पंद्रहवीं लोकसभा के लिए 'स्वयंवर' रचा रही लखनऊ की सियासत में यूं तो इस बार भी कुछ कम सज-धज नहीं, लेकिन गांधी-नेहरू परिवार की लाड़ली से लेकर संघ परिवार के दुलारे तक की हमसफर रह चुकी यह सियासत इस बार चाहे जिस गले में 'वरमाला' डाले, गुजरे जमाने की यादें उसे थोड़ा मायूस जरूर करेंगी। 'स्टार उम्मीदवारों' की नामौजूदगी के कारण अरसे बाद लखनऊ के 'राजनीतिक चरित्र' में भी बदलाव आना तय है, जो अब तक अपने नुमाइंदे का चयन 'दिल की आवाज' पर करता रहा है। आजादी के बाद पहले चुनाव में लखनऊ का दिल विजय लक्ष्मी पंडित पर आया, तो फिर अगले चुनावों में पुलिन वी।बनर्जी, वी.के.धवन, आनन्द एम.मुल्ला, शीला कौल, हेमवतीनंदन बहुगुणा, मांधाता सिंह व अटल बिहारी वाजपेयी पर।
अटल 1955 में हुए उपचुनाव में पहली बार उम्मीदवार बने, इसके बाद उन्होंने 1957 व 1962 में आम चुनाव लड़े, लेकिन लखनऊ का दिल जीतने में उन्हें करीब तीन दशक लगे। अटल 1991 में दुबारा लखनऊ पर 'फिदा' हुए, और इस बार लखनऊ भी उन्हें दिल देने में पीछे नहीं रहा। अटल और लखनऊ के भावुक रिश्ते की 'भूलभुलैया' में राजबब्बर, मुजफ्फर अली, डा.कर्ण सिंह व राम जेठमलानी जैसे 'सितारे' भी राह भटक गये, और अन्तत: इस रिश्ते के आगे घुटने टेकने पर बाध्य हुए। वक्त व बीमारी ने लखनऊ और अटल के संसदीय रिश्ते पर पूर्णविराम लगा दिया है। मौजूदा चुनाव में जो विकल्प हैं, उनमें भाजपा के लालजी टंडन और बसपा के अखिलेश दास लखनऊ के पुराने नेता हैं, जबकि कांग्रेस की रीता बहुगुणा जोशी व सपा की नफीसा अली बाहरी। लखनऊ के प्रतिनिधि की हैसियत से टंडन सभासद से लेकर विधायक व मंत्री जैसी भूमिकाएं निभा चुके हैं। लखनऊ से उनका लंबा जुड़ाव उनकी खूबी भी है, खामी भी। यही बात अखिलेश दास के भी साथ है। वह शहर के मेयर रह चुके हैं, साथ ही पिछले काफी समय से स्थानीय राजनीति में उनकी परोक्ष या अपरोक्ष भूमिका जरूर रही। दोनों उम्मीदवारों को अपनी पृष्ठभूमि का नफा-नुकसान होगा। कांग्रेस उम्मीदवार रीता बहुगुणा जोशी लखनऊ को अपनी विरासत बता सकती हैं, जिनके पिता हेमवती नन्दन बहुगुणा 1977 में 73 फीसदी वोट पाकर लखनऊ के सांसद बने थे। जहां तक सपा उम्मीदवार नफीसा अली का सवाल है, उनके पास लखनऊ से जुड़ाव का कोई ठोस तर्क नहीं है। जाहिर है कि उन्हें सपा के जनाधार पर ही आगे बढ़ना होगा, जिसके बूते पार्टी उम्मीदवार अटल के मुकाबले पांच में से तीन चुनावों में उनके निकटतम प्रतिद्वंद्वी रहे। वैसे तमाम सियासी जोड़-बाकी से हटकर उम्मीदवारों के सामने सबसे बड़ी चुनौती मतदान दर को लेकर होगी। दरअसल, लखनऊ की बेपरवाह जीवनशैली की छाप यहां के चुनाव पर भी पड़ती है।
2004 लोकसभा चुनाव में प्रदेश में न्यूनतम 35.28 फीसदी मतदान इसी सीट पर हुआ, यद्यपि अटल इसमें 56.12 फीसदी वोट पाकर भारी अंतर से चुनाव जीते थे। 1996 के एकमात्र अपवाद को छोड़ पिछले आठ लोकसभा चुनावों में मतदान दर हमेशा 50 फीसदी से भी कम रही। वास्तव में लखनऊ के नव-विकसित इलाकों में आबाद सरकारी अधिकारी व कर्मचारी मतदान में रुचि नहीं लेते, जबकि अटल बिहारी की लोकप्रियता के कारण मुस्लिम इलाकों में मतदान दर कम रहती थी। ये दोनों वर्ग इस बार किसी 'स्टार उम्मीदवार' की नामौजूदगी में किस तरह प्रतिक्रिया करते हैं, यह फैक्टर नतीजे पर गहरा असर डालेगा। इसी प्रकार लखनऊ के पारंपरिक मतदाता चुनाव अभियान में उग्रता पसंद नहीं करते। समीक्षक इस तर्क के पक्ष में 1967 चुनाव का संदर्भ देते हैं, जब कांग्रेस की घोर लोकप्रियता के दौर में उसके उम्मीदवार पीआर मोहन निर्दलीय आनन्द एम मुल्ला से पराजित हो गये थे। लखनऊ के संसदीय इतिहास में यह एकमात्र चौंकाने वाला चुनाव नतीजा था। एक और खास बात थी 1967 में भी कोई 'स्टार उम्मीदवार' मैदान में नहीं था। वैसे यह घटना 42 वर्ष पुरानी है। इस कालखंड में सियासत का रंग-रूप बहुत बदल गया, साथ ही लखनऊ का भी। बेशक इस बार भी कोई 'स्टार' मैदान में नहीं है, लेकिन इस बार लखनऊ के 'दिल' में क्या है, 16 मई को ही पता चलेगा।
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