सन २००५ से यूनाईटेड स्टेट्स थिंक टैंक, फ़ण्ड फ़ॉर पीस और फ़ॉरेन पॉलिसी पत्रिका एक सालाना मानक जारी करते हैं जिसे वे फ़ेल्ड स्टेट्स इन्डेक्स कहते हैं। आम तौर पर फ़ेल्ड स्टेट्स की परिभाषा में वे राज्य गिने जाते हैं जिनकी केन्द्रीय सत्ता इतनी कमज़ोर है कि वे अपने भूभाग की सुरक्षा नहीं कर सकते। दार्शनिक मैक्स वेबर के अनुसार जो राज्य बलप्रयोग के वैध इस्तेमाल पर इजारेदारी क़ायम रख सकता है वो राज्य एक सफल राज्य है अन्यथा असफल।
मूलतः इसी आधार पर इस सूची को तय करने के बारह मानक तय किए गए हैं-
सामाजिक मानक
१) आबादी के दबाव
२) शरणार्थियों या विस्थापितों की गतिविधि
३) आपस में प्रतिशोधी हिंसा में संलग्न गुट
४) लोगों का लगातार पलायन
आर्थिक मानक
५) सामूहिक आधार पर गैर-बराबरियाँ
६) विकट आर्थिक मन्दी
राजनैतिक मानक
७) राज्य का आपराधीकरण या वैधता का अभाव
८) सार्वजनिक सेवाओं का ह्रास
९) मानवाधिकारों का हनन
१०) राज्यसत्ता के भीतर अन्य सत्ताओं का जन्म
११) शासक वर्ग के बीच गहरी गुटबाज़ी
१२) बाहरी राज्य या बाहरी सत्ताओं की दखलन्दाज़ी
इन मानको के आधार पर हर साल तक वे फ़ेल्ड स्टेट्स की सूची निकालते रहे हैं। राहत की बात है कि भारत फ़ेल्ड स्टेट नहीं है। मगर अफ़सोस की बात है कि लगभग हर साल ही हमारे कई पड़ोसी देश, २० सबसे नाकामयाब राज्यों की सूची में जगह पाते रहे हैं।
इन पड़ोसियों के नाम हैं- पाकिस्तान, अफ़्ग़ानिस्तान, नेपाल, बांगलादेश, बर्मा और श्रीलंका। मैं जानता हूँ कि ये मानक अन्तिम सत्य नहीं है पर ऐसा भी नहीं है कि ये सूची नितान्त सत्यविहीन है। समझ में नहीं आता कि खुश हुआ जाय या दुखी ही बने रहा जाय।
भारत कामयाब राज्य है क्योंकि इस परिभाषा के तमाम अन्य मानको पर वो अपेक्षाकृत खरा उतरता है और साथ ही साथ अपने भू-भाग के भीतर बलप्रयोग पर उसकी इजारेदारी को कोई वैध चुनौती भी नहीं दे सका है। सताने वाली दुविधा यह है कि यदि भारत कश्मीरियों को उनकी जनतांत्रिक आकांक्षाओं के अनुसार आज़ादी दे देता है तो ये जनतांत्रिक मानकों पर तो नैतिक क़दम होगा मगर अपने भू-भाग के भीतर बलप्रयोग की इजारेदारी का समर्पण कर के क्या वह एक नाकामयाब राज्य बनने की ओर तो नहीं खिसक जाएगा?
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