादेव ने उन्हें बाहर करने का तय किया। उन्होंने एक गिलहरी बनाकर गोंडों के बीच छोड़ दी जिसे मारकर खाने के लालच में सारे गोंड उसके पीछे पड़ गए। गिलहरी भागती दौड़ती एक विशाल गुफा में छिप गई और जब उसी के पीछे सारे गोंड भी गुफा में चले गए तो महादेव ने एक बड़ी शिला से गुफा का मुँह बंद कर दिया। लेकिन इन गोंडों में से चार बाहर ही रह गए थे जो भागकर लाल पहाड़ी के काछीकोपा लोहारगढ़ चले गए। पार्वती गोंडों की गंध न पाकर उन्हें वापस लाने के लिए तपस्या करने लगीं। महादेव ने तब गोंडों को वापस लाने का वायदा किया और इस तरह लिगों का जन्म हुआ। लिंगो महान शक्तियों वाले नायक थे। उन्होंने गोंडों को आग जलाना सिखाया और एक साथ बसकर रहने की शिक्षा भी दी। लेकिन शीघ्र ही एक झगड़े में चारों गोंडों ने मिलकर लिंगों को मार दिया।

महादेव को इसकी खबर मिली तो उन्होंने लिंगो को पवित्र जल से पुनर्जीवित कर दिया। लिंगों ने सोचा कि चार भाई काफी नहीं हैं इसलिए उसने अपने बाकी के 16 गोंड भाइयों की भी खोज शुरू की। वह पूरी पृथ्वी पर घूमा, चाँद-सितारों से पूछताछ की लेकिन कोई उसे नहीं बता पाया। तब उसे एक बूढ़ा साधु मिला जिसने उसे बताया कि गोंडों को महादेव ने एक गुफा बंद कर दिया है। लिंगो ने घोर तपस्या की और महादेव को प्रसन्न करके गुफा के मुँह से शिला हटवाई और इस तरह से गोंड आजाद हुए।

इस इलाके में गोंडों के तीन राज्य रहे हैं। चांदा (चन्द्रपुर, महाराष्ट्र) में चांदा राज्य, छिंदवाड़ा के पास देवगढ़ में देवगढ़ राज्य और पहले गढ़ा और फिर मंडला में गढ़ा-मंडला राज्य।

देवगढ़ राज्य (1590ई. 1743 ई. तक)


इस राज्य के निर्माता दैवीय गुणों से सम्पन्न जाटबा थे। अकबर के समकालीन राजा जाटबा, कहते हैं कि कुँवारी कन्या से अमरवाड़ा के पास राजाखोह में पैदा हुए थे। इस राज्य का केन्द्र देवगढ़ था जो कि आज के छिंदवाड़ा के दक्षिण-पश्चिम में करीब 24 मील दूर स्थित है। अंतिम दिनों में यह राज्य इतना विशाल और ताकतवर बन गया थe कि मंडला, चांदा आदि राज्यों से उसकी ज्यादा पूछ होती थी। जाटबा के समय में ही यह राज्य भिलाई, दुर्ग, होशंगाबाद, शाहपुर, असीरगढ़ तक फैल गया था और बटकाखाप, पगारा, आलनेर, श्रीझोत, हर्रई, चौरई आदि 11 जागीरें उसने अपने सरदारों को दे दी थीं। कहते हैं कि हथियागढ़ के रंसूर-धंसूर के नाम से प्रसिद्ध गवली राजाओं को जाटबा ने मारकर किले पर कब्जा कर लिया था।

जाटबा के बाद तीसरी-चौथी पीढ़ी यानि सन् 1686 ई. के आसपास एक राजा हुए थे बख्तबुलंद। वे औरंगजेब के जमाने में दिल्ली दरबार भी गए थे और वहाँ की सम्पन्नता तथा व्यवस्थाओं से बहुत प्रभावित होकर लौटे थे। बख्तबुलन्द का अपने भाई से झगड़ा होने पर उन्होंने औरंगजेब से मदद माँगी थी और नतीजे में उन्हें इस्लाम धर्म स्वीकार करना पड़ा था। बाद में इस परिवार के आखिरी राजा आदमशाह वापस हिन्दू हो गये थे।

बख्तबुलंद के दौर में दूर-दूर से मेहनती किसानों को राज्य में बुलाकर बसाया गया था ताकि खेती सम्पन्न हो सके। यह कहा जा सकता है कि बाद में मराठा राज्य को बख्तबुलंद के इन कार्यों से शासन करने में बहुत मदद मिली।

बख्तबुलंद का साम्राज्य आज के छिंदवाड़ा, बैतूल, सिवनी, भण्डारा, बालाघाट और नागपुर के कुछ हिस्सों तक था। बख्तबुलंद ने आज के नागपुर शहर की नींव रखी थी जिसे पहले राजापुर बारसा नाम की छोटी-मोटी बस्तियों के रूप में जाना जाता था। कहा जाता है कि देवगढ़ राज्य के टूटने से आज का नागपुर बना है। इसी तरह मोहखेड़ के टूटने से आज का छिंदवाड़ा जिला बना है। मोहखेड़ा में देवगढ़ राजा की कचहरी तथा किला था और महुआ के पेड़ पर फाँसी तक दी जाती थी।

देवगढ़ राज्य में उस समय 200 बावड़ियाँ और 700 कुएँ थे। जुन्नारदेव के पास हिरदागढ़ में पत्थरों से पटी एक तीन-चार फुट की झिरिया है जिससे असीमित पानी मिलती है। इसी तरह तामिया में तुल-तुला पहाड़ है जहाँ से तुल-तुल की ध्वनि करता हुआ पानी निकलता है। यहाँ एक मंदिर और पुराना जलस्रोत है। हर्रई में देवगढ़ राजाओं के जमाने की झिरिया है जो आज भी बड़ी आबादी वाले इस कस्बे को पानी देती रहती है। झिलमिला स्टेशन के पास चौराई में किसानों के देवता डोलना, डुल्ला या डोलन देव का वास है। कहते हैं यहाँ की दलदली जमीन डोलती है। और पापी इसमें धँस जाते हैं। बिछिया-सोंसर मार्ग पर एक विशाल तालाब है जिसे देवगढ़ राजाओं ने बनवाया था। इसी तरह परासिया-छिंदवाड़ा मार्ग पर गोंगीवाड़ा के पास मारई गाँव में एक विशाल बावड़ी बनी है।

गढ़ा मंडला राज्य (15वीं शताब्दी से 1789 ई. तक)


यहाँ राजगोंड राज्य करते थे। इस राज्य का केंद्र पहले गढ़ा (जबलपुर के पास) था और बाद में मंडला बना। इस राज्य के निर्माता जदुराय नामक एक व्यक्ति थे जो गोदावरी के किनारे के एक गाँव में पटेल के बेटे थे। जदुराय तत्कालीन कलचुरी राजाओं की नौकरी में थे लेकिन बाद में कलचुरियों की कमजोरियों को बताकर उन्होंने नौकरी छोड़ दी थी। उन्होंने एक स्थानीय गोंड सरदार नागदेव की बेटी से विवाह किया था और बाद में नागदेव की मृत्यु पर खुद ही सरदार बन गए थे।

जदुराय ने सुरभि पाठक को अपना मंत्री बनाया जो खुद भी पहले कलचुरियों की नौकरी में थे। इन दोनों ने तय किया कि अपने पूर्व राजाओं को हटायेंगे और उसमें वे सफल भी हुए।

जदुराय की अगली पीढ़ी में संग्रामशाह (1510ई. से 1513 ई. के बीच) राजा बने और उन्होंने अपने राज्य का विस्तार किया। उन्होंने नरसिंह पुर के पास चौरागढ़ का किला बनवाया और गढ़ा (जबलपुर) में संग्राम सागर नामक विशाल तालाब का निर्माण करवाया। इस तालाब के पास उन्होंने भैरव बाजना मठ भी बनवाया था।

संग्रामशाह के बाद दलपतशाह राजा बने जो राजधानी गढ़ा से सिंगोरगढ़ (दमोह जिले में) ले गए दलपतशाह के विवाह का प्रस्ताव जब महोबा के चंदेल राजा का पुत्री दुर्गावती के लिए भेजा गया तो पहले गढ़ा के राजाओं ने प्रस्ताव नामंजूर कर दिया। दलपतशाह खुद सुन्दर थे और उनके पिता संग्रामशाह की ख्याति थी, इसलिए दुर्गावति भी उनसे विवाह के लिए उत्सुक थीं। ऐसे में दुर्गावती को युद्ध करके ही प्राप्त किया जा सकता था और दलपतशाह ने यही किया।

दलपतशाह विवाह के बाद अधिक जीवित नहीं रहे और वे अपने पाँच वर्ष के पुत्र वीरनारायण को छोड़कर स्वर्ग सिधार गए। दुर्गावती वीरनारायण की संरक्षक रहीं और बाद में उन्होंने 1549 में राज्य की गद्दी सँभाली।

जलस्रोतों की भी सम्राज्ञी थीं-दुर्गावती


दुर्गावती के राज सँभालने के 15 वर्ष बाद 1564 ई. में मुगलों के कड़ा-मणिकपुर के सिपहसालार आसफ खाँ ने दुर्गावती की वीरता, सुन्दरता पर मुग्ध होकर हमला किया। पराजय निकट देखकर 24 जून 1564 ई. को नर्रई के समीप खुद को तलवार से खत्म कर लिया। आसफ खाँ ने एक हजार हाथी और बहुत-सा सोना, जेवरात लूटे और इसमें से कुछ दिल्ली दरबार को भी भेजे। गढ़ा राज्य को मुगल साम्राज्य के मालवा सूबे में शामिल करके सरदार के रूप में रख दिया गया। रानी दुर्गावती के बाद गढ़ा का गोंड राजवंश मुगलों के अधीन हो गया।

दुर्गावती ने अपने शासनकाल में गढ़ा के पास रानीताल और चेरीताल समेत अनेक तालाबों का निर्माण करवाया था। गढ़ा और मंडला के आसपास भी उन्होंने कई महत्वपूर्ण निर्माण करवाए थे।

हिरदेशाह गोंड राज्य के एक और प्रभावशाली राजा थे उन्होंने बुन्देला राजा जुझारसिंह से अपने पिता का बदला लिया और फिर अपना राज भी वापस अपने अधिकार में कर लिया। हिरदेशाह ने राज्य को सुव्यवस्थित करने में अहम् भूमिका निभाई। कृषि योग्य क्षेत्र बढ़ाया और मेहनती किसान जातियों, खासकर कुर्मी और लोधियों के अपने इलाके में बुलाकर बसाया था। उन्होंने मंडला के पास हिरदेनगर भी बसाया।

हिरदेशाह ने एक लाख आम के पेड़ लगवाए जो आज के लाखा क्षेत्र में थे। जबलपुर की फौजी छावनी उसी जगह बनी है। इसके अलावा उन्होंने गढ़ा के पास एक बेहतरीन तालाब गंगासागर बनवाया। उन्होंने राजधानी को गढ़ा से रामनगर स्थानांतरित किया। यहाँ नर्मदा के किनारे उन्होंने एक शानदार महल बनवाया, जो 1663 ई. में बनकर तैयार हो गया था।

बाद में 1700 ई. के आसपास गोंड राजा नरेन्द्र शाह ने मंडला को राजधानी बनाया। अठारहवीं सदी के मध्य से गढ़ा राज्य पर मराठों के आक्रमण होने लगे और अंत में सन् 1704 ई. में मराठों ने इस राज्य को अपने अधीन कर लिया।

चांदा राज्य (13वीं से 18वीं शताब्दी)


चांदा में गोंडों ने छत्रियों के माना राज्यों को हटाकर राज्य का अधिकार जमाया था। परम्परा के अनुसार ज्ञान और ताकत में श्रेष्ठ एक कोल भील आदमी ने बिखरे हुए गोंडों को एकत्रित करके एक राज्य की शुरुआत की थी। उन्होंने गोंडों को लोहा बनाना (अयस्क से लोहा निकालना) सिखाया और माना राजाओं के खिलाफ संघर्ष में नेतृत्व किया। करीब 200 वर्षों में माना राजाओं को पूरी तरह हटाया जा सका। यहाँ की गद्दी पर सबसे पहले राजा भीम बल्लाल सिंह बैठे थे। उनका राज्य 13 वीं शताब्दी में रहा था। सन् 1240 में भीम बल्लाल के बाद उनके बेटे खुरजा बल्लालसिंह और फिर खुरजा के बेटे हीरसिंह राजा बने। हीरसिंह जो की योद्धा और बुद्धिमान राजा थे, ने पहली बार जमीन पर लेवी लगाई लेकिन उन्होंने कभी खुद को उसका मालिक नहीं माना। बाद में भी गोंड राजाओं ने खुद को भूमि का मालिक नहीं माना।

तालाबों की चाँदी का राज्य-चाँदा


गोंड काल में बनाए गए जलस्रोतों में से हैं चाँदा राज्य के असंख्य तालाब। आज के भण्डारा जिले में, एक अध्ययन के अनुसार 410000 हेक्टेयर जमीन का 78 प्रतिशत हिस्सा अकेले इन्हीं तालाबों की दम पर सिंचित होता है। यहाँ कुल 43381 तालाब आज भी हैं जिनमें से 238 तालाब 10 हेक्टेयर से भी बड़े हैं, 3007 तालाब 4 से 10 हेक्टेयर के, 7534 तालाब 2 से 4 हेक्टेयर के, 13289 तालाब 1 से 2 हेक्टेयर के और 19313 तालाब एक हेक्टेयर से कम के हैं। देवगढ़ व मंडला के गोंड राज्यों की सीमाओं से लगे चाँदा राज्य (आज का भण्डारा जिला) के एक राजा हीरसिंह का फरमान था कि ‘जो व्यक्ति जंगल के किसी टुकड़े को साफ करके आबादी के लायक बनाएगा उसे उस इलाके के ‘सरदार’ और ‘जमींदार’ का खिताब दिया जाएगा।’ इसी फरमान के अनुसार ‘जो व्यक्ति तालाब का निर्माण करेगा उसे उसी तालाब से सिंचित जमीन पुरस्कार स्वरूप प्रदान की जाएगी।’ तालाब बनाने वाले लोगों को राजा की तरफ से भेंट में सोने का हल देकर सम्मान करने तक का चलन था। इन फरमानों के कारण विशाल भू-भाग खेती लायक बनाया गया और असंख्य तालाब भी खोदे गए। कहते हैं आज के नागपुर और चांदा इलाके में 45 हजार तालाब बने थे।

वैनगंगा घाटी की मराठी पट्टी में किसानों की एक छोटी जाति ‘कोहली’ भण्डारा, चांदा, गढ़चिरोली और बालाघाट जिलों में बसी है। यह जाति विशाल सिंचाई तालाबों के निर्माताओं के रूप में जानी जाती है जिनके कारण पूरी वैनगंगा घाटी प्रसिद्ध है। इन तालाबों का पानी धान और कोहली जाति की प्रिय फसल गन्ना के उत्पादन के काम में लाया जाता है।

कोहली जाति की मान्यता है कि उन्हें चांदा के एक गोंड राजा द्वारा बनारस से लौटते हुए वहाँ से लाकर भण्डारा में बसाया गया था। कई बार अवर्षा के कारण धान की फसल बिगड़ती रहती थी और इसलिए जल-आपूर्ति के लिए ये तालाब बनाए गए थे। फिर धान की फसल की लोकप्रियता के कारण भी लगभग हर जगह तालाब निर्माण किया गया था।

ये तालाब ढाई से तीन सौ वर्ष पुराने हैं। आबादी और उसकी जरूरतों के तालाबों के लिए जंगलों के हिस्सों को साफ करने के कई उदाहरण हैं जिसमें पाटिल (मालगुजार) की मुख्य भूमिका होती थी। आजकल तालाब सिर्फ सिंचाई ही नहीं बल्कि पेयजल और मछली पालन के लिए भी उपयोग किए जाते हैं। कोहली लोग ऐसे व्यक्तियों के सम्मान करते थे जो कई तालाबों के मालिक होते थे।

इन तालाबों की पाल पर आमतौर पर भूराजी देव के मंदिर बने हैं। यह देवता प्राकृतिक प्रकोप और दुश्मनों से तालाबों को बचाने की जिम्मेदारी निभाता है, ऐसी मान्यता है। इसी तरह से हर गाँव में भीमसेन के मंदिर भी पाए जाते हैं। अकाल या वर्षा की देरी के समय इस देवता पर गोबर थोप दिया जाता है। कहा जाता है कि इससे देवता नाराज होकर खुद को धोने के लिए बरसात करवाएँगे।

निजी कंपनी भी हो सकती है सूचना-अधिकार के दायरे में, अगर

एनटीएडीसीएल सूचना-अधिकार के दायरे में : मद्रास उच्च न्यायालय


हाल ही में पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप परियोजना से संबंधित एक महत्वपूर्ण फैसले में मद्रास उच्च न्यायालय द्वारा न्यू तिरुपुर एरिया डिवेलपमट कार्पोरेशन लिमिटेड, (एनटीएडीसीएल) की याचिका खारिज कर दी गई है। कंपनी ने यह याचिका तमिलनाडु राज्य सूचना आयोग के उस आदेश के खिलाफ दायर की थी जिसमें आयोग ने कंपनी को मंथन अध्ययन केन्द्र द्वारा मांगी गई जानकारी उपलब्ध करवाने का आदेश दिया था।

एक हजार करोड़ की लागत वाली एनटीएडीसीएल देश की पहली ऐसी जलप्रदाय परियोजना थी जिसे प्राइवेट पार्टनरशिप के तहत मार्च 2004 में प्रारंभ किया गया था। परियोजना में काफी सारे सार्वजनिक संसाधन लगे हैं जिनमें 50 करोड़ अंशपूजी, 25 करोड़ कर्ज, 50 करोड़ कर्ज भुगतान की गारंटी, 71 करोड़ वाटर शार्टेज फंड शामिल है। परियोजना को वित्तीय दृष्टि से सक्षम बनाने के लिए तमिलनाडु सरकार ने ज्यादातर जोखिम जैसे नदी में पानी की कमी अथवा बिजली आपूर्ति बाधित होने की दशा में भुगतान की गारंटी, भू-अर्जन/ पुनर्वास की जिम्मेदारी, परियोजना की व्यवहार्यता हेतु न्यूनतम वित्तीय सहायता, नीतिगत और वैधानिक सहायता स्वयं अपने सिर ले ली है। सार्वजनिक क्षेत्र के अधिकारियों को कंपनी में प्रतिनियुक्ति पर भी भेजा। सार्वजनिक क्षेत्र से इतने संसाधन प्राप्त करने के बावजूद भी कंपनी खुद को देश के कानून से परे मानती है।

पृष्ठभूमि


वर्ष 2007 में मंथन अध्ययन केन्द्र ने सूचना का अधिकार अधिनियम 2005 के तहत आवेदन-पत्र भेजकर कंपनी द्वारा तिरुपुर में संचालित जलदाय एवं मल-निकास परियोजना के बारे में कुछ जानकारी मांगी थी। तमिलनाडु सरकार और तिरुपुर नगर निगम के साथ बीओओटी अनुबंध के तहत का काम कर रही कंपनी ने मंथन द्वारा वांछित सामान्य जानकारी देने से यह कहते हुए इंकार कर दिया था कि सूचना का अधिकार कानून के तहत वह ‘लोक प्राधिकारी’ नहीं है।

कंपनी के इस निर्णय के खिलाफ मंथन ने तमिलनाडु राज्य सूचना आयोग में अपील की थी। आयोग ने अपने 24 मार्च 2008 के आदेश में कंपनी को लोक प्राधिकारी मानते हुए उसे मंथन अध्ययन केन्द्र द्वारा वांछित सूचना उपलब्ध करवाने का आदेश दिया था। लेकिन कंपनी ने मद्रास उच्च न्यायालय में तुरंत याचिका दायर कर तमिलनाडु राज्य सूचना आयोग के आदेश को रद्द करने की अपील कर दी। उच्च न्यायालय ने कंपनी, राज्य सरकार, राज्य सूचना आयोग और मंथन अध्ययन केन्द्र की दलील सुनने के बाद 6 अप्रैल 2010 को अपने विस्तृत आदेश में पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप से संबंधित संवैधानिक, वित्तीय, संचालन, सार्वजनिक सेवा आदि पर प्रकाश डालते हुए सिद्ध किया कि कंपनी द्वारा समाज को दी जाने वाली सेवा के लिए ऐसी परियोजना सार्वजनिक निगरानी में होनी चाहिए। जस्टिस के. चन्दू के एकल पीठ ने कंपनी की याचिका को खारिज करते हुए कहा कि राज्य सूचना आयोग के फैसले में कोई असंवैधानिकता या कमी नहीं है।

प्रकरण से संबंधित तथ्य को ध्यान में रखते हुए उच्च न्यायालय के फैसले में कहा गया है कि अपीलार्थी (कंपनी) सूचना का अधिकार कानून की धारा 2 (एच) (डी) (1) के तहत लोक प्राधिकारी है। इसलिए राज्य सूचना आयोग का आदेश एकदम सही है।

उच्च न्यायालय के फैसले के अनुसार जब सरकार नगर निकाय की तरह आवश्यक सेवा कार्य खुद करने के बजाय याची कंपनी जैसी किसी कंपनी को पर्याप्त वित्त पोषण (Substantially financed) देकर उसे काम करने की मंजूरी देती है तो कोई भी इसे निजी गतिविधि नहीं मान सकता है। बल्कि ये पूरी तरीके से सार्वजनिक गतिविधि है और इसमें किसी को भी रूचि हो सकती है।

फैसले में उल्लेख है कि कंपनी की आवश्यक गतिविधि जलदाय और मल-निकास है जो नगर निकाय के समान है। ऐसे में कंपनी यह दावा कैसे कर सकती है की वह समुचित सरकार द्वारा नियंत्रित नहीं है। पर्याप्त वित्त के बारे में तो कंपनी ने स्वीकार किया है कि कंपनी के कुल पूँजी निवेश में सरकार का हिस्सा 17.04% है। ऐसे में यह स्पष्ट नहीं है की कंपनी कैसे तर्क करती है कि वह राज्य सरकार द्वारा नियंत्रित नहीं है। केवल अंशधारक का Articles of Association दिखाने और यह कहने मात्र से की वह न तो सरकार द्वारा नियंत्रित है और न ही पर्याप्त वित्त पोषित है, कंपनी सूचना का अधिकार कानून के दायरे से बाहर नहीं हो सकती है।

फैसले में रेखांकित किया गया है कि पूर्व स्वीकृति के बाद नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (सीएजी) भी कंपनी के हिसाब- किताब का लेखा परीक्षण कर सकता है। ऊपरोक्त के प्रकाश में कंपनी यह तर्क नहीं दे सकती की वह सूचना का अधिकार कानून के तहत “लोक प्राधिकारी” नहीं है। इसके विपरीत कंपनी राज्य सरकार द्वारा नियंत्रित एवं पर्याप्त वित्त पोषित है।

फैसले में कहा गया है कि जब संविधान ने ऐसी गतिविधियों के लिए स्थानीय निकाय के बारे में आदेश दिया है तथा राज्य सरकार ने जलदाय और मल-निकास जैसे आवश्यक कार्य के लिए नगर निकाय बनाए हैं और जब ये कार्य अन्य व्यावसायिक समूह को सौंपे जाते हैं, ऐसे में यह निश्चित है कि वे व्यावसायिक समूह नगर निकाय की तरह ही हैं। इसलिए हर नागरिक ऐसे समूह की कार्य प्रणाली के बारे में जानने का अधिकार रखता है। कहीं ऐसा न हो की बीओटी काल में ये कंपनियां लोगों का शोषण करती रहें इसलिए इन्हें अपनी गतिविधियों की जानकारी देते रहना चाहिए। उनकी गतिविधियों में पारदर्शिता और लोगों के जानने के अधिकार को सिर्फ इसलिए नहीं रोका जा सकता कि कंपनी ने राज्य सूचना आयोग से ऐसा आग्रह किया है।

यह स्पष्ट है कि राज्य के अतिरिक्त भी जब कोई निजी कंपनी सार्वजनिक गतिविधि संचालित करती है तो पीड़ित व्यक्ति के लिए न सिर्फ सामान्य कानून में बल्कि संविधान की धारा 226 के तहत याचिका के माध्यम से भी इसके समाधान का प्रावधान है। लोक प्राधिकारी होना इस बात पर निर्भर करेगा कि उसके द्वारा किया जाना वाला काम लोक सेवा है अथवा नहीं ।

हमारा मानना है कि मद्रास उच्च न्यायालय का यह आदेश पानी संबंधी सेवा और संसाधन के निजीकरण पर निगरानी कर रहे देशभर के लोग, समूह और संगठन के लिए एक जीत है। आशा है कि यह आदेश निजी कंपनियों द्वारा सार्वजनिक धन और सार्वजनिक संसाधन की लूट पर नजर रखने की प्रक्रिया में काफी उपयोगी साबित होगा।

वो वनस्पतियाँ जो गंगा जल को अमृत बनाती हैं


डॉ भगवती प्रसाद पुरोहित
गंगाजल कभी खराब नहीं होता है। इसके पीछे वैज्ञानिक तथ्य यह है कि गौमुख से गंगोत्री तक की गंगायात्रा में हिमालय पर्वत पर उगी ढेर सारी जड़ी-बूटियां गंगा जल को स्पर्श कर अमृत बनाती हैं। साथ ही गंगा जल में बैट्रियाफौस नामक पाये जाने वाला बैक्टीरिया अवांछनीय पदार्थों को खाकर शुद्ध बनाये रखता है। और दूसरा बड़ा कारण है कि हिमालय की मिट्टी में गंधक होता है जो गंगा जल में घुलकर गंगा जल को शुद्ध बनाता है।

संस्कार और संस्कृति में हजारों सालों से गंगा को माँ और गंगाजल को अमृत मानने वाले उत्तराखण्ड में पीने के पानी की स्वच्छता पर परम्परागत रूप से विशेष ध्यान दिया जाता था। पानी को मस्तिष्क के लिए सर्वाधिक प्रभावित करने वाला कारक माना जाता है। इसलिए भी द्विज लोग सिर्फ अपने हाथ का स्वच्छ जल ही प्रयोग करते थे। खासकर बौद्धिक कार्य करने वाला ब्राह्मण वर्ग अपने उपयोग में लाने वाले जल को दूसरों को या बच्चों को छूने भी नहीं देता था। इस शुद्धता की महत्ता कृषि, व्यापार या युद्ध प्रिय व्यक्ति अथवा सेवक नहीं समझ सके। खान-पान की शुद्धता भी इसी आधार पर थी। रसोई पूरी तरह स्वच्छ रहे इसके लिए बच्चों तक को रसोई के पास फटकने नहीं दिया जाता था। आज यद्यपि कुछ सतही मानसिकता के लोगों द्वारा इसे मनुवाद के नाम से तिरोहित किया जा रहा है परन्तु इस शुद्धता का यह पक्ष भी देखा जाना अनिवार्य है कि आज भी नैतिकता या मर्यादा के विरूद्ध काम करने वाले व्यक्ति को पानी से अलग कर देते हैं। यह सबसे बड़ा सामाजिक दण्ड है। कहने का आशय यह है कि अपराधी कार्य करने वाला व्यक्ति समाज के साथ भी अपराध कर सकता है इसलिए ऐसे अपराधी से सबसे पहले जल की सुरक्षा करनी चाहिए। यह तथ्य इस बात का प्रतीक है कि प्राचीन समाज पानी की स्वच्छता के प्रति कितना संवेदनशील था।

आज भी उत्तराखण्ड में पानी की गुणवत्ता बढ़ाने के लिए परम्परागत उपायों को व्यवहार में क्रियान्वित करने की आवश्यकता है। उदाहरण के लिए लम्बी रेशेदार हरी शैवाल कायी पानी को प्राणियों के पाने के अनुकूल बनाने में सहायक सिद्ध होती है और शैवाल से गुजरने वाला पानी मनुष्य आदि सभी जीव जन्तुओं के लिए कम हानिकारक होता है। यह विशेष प्रकार की शैवाल पांच हजार फिट से अधिक ऊँचाई पर पायी जाती है। जबकि इसकी अपेक्षा कम ऊँचाई पर पायी जानी वाली शैवाल कतिपय स्थानों पर खासकर मैदानों में जहरीली भी होती है। उत्तराखण्ड में ऐसी हजारों-हजार जड़ी बूटियां है जो पानी को साफ एवं स्वच्छ रखने में सहायक होती हैं। तुलसी, पुदीना, पिपरमेंन्ट, फर्न घास, बज्रदन्ती, बज आदि जड़ी-बूटियों को प्राचीन काल में लोग पेयजल स्रोतों के आस-पास लगाते थे। हमारे गांवों में आज भी ये जड़ी-बूटियां पेयजल स्रोतों के आस-पास प्राप्त होती है। लेकिन जब से प्राकृतिक स्रोतों को तोड़कर नेचुरल फिल्टरेशन की बात नजरंदाज कर सीमेंट आदि रसायनों से चैम्बरों का निर्माण किया गया तो प्राचीन अवधारणा ही नष्ट हो गयी। ध्यान रखने वाली बात यह है कि शैवाल प्राकृतिक स्रोतों से निकलने वाली बारिक रेत की रोकती है और जीवाणु तथा बारीक जन्तुओं को भी, जबकि पुदीना व पीपरमेन्ट जल से मानव स्वास्थ्य के लिए हानिकारक तत्वों को ग्रहण कर उसे उपयोगी और स्वास्थ्य के लिए लाभप्रद बनाते हैं। इसी प्रकार दूब, ब्राह्मी व बज कीटाणु नाशक होने के साथ-साथ बुद्धिवर्द्धक एवं स्वास्थ्य बर्द्धक हैं। समोया सुगन्ध बाला आदि औषधियां जल में रूचिकर व विरेचक गुणों को उत्पन्न करती हैं जबकि फर्न घास पानी में विचरण करने वाले केकड़े, मेढ़क, मछली, सांप, आदि जीव जन्तुओं द्वारा छोड़े गये अवशिष्टों को ग्रहण कर पानी को ताजा व शुद्ध बनाये रखती है। तुलसी आदि वनस्पतियों के गुणों से तो सभी विज्ञ हैं।

गंगा जल को अमृत बनाने वाली/कुछ जड़ी-बूटियों की सूची


अतीस
जटामांसी
रतन जोत
अमलीच
जोगीपादशाह
रूद्रवन्ती
अडूसा
जंगली इसबगोल
लालजड़ी
अजगन्धा
जंगली कालीमिर्च
लांगली
अजमोदा
जरूग (मत्ता जोड़)
लाटूफरण पांगरी
असगन्ध
जोंक मारी
सतावर
अपामार्ग
टिमरू
सर्पगन्धा
आक
टंकारी
शंख पुष्पी
उस्तखट्टूस
जेलू आर्चा
सतवा
इन्द्रायण
दूब
समोया
इन्द्रजटा
दुधिया अतीस
सालम पंजा
कण्डाली
दुग्ध फेनी
सालम मिश्री
कण्चकारी
धोय
कुणज
कपूर कचरी
नीलकंठी
पुदीना
कुल्हाडकट्या
नाग दमन
पिपरमेन्ट
किलमोड़
धुप लक्कड़
ब्रह्मकमल
कुकड़ी
निर्विषी
फेन कमल
केदार कड़वी
पुनर्नवा
जंगली गेंदा
कोल प्लेगहर बूटी
पित्तपापड़ा
चल
कोल कन्द
पाषाण भेद
सरासेत
कैलाशी मिरधा
पीली जड़ी
गुलाब
कांथला
बज
गुलदावरी
गिलोय
ब्रह्मी
वन अजवायन
गिंजाड़
गुग्गल
वन तुलसी
गोबरी विष
वज्रदन्ती
मेदा महामेदा
गोछी कोंच
बड़मूला
मूर मुरामासी
चोरू रिखचोरू
वनफसा
मकोय
चन्द्रायण
भैंसलो
मजीठा
चिरायता
भमाकू
माल कंगणी
चित्रक
ममीरा
सोमलता


इन्हीं जड़ी बूटियों से हेकर गुजरने वाले पानी के स्वाद व गुणवत्ता का कोई जबाव नहीं है।

पानी की गुणवत्ता को बढ़ाने वाली हिमालयी जड़ी-बूटियां एवं औषधियां

उत्तराखण्ड हिमालय में अनेकों वृक्ष भी हैं। जिनका न केवल जल भण्डारण में बल्कि जल की गुणवत्ता बनाये रखने में भी महत्वपूर्ण योगदान है। इनमें मुख्य रूप से कुमकुम, सुराई, काफल, बॉज, बुरांश, पइयां दालचीनी, उदम्बर, उतीस व वेल प्रमुख हैं। कुमकुम की जड़ से निकलने वाला पानी धरती पर अमृत तुल्य है। यह जल इहलोक ओर परलोक में न केवल सद्वृत्तियों का विकास करता है बल्कि निरोग, गुणकारी, बुद्धि वर्द्धक, अमृत तुल्य देवताओं को भी दुर्लभ है। परन्तु आज कुमकुम का वृक्ष धरती से लुप्तप्राय हो रहा है ऐसे में कुमकुम का पेयजल की दृष्टि से भी संरक्षण आवश्यक है।

(सारणी-2) दूसरा महत्वपूर्ण वृक्ष सुराई है। सुराई की जड़ों से निसृत होने वाला पानी न केवल स्वास्थ्य वर्द्धक है बल्कि जिन गॉवों में भी पानी के स्रोतों पर सुराई का पेड़ हैं वहां के लोग गोरे-चिट्टे, साफ रंग, निरोग, सुन्दर, अधिकांश दोहरे बदन के सुडोल आकर्षक एवं दीर्घायु होते हैं। गेरी, पेरी, सुतोल, सणकोट, काण्डा, आदि गांवों में जहां पानी के स्रोतों पर सुराई के विशाल वृक्ष हैं वहां के लोगों को देखकर यह बात स्वयंसिद्ध हो जाती है, जबकि बॉज, बुरांश व काफल की जड़ों से निसृत होने वाला जल मधुर, सुपाच्य, भूख बढाने वाला निरोगी एवं स्वास्थ्यबर्द्धक तथा अत्यन्त गुणकारी होता है। उत्तराखण्ड हिमालय में ऐसे अनेकों वृक्ष एवं झाड़ियां हैं जो जल की गुणवत्ता बढ़ाने में सहायक सिद्ध होती हैं।

पानी की गुणवत्ता को बढ़ाने वाली दुर्लभ मृदा प्रजातियां

महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि चाहे जड़ी बूटियां और वृक्षों के रोपण से पानी की गुणवत्ता सुधारी जाय या आधुनिक हाईजनिक फिल्टरों से लेकिन उपभोक्ताओं को मानकों के अनुरूप पेयजल उपलब्ध होना ही चाहिए। इस प्रकार जिन गांवों में पेयजल स्रोतों से जल उपलब्ध होता है वहां के लिए प्राकृतिक पद्धति एवं जिन गांवों में पेयजल की पाइप लाइन है वहां फिल्टर की व्यवस्था अत्यन्त आवश्यक है। लेकिन इसके ठीक विपरीत आज हो रहा है।

जल वर्द्धक एवं जल शोधक जड़ी बूटियों की सूची (सारणी-2)


                     वृक्ष                   झाड़ियां
अखरोट
चीड़
मजनू
चम्पा
करोंदा
आम
च्यूरा
मेहल
मवा
कूंजा
अमलतास
च्यूला
रक्त चंदन
सेंरू
कूरी
अयांर
जामुन
रागा
दालचीनी
गढ़पीपल
अर्जुन
डेंकणा
रीठा
किरकिला
जंगली मटर
आडू
ढाक
लोद
संतरा
तुंगड़ा
आंवला
तिमला
बरगद
बड़ा
धौला
--
मोरू
सागौन
गोभी
बांस
इमली
तुन
साल
यमखड़ीक
बेर
उतीस
थुनेर
सिरान
ऐरीकेरिया
मालू
ओंगा
देवदार
सिंवाली
गुलमुहर
रामबांस
अंगू
नासपाती
सुबबूल
हड़जोत
रिंगाल
क्वेराल
नींबू
सुराई
सेमल
हिंसोल
करील
नीम
शीशम
शहतूत
किलमोड़
काकड़ा
पांगर
पीपल
पापड़ी
चाम
काफल
बबूल
हरड़
पइयां
केला
कीकर
बहेड़ा
बेल
कलमिन्डा
कुणज
कैल
खड़ीक
बांज
कुमकुम
 
खर्सु
बेडू
कपासी
बुरांश
 
खैर
फनियांट
भमोरा
अमरूद
 
गूलर
गेंठी
भीमल
लीची
 
चिनार
बदाम
लुकाट
 
 


उपयोगी जड़ी बूटियों झाड़ियों एवं वृक्षों की कमी के कारण कतिपय स्थानों पर सूखे की स्थिति उत्पन्न हो गयी है। ऐसे स्थानों पर वनस्पति के नाम पर राजस्थानी, मरूस्थली या शुष्क क्षेत्रों की तरह नागफनी, लेन्टाना आदि कैक्टस प्रजाति की झाड़ियां उग रही हैं जिससे पानी के स्वाद व गुणवत्ता में लगातार कमी आ रही है। जल की गुणवत्ता समाप्त करने वाली कुछ मुख्य वनस्पतियों की सूची सारणी सं. 3 में देखा जा सकता है।

क्र.सं.
वनस्पति का नाम
1
यूकेलिप्टस
2
पौपुलस
3
सिल्वरओक
4
चीड़
5
नागफनी
6
मुल्ला
7
रिण्डा
8
अरिण्डा
9
लेन्टाना
10
कालाबांस
11
गाजर घास
12
आंक
13
कनेर
14
सांखिया
15
ओक (एक विशेष प्रजाति)
16
खिण्डा


उपरोक्त वनस्पतियां जो उत्तराखण्ड के मध्य हिमालय में पायी जाती हैं, उनमें यूकेलिप्टस, पौपुलस और सिल्वर ओक ही ऐसे वृक्ष हैं जो पानी वाले स्थानों में आसानी से उग जाते हैं शेष लगभग सारी वनस्पति शुष्क स्थानों में उगती हैं। प्रकृति की व्यवस्था देखिए शुष्क व वनस्पति विहीन क्षेत्रों में वह अंत में ऐसी वनस्पति उगति हैं जिन्हें मनुष्य व पशु हानि न पहुँचा सकें और बाद में इन्ही वनस्पतियों के सहारे उपयोगी वनस्पति भी उगनी प्रारम्भ होती है और प्रकृति पारिस्थितिकीय संतुलन स्थापित करने का प्रयास करती है।

जब विद्यासागर जी ने चप्पल फेंकी

जब विद्यासागर जी ने चप्पल फेंकी फिर एक चप्पल चली। रोज ही कहीं ना कहीं यह पदत्राण थलचर हाथों में आ कर नभचर बन अपने गंत्वय की ओर जाने क...