बनारस बेहद गंदा शहर है। खासकर घाट और घाट के आस-पास की गलियाँ- जो कि प्राचीन मन्दिरों, मठों और आश्रमो का आश्रय हैं। गलियों में पत्ते, दोने, प्लास्टिक, सब्जी के छिलके, कुल्हड़, पान की पीक, गाय का गोबर, थूक, मूत और कुत्ते का मल सब एक साथ पड़ा रहता है। लोग अपने घरों से अन्दर, बाहर होते रहते हैं एक अनुष्ठान के बतौर अपनी देहरी भी साफ़ कर देते हैं। मगर उनकी आदतों में कोई सुधार नहीं होता। वे जहाँ रहते हैं, वही थूकते हैं, वहीं मूतते हैं, और अगर कोई न देख रहा हो तो वहीं हग भी लेते हैं। बच्चो के लिए ये दोष तो माफ़ है ही। उन्हे माताएं, पिता, बड़े भैया, दीदी दरवाजे के सामने ही बैठा देते हैं। मगर बड़े.. कुछ तो ऐसे पहुँचे हुए भी हैं जो गंगा-तीर के लिए अपने मल को सुरक्षित रखते हैं और ठीक घाट की पथरीली पावनता पर अपना उत्सर्जन करते हैं।
दशाश्वमेघ घाट की बड़ी महिमा है। ब्रह्मा जी के प्रताप से बना है। मगर सब कहीं ऐसा थूक खखार, हगा-मूता पड़ा रहता है कि आप को पाँव रखने में भी घिन आए। मगर बनारसियों को नहीं आती। वे वहीं विचरण करते हुए काशी की धर्म की धुरी होने की गौरवपूर्ण निश्चिंताताओं में रमे रहते हैं।
दशाश्वमेघ के बगल के घाट राजेन्द्रप्रसाद घाट की दीवार से लग कर शहर के सीवर के दो बड़े नाले खुलते हैं। वहीं कुछ मलबा भी पड़ा है। यूँ तो कुल घाट गंदा है मगर ये कोना कुछ अधिक गंदा है। ये जान कर लोग-बाग अपनी लघु शंका का समाधान यहीं करने आते रहते हैं। दीवार के उस पार गंगा की महाआरती चल रही है। इधर मूत्र की धार चल रही है। और उसके साथ सीवर का धारा चल रहा है जिसका प्रवाह गंगा से भी तेज है।
शुचिता का ऐसा अभाव देखकर मन उदास हो गया। याद आया कि श्रीमद भागवत में धर्म के चार पैर बताए गए हैं। तप, शुचिता, दया, और सत्य। खेद के साथ लिखना पड़ रहा है कि बनारस में मुझे किसी के भी दर्शन नहीं हुए। धर्म रूपी वृषभ के तप रूपी पैर का लोप कृतयुग के अंत से ही हो चुका है, शुचिता और दया का भी बाद के युगों में; और अब धर्म केवल सत्यरूपी पैर पर खड़ा है। रूपक बहुत मोहक और रोचक है पर विश्वास करना इस पर कठिन है। सत्य अगर बचा है कलियुग में तो कहाँ? कहाँ है सत्य?
फिर भी एक समान्तर व्याख्या मानती है कि समय का बोध सब के लिए एक सा नहीं होता – सम्भव है कि कोई पहुँची हुई विभूति कृतयुग में अस्तित्वमान हो। दधीचि की परम्परा में हाड़ गला कर तप करने वाले ऐसी किसी विभूति को काशी के घाटों पर देखने की उम्मीद मैं कर भी नहीं रहा था। पर दया और शुचिता तो न्यूनतम योग्यता है.. धर्म छोड़िये.. मनुष्यता की।
एक अनुभव बताता हूँ- मन्दिर ठीक है, ईश्वर भी ठीक है, मन्दिर में क़ैद ईश्वर पर मेरी कोई श्रद्धा नहीं है। काशी विश्वनाथ के शिवलिंग पर मदार की माला चढ़ा देने से अन्तर्जगत में कोई विशेष घटित हो जाएगा, यह सोचकर नहीं बस एक जिज्ञासावश ज्ञानवापी मस्जिद और काशी विश्वनाथ के सह-अस्तित्व का प्रत्यक्ष दर्शन करने की इच्छा हुई। लम्बी लाइन का हिस्सा बन गया।
इस प्रपंच में मेरी अश्रद्धा साफ़ अलग दिखाई देने से किसी को कोई तक़लीफ़ न हो तो दस रुपये का दूध-फूल-माला आदि भी ले ली। मन्दिर के कीच भरे पथ पर रेंगते हुए फिर शुचिता का प्रश्न महत्वपूर्ण हो गया पर अब भक्तों की भीड़ का हिस्सा हो चुकने के बाद निजता की गली में खिसक चलने का विकल्प बचा नहीं था।
मुख्य शिवलिंग को तमाम अन्य भगवान मूर्ति रूप में उपस्थित हो कर घेरे हुए हैं और हर मूर्ति से लगकर खड़ा पण्डा बाहर मूर्ति में और भीतर भक्त के हृदय में भगवत उपस्थिति इस संयोजन के शोषण का कोई अवसर जाने नहीं देना चाह रहा, भक्तों को कोंच-कोंच कर मूर्ति के आगे झुकने और फिर दान पेटी में अपनी कमाई का अंश गिरा देने के लिए प्रेरित कर रहा।
भक्त सरल होता है। ईश्वर के आगे आत्म समर्पण के लिए आया भक्त निरीह होता है। इसलिए पण्डों के आगे लाचार होता है। मैं लेकिन सरल होकर नहीं पहुँचा था। फूल हाथ में अवश्य थे पर मेरे हथियार मस्तक में सजग थे। पण्डो के हर आक्रमण को मैं झेल गया और कहीं नहीं रुका, कहीं नहीं झुका, जेब में जो थोड़े पैसे थे उन को इस धार्मिक डाके से बचा ले गया।
लाइन बहुत देर रुकने के बाद धीरे से आगे बढ़ी। बाबा विश्वनाथ के दर्शन हुए। कहीं मेरी तमाम बौद्धिक विवेचनाएं मिथ्या हों और इस शिवलिंग का आशीर्वाद ही जगत का अन्तिम सत्य हो, इस संशय से ग्रसित हो कर मैंने बाबा के चरण चाँप लिए। तीस सेकेण्ड बाद ही लेकिन धर्मप्राण समझे जा सकने वाले काशी विश्वनाथ मंदिर के पुजारी मेरे ऊपर चिल्लाने लगे क्योंकि साधारण लोगों की लाइन में खड़ा मैं उस पूरे मन्दिर में सिर्फ़ एक चीज़ से आकर्षित हुआ – भक्तों के माथे पर एक मोटे हाथ से लगा देने वाला पीला चन्दन। सोचा माथे पर लगकर सर पर ठण्डक देगा। चन्दन लगाना उनके पुजारी अनुष्ठान का अंग था लेकिन पुजारी जी भक्तों की लाइन रोककर एक विशेष पूजा में व्यस्त थे। चन्दन लगा देने के मेरे अनुरोध से बिफ़र पड़े और ‘दयालु’ होकर चीखने लगे कि देख नहीं रहे हो बिजी हैं? क्या-क्या करें? फट के आठ हो जायं? और इसी बहाने भक्त और ईश्वर के बीच की कड़ी होने की अपनी पारम्परिक सत्ता के प्रति अपनी ‘सत्यनिष्ठा’ का प्रदर्शन कर बैठे।
अन्य पैरों के बारे में तो आप यह कर सन्तोष कर सकते हैं कि उनका सहज दर्शन नहीं हो सकता, वे तो छिपे रह सकते हैं, यहाँ नहीं कहीं और हो सकते हैं, लेकिन शुचिता का क्या करेंगे? वो भी क्या छिपा कर रखने की चीज़ है?
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