अब हमें क्या पता था कि हमारी इस एक लाईन पर भी लोगों को बबाल काटने का मसाला मिल जाएगा। इसमें भी सिनेमा,चरित्र,मर्दानगी का नुस्खा और मेरे बदजात होने के चिन्ह खोज लेगें। मन किया सो लिख दिया। इस मौसम में सचमुच बहुच मन करता है सहजन खाने का। मुझे याद है कि मार्निंग स्कूल होने पर दोपहर के वक्त मां इसे रोज बनाया करती। हम सारी सब्जी खा जाते और भात धरा का धरा रह जाता। मां कहा करती- भात जैसे दिए थे वैसे ही छोड़ दिया और सारा मुनगा खा गया। जब तक आम का मौसम न आ जाता,तब तक हम बच्चे मुनगा और इमली-पुदीना की चटनी के लोभ से ही दोपहर का भात लेकर खाने बैठते। इस सहजन जिसे कि जब तक बिहार में रहा मुनगा ही कहता के साथ बचपन की कई सारी यादें जुड़ी है। दिल्ली में तो नसीब नहीं होता। 40-60 रुपये किलो हैं,खरीदने का खरीद भी लें लेकिन बनाएंगे कहां? कोई तैयार ही नहीं है कि मुनगा की सब्जी खिलाए। पीजी वीमेंस कॉलेज के आगे लटकता और बाद में सूखता देखता हूं तो मन कचोटता है। एक दो बार हॉस्टल स्टॉफ से कहा भी कि आपलोग तोड़ते क्यों नहीं लेकिन दिल्ली में लोग हरी सब्जियों का कद्र ही नहीं जानते।..इन सारी बातों को याद करते बज पर सिर्फ इतना ही लिखा- सहजन खाने का मन करता है कि देखिए कैसे-कैसे लोगों ने अपने ज्ञान बघार दिए। अरविंद शेष ने तो चैट बॉक्स पर आकर पूरी एक फिल्म की घटना बता दी कि-फिल्म का नाम याद नहीं है, नहीं तो बताते आपको सहजन का असर क्या होता है। राजेश खन्ना हीरो थे। हीरोईन शायद श्रीदेवी थी। कहीं से मंगवा के खाइए और देखिए क्या होता है। जो होता है, उसका इस्तेमाल फिल्म के नाम करने के कारण जावेद अख्तर ने उस फिल्म का गीत लिखने से इंकार कर दिया था।
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