Thursday, April 1, 2010
भुखमरी बढ़ाने की सरकारी तैयारी
क्या आप यह मानने के लिये तैयार हैं कि जनता की चुनी हुई कोई सरकार अपनी ही जनता को भूख और शोषण का शिकार बनाने के लिये कोई मसौदा तैयार कर सकती है ? अगर नहीं तो कांग्रेस सरकार के मंत्रियों के सशक्त समूह द्वारा राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा क़ानून का जो मसौदा मंत्रिमंडल को विचार और आगे की कार्यवाही के लिए भेजा गया है, उसका एक बार अवलोकन कर लें. इस मसौदे को पढ़ते हुए साफ समझा जा सकता है कि राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा क़ानून का मसौदा अगर इसी रुप में स्वीकार कर लिया गया तो आने वाले दिनों में देश में भुखमरी, कुपोषण और असमानता अपने चरम स्तर पर पहुँचती नज़र आएगी.
मौजूदा मसौदा कहता है कि राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा क़ानून का लाभ केवल उन गरीब परिवारों को मिलेगा, जिन्हें केंद्र सरकार गरीब मानेगी. लेकिन गरीबी की पहचान और संख्या का आकलन कितना मुश्किल और विसंगतिपूर्ण है, यह बात किसी से छुपी हुई नहीं है. इसके अलावा भारत सरकार साढ़े छह करोड़ परिवारों को गरीब मानती है, जबकि राज्य सरकारें, जो कि हर घर का सर्वे करती हैं और सीधे योजनाओं का क्रियान्वयन करती हैं, उनके मुताबिक 11 करोड़ परिवार ऐसी स्थिति में हैं, जो सबसे वंचित हैं.
आज भी गरीबों की संख्या के इस अंतर को पाटने में सरकार ने कोई रूचि नहीं दिखाई है. प्रस्तावित कानून का मसौदा भी यह कहता है कि इस कानून में राज्य सरकारों द्वारा पहचाने गए गरीबों की इस केन्द्रीय क़ानून में कोई जगह नहीं होगी. यानी साढ़े चार करोड़ परिवारों को खाद्य सुरक्षा का कानूनी हक़ नहीं मिलेगा.
गरीबी, भुखमरी और राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा क़ानून के जानकार अर्जुन सेनगुप्ता के मुताबिक 77 करोड़ लोग 20 रूपए प्रतिदिन पर गुजारा करते हैं. उत्सा पटनायक के अनुसार 84 करोड़ लोगों को पर्याप्त पोषण युक्त भोजन नहीं मिलता है. मतलब साफ़ है कि जब 75 से 80 फीसदी जनसंख्या भूख के साथ जी रही ह़ो तब इस क़ानून को बीपीएल जैसी काल्पनिक अवधारणा तक सीमित रखने के क्या मतलब हैं.
ताज़ा मसौदे को पढ़ कर साफ समझा जा सकता है कि सरकार की मंशा पोषण और खाद्य सुरक्षा के संबंधों को तोड़ने की दिखती है. वास्तव में न्यूनतम खाद्य अधिकार देने का मतलब है खाद्य असुरक्षा की स्थिति का निर्माण और उसे बनाए रखना. यदि वे लोग, जो कि बीपीएल की सूची के बाहर हैं, परन्तु अपने अस्तित्व के लिए सस्ता राशन चाहते हैं, उन्हें इस व्यवस्था से अनाज पाने का अधिकार होना चाहिए. भोजन का लोकव्यापी अधिकार ही भारत में सभी के लिए खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित कर सकता है.
दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि यह मसौदा एक परिवार के लिए केवल 25 किलो अनाज के अधिकार का प्रावधान करता है, जबकि एक परिवार को कम से कम 56 किलो अनाज, 5 किलो दाल और 4 लीटर खाद्य तेल की जरूरत होती है. भारत में वसा और प्रोटीन की कमी के कारण कुपोषण बहुत बढ़ा है, परन्तु क़ानून में इतनी कम मात्र रख कर हम कुपोषण को कम नहीं कर पायेंगे, यह बाज़ार समर्थक कांग्रेसी सरकार को समझना होगा.
मंत्रियों का समूह यह साफ़ तौर पर मानता है कि खाद्य सुरक्षा की परिभाषा केवल गेहूं और चावल तक ही सीमित रहेगी और इसे किसी भी रूप में प्रस्तावित क़ानून के तहत पोषण सुरक्षा से नहीं जोड़ कर देखा जाएगा. वे यह भी तय कर चुके हैं कि इसके अंतर्गत होने वाले उल्लंघन और अधिकारों के हनन की निगरानी और निराकरण के लिए अलग से प्राधिकरण या आयोग या विशेष अदालतें नहीं बनाई जायेंगी. इसका मतलब यह है कि अधिकारों के हनन की स्थिति में लोगों को वर्तमान न्याय व्यवस्था की शरण में जाना होगा, जहां पहले से ही 3 करोड़, 11 लाख से भी अधिक मुकदमे अपनी सुनवाई और फैसले की प्रतीक्षा में हैं.
मसौदे के अनुसार देश के सभी राज्यों में गरीबी के स्तर को तय करने का अधिकार केंद्र सरकार के पास ही रहेगा, राज्य सरकारें केवल परिवारों की पहचान करके सूची बनाने का ही काम करेंगी, उस संख्या को बढ़ा नहीं सकेंगी. इसका मतलब साफ है कि अधिकारों का दायरा भारत के योजना आयोग द्वारा तय की गई गरीबी की रेखा के नीचे रहने वाले परिवारों के लिए सीमित करके क़ानून की सोच को समग्र तौर पर अनुपयोगी बना दिया गया है.
केंद्र सरकार का यह मसौदा किसी भी स्तर पर राज्य सरकारों को अपनी जरूरत के मुताबिक निर्णय लेने, अधिकारों का विस्तार करने और बेहतर सुरक्षा की कोशिश करने की स्वतंत्रता नहीं देता है. इससे राज्य सरकारों पर अपनी और से संसाधन लगाने का दबाव बढेगा. आज की स्थिति में देखें तो पता चलता है कि छत्तीसगढ़ की राज्य सरकार को सभी हितग्राहियों को केवल अनाज देने के लिए 1800 करोड़ रूपए अपने राज्य के बजट में से देने पड़ रहे हैं. यदि केंद्र सरकार ने अपनी जिम्मेदारी नहीं निभाई तो राज्य सरकारों पर यह भार और बढेगा. आश्चर्य है कि देश के स्तर पर राज्य सरकारें और विपक्षी दल इस मसले का कोई विश्लेषण कर ही नहीं रहे हैं. उनका यह मौन कई लोगों की भूख़ से मौत का कारण बनेगा. शायद यह भी कहा जा सकता है कि सारे राजनीतिक दल भोजन के अधिकार के मामले में बाज़ार के साथ और लोगों के खिलाफ हैं.
यह उल्लेखनीय है कि भारत में 46 फ़ीसदी बच्चे कुपोषण की गिरफ्त में हैं और यह दर सब-सहारा अफ्रीका से दो गुना ज्यादा है. इतना ही नहीं, यह भी शर्मनाक स्थिति है कि भारत में मातृत्व मृत्यु दर बहुत ऊँची है, जिसका एक बढ़ा कारण महिलाओं में कुपोषण की स्थिति है. ऐसे में सार्वजनिक वितरण प्रणाली का लोक व्यापीकरण किये बिना कोई और कदम इस स्थिति में बदलाव नहीं ला सकता है.
देश के हर वयस्क रहवासी को सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत 2 रूपए प्रति किलो की दर से 14 किलोग्राम अनाज, जिसमें ज्वार, बाजरा, जोंधरी सरीखा पोषक अनाज भी शामिल ह़ों, 20 रूपए प्रति किलो की दर से डेढ़ किलो दाल और 35 रूपए प्रति किलो की दर से खाने के तेल की पात्रता ह़ो. बच्चों के सन्दर्भ में यह सुनिश्चित ह़ो कि उन्हें कम से कम आधी मात्रा का अधिकार ह़ो. राशन कार्ड परिवार की महिला मुखिया के नाम पर बनाया जाए. 25 किलो अनाज का प्रावधान असल में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सुनिश्चित किये गए मौजूदा 35 किलो ग्राम अनाज प्रति परिवार के अधिकार से भी कम है. यह एक ऐसा कानून होगा, जो अधिकार देने का वायदा करके वास्तव में मौजूदा अधिकारों को ही सीमित करता है.
जिस दिशा में शरद पवार जैसे मंत्री बढ़ रहे हैं, वहां देश के वृद्द जनों, एकल और विधवा महिलाओं, विकलांगों, छोटे बच्चों, आश्रय विहीनों और गर्भवती महिलाओं की खाद्य सुरक्षा के प्रति कोई संवेदना नज़र नहीं आती है. आज जबकि 46 प्रतिशत बच्चे और 50 फ़ीसदी महिलायें कुपोषण की गिरफ्त में हैं, दुनिया में सबसे ज्यादा शिशु मृत्यु, बाल मृत्यु, मातृत्व मृत्यु भारत में है, दुनिया के कुल भुखमरी के शिकार लोगों में 40 फ़ीसदी भारत में रहते हों, वहां खाद्य सुरक्षा के कानूनी अधिकार को सीमित करने का कुत्सित प्रयास, संविधान का अपमान है और यह साबित करता है कि मौजूदा सरकारें भूख़ और सामाजिक असुरक्षा के शिकार लोगों का नहीं बल्कि मुनाफाखोरों और पूंजीपतियों का प्रतिनिधित्व करती हैं.
जिस दौर में देश की जीडीपी सबसे तेज़ गति से बढ़ कर 8 और 9 प्रतिशत हुई है, उसी दौर में देश ने भुखमरी के शिकार लोगों की संख्या में सबसे तेज़ बढ़ोतरी देखी है. बाढ़, सूखा, तूफानों और जलवायु परिवर्तन के कारण पैदा हुई परिस्थितियों ने भुखमरी को बढ़ाया है, इस बात को नज़रंदाज़ किया जाना लोकतंत्र का अपमान है. सरकार के मंत्रियों द्वारा बार-बार यह कहा जाना कि हम मंहगाई को कम नहीं कर सकते हैं, उनके अपराधी होने का प्रमाण है.
वर्तमान सार्वजनिक वितरण प्रणाली बिलकुल ध्वस्त होने की कगार पर है. 40 से 60 फ़ीसदी अनाज भ्रष्टाचार की नाली में बह जाता है और नया क़ानून इस व्यवस्था में बुनियादी बदलाव किये बिना फिर इसी तंत्र के हवाले किया जा रहा है.
पिछले 10 सालों से देश की सबसे बड़ी अदालत भूख़, कुपोषण, सामाजिक असुरक्षा और रोज़गार के मामलों में एक जनहित याचिका की सुनवाई कर रही है और अब तक लगभग 65 ऐसे आदेश दे चुकी है, जो सरकार को अपनी जिम्मेदारियों से बांधते हैं, उसे ज्यादा जवाबदेह होने और ज्यादा बजट का आवंटन करने को मजबूर करते हैं.
ऐसे में इस बात पर शक की कोई गुंजाइश नहीं है कि सर्वोच्च न्यायालय के वार से बचने के लिए सरकार ने यह क़ानून बनाने का प्रपंच रखा है, उसकी वास्तविक मंशा भूख़ से लड़ने की नहीं है. मध्याह्न भोजन योजना और आंगनबाड़ी में भी खाद्य सुरक्षा के केंद्र हैं परन्तु सरकार इसे कानूनी हक़ के दायरे से बाहर रखने की हर संभव कोशिश कर रही है, ताकि इनमे निजी क्षेत्र को घुसने के अवसर दिए जा सकें.
सर्वोच्च न्यायालय पहले ही अपने आदेशों के जरिए खाद्य सुरक्षा के बहुपक्षीय अधिकारों को सुनिश्चित कर चुका है, जैसे हर परिवार को 35 किलो राशन, वंचित परिवारों के लिए अन्त्योदय अन्न योजना के तहत और सस्ता राशन, शिशुओं और बच्चों के लिए आई सी डी एस के तहत पूरक पोषण आहार, मातृत्व सहायता योजना और जननी सुरक्षा योजना के तहत महिलाओं को सुरक्षा, स्कूलों में मध्यान भोजन, वृद्धावस्था पेंशन, आश्रय विहीनों, शहरी गरीबों, बेघर बच्चों एकल महिलाओं और 6 वर्ष के बच्चों की जरूरतों को पूरा करने के अधिकार शामिल हैं.
मंत्रियों के सशक्त समूह ने सार्वजनिक वितरण प्रणाली में अपर्याप्त अधिकारों को देने और बहिष्कार को बढ़ाने वाला अपना मसौदा ऐसे समय में जारी किया है, जबकि इन अधिकारों का विस्तार करने की अनुशंसा करने वाली वाधवा समिति ने अपनी रिपोर्ट सर्वोच्च न्यायालय को अभी ही सौंपी है. इससे लगता है कि मंत्रियों के सशक्त समूह ने रोटी के अधिकार पर न्यायालय में चल रही कार्यवाही को सुनियोजित तरीके से ध्वस्त करने की कोशिश की है. वर्तमान सार्वजनिक वितरण प्रणाली बिलकुल ध्वस्त होने की कगार पर है. 40 से 60 फ़ीसदी अनाज भ्रष्टाचार की नाली में बह जाता है और नया क़ानून इस व्यवस्था में बुनियादी बदलाव किये बिना फिर इसी तंत्र के हवाले किया जा रहा है.
आश्चर्यजनक ये है कि सरकार केवल अनाज के वितरण की ही बात कर रही है, वितरण के लिए अनाज पैदा करने, किसानों के संरक्षण, कंपनियों द्वारा खेती की जमीन, जंगल और पानी के दुरुपयोग को रोकने के कोई संकेत सरकार नहीं दे रही है. इसका मतलब यह है कि जल्द ही अनाज आयात करने की तैयारी ह़ो रही है, ताकि बहुराष्ट्रीय कंपनियों को फायदा पंहुचाया जा सके. कोशिश यह भी है कि खाद्य सुरक्षा कानून के तहत अनाज के बजाये नकद राशि का भुगतान हितग्राहियों को कर दिया जाए, ताकि सरकार को खुद अनाज ना खरीदना पड़े और सब्सिडी पर होने वाला खर्च बच जाए. ऐसे में क्या यह कहना गलत होगा कि सरकार भूख, भुखमरी और शोषण को बढ़ाने की तैयार कर रही है ? इस एक वाक्य को तथ्य के बजाये एक सवाल के रुप में पढ़ने की जरुरत है, जिसके लिये फिलहाल न सरकार तैयार है और न दूसरे राजनीतिक दल.
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