Sunday, April 11, 2010

जलवायु परिवर्तन का गायन


 
उलटी गिनती शुरू हो चुकी है. 7 से 18 दिसंबर 2009 तक कोपेनहेगेन शहर में होने वाला संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन, जिसे कोप-15 कहा जा रहा है, उत्साह का संचार कर रहा है.
कोपनहेगन जलवायु परिवर्तन सम्मेलन

जलवायु परिवर्तन शब्द अचानक लोकप्रिय हो गया है. उमंग से भरे दुनिया भर के शीर्ष राजनेता कोपेनहेगेन की उड़ान पकड़ने को तैयार हैं. मुट्ठी भर अंतरराष्ट्रीय गैर-सरकारी संगठनों के नेतृत्व में वैश्विक बहस में उपाय कर लिए गए हैं कि समग्र विकास को जलवायु परिवर्तन के साथ नत्थी कर दिया जाए. संयुक्त राष्ट्र, यूएसएड और डीएफआईडी जैसी दानदाता एजेंसियां और इंटरनेशनल फूड पालिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट, जो किसी कारपोरेट रेटिंग एजेंसी से बेहतर नहीं है, पिछले कुछ समय से जलवायु परिवर्तन को वैश्विक विकास के शीर्ष एजेंडे के तौर पर प्रस्तुत करने में सक्रिय हैं और इसमें वे सफल भी रहे हैं.

इस प्रक्रिया में असल मुद्दे गौण हो गए हैं. इस हद तक कि अगर आप जलवायु परिवर्तन की बात नहीं करते हैं तो आप पुराने जमाने के या पिछड़े घोषित कर दिए जाएंगे. मुझे यह देखकर हैरानी नहीं होती कि गरीबी, भुखमरी और खाद्य असुरक्षा की बात करने वाले भारतीय गैर-सरकारी संगठन अब अचानक जलवायु परिवर्तन का राग अलापने लगे हैं. मुझे इसमें भी हैरानी नहीं होगी अगर कोई जलवायु परिवर्तन और लैंगिक असमानता में सह-संबंध स्थापित करने लगे.

यह बात केवल भारत के बारे में ही खरी नहीं उतरती, बल्कि विकासशील देशों के तमाम नागरिक संगठन इसी धुन में लगे हैं. असलियत में, वे तमाशे का फायदा उठाने की फिराक में रहते हैं. अब जैसे कोपेनहेगेन की बात चलेगी तो वे अपने साथियों से कहेंगे-'हां, मैं भी तो वहीं था'.

इसे देखकर मुझे ब्राजील के रियो डि जेनेरियो में 1992 में आयोजित अर्थ समिट का ख्याल आ रहा है. रियो सम्मेलन से पहले भारतीय मीडिया अति उत्साह में भर गया था. अखबार के पहले पेज पर लिखने वाले सभी पत्रकार रियो में पधारे थे. जैसे ही सम्मेलन समाप्त हुआ, तमाम पत्रकार अपने-अपने देशों को लौट गए और पृथ्वी को भूल गए. मीडिया के लिए पर्यावरण फिर से छोटा मुद्दा हो गया था. कोपेनहेगेन सम्मेलन भी कुछ अलग नहीं है. यह केवल उत्सर्जन मानकों के लिए नहीं है, बल्कि अगर ध्यान से देखें तो यह हरित प्रौद्योगिकी और निवेश की मार्केटिंग का मंच बन गया है.

मुझे यह देखकर हैरानी नहीं हुई कि विभिन्न राष्ट्राध्यक्ष हरित क्रांति की तर्ज पर हरित प्रौद्योगिकी क्रांति की रट लगा रहे हैं, बिना इस बात को समझे कि एक तरह से हरित क्रांति ने तापमान वृद्धि में योगदान दिया है. दूसरे शब्दों में, पूरी बहस व्यावसायिक घरानों के हितों की भेंट चढ़ गई है.

संयुक्त राष्ट्र का कहना है कि जलवायु परिवर्तन से लड़ने के लिए करीब दो सौ अरब डालर की आवश्यकता है. इसी रकम पर व्यावसायिक घरानों की लार टपक रही है और जिस तरह चूहों के बंटवारे में बिल्ली सारा माल चट कर गई थी, उसी प्रकार इस लजीज केक का बड़ा टुकड़ा हासिल करने के लिए विभिन्न देशों के शासनाध्यक्ष आपस में लड़ते नजर आएंगे.

यह उम्मीद की जा रही है कि विकसित देश स्वच्छ प्रौद्योगिकी के उपाय करने के लिए विकासशील देशों को 90 अरब डालर से 140 अरब डालर की पेशकश कर सकते हैं. इस तरह जलवायु परिवर्तन शानदार व्यावसायिक अवसर के रूप में सामने आ रहा है. कोपेनहेगन सम्मेलन से कुछ दिन पहले 30 नवंबर से 2 दिसंबर तक विश्व व्यापार संघ की मंत्रिस्तरीय बैठक होनी है. इस बैठक का मुख्य मुद्दा है-विश्व व्यापार संगठन, बहुपक्षीय वाणिज्यिक व्यवस्था और वर्तमान वैश्विक आर्थिक पर्यावरण. आश्चर्यजनक रूप से इस सम्मेलन के केंद्र में वैश्विक आर्थिक पर्यावरण की बात है, न कि जलवायु परिवर्तन की. आप कहेंगे कि इससे क्या फर्क पड़ता है? ठीक यही बिंदु है, जिस पर मैं आपका ध्यान खींचना चाहता हूं.
 

 
 
 

पिछले कुछ सालों में जो दो अंतरराष्ट्रीय समझौते सबसे अधिक चर्चा में रहे हैं, वे हैं डब्लूटीओ और क्योटो प्रोटोकाल. इनमें से एक का संबंध वैश्विक व्यापार से है और दूसरे का जलवायु परिवर्तन से. वैश्विक व्यापार से केवल आर्थिक विकास ही नहीं होता, यह जलवायु परिवर्तन पर भी नकारात्मक प्रभाव डालता है. आखिरकार, व्यापार बैलगाड़ी पर तो नहीं किया जा सकता. इसके लिए परिवहन के अधिक साधनों की जरूरत पड़ेगी, जिसका मतलब है कि अधिक जैविक ईंधन की खपत और तापमान में वृद्धि. दूसरे शब्दों में, इन दोनों अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों का उद्देश्य विरोधाभासी है. फिर भी, कोई इस मुद्दे पर चर्चा नहीं कर रहा है कि पर्यावरण को बर्बाद करने में व्यापार क्या भूमिका निभा रहा है? इसका कारण सीधा-सरल है. जलवायु परिवर्तन वार्ताओं के बीच में व्यापार को लाने से व्यावसायिक घरानों के हित प्रभावित होते हैं. इसीलिए औद्योगिक-व्यापारिक घराने, मीडिया, प्रबुद्ध विचारक और अंतरराष्ट्रीय दानकर्ता और राजनेता ऐसा नहीं होने देते.

विश्व बैंक ने वैश्विक आर्थिक परिदृश्य रिपोर्ट में कहा है कि दोहा वार्ता की सफलता से वैश्विक अर्थव्यवस्था को 291 अरब डालर का फायदा होगा. वह यह बताना उचित नहीं समझता कि वैश्विक तापमान में वृद्धि से पृथ्वी और इस पर रहने वाले जीव-जंतुओं का क्या हश्र होगा?

सरल शब्दों में कहें तो डब्लूटीओ की दोहा विकास वार्ता 291 अरब डालर हासिल करने का रास्ता खोलती है. इसके अलावा हरित प्रौद्योगिकी के निर्माताओं को कोप-15 से अतिरिक्त दो सौ अरब डालर के व्यावसायिक अवसर हासिल होंगे. 1980 के मध्य में 'आर्गेनाइजेशन फार इकानामिक कोपरेशन एंड डेवलपमेंट' के एक अध्ययन में अनुमान लगाया गया था कि दोहा वार्ता के पूरे होने की संभावना के साथ ही अंतरराष्ट्रीय व्यापार में 1992 की तुलना में 70 प्रतिशत वृद्धि हो जाएगी. इससे फिर से अधिक जैविक ईंधन की खपत होगी और वैश्विक ताप में वृद्धि भी. ओईसीडी के अनुमान के मुताबिक विश्व का 60 प्रतिशत तेल वस्तुओं की ढुलाई में खप जाता है.

ओईसीडी के एक अन्य आकलन के अनुसार विश्व के 25 प्रतिशत कार्बन उर्त्स जन का कारण वैश्विक परिवहन है. इसका 66 प्रतिशत उत्सर्जन विकसित देशों में होता है. जब तक दोहा वार्ता किसी निष्कर्ष पर पहुंचेगी तब तक परिवहन के कारण वैश्विक ताप में बेहिसाब वृद्धि हो चुकी होगी. फिर भी हमें यह नहीं बताया जाएगा कि तापमान में कितनी वृद्धि हो जाएगी.

हम जानते हैं कि हवाई जहाज द्वारा एक टन माल ले जाने में पानी के जहाज के मुकाबले 49 गुना अधिक ऊर्जा की जरूरत पड़ती है और बोइंग 747 के दो मिनट के टेकआफ में इतनी ऊर्जा लगती है जितनी घास काटने वाली 24 लाख मशीनों को 20 मिनट चलाने में लगती है. अकेले अमेरिका में किसी भी वक्त आसमान में औसतन सात हजार हवाई जहाज उड़ान भरते रहते हैं. आने वाले दिनों में इनकी संख्या और बढ़ेगी. जलवायु परिवर्तन के लिए उत्सर्जन मानकों से भी अधिक महत्वपूर्ण वैश्विक व्यापार पर अंकुश लगाना है. हमें उत्सर्जन घटाने की तर्ज पर ही वैश्विक व्यापार कम करने का तंत्र विकसित करना होगा.

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