Sunday, March 21, 2010

आधुनिकता की दौड़ में मोबाइल कॉलर ट्यून

आधुनिकता की दौड़ में मोबाइल फोन को सबसे आगे कहा जाए तो गलत न होगा। एक दशक पहले तक यह जादू कुछ लोगों के हाथ तक ही सीमित था, मगर आज की तारीख में यह सभी वर्गो व आयवर्गो तक अपनी पहुंच बना चुका है। मोबाइल की किस्मों के अलावा इसके कॉलर ट्यून को लेकर इन दिनों होड़ है। सच कहें तो ये कॉलर ट्यून उपभोक्ताओं की रुचि, उनके मूड और उनके व्यक्तित्व के दर्पण का रूप ले चुके हैं। घर के बाहर चारों ओर बिखरी तमाम रंगीनियों और चकाचौंध के बाद भी कॉलर ट्यून के मामले में धार्मिक और सूफियाना ट्यून की ओर बढ़ती रुझान सबको दंग किये हुए है। बहरहाल, बाजारीकरण के दौर में लोगों के इन जज्बातों की भी जोरदार मार्केटिंग हो रही है। मोबाइल कंपनियों ने उपभोक्ताओं की नब्ज को समझते हुए धार्मिक ट्यून्स की बाढ़ झोंक दी है। हिंदू धर्मावलंबियों के लिए अगर वेद पुराणों के मंत्र और ऋचाओं के साथ प्रार्थनाओं की पूरी सिरीज उपलब्ध है तो मुस्लिम बंधुओं के लिए नातिया कलामों की लंबी फेहरिश्त हाजिर है। सिख समुदाय के लिए अगर गुरुवाणी के सबद उपलब्ध हैं तो क्रिसमस के लिए कैरोल गीतों का तोहफा लांच हो चुका है। समय-समय पर लोकप्रियता के हिसाब से झटपट आइटम भी यदाकदा भुना लिये जा रहे हैं। मसलन, जब वंदे मातरम की चर्चा हुई तो काफी लोगों ने इस ट्यून को पसंद किया। मोबाइल पर गायत्री मंत्र सुनानेवालों की कमी नहीं है। गायत्री परिवार के प्रमुख डॉ. रोहित गुप्ता का कहना है कि कम से कम जो शख्स फोन करता है उसको ऐसे संवाद से तृप्ति मिलती है। ऊं भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो, देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात। मनीष तुलस्यान ने कहा कि धार्मिक कॉलर ट्यून से कम से कम ये लगता है कि इसी बहाने दूसरों को सुनाने से शायद पुण्य की प्राप्ति हो। मुकेश अग्रवाल ने कहा कि गणेश स्तुति ट्यून से मन को संतुष्टि मिलती है। वक्रतुण्ड महाकाय सूर्यकोटि समप्रभ: निर्विघ्नम् कुरु मे देव..जैसे ट्यून मन को शांति देते हैं। मदरसा मदीनतुल उलूम के प्रधानाचार्य हाजी दीवान खां जमा ने नात-ए-पाक के इस बोल को लगाया है- या सय्यदी हबीबी खैरुल अनाम आका, अपने सलामियो का ले लो सलाम आका, आए हैं हाथ खाली भर दो..कहा कि कई बार ऐसा होता है कि फोन करने वाले कहते हैं कि सिर्फ नात-ए-पाक सुनने के लिए फोन किया था। हाजी मोहम्मद जफर ने लगाया है- मुस्तफा जाने रहमत पे लाखों सलाम, शम्मे बज्में हिदायत पे लाखों सलाम..। फरीद अहमद अंसारी ने हम्द के अशआर लगाए हैं-गुनाहों की आदत छुड़ा मेरे मौला, मुझे नेक इंसा बना मेरे मौला। शेख मोहम्मद खुर्शीद का मोबाइल अल्लाहू-अल्लाहू अल्लाह, कैसी है फूलों की रिदा..हाजी मोहम्मद एखलाक ने अजान की सदा लगवा रखी है। इसके अलावा लब पे आती है दुआ बनके तमन्ना मेरी..साथ ही कुरानपाक की सुरेह, हनुमान चालीसा, श्याम चालीसा आदि की सदा आजकल अधिकतर कानों में गूंज रही है।

नेपाल में शूटरों की बोली

नेपाल में सफेद कारोबार की आड़ में काला धंधा करने वाले बदनाम लोगों की जान के लाले पड़े तो सटीक निशाना साधने वालों की कीमत बढ़ गयी। दिलचस्प यह कि शूटरों की बोली लग रही है और सुपारी की जगह बाकायदा उनकी पगार तय की जा रही है। इस बदलाव से नेपाल में शरण लेने वाले भारत के भगोड़े अपराधियों की लाटरी लग गयी है।

नेपाल में हाल-फिलहाल दागी पृष्ठभूमि के कई नामचीन मारे गये। माजिद मनिहार, परवेज टाण्डा, जमीम शाह, अरुण सिंघानियां जैसे लोगों की हत्या के बाद नेपाल की काली दुनिया में खौफ पैदा हो गया। सबने अपने लिए सुरक्षाकर्मियों की तलाश शुरू कर दी। सुरक्षा के लिए प्राथमिकता में भारतीय भगोड़े हैं। वजह यह है कि नेपाल में हाल फिलहाल जितने लोग मारे गये उनकी हत्या के पीछे भारतीय अपराधियों का ही नाम आया। इसके पीछे तर्क है कि सुरक्षा में भारतीय अपराधी रहेंगे तो न केवल वे सामने वाले दुश्मन की पहचान कर सकेंगे बल्कि जवाब भी देने में सक्षम होंगे।

शूटरों का लाभ यह कि मोटी पगार के साथ नेपाल में पनाह मिलेगी और समय पर अपने मुल्क में वापसी भी हो सकेगी। दो पुलिसकर्मियों की हत्या करके भागे हुये नीरज के बारे में एसटीएफ का अनुमान है कि वह इसी सुविधा के चलते नेपाल चला गया है। बताते हैं कि 1995 में वर्चस्व की लड़ाई में मारे गये ब्लाक प्रमुख सुरेन्द्र सिंह के अपराधी बेटे सुधीर सिंह ने नेपाल में अपने पिता के हत्यारे कुख्यात माफिया परवेज टाण्डा की हत्या में सक्रिय भूमिका निभायी। इसके बाद वहां उसका प्रभाव बढ़ गया। उसकी संस्तुति पर अपराधियों को नेपाल में काम मिलने लगा है। कभी मिर्जा के समानांतर वाहन चोरी के एक धंधेबाज की जान पर बन आयी तो उसने भी फरवरी माह में पूर्वी उत्त्तर प्रदेश के दो शूटरों को अपने यहां पगार पर रख लिया।
... पनाह के लिए कीमत चुकाते थे भगोड़े

भारतीय भगोड़े नेपाल में पनाह लेने की कीमत चुकाते थे। वे किसी भी तरह पैसे जुटाकर अपने शरणदाता को देते थे। इस धंधे को यूनुस अंसारी और उसके पिता ने शुरु किया। बताते हैं कि उसके यहां पनाह लेने वाले सिकंदर उर्फ अताउर्रहमान, मुन्ना बजरंगी जैसों ने तो सुरक्षित ठहरने के बदले में लाखों लाखों रुपये अदा किये। छोटे लोगों के यहां पनाह लेने वाले छुटभैये अपराधी तो अब तक किसी तरह अपना खर्चा जुटाते थे। अब दागी लोगों की सुरक्षा के बदले पगार पाने से उनकी भी दुकान चल निकली है।

यही दुनिया है तो फिर ऐसी यह दुनिया क्यों है,

कोई यह कैसे बताए कि वह तन्हा क्यों है,
वह जो अपना था वही और किसी का क्यों है,
यही दुनिया है तो फिर ऐसी यह दुनिया क्यों है,
यही होता है तो आख़िर यही होता क्यों है।

एक ज़रा हाथ बढ़ा दे तो पकड़ लें दामन,
उसके सीने में समा जाए हमारी धड़कन,
इतनी क़ुर्बत है तो फिर फ़ासला इतना क्यों है।

दिल-ए-बरबाद से निकला नहीं अब तक कोई,
एक लुटे घर पे दिया करता है दस्तक कोई,
आस जो टूट गई फिर से बंधाता क्यों है।

तुम मसर्रत का कहो या इसे ग़म का रिश्ता,
कहते हैं प्यार का रिश्ता है जनम का रिश्ता,
है जनम का जो यह रिश्ता तो बदलता क्यों है।

'अर्थ' महेश भट्ट निर्देशित फ़िल्म थी अपनी आत्मकथा पर आधारित इस फ़िल्म की कहानी लिखी थी ख़ुद महेश भट्ट ने (उनके परवीन बाबी के साथ अविवाहिक संबंध को लेकर)। इस फ़िल्म को बहुत सारे पुरस्कार मिले। फ़िल्मफ़ेयर के अंतर्गत सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री (शबाना आज़्मी), सर्बश्रेष्ठ स्कीनप्ले (महेश भट्ट) और सर्वश्रेष्ठ सह-अभिनेत्री (रोहिणी हत्तंगड़ी)। शबाना आज़्मी को सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का राष्ट्रीय पुरस्कार (सिल्वर लोटस) भी मिला था इसी फ़िल्म के लिए। इस फ़िल्म का साउंडट्रैक भी कमाल का है जिसमें आवाज़ें हैं ग़ज़ल गायकी के दो सिद्धहस्थ फ़नकारों के - जगजीत सिंह और चित्रा सिंह। "झुकी झुकी सी नज़र", "तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो", "तेरे ख़ुशबू में बसे", "तू नहीं तो ज़िंदगी में" और "कोई यह कैसे बताए" जैसे गीतों/ग़ज़लों ने एक अलग ही समा बांध दिया था। और क्योंकि उस दौर में ग़ज़लों का भी ख़ूब शबाब चढ़ा हुआ था, इस वजह से ग़ज़लों के अंदाज़ के इन गीतों ने ख़ूब वाह वाही बटोरी। कमाल की नज़्म है जिसे लिखा है कैफ़ी आज़्मी साहब ने। कुलदीप सिंह ने फ़िल्म 'अर्थ' में संगीत दिया था। कुलदीप सिंह ग़ैर फ़िल्मी ग़ज़लों में संगीत देने के लिए बेहतर जाने जाते हैं, पर कुछ फ़िल्मों में भी उन्होने यादगार संगीत दिया है और 'अर्थ' उनके संगीत से सजा एक ऐसी ही फ़िल्म है।

मायावती के राज में दलितों, आदिवासियों पर दमन



पहली तस्वीर नोटों में ढकी मायावती की हैं। बाकी दोनों तस्वीरें जख्मी आदिवासी महिला लालती की हैं। उन्हें ये जख़्म किसी और ने नहीं बल्कि वनकर्मियों ने दिए हैं। लालती का गांव मगरदहा, उत्तर प्रदेश के सोनभद्र जिले में पड़ता है। बीते साल मगरहदा गांव के सभी लोगों को वन विभाग उजाड़ चुका था। कुछ दिन पहले उन्होंने दोबारा बसने की कोशिश की तो उनका ये हाल कर दिया गया। वनकर्मियों ने निहत्थे आदिवासियों को दौड़ा-दौड़ा कर पीटा। और सबक सिखाने के इरादे से सैकड़ों लोगों के बीच लालती के गुप्तांगों में लाठी डालने की कोशिश की।

पुलिस की इस बर्बर कार्रवाई में रामनरेश, बुद्धिनारायण और श्यामलाल बुरी तरह घायल हुए हैं। बुद्धिनारायण का पैर लाठियों से मार-मार कर तोड़ डाला गया। कुछ अरसे पहले तक जो गांव आबाद था अब वहां चारों और शमशान सी ख़ामोशी है।



मगरदहा गांव सोनभद्र के कोन थाना क्षेत्र में पड़ता है। यहां आदिवासी दादा-परदादा के जमाने से रह रहे थे। पिछले साल अगस्त में पुलिस और वन विभाग ने संयुक्त कार्यवाही कर उन सभी को घरों से खदेड़ दिया। उनकी झोपड़ियों में आग लगा दी। उससे पहले उनके घरों का सामान भी लूट लिया। जब आदिवासियों ने इसका विरोध किया तो उनके खिलाफ फर्जी मुक़दमे दर्ज किए गए। तरह-तरह के जुल्म दिए गए।







वन विभाग और पुलिस की इस बर्बर कार्रवाई के बाद आदिवासी परिवार आठ महीने तक इधर-उधर भटकते रहे। फिर उन्होंने संघर्ष का फैसला किया। 30 नवम्बर को लगभग चार हजार लोगों ने इसी मुद्दे पर कोन थाने का घेराव किया। और अपनी ज़मीन पर दोबारा बसने का फैसला किया। उसी फैसले के तहत करीब एक सप्ताह पूर्व ये आदिवासी अपने गांव लौट आये और अपनी झोपड़ियां फिर से बनाने लगे।



मंगलवार की शाम ओबरा वन प्रभाग के प्रभागीय वनाधिकारी आर .के चौरसिया ने आदिवासियों द्वारा फिर से झोपड़ियां बनाये जाने की खबर मिलते ही सैकड़ों की संख्या में वन सुरक्षा बल की टीम वहां भेज दी गयी। वन कर्मियों ने वहां पहुंचते ही निहत्थे आदिवासियों की पिटाई शुरू कर दी। पुरुषों को लाठियों से पीट लहुलूहान कर दिया। महिलाओं को बाल पकड़ कर घसीटा। मौके पर मौजूद गांव के बंशी ने बिलखते हुए बताया कि मां-बाप की पिटाई देख कर निरीह बच्चे चीत्कार रहे थे, लेकिन वनकर्मियों को कोई दया नहीं आई। यही नहीं, आदिवासियों को बुरी तरह से घायल करने के बाद उनका मेडिकल जांच भी नहीं कराया गया। उन्हें तड़पता हुआ छोड़ दिया गया।



इस पूरे मामले पर प्रभागीय वनाधिकारी का कहना था कि वो जंगल भूमि पर जबरन कब्ज़ा कर रहे थे। उनके पास वन अधिकार को लेकर कोई कागज़ नहीं है। वहीं जिलाधिकारी सोनभद्र पंधारी यादव का कहना था कि वो झारखंड और बिहार के आदिवासी हैं। उनके खिलाफ न्यायसंगत कार्यवाही की गयी है।



वन प्रशासन की क्रूर कार्रवाई से इलाके आदिवासी भड़के हुए हैं। सोनभद्र के हजारों आदिवासियों ने जिलाधिकारी कार्यालय का घेराव किया। उधर अपनी पूंछ बचाने में जुटे वन विभाग ने सैकड़ों लोगों के ख़िलाफ़ मुक़दमा दर्ज कर लिया है। कुछ लोगों को गिरफ़्तार कर जेल भेज दिया गया है। जिन लोगों के ख़िलाफ़ मुकदमे दर्ज हुए हैं उनमें कई घायल भी शामिल हैं। कैमूर क्षेत्र महिला मजदूर किसान संघर्ष समिति ने मुख्यमंत्री और प्रमुख सचिव’गृह” को पत्र लिखकर इस पूरे मामले की उच्चस्तरीय जांच की मांग की है।


-आवेश तिवारी

इस मुद्दे पर राष्ट्रीय वन श्रमजीवी मंच के संयोजक अशोक चौधरी ने कहा की उत्तर प्रदेश में वनाधिकार कानून के क्रियान्वन को लेकर प्रदेश सरकार गंभीर नहीं है ,इस पूरे मामले में हम राजनैतिक और कानूनी दोनों तरह की लड़ाई लड़ेंगे। सोनभद्र नक्सल प्रभावित इलाका है। ऐसे में वन विभाग और पुलिस-प्रशासन की ऐसी वहशी हरकतों से नक्सलवाद पर लगाम कैसे लगेगी यह सोचने लायक सवाल है।

Saturday, March 20, 2010

शिक्षा के लिए जिस्म का सौदा – यही भारत का भविष्य है!


यह रिपोर्ट बीबीसी की है। इसमें ब्रिटेन की त्रासद स्थिति का ब्योरा है। बताया गया है कि कैसे यूनिवर्सिटी की भारी फीस चुकाने के लिए लड़के-लड़कियां देह व्यापार के दलदल में फंसते जा रहे हैं। ऐसे छात्रों की संख्या तीन से बढ़ कर 25 फीसदी हो गई है। यह भारत के लिए भी ख़तरनाक संकेत है। इसलिए कि हम हर लिहाज से अमेरिका और ब्रिटेन के पीछे भाग रहे हैं।



हमारे शिक्षा मंत्री कपिल सिब्बल संसद में बयान देते हैं कि एक भी नया केंद्रीय विद्यालय खोलने के लिए सरकार के पास पैसे नहीं हैं। और विदेशी यूनिवर्सिटी के लिए दरवाजे खोल रहे हैं। शिक्षा के क्षेत्र में उनका रिफॉर्म इस गरीब देश में रोजी-रोटी के लिए तरसते लोगों को मर्सडीज बेंज मुहैया कराने जैसा है।



हमारे हुक्मरान पहचान पत्र मुहैया कराने के नाम पर खरबों रुपये खर्च कर देते हैं। तानाशाह मुख्यमंत्रियों के जश्न पर अरबों रुपये बहा दिये जाते हैं। लेकिन शिक्षा के नाम पर बजट का छह फीसदी हिस्सा देने में उनकी जान जाने लगती है। आज यूनिवर्सिटीज से कहा जा रहा है कि वो अपना खर्चा खुद जुटाएं। यही वजह है कि यहां भी पढ़ाई दिन ब दिन महंगी होती जा रही है।



एक दशक पहले जहां एक-डेढ़ हज़ार रुपये में छात्र दिल्ली जैसे शहर में रह और पढ़ लेते थे आज उसके लिए पांच हज़ार रुपये भी कम पड़ते हैं। कॉलेजों की सालाना फीस भी दो-तीन गुना बढ़ गई है। बीस-पच्चीस रुपये वाली किताबें 250-300 रुपये में मिलती हैं। कुछ किताबें तो 500 रुपये से ऊपर हैं। बमुश्किल दो-तीन फीसदी छात्रों के लिए हॉस्टल हैं। और जिन छात्रों को बाहर रहना होता है उनका संघर्ष कई गुना बढ़ जाता है।
            -बीबीसी से साभार यह रिपोर्ट

इस उम्मीद में कि आप भी इसे पढ़ें और जेहन पर जोर डालें कि आखिर हम किस तरफ बढ़ रहे हैं। कहीं हम अपनी युवा पीढ़ी को अंधकार भरे रास्तों पर तो नहीं ढकेल रहे।



एक सर्वेक्षण के मुताबिक ब्रिटेन के विश्वविद्यालयों में पढ़ने वाले कई विद्यार्थी अपनी पढ़ाई का खर्च जुटाने लिए देह व्यापार करते हैं. इस तरह से पैसे कमाने वाले विद्यार्थियों की संख्या में बढ़ोत्तरी हो रही है. सर्वेक्षण के मुताबिक पिछले दस वर्षों में विद्यार्थियों में देह व्यापार तीन फ़ीसदी से बढ़कर 25 फ़ीसदी तक पहुंच गया है.



ये सर्वेक्षण किंग्स्टन विश्वविद्यालय के प्रोफेसर रॉन रॉबर्ट्स ने सेक्स उद्योग से विद्यार्थियों के संबंध को जानने के लिए किया है. इस सर्वेक्षण में ये पाया गया कि क़रीब 11 फ़ीसदी विद्यार्थी एस्कोर्ट का काम करने के विकल्प को मान लेते हैं या विचार करते हैं. हाई प्रोफाइल सेक्सकर्मी को एस्कोर्ट कहा जाता है.



प्रोफेसर रॉन रॉबर्ट्स कहते हैं कि कॉलेज में ट्यूशन फीस ज़्यादा होने के वजह से विद्यार्थियों को ‘इंटरनेट पर अश्लील फ़िल्म’, ‘अश्लील बातें’ और ‘लैप डांस’ जैसा काम करना पड़ता है.



हलांकि ये सर्वेक्षण ब्रिटेन के एक ही विश्वविद्यालय में किया गया है. उनका कहना है कि ये सर्वेक्षण पूरे देश के लिए सूचक मात्र है, खास कर शहरी क्षेत्रों के लिए. इसके लिए उन्होंने विद्यार्थियों पर कर्ज़ का बोझ और लैप डांसिंग क्लबों में हो रही बढ़ोत्तरी को ज़िम्मेदार बताया है.



प्रोफेसर रॉन रॉबर्ट्स कहते हैं, “सेक्स से जुड़ी बातें हर जगह है. अब देह व्यापार के प्रति मध्यमवर्गीय लोग उदार हो रहे हैं और इसे करियर बनाने के लिए एक अच्छा रास्ता मानते हैं. आचरण संबंधित सारी बातें अब बिल्कुल बदल गई है.”



क्लोए नाम की एक छात्रा बताती कि उन्होंने लैप डांसिंग इसलिए शुरू की क्योंकि उनके पास यह एक मात्र ज़रिया था जिससे वो पढ़ाई पर हो रहे खर्च का वहन कर सके. उनका कहना है, “पढ़ाई के दौरान विश्वविद्यालय में मुझे जो काम मिलता है, वह वास्तव में कठिन होता है और उसे समयसीमा में करके देना होता है, लेकिन दूसरी तरफ अगर मैं लैप डांस नहीं करुं तो मैं विश्वविद्यालय के खर्च को नहीं उठा पाऊंगीं.”



एक लैप डांसिंग क्लब की मालकिन कैरी हले कहती कि ‘बार’ और ‘रेस्टोरेन्ट’ में काम करने पर विद्यार्थियों को बहुत कम पैसा मिलता है और दिन में काम करना होता है. जबकि लैप डांसिग में ऐसा नहीं है इसलिए ये विद्यार्थियों के लिए अनुकूल है.



प्रोफेसर रॉन रॉबर्ट्स कहते हैं कि इस सर्वेक्षण को लेकर कई विश्वविद्यालयों ने विद्यार्थियों काफ़ी हतोत्साहित किया. विद्यार्थियों का देह व्यापार में होना चिंता का विषय है.



वो कहते है कि इसी विषय पर इससे पहले किए गए सर्वेक्षण पर एक क्लब के मालिक बुरी तरह से भड़क गए. उनका कहना था कि पिछले सर्वेक्षण की “भारतीय मीडिया में काफ़ी चर्चा हुई थी, जोकि यहां के विश्वविद्यालयों के लिए बहुत बड़ा बाज़ार है.”



उनका कहना है, “विश्वविद्यालयों को इसे गंभीरता से लेना चाहिए और विद्यार्थियों की बातों को सुनना चाहिए. मेरे ख़्याल से यहां विद्यार्थियों की स्थिति काफ़ी खराब है और इन्हें पर्याप्त मदद नहीं मिलती है.”

प्रमोद रंजन के इसी लेख पर बिफरे हैं प्रभाष जोशी

प्रभाष जोशी ने प्रमोद रंजन के जिस लेख का जवाब दिया है वो लेख एक व्यापक नज़रिए से लिखा गया है। इसमें प्रमोद रंजन ने कहीं नहीं कहा है कि ख़बरों के काले धंधे के ख़िलाफ़ प्रभाष जोशी और हरिवंश जैसे वरिष्ठ पत्रकारों की मुहिम ग़लत है। इसमें तो उसी मुहिम को और व्यापक बनाने की मांग की गई है। लेकिन अहंकार में डूबे प्रभाष जोशी ने प्रमोद रंजन के उठाए सवालों पर गौर करने के जगह उन्हें ही कठघरे में खड़ा कर लिया है। यहां हम आपको एक और बात बता देना जरूरी समझते हैं। प्रमोद रंजन ने जनसत्ता को लेख भेजने के साथ एक चिच्ठी भी लिखी थी। उस चिट्ठी में उन्होंने कहा था कि उनके लेख को प्रभाष जोशी के लेखों का जवाब नहीं समझा जाए। वो प्रभाष जोशी की मुहिम का पूरा समर्थन करते हैं और यह चाहते हैं कि मुहिम के दायरे को और बढ़ाया जाए। आप प्रमोद रंजन का पूरा लेख पढ़िए। बॉक्स में वो चिट्ठी भी दी गई है जो उन्होंने जनसत्ता के संपादक ओम थानवी को लिखी थी। – मॉडरेटर





विश्वास का धंधा



“कानपुर में स्वर्गीय नरेंद्र मोहन(दैनिक जागरण के मालिक) के नाम पर पुल का नामांकरण उस समय हुआ जब मैं उत्तर प्रदेश सरकार में मंत्री था. उनके मल्टीप्लैक्स को जमीन हमारे समय में दी गयी. जागरण का जो स्कूल चलता है और उनका जहां दफ्तर है. उनकी जमीनें हमारे समय में उन्हें मिलीं. लेकिन यह सब मैंने किसी अपेक्षा में नहीं अपना मित्र धर्म निभाते हुए किया. फिर भी मेरे साथ ऐसा व्यवहार (खबर के लिए पैसे की मांग) हुआ. इतनी निर्लज्जता से चलेंगे तो कैसे चलेंगे रिश्ते।”

-लालजी टंडन, लखनऊ से भाजपा के विजयी लोकसभा प्रत्याशी (1)



“दैनिक जागरण के मालिक को हमने वोट देकर सांसद बनाया था. वे बताएं वोट के बदले उनने हमें कितना धन दिया था. तब खबर के लिए हम धन क्यों दें।” -मोहन सिंह, देवरिया से सपा के पराजित लोकसभा प्रत्याशी (2)



“मैंने उषा मार्टिन (प्रभात खबर को चलाने वाली कंपनी) को भी कठोतिया कोल ब्लॉक दिया. प्रभात खबर को यह बताना चाहिए कि उसकी ‘शर्तें क्या थीं. मैंने उनसे कितने पैसे लिए.”

-मधु कोड़ा, झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री, चाईबासा से निर्दलीय सांसद (3)





जनसत्ता के संपादक ओम थानवी को भेजा गया पत्र





11 अगस्त, 2009 , पटना



सम्माननीय ओम थानवी जी,



सानंद होंगे.



जनसत्ता के 9 अगस्त, रविवार वाले अंक में श्री प्रभाश जोशी ने अपने कॉलम में `पैकेज´ के संबंध में क्षोभ प्रकट किया है कि जिन समाचार पत्रों के कारनामों का उन्होंने विरोध किया था उन्होंने एकदम चुप्पी साध ली. पलटवार तक नहीं किया. जबकि समाज में इसे लेकर पर्याप्त प्रतिक्रिया हुई है. श्री जोशी का क्षोभ उचित है लेकिन मैं इसे अप्रत्याशित के रूप में नहीं देखता. हिंदी पट्टी में काम कर रहे इन मीडिया संस्थानों की नैतिकता का स्तर इतना नीचा है कि इनकी ओर से किसी संवाद की उम्मीद बेमानी है.

किन्तु, मीडिया की इस प्रवृति का विश्लेशण सरसरी तौर पर भत्र्सना से इतर भी संभव है. वास्तव में यह अधिक जटिल है, जिस पर प्राय: ध्यान नहीं दिया जाता. बहरहाल, `पैकेज´ पर केंद्रित लेख `विश्वास का धंधा´ भेज रहा हूं. यहां यह स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि यह श्री जोशी के लेखों का प्रत्युत्तर कतई नहीं है. यह उनके पाठ से अलग मीडिया के विस्तृत बहुजन पाठ का हिस्सा है. इसे कुछ मायनों में श्री जोशी द्वारा शुरू की गयी मुहिम के विस्तार के रूप में भी देखा जा सकता है.

मीडिया के बहुजन पाठ पर केंद्रित मेरे अध्ययन की एक पुस्तिका `मीडिया में हिस्सेदारी´ प्रेस में है. उसमें यह लेख भी गया है. एक सप्ताह में उसके छपकर आ जाने की उम्मीद है. आपकी प्रति भेजूंगा.

इस लेख पर आपके निर्णय की प्रतीक्षा रहेगी. यदि आप इसे प्रकाशन योग्य समझें तो समाचार पत्र की आवश्यकतानुसार इसके फुट नोट्स कम कर दे सकते हैं,

या फिर हटा भी सकते हैं.



सादर,

प्रमोद रंजन





मीडिया पर चुनावों के दौरान पक्षपात के आरोप लगते रहे हैं. इस तरह के आरोप प्राय: चुनाव हार गये दल और प्रत्याशी लगाते हैं. या फिर दलित-पिछड़े नेताओं की ब्राह्मण-बनिया प्रेस से शिकायतें रही हैं. इस तरह की आपित्तयों को खिसियानी बिल्ली का प्रलाप मान कर नजरअंदाज कर दिया जाता है. लेकिन इस बार किस्सा कुछ अलग है. इस बार शिकायत उन नेताओं को भी है जो चुनाव जीत गये हैं. नाराज वे भी हैं, जो कुछ समय पहले तक इसी मीडिया के खास थे.



इसका कारण सीधा है. बनिया, ब्राह्मण पर भारी पड़ा है. जो काम रिश्तों के आधार पर होता रहा था, उसके लिए अब अचानक दाम मांगा जाने लगा है.



पुल तुम्हारे नाम किया, जमीन दी, जनता के वोट से विधान सभा में पहुंचे तो अपना वोट देकर तुम्हें राज्यसभा में भेजा. आजीवन मित्र धर्म निभाया. तब भी यह अहसानफरामोशी?



वास्तव में यह पहली बार नहीं था जब चुनाव के दौरान अखबारों ने पैसा लेकर खबर छापी हो. पहले यह पैसा पत्रकारों की जेब में जाता था. अखबारों के प्रबंधन ने धीरे-धीरे इसे संस्थागत रूप देना शुरू किया. ज्ञात तथ्यों के अनुसार, छत्तीसगढ़ में वर्ष 1997 के विधानसभा चुनाव से इसकी शुरुआत हिंदी के दो प्रमुख मीडिया समूहों ने की थी. उस चुनाव में 25 हजार रुपये का पैकेज प्रत्याशी के लिए तय किया गया था, जिसमें एक सप्ताह की दौरा-रिपोर्टिंग, तीन अलग-अलग दिन विज्ञापन के साथ मतदान वाले दिन प्रत्याशी का इंटरव्यू प्रकाशित करने का वादा शामिल था. (4)



उसके बाद के सालों में हिमाचल प्रदेश, पंजाब, चंडीगढ़, हरियाणा, राजस्थान आदि में चुनावों के दौरान यह संस्थागत भ्रष्टाचार पैर पसारता गया. उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राजनैतिक रूप से सचेत राज्यों में अखबारों को इस मामले में फूंक-फूंक कर कदम रखना पड़ा.



संस्थागत रूप (जिसमें पैसा सीधे प्रबंधन को जाता है) से उत्तरप्रदेश में अखबारों ने पहली बार उगाही वर्ष 2007 के विधानसभा चुनाव में की.(5)



वैश्विक आर्थिक मंदी के बीच वर्ष 2009 के लोकसभा चुनाव में उगाही की यह प्रणाली बिहार पहुंची. इस चुनाव में बिहार-झारखंड में हिंदुस्तान ने “बिकी हुई” खबरों के नीचे “एचटी मीडिया इनिशिएटिव” लिखा तो प्रभात खबर ने “पीके मीडिया इनिशिएटिव”. दैनिक जागरण ने बिकी हुई खबरों का फांट कुछ बदल दिया. (अस्पिष्ट अर्थ वाले इन शब्दों अथवा बदले हुए फांट से पता नहीं वे पाठकों को धोखा देना चाहते थे या खुद को). इस सीधी वसूली पर कुछ प्रमुख नेताओं ने जब पैसे वसूलने वाले समाचार पत्रों के मालिकों से संपर्क किया तो उनका उत्तर था-जब हमारा संवाददाता उपहार या पैसे लेकर खबरें लिखता है तो हम (मालिक) ही सीधे धन क्यों नहीं ले सकते। (6)



बिहार में बबेला



खबरों के लिए धन की इस संस्थागत उगाही पर बबेला बिहार से शुरू हुआ. इस जागरूकता के लिए बिहार की तारीफ की जानी चाहिए. यद्यपि इस पर संदेह के पर्याप्त कारण भी मौजूद हैं.



तथ्य यह है कि बिहार में दैनिक जागरण, हिंदुस्तान, प्रभात खबर आदि के पत्रकारों द्वारा चुनाव के दौरान स्थानीय स्तर पर वसूली के किस्से आम रहे हैं. झारखंड में तो अखबार चुनावों के दौरान अपना पुराना हिसाब भी चुकता करते रहे हैं.(7) लेकिन ऊंचे तबके (ऊंची जाति/ऊंची शिक्षा/ संपादकों से मित्र धर्म का निर्वाह करने वाले) राजनेताओं से अदना पत्रकार मोल-भाव की हिमाकत नहीं करते. इस कोटि के नेताओं का मीडिया मैनेजमेंट वरिष्ठ पत्रकार, स्थानीय संपादक आदि करते हैं जबकि मीडिया के उपहास, उपेक्षा और भेदभाव की पीड़ा पिछड़े राजनेताओं (नीची जाति/ कम शिक्षित/ गंवई) के हिस्से में रहती है.(8)



लेकिन इस बार अखबार मालिकों ने तो सब धान साढ़े बाईस पसेरी कर डाला. टके सेर भाजी, टके सेर खाजा!



विरोध का धंधा



इस अंधेर को प्रभात खबर के प्रधान संपादक हरिवंश ने “खबरों का धंधा” (9) कहा तो जनसत्ता के पूर्व संपादक प्रभाष जोशी ने “खबरों के पैकेज का काला धंधा” (10). जबकि प्रभात खबर भी इस मामले में शामिल था. (11)



प्रभाष जोशी ने बांका जाकर जदयू के बागी, लोकसभा के निर्दलीय प्रत्याशी दिग्विजय सिंह के पक्ष में आयोजित जनसभा को संबोधित किया था. उनके साथ प्रभात खबर के प्रधान संपादक हरिवंश भी थे. बाद में श्री जोशी ने अपने लेख में दिग्विजय सिंह का “मीडिया प्रबंधन” कर रहे एक पत्रकार की डायरी के हवाले से इस चुनाव में मीडिया के “पैकेज के काले धंधे की” कठोर भर्त्सना की. जोशी का यह लेखकीय साहस प्रशंसनीय है किन्तु उनके लेख में विस्तार से उद्धृत की गयी पत्रकार की डायरी कुछ ज्यादा भेदक प्रसंगों को भी सामने लाती है. श्री जोशी ने इस डायरी के हवाले से सिर्फ पैसों के लेन-देन की निंदा की. अन्य तथ्यों पर उन्होंने कोई ध्यान नहीं दिया.

श्री जोशी द्वारा कोट की गयी डायरी का अंश -



“20 अप्रैल, 2009: आज एक प्रमुख दैनिक के स्थानीय प्रतिनििध अपने विज्ञापन इंचार्ज के साथ आए. संवाददाता कह रहे थे-मैंने खबर भेजी थी, पर वहां एक जाति विशेष के संपादक हैं. छापेंगे नहीं. यानी पैकेज के बिना अखबार में खिड़की-दरवाजे नहीं खुलेंगे”. (12)



“21 अप्रैल, 2009: एक पत्रकार ने. अपने स्थानीय संपादक को बताया कि उसकी खबरें छपनी क्यों जरूरी हैं. स्थानीय संपादक एक जाति विशेश का था और एक दबंग उम्मीदवार भी संपादक की जाति का था. इस पत्रकार ने संपादक को समझाया कि हमने उससे डील की तो जाति समीकरण बिगड़ सकता है. दूसरे उम्मीदवार जो मंत्री हैं उनके बारे में कहा कि वे सरकारी विज्ञापन दिलवाते रहेंगे. उनसे क्या लेन-देन करना. दिल्ली में खूब पहचान रखनेवाले एक उम्मीदवार के बारे में कहा कि जब उनसे मिलने गया तो वे फोन पर.. (अखबार के मालिक) से बात कर रहे थे. उनसे क्या पैकेज लिया जाए”. (13)



जाति, पद और परिचय पर आधारित पत्रकारिता का फरूखाबादी खेल उपरोक्त उद्धरणों में स्पष्ट है, जिसे पत्रकारिता पर जारी बहस के दौरान नजरअंदाज कर दिया गया है. पत्रकारिता का यह पतन वैश्विक मंदी के कारण वर्ष 2009 में अचानक घटित होने वाली घटना नहीं है. जातिजीवी संपादक व पत्रकार इसे वर्षों से इस ओर धकेलते रहे हैं. वस्तुत: पैकेज ने जातिजीवी संपादकों की मुट्ठी में कैद अखबारों के खिड़की-दरवाजे सभी जाति के धनकुबेरों के लिए खोल दिये हैं. इसमें संदेह नहीं कि अखबारों का चुनावी पैकेज बेचना बुरा है. लेकिन अधिक बुरा है पत्रकारिता में जाति धर्म और मित्र धर्म का निर्वाह.



व्यवहारिक दृष्टि से देखा जाए तो…



चुनावों के दौरान खबरों की बिक्री पिछले लगभग एक दशक से चल रही है(14). इसने अखबारों की विश्वसनीयता गिरायी है. लेकिन पैसा लेकर छापी गयी खबर की बदौलत शायद ही किसी प्रत्याशी की जीत हुई हो.(15) उत्तरप्रदेश में वर्ष 2007 के विधान सभा चुनाव में तीन समाचार पत्रों ने सरेआम धन लेकर खबर छापने का अभियान चलाया था और करोड़ों रुपये की अवैध उगाही की थी. समाचार पत्रों के जरिए अपनी छवि सुधारने वाले राजनीतिक दलों ने इन समाचार पत्रों को विज्ञापन देकर भी पैसा पानी की तरह बहाया. परंतु इनके चुनावी सर्वेक्षण व आकर्षक समाचार भी मतदाताओं का रुझान नहीं बदल सके और विज्ञापन पर सबसे कम धन खर्च करने वाली बहुजन समाज पार्टी को पूर्ण बहुमत मिल गया.(16) अखबारों की विश्वसनीयता की हालत यह हो गयी कि प्रत्याशी अब पक्ष में खबर छापने की बजाय कोई खबर न छापने के लिए पैसे देने लगे हैं. बदनामी इतनी हो चुकी है कि पक्ष में खबर छपने पर मतदाताओं द्वारा `उलटा मतलब´ निकाले जाने की आशंका रहती है.(17)



पत्रकारिता के मूल्यों में ऐसे भयावह क्षरण से नुकसान दलित, पिछड़ों की राजनैतिक ताकतों, वाम आंदोलनों तथा प्रतिरोध की उन शक्तियों को भी हुआ है, जो इसके प्रगतिशील तबके से नैतिक और वैचारिक समर्थन की उम्मीद करते हैं. मीडिया के ब्राह्मणवादी पूंजीवाद ने इन्हें उपेक्षित, अपमानित और बुरी तरह दिग्भ्रमित भी किया है. लेकिन मीडिया की गिरती विश्वसनीयता पर जाहिर की जा रही चिंता का कारण यह नहीं है. उन्हें चिंता है कि-`यदि मीडिया की ताकत ही नहीं रहेगी तो कोई अखबार मालिक किसी सरकार को किसी तरह प्रभावित नहीं कर सकेगा. फिर उसे अखबार निकालने का क्या फायदा मिलेगा. यदि साख नष्ट हो गयी तो कौन सा सत्ताधारी नेता, अफसर या फिर व्यापारी मीडिया की परवाह करेगा. इसलिए व्यवहारिक दृष्टि से देखा जाए तो यह अखबार के संचालकों के हक में है कि छोटे-मोटे आर्थिक लाभ के लिए पैकेज पत्रकारिता को बढ़ावा न दें.´ (18)



व्यवहारिकता का यह तकाजा पूंजीवाद से मनुहार करता है कि वह ब्राह्मणवाद से गठजोड़ बनाए रखे. कौड़ी-दो-कौड़ी के लिए इस गठबंधन को नष्ट न करे. सलाह स्पष्ट है अगर हम पहले की तरह गलबहियां डाल चलते रहें तो ज्यादा फायदे में रहेंगे. सरकार, अफसर, व्यापार सब रहेंगे हमारी मुट्ठी में. अभी लोकतंत्र की तूती बोल रही है. इसलिए वह क्षद्म बनाए रखना जरूरी है, जिससे बहुसंख्यक आबादी का विश्वास हम पर बना रहे. मीडिया की `विश्वसनीयता´ बनाए रखना इनके लिए `समय का तकाजा´ है.

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संदर्भ व टिप्पणियां



1. लालजी टंडन से रूपेश पांडेय की बातचीत, प्रथम प्रवक्ता, (संपादक-रामबहादुर राय) का प्रभाष जोशी के निर्देशन में पैकेज पर केंद्रित अंक, 16 जुलाई, 2009.

2. प्रभाश जोशी का लेख `जिसने भुगता वे बोले´, वही.

3. 26 जुलाई, 2009 को आयोजित प्रेस कांफ्रेस में मधु कोड़ा ने कहा – `प्रभात खबर मुझ पर उषा मार्टिन (प्रभात खबर को चलाने वाली कंपनी) का काम नहीं करने के कारण दबाब बना रहा है. दलाली नहीं चली तो कंपनी ने अपने अखबार का इस्तेमाल कर मुझे बदनाम करना शुरू कर दिया. यह सब तब शुरू हुआ जब कंपनी के काम की एक फाइल मेरे पास कोर्ट की अवमानना करते हुए भिजवायी गयी…कोई किसी व्यापारी के साथ कहीं जाने से उसका पाटर्नर हो जाता है क्यार्षोर्षो अगर ऐसा है तो उशा मार्टिन के मालिक समीर लोहिया, झाबर आदि भी मेरे साथ लंदन, स्वीटजरलैंड और पेरिस गये थे तो क्या वे मेरे पाटर्नर हो गयेर्षोर्षो मैंने उशा मार्टिन को भी कठोतिया कोल ब्लॉक दिया. प्रभात खबर को यह बताना चाहिए कि उसकी शर्तें क्या थीं. मैंने उनसे कितने पैसे लिए´, सहारा समय बिहार-झारखंड तथा ईटीवी पर 27 जुलाई, 2009 को प्रसारित.

4. जाकिर हुसैन की रिपोर्ट `छत्तीसगढ़ में पैकेज की पुरानी परंपरा´, प्रथम प्रवक्ता, (संपादक-रामबहादुर राय) का प्रभाश जोशी के निर्देशन में पैकेज पर केंद्रित अंक, 16 जुलाई, 2009.

5. उत्तर प्रदेश से रूप चौधरी की रिपोर्ट `इधर जन जागरण, उधर धन जागरण´, सुशील राधव की रिपोर्ट `जैसा पैसा वैसी खबर´, वही.

6. रूप चौधरी की रिपोर्ट `इधर जन जागरण, उधर धन जागरण´, वही.

7. गत लोकसभा चुनाव में भी ऐसे वाकये सामने आये. चाईबासा से निर्दलीय प्रत्याशी मधु कोड़ा को हराने के लिए बेबुनियाद खबरें छापने के आरोप प्रभात खबर पर लगे. अखबार ने कुछ अज्ञात अल्पसंख्यक संगठनों के बयान प्रमुखता से छापे, जिनमें कोड़ा को वोट न देने की अपील की गयी थी. ये बयान मतदान तिथि के ठीक पहले छापे गये ताकि इनका खंडन न किया जा सके.

8. वर्ष 2000 में झारखंड राज्य बनने के बाद अखबार उसके पिछड़ा-आदिवासी समुदाय से आने वाले जाहिल, काहिल और भ्रष्ट नेतृत्व को बरगलाकर, ब्लैकमेल कर अपना काम निकालते रहे हैं. बिहार में भी राबड़ी-लालू प्रसाद शासन काल के दौरान प्रेस का रवैया कमोवेश ऐसा ही था. सामंती ताकतों के सत्ता में रहने पर इनकी नीति चापलूसी कर काम निकालने की रहती है.

9. अप्रैल,2009 में प्रभात खबर में प्रधान संपादक हरिवंश का लेख.

10. प्रभाष जोशी का लेख, जनसत्ता, 10 मई, 2009

11. झारखंड से प्रवक्ता ब्यूरो की रिपोर्ट “तो फिर खबर नहीं छपेगी”-”प्रभात खबर में भी खबरें उसी की ज्यादा छपीं, जिसने विज्ञापन ज्यादा दिया. वहां अघोषित नियम बनाया गया कि जो पैसा देगा उसको कवरेज मिलेगा”, प्रथम प्रवक्ता,(संपादक-रामबहादुर राय) का प्रभाष जोशी के निर्देशन में पैकेज पर केंद्रित अंक, 16 जुलाई, 2009.

12. प्रभाष जोशी के लेख “खबरों के पैकेज का काला धंधा” में पत्रकार (अनुराग चतुर्वेदी) की डायरी का उद्धरण, जनसत्ता, 10 मई, 2009

13. उपरोक्त व अनुराग चतुर्वेदी की डायरी, प्रभात खबर 15 मई, 2009

14. जाकिर हुसैन की रिपोर्ट “छत्तीसगढ़ में पैकेज की पुरानी परंपरा”, प्रथम प्रवक्ता, (संपादक-रामबहादुर राय) का प्रभाश जोशी के निर्देशन में पैकेज पर केंद्रित अंक, 16 जुलाई, 2009.

15. देखें, इलाहाबाद से राजीव यादव की रिपोर्ट – “एक गैर सरकारी संगठन के प्रत्याशी का कहना कि “देश खतरे में है”, “मतदाता मेरा भगवान” काफी चर्चा रहा. उन्हें 1563 वोट मिले. पर चुनावों में हर दिन उनकी खबर छपती थी. क्योंकि वे चुनाव वोट के लिए नहीं बल्कि खबरों के लिए लड़ रहे थे. जितनी ज्यादा उनकी खबरें छपीं उतनी ज्यादा उन्हें बाद में फंडिंग होगी´. संवाददाता अजय कुमार श्रीवास्तव से बातचीत में देवरिया से पराजित सपा प्रत्याशी मोहन सिंह का कथन -”अखबार इस भ्रम में न रहें कि उनके विज्ञापन से बसपा प्रत्याशी को जीत मिली है. ऐसा होता तो लखनऊ से (लालजी टंडन के प्रतिद्वंद्वी) बसपा प्रत्याशी अखिलेश दास जरूर जीत जाते. पैसा खर्च कर चुनिंदा लोग ही जीते हैं. देवरिया में बसपा प्रत्याशी आठ महीने से पैसा बहा रहा था. उसने अखबारों को “हायर” किया. मंदिर, मदरसों, ग्राम प्रधानों, ब्लॉक प्रमुखों को लाखों बांटे. वहां शिक्षा का स्तर नीचा था इसलिए “धन” जीत गया”. सौरभ राय की रिपोर्ट में आजमगढ़ से चुनाव जीतने वाले भाजपा के रामाकांत यादव का कथन – “हिंदुस्तान अखबार ने खबर छापने के लिए मुझसे 10 लाख रुपये की मांग की थी. जब मैंने रुपये नहीं दिये तो इस अखबार के मुताबिक मैं चुनाव बुरी तरह हार रहा था. लेकिन नतीजा सामने है. मैं चुनाव जीत गया”. सुरेंद्र किशोर का लेख – “खुशखबरी है कि गत लोकसभा चुनाव में जितने उम्मीदवारों ने अखबारों को पैसे देकर अपने पक्ष में तैयार विज्ञापनों को खबरों के रूप में छपवाया, उनमें से अधिकतर उम्मीदवार चुनाव हार गये”, प्रथम प्रवक्ता, (संपादक-रामबहादुर राय) का प्रभाष जोशी के निर्देशन में पैकेज पर केंद्रित अंक, 16 जुलाई, 2009.

16. रूप चौधरी की रिपोर्ट “इधर जन जागरण, उधर धन जागरण”, वही.

17. सोमदत्त शास्त्री की रिपोर्ट – “छत्तीसगढ़ में एक राजनीतिक दल की ओर से मीडिया मैनेजमेंट में लगे पीयूष गुप्ता का कहना है कि उन्होंने कुछ अखबारों को यह कहकर `पैकेज´ की रकम दी कि वे भगवान के लिए कोई खबर न छापें, यही उनके हक में होगा. पीयूष गुप्त के मुताबिक पैकेज को लेकर अखबारों की इतनी बदनामी हो चुकी थी कि अगर वे पक्ष में खबर छापें तो लोग उलटा मतलब निकाल रहे थे.. अधिकांश राजनेताओं की राय है कि अखबारी खबरें हवा बनाने में नाकाम रहीं. इसके बावजूद उन्हें पैकेज केवल इसलिए दिये गये ताकि वे अपना मुंह बंद रखें. किसी तरह का `नयूसेंस´ न क्रियेट करें”. प्रथम प्रवक्ता, (संपादक-रामबहादुर राय) का प्रभाष जोशी के निर्देशन में पैकेज पर केंद्रित अंक, 16 जुलाई, 2009.

18. पत्रकार सुरेंद्र किशोर का लेख “साख नहीं रही तो फिर क्या बचेगा”, वही.



((`मीडिया में हिस्सेदारी` से साभार))

जीएम विरोधों के खिलाफ ग्रीनहंट

देश में आपातकाल का भूत फिर से जाग गया है. वास्तव में, अब हालात आपातकाल से भी बदतर होने जा रहे हैं. कुख्यात इमरजेंसी काल में सत्ता से सवाल करने वाले किसी भी व्यक्ति को सलाखों के पीछे कर दिया जाता था. अगर विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग की चले तो आपको अपने आनुवांशिकीय संवर्धित भोजन की सुरक्षा पर सवाल उठाने पर गिरफ्तार किया जा सकता है. जिस प्रकार आदिवासी बाहुल्य इलाकों में नक्सलवादियों के खिलाफ भारी पुलिस अभियान 'आपरेशन ग्रीनहंट' चलाया जा रहा है, उसी प्रकार सरकार सुरक्षित खाद्य पदार्थ की मांग उठाने वालों को चुप करने के लिए एक और पुलिस अभियान चलाने की तैयार कर रही है. प्रस्तावित बायोटेक्नोलाजी रेगुलेटरी अथारिटी बिल पारित होने के बाद सरकार अपने ही नागरिकों के खिलाफ एक और युद्ध छेड़ने वाली है. इन लोगों का अपराध यह पूछना है कि जिस भोजन को खाने के लिए उन्हें बाध्य किया जा रहा है, वह स्वास्थ्य के लिए सुरक्षित है भी या नहीं.
प्रस्तावित बिल में बहुराष्ट्रीय कंपनियों और बड़े औद्योगिक घरानों को सूचना छिपाने, अनुसंधान के नतीजों में छेड़छाड़ करने और भोले-भाले नागरिकों को नुकसानदायक उत्पाद पेश करने से रोकने का कोई प्रावधान नहीं है. न ही किसी हादसे के लिए कंपनी को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है. स्पष्ट है कि यह बिल बड़ी कृषि-उद्योग कंपनियों के हित में और उनका मुनाफा बढ़ाने के उद्देश्य से लाया गया है. संभवत: बजट सत्र में पेश होने वाले बीआरएआई बिल के कुछ अंश प्रत्येक नागरिक को संविधान द्वारा दी गई बोलने की स्वतंत्रता पर एक अभूतपूर्व छींका लगाते हैं.
सेक्सन 63 के चैप्टर 13 में लिखा है, 'जो व्यक्ति बिना साक्ष्यों या वैज्ञानिक रेकार्ड के जनता को उत्पादों की सुरक्षा के बारे में गुमराह करेगा उसे कम से कम छह माह और अधिक से अधिक एक साल की कैद या दो लाख रुपए तक के अर्थदंड या फिर दोनों सजाएं सुनाई जा सकती हैं.'
इमरजेंसी के दौरान राजनीतिक मतभिन्नता के कारण लोगों को महज जेल ही जाना पड़ा था, किंतु अगर बीआरएआई बिल कानून बन गया तो जेल जाने के साथ-साथ अर्थदंड भी चुकाना पड़ेगा. यहां तक कि आलोचनात्मक लेख के लेखक को भी जेल में डाला जा सकता है. जो प्रयोगों का विरोध करेगा या फिर इसमें बाधा उत्पन्न करेगा, उसे भी जेल की हवा खानी पड़ सकती है.
प्रयोगों का स्वास्थ्य और पर्यावरण पर पड़ने वाले दुष्परिणाम जानने के लोगों के अधिकार को भी कुंठित कर दिया गया है. विधेयक के आर्टिकल 27 के अनुसार जीएम उत्पादों के शोध, अनुमोदन और विज्ञान के विषय में जानकारी हासिल करना भी सूचना के अधिकार के दायरे से बाहर किया जा रहा है.
नेशनल कैंपेन फार पीपल्स राइट टु इंफोर्मेशन के अनुसार सेक्सन 2 (एच) 'गोपनीय व्यावसायिक सूचना' की परिभाषा को इस रूप में सीमित और निषिद्ध करती है कि अथारिटी के पास उत्पादों के शोध, परिवहन या आयात संबंधी किसी भी दस्तावेज को जनता को उपलब्ध नहीं कराया जाएगा. यही नहीं, इसका सेक्शन 81 सूचना के अधिकार 2005 के प्रावधानों का उल्लंघन करता है. प्रस्तावित विधेयक के अनुसार, 'इस एक्ट के प्रावधान किसी भी रूप में प्रचलित कानून से किसी भी प्रकार प्रभावित होते हैं तो इन्हें ही प्रभावी व बाध्यकारी माना जाएगा.'
भोजन जैसी साधारण चीज के संबंध में भी आलोचना के स्वर दबाने का सीधा सा मतलब है की स्वास्थ्य के लिए नुकसानदायक जीएम खाद्य पदार्र्थो को जनता के हलक के नीचे उतारने का सरकार ने इरादा बना लिया है. जीएम फसलें पर्यावरण और पारिस्थिकी पर गंभीर नकारात्मक प्रभाव डालने के लिए जानी जाती हैं. इसकी स्वीकार्यता के लिए मजबूर करने से जैवविविधता संरक्षण कम हो जाएगा.

यह स्वामीनाथन टास्क फोर्स रिपोर्ट की अनुशंसाओं के खिलाफ है, जो कहती है- किसी भी जैवविविध नियामक नीति को हर हाल में पर्यावरण और कृषि के किफायती व पारिस्थितिकी टिकाऊ तंत्र की सुरक्षा करनी चाहिए. बेशक, विधेयक का मसौदा यह भी कहता है कि बीआरएआई अपनी खुद का पुनर्विचार संबंधी ट्रिब्यूनल गठित करेगा, जो बायो प्रौद्योगिकी संबंधी किसी भी मामले की सुनवाई करेगा. किसी भी विवाद की स्थिति में याचिकाकर्ता केवल सुप्रीम कोर्ट में ही अपील कर सकेगा.
दूसरे शब्दों में, विवादों का निपटारा केवल सुप्रीम कोर्ट में करने के प्रावधान के कारण प्रस्तावित विधेयक आम आदमी की कानूनी सहायता तक पहुंच दूभर कर देता है. हर कोई आसानी से सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचने के साधन व पैसा नहीं जुटा सकता. किसी भी नियामक तंत्र को विज्ञान और प्रौद्योगिकी के संबंध में लोगों की जबान पर ताला लगाने के बजाए इनमें जनता का विश्वास पैदा करना चाहिए. पहले ही भारत में जीएम फसलों के पर्यावरण पर प्रभाव के संबंध में अनुमति देने वाली जेनेटिक इंजीनियरिंग अप्रूवल कमिटी (जीईएसी) बायोटेक्नोलाजी उद्योग की पिट्ठू बनने के कारण अपनी भद पिटवा चुकी है.

यह भी समझ से परे है कि विवादास्पद जीएम फसलों के लिए एकल खिड़की त्वरित अनुमति व्यवस्था की क्या जरूरत है. यहां तक कि अमरीका में जीएम फसलों को अनुमति प्रदान करने के लिए त्रीस्तरीय व्यवस्था काम कर रही है. फिर भी, अमरीकी नियामक प्रक्रिया पर समय-समय पर सवाल उठाए जाते रहे हैं और इसे दोषपूर्ण बताया जाता रहा है. सबसे पहले तो जीईएसी को बीटी बैगन को अनुमति प्रदान करने के घपले के लिए जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए और इसके अधिकारियों को दंडित किया जाना चाहिए.
                                                                  -देविंदर शर्मा

बाबा के सेक्स प्रेम

पिछले कुछ हफ्तों में, बाबाओं के सेक्स स्कैंडलों की अनेक खबरें सामने आईं हैं. यह पहली बार नहीं है कि बाबा, अपने सेक्स प्रेम के चलते चर्चा का विषय बने हों. बाबाओं के महिलाओं के प्रति आकर्षण की कई कथाएं समय-समय पर सामने आतीं रहीं हैं. हाल में सामने आए स्वामी नित्यानंद और इच्छाधारी बाबा भीमानंद के सेक्स स्कैंडलों ने इस तथ्य को रेखांकित किया है कि हमारे देश के बाबा, बिना किसी डर के अपने सेक्स -प्रेम का इज़हार करते रहें हैं.








पिछले चंद वर्षो में बाबाओं के सेक्स स्कैंडलों की कई कथाओं ने मीडिया में सनसनी फैलाई है. एक विदेशी लेखक ने सत्य साईं बाबा के बारे में कई चौंकाने वाली बातें कहीं थीं. गुरमीत राम-रहीम, स्वामी माधवन व कामकोटि शंकराचार्य के आश्रम में हुई कारगुजारियॉ हम सब की जानकारी में हैं.



ऐसा नहीं है कि इस तरह की हरकतों के आरोप केवल हिन्दू धार्मिक व्यक्तित्वों पर लगे हों. सिस्टर जेसेम की “स्टोरी ऑफ ए नन” और कैथोलिक चर्च द्वारा बच्चों का शारीरिक शोषण करने के आरोप में एक पादरी की बर्खास्तगी से यह स्पष्ट है कि हिन्दू से इतर धर्म भी सेक्स के प्रति आकर्षण से मुक्त नहीं हैं. पादरी की बर्खास्तगी इसलिए हुई क्योंकि जर्मनी के कई निवासियों ने यह आरोप लगाया कि जब वे बच्चे थे, तब उस पादरी ने उनका शारीरिक शोषण किया था. ऐसे कई मामले हाल में भी सामने आये हैं.



आरएसएस के प्रचारकों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे जीवन भर अविवाहित रहें. संघ के संजय जोशी को उनकी राजनैतिक जिम्मेदारियों से इसलिए मुक्त किया गया था क्योंकि उनके कथित सेक्स-प्रेम को उजागर करने वाली एक सीडी सार्वजनिक हो गई थी.



इन सब मामलों की पृष्ठभूमि अलग-अलग हैं. कैथोलिक धर्म में, पादरियों व ननो का अविवाहित रहना एक नियम है. इस धर्म में कई ऐसे मामले सामने आए हैं, जिनने धार्मिक संगठनों को शर्मिंदा किया है.



जहां तक हिन्दू बाबाओं का प्रश्न है, वे अपने अलग-अलग साम्राज्य चलाते हैं. वे किसी धार्मिक संस्थागत व्यवस्था के हिस्से नहीं होते. इस कारण, दोनों की तुलना अनुचित होगी परंतु दोनों मामलों में जो समानता है, वह यह है कि जिन लोगों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे ब्रम्हचर्य धर्म का पालन करेंगे, वे स्वयं की वासनाओं पर नियंत्रण नहीं रख पाते.



बाबाओं और स्वामियों के मामलों से यह साफ है कि वे अपनी “आध्यात्मिक उपलब्धियों” का दुरूपयोग, शारीरिक सुख प्राप्त करने के लिए करते हैं. धार्मिकता का चोला पहनकर वे सत्ताधारियों के सहयोग से “सेक्स रैकेट” चलाने से भी गुरेज नहीं करते. यह धार्मिक आस्था का घोर दुरूपयोग है. ये बाबा जानते-बूझते, ऐसी परिस्थितियॉ उत्पन्न करते हैं, जिनके चलते इनकी महिला अनुयायी इनके जाल में फॅस जायें और वे उनका शारीरिक शोषण कर सकें. यह न केवल कानून की दृष्टि में अपराध हैं वरन् सामाजिक स्तर पर भी धार्मिक आस्था का अक्षम्य दुरूपयोग है.



ब्रम्हचर्य व्रत का पालन, कई धर्मो में, धार्मिक व्यक्तित्वों के लिए आवश्यक है. इसके पीछे पवित्र कारण हैं. त्याग की भावना और शारीरिक सुख की इच्छा पर विजय प्राप्त करना, आध्यात्मिक ऊँचाई प्राप्त करने के लिए आवश्यक माना जाता है. जहां तक ब्रम्हचर्य व्रत के पालन का संबंध है, भारतीय बाबाओं का अलग-अलग रिकार्ड रहा है.



प्राचीन भारत में ऐसे लोग भी थे, जो सब कुछ त्याग देते थे और ऐसे भी, जो गृहस्थ धर्म का पालन करते थे. पतंजलि ने लिखा है, “स्वांग जुगुप्सा, पराई असानसर्गह” अर्थात आध्यात्मिक ज्ञान में वृद्धि और हृदय के अंतिम सत्य को प्राप्त करने के साथ, शरीर के प्रति उपेक्षा भाव जागृत होता है. यही कारण है कि ब्रम्हचर्य को सन्यास की ओर ले जाने वाला मार्ग कहा गया. और यही कारण है कि ब्रम्हचारियों का समाज में सम्मान था.



आदि शंकराचार्य जिस दौर में हिन्दू धर्म के बौद्ध धर्म के विरूद्ध संघर्ष का नेतृत्व कर रहे थे, उस समय उन्होंने ब्रम्हचर्य को अपनी शिक्षाओं में अत्यंत उच्च स्थान दिया था. शारीरिक सुखों का त्याग-जिसमें ब्रम्हचर्य शामिल था-की अवधारणा उन्होंने बौद्ध धर्म से ली थी. आज की दुनिया में, बौद्ध भिक्षुकों, कैथोलिक पादरियों और हिन्दू धर्म के कुछ पंथों में ही ब्रम्हचर्य को महत्व दिया जाता है. यह धार्मिक परंपरा का हिस्सा है. इससे बिलकुल अलग कारणों से, आरएसएस जैसे कुछ राजनैतिक संगठनों ने ब्रम्हचर्य व्रत के पालन को अपने प्रचारकों के लिए अनिवार्य बनाया है.



पतंजलि के तर्क को ही श्री श्री रविशंकर दोहराते हैं. उनका कहना है कि जैसे-जैसे कोई व्यक्ति आध्यात्म की नई ऊँचाईयों को छूता है, उसके लिए शरीर का महत्व कम होता जाता है और सेक्स की भूख लगभग मर जाती है. अन्य बाबाओं के विपरीत तर्क हैं. इनमें सबसे प्रमुख हैं ओशो यानी भगवान रजनीश. उनका तर्क है कि सेक्स की इच्छा पर विजय के लिए, सेक्स के अनुभव से गुजरना जरूरी है. वे यह कहते भी थे और उनकी पुस्तक, “संभोग से समाधि तक” का यही सार है.



आज की वैश्विक दुनिया में हर व्यक्ति स्वयं को असुरक्षित महसूस करता है. उपभोक्तावाद तेजी से बढ़ा है, गला-काट प्रतिस्पर्धा है और पैसा, व्यक्ति की सफलता को नापने का मानक बन गया है.





यह अर्ध-दार्शनिक शाब्दिक मायाजाल अपनी जगह है परंतु शारीरिक मजबूरियों ने अनेकों बार ब्रम्हचारियों को पराजित किया है और धार्मिक व्यक्तित्वों व संस्थाओं के सेक्स स्कैडलों के इतने मामले सामने आ चुके हैं कि ऐसा लगता है कि कामदेव, हमारे बाबाओं के पूज्यों में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं. कभी वे बच्चों का शारीरिक शोषण करते हैं तो कभी अपनी महिला भक्तों को अपने “आध्यात्मिक” जाल में फंसा लेते हैं.



पिछले कुछ दशकों से ये मामले बड़ी संख्या में इसलिए सामने आ रहे हैं क्योंकि हमारे देश में बाबा, कुकुरमुत्तों की तरह ऊग आए हैं. बाबाओं की बाढ़ के पीछे कई कारण हैं. आज की वैश्विक दुनिया में हर व्यक्ति स्वयं को असुरक्षित महसूस करता है. उपभोक्तावाद तेजी से बढ़ा है, गला-काट प्रतिस्पर्धा है और पैसा, व्यक्ति की सफलता को नापने का मानक बन गया है.



आज के बाबाओं को कई श्रेणियों में बांटा जा सकता है. इनकी व्यवसायिक निपुणता भी अलग-अलग स्तर की है. सब के आध्यात्मिकता के अपने ब्रांड हैं. उन्होंने बड़ी-बड़ी दुकानें खोल रखीं हैं, जो तेजी से फैलते बाजार में सफलतापूर्वक अपने ब्रांड़ की आध्यामिकता की मार्केटिंग कर रही हैं. उनके ग्राहक, मुख्यतः मध्यम और उच्च मध्यम वर्ग के हैं.



धार्मिकता तेजी से बढ़ रही है और इसमें उद्योग जगत और राज्य का कम योगदान नहीं है. भारत में, उद्योग जगत की सहायता से हिन्दूकरण का अभियान चल रहा है. धार्मिक पर्यटन को बढ़ावा दिया जा रहा है. उच्च शिक्षा को निजी क्षेत्र के हाथों में सौंप दिया गया है. इनमें से कुछ ने धार्मिक ट्रस्ट बना लिए है जिनके जरिए वे “नैतिक शिक्षा” के नाम पर छद्म धार्मिकता की मीठी गोली बाँट रहे हैं. सरकारें, गुरूओं और बाबाओं के आश्रमों के लिए मुफ्त के भाव जमीनें बाँट रहीं हैं.



भारत और दुनिया के दूसरे हिस्सों में धार्मिक दक्षिणपंथियों का जोर बढ़ रहा है. भारत में कई संगठन समाज के हिन्दूकरण का खेल खुलकर खेल रहे है. स्वामी और बाबा इस काम में एजेन्टों की तरह काम कर रहे हैं. नित्यानंद और इच्छाधारी बाबा तो इस खतरनाक बीमारी के लक्षण मात्र हैं.
                                                                                                              -राम पुनियानी

आतंकवादी बनाती है पुलिस

मुझे इस बात के लिए माफ किया जाए कि मैं कई बार अपने खिलाफ चल रहे मामले की चर्चा कर चुका हूं. मामला अब भी अदालत में हैं और वहां जो फैसला होगा सो होगा, मैं अपने पाठकों की अदालत में अपने दोषी या निर्दोष होने की यह अपील कर रहा हूं.
2005 के फरवरी महीने में दिल्ली के डिफेंस कॉलोनी थाने में मेरे खिलाफ एक मामला दर्ज हुआ था. एफआईआर कहती है कि हेड कांस्टेबल मोहम्मद लोनी और हेड कांस्टेबल सलीम डिफेंस कॉलोनी क्षेत्र का दौरा कर रहे थे. वहां एक सिंह न्यूज एजेंसी पर उनकी नजर सीनियर इंडिया नामक पत्रिका पर पड़ी जिसके मुख पृष्ठ पर बापू की वासना शीर्षक से एक लेख छपा था. सलीम और लोनी को एफआईआर के अनुसार बहुत उत्सुकता हुई और उन्होंने पत्रिका पढ़ना शुरू कर दिया. अंदर सातवें पन्ने पर नीचे एक तीन पैराग्राफ का लेख था जिसका र्शीर्षक था अपने अपने भगवान जिसमें एक छोटी सी फोटो भी छपी थी जिसमें पगड़ी पर पटाका बना हुआ था.



एफआईआर के अनुसार फोटो बहुत छोटा था लेकिन फिर भी इन गुणी हवलदारों ने पढ़ लिया कि पगड़ी के माथे पर कुरान की पहली आयत ला इलाह इल्लिलाह, या रसूल अल्लाह अरबी भाषा में लिखा है. दिल्ली पुलिस में अरबी भाषा के इतने विद्वान को सिर्फ हवलदार बना कर रखा गया है. यह हैरत की बात है. एफआईआर कहती है कि कार्टून छापना मुस्लिम समुदाय का अपमान करना है और लेख की भाषा भी मुस्लिम संप्रदाय के खिलाफ है. इसलिए यह धारा 295 के तहत किया गया गंभीर अपराध था. इसकी सूचना सब इंस्पेक्टर के पी सिंह को दी गई और के पी सिंह ने थाने से एक बजे रवानगी डाल कर 22 फरवरी 2006 को खुद डिफेंस कॉलोनी में यह पत्रिका देखी और अपने वरिष्ठ अधिकारियों को इसकी जानकारी दी.



वरिष्ठ अधिकारी यानी दिल्ली पुलिस के पुलिस आयुक्त डॉक्टर कृष्ण कांत पॉल तैयार बैठे थे. उन्होंने तुरंत दिल्ली के उप राज्यपाल के नाम एक संदेश बनाया जिसमें पत्रिकाएं जब्त करने और संपादक यानी मुझे गिरफ्तार करने की अधिसूचना जारी करने का अनुरोध था. अधिसूचना फौरन जारी कर दी गई और इसे श्री पॉल ने गृह मंत्रालय से भी जारी करवा दिया.



मेरे जिस लेख पर मुस्लिम भावनाएं भड़कने वाली थी उसके तीन पैरे भी लगे हाथ पढ़ लीजिए. मैने लिखा था- हाल ही में पैगंबर हजरत मोहम्मद जो इस्लाम के संस्थापक हैं, के डेनमार्क में कार्टून प्रकाशित होने पर बहुत हंगामा और बहुत जुलूस निकले. इस अखबार ने इसके पहले जीसस क्राइस्ड के कार्टून छापने से इंकार कर दिया था क्योंकि उसकी राय में यह आपत्तिजनक हैं.



इसके बाद अमरीका के राष्ट्रपति जॉर्ज बुश का बयान आया जिसमें कहा गया कि वे डेनमार्क के साथ है और यूरोप तथा अमरीका में रहने वाले सभी इस्लाम धर्म के अनुयायियों को स्थानीय जीवन शैली और रिवाज मानने पड़ेंगे. सिर्फ इस बयान से जाहिर हो जाता है कि अमरीका के असली इरादे क्या है? अमरीका अपने स्वंयभू बुद्विजीवियों की मदद से संस्कृतियों के टकराव का सिद्वांत प्रचारित करने में लगा हुआ है और इस तरह के बयानों के बाद किसी को हैरत नहीं होनी चाहिए कि और भी जगह चिंगारिया भड़के.



तथ्य यह है कि धर्म का मूल प्रश्न तेल और जमीन के मामले से हट कर अब धर्म के मूल आधार का माखौल उड़ाने पर आ कर टिक गया है और स्वाभाविक है इस्लामी शक्तियां इसे पसंद नहीं करेंगी. यह ठीक है कि किसी भी धर्म की महानता इस बात में निहित है कि वह मजाक को कितना सहन कर सकता है मगर यदि कोई धर्म या उसके अनुयायी इसे मंजूर नहीं करते तो उन्हें अपने रास्ते छोड़ देना चाहिए.



यह वह लेख था, जिसे इस्लामी भावनाए आहत करने वाला बताया जा रहा था. रातों रात मुझे गिरफ्तार किया गया, रात को तीन बजे तक पूछताछ की गई. पूछा गया कि डेनमार्क वाला यह कार्टून कितने में और कहां से खरीदा था? पूछने वाले एक पढ़े लिखे आईपीएस अधिकारी थे, जिन्हें पता था कि इंटरनेट पर चार बटन दबाने से सारे कार्टून सामने आ जाते हैं और इन पर कोई कॉपीराइट नहीं है. मगर साहब तो बड़े साहब यानी के के पॉल का हुक्म बजा रहे थे और पॉल इसलिए दुखी थे क्योंकि हमने उनके वकील बेटे को दिल्ली पुलिस द्वारा वांछित तमाम अभियुक्तों को अदालत में बचाते और औकात से कई गुनी ज्यादा फीस वसूलते पकड़ लिया था.



हम यह भी सुनिश्चित करें कि निचली से ले कर उच्च न्यायालय तक अब तक लाखों रुपए मैं अदालती ताम झाम में खर्च कर चुका हूं. अब तो उच्च न्यायालय ने उस मामले को जिसमें मेरी गिरफ्तारी इतनी अनिवार्य मानी गई थी, साधारण सूची में डाल दिया है.





तिहाड़ जेल में बारह दिन बंद रहने के बाद जमानत मिली और जमानत के आदेश में एक एक पैरा पर टिप्पणी की गई थी कि इससे कोई मुस्लिम भावना आहत नहीं होती. मगर पॉल तब भी दिल्ली पुलिस के आयुक्त थे और उनके आदेश पर जमानत रद्द करने की अपील की गई जो अब भी चल रही है. दिलचस्प बात यह है कि एफआईआर लिखवाने के लिए भी के के पॉल दो मुस्लिम हवलदारों को ले कर आए. अदालत में कहा गया कि इस लेख पर दंगा हो सकता है इसलिए अभियुक्त यानी मुझे सीधे तिहाड़ जेल भेज दिया जाए.



यह सब गृह मंत्री शिवराज पाटिल की जानकारी में हो रहा था और यह बात खुद पाटिल ने बहुत बाद में अपने घर मेरे सामने स्वीकार की. संसद में सवाल किया गया मगर कोई जवाब नहीं मिला. कई पेशियां हो चुकी हैं. एक सीधे सपाट मामले में चौदह जांच अधिकारी बदले जा चुके हैं. जो चार्ज शीट दाखिल की गई है उसे अदालत ने बहस के लायक नहीं समझा. सबसे गंभीर धारा 295 को लेकर उच्च न्यायालय ने पाया कि इस मामले में वह लागू ही नहीं होती. मगर मामला चल रहा है.



मकबूल फिदा हुसैन के खिलाफ बहुत सारे मामले इन्हीं धाराओं में चले और खारिज होते रहे. हुसैन का बहुत नाम हैं और उनका एक दस्तखत लाखों में बिकता है. मगर निचली से ले कर उच्च न्यायालय तक अब तक लाखों रुपए मैं अदालती ताम झाम में खर्च कर चुका हूं. अब तो उच्च न्यायालय ने उस मामले को जिसमें मेरी गिरफ्तारी इतनी अनिवार्य मानी गई थी, साधारण सूची में डाल दिया है, जिसमें तारीख दस साल बाद भी पड़ सकती है. आप ही बताए कि भारत की न्याय प्रक्रिया में मेरा विश्वास क्यों कायम रह जाना चाहिए?



अभी तक तो कायम हैं लेकिन न्याय के नाम पर सत्ता और प्रतिष्ठान जिस तरह की दादागीरी करते हैं उसी से आहत और हताश हो कर लोग अपराधी बन जाते हैं.

दिलचस्प बात यह भी है कि मुझ पर इस्लाम के खिलाफ मामला भड़काने का आरोप लगा था. फिर भी तिहाड़ जेल में मुझे उस हाई सिक्योरिटी हिस्से में रखा गया जहां जैश ए मोहम्मद और लश्कर ए तैयबा के खूंखार आतंकवादी भी मौजूद थे.



ईमानदारी से कहे तो आतंकवाद के आरोप में बंद ये लोग पुलिस से ज्यादा इंसानियत बरतते नजर आए और उन्होंने बहुत गौर से मेरी बात सुनी और अपने साथ बिठा कर खाना खिलाया. फिर भी भारत सरकार का मैं अभियुक्त हूं. उस सरकार का, जो उस संविधान से चलती हैं, जहां अभिव्यक्ति की आजादी और न्याय नागरिक का मूल अधिकार है.
                                                                                                  -आलोक तोमर

Tuesday, March 16, 2010

एक नया सगुफा माया का...

 एक नया सगुफा माया का...
मायावती सोमवार को बसपा की महारैली को संबोधित कर रही थीं। उन्होंने राजधानी लखनऊ के पार्कों और स्मारको में बनवाई गई हाथियों की मूर्तियों को बसपा का चुनाव चिन्ह बताकर इसे जब्त करने की विपक्षी दलों की मांग को बचकानी हरकत करार देते बताया कि बसपा के चुनाव चिन्ह में हाथी की सूंड नीचे की तरफ है, जबकि पार्कों और स्मारकों में बनाए गए हाथियों की सूंड स्वागत मुद्रा में ऊपर की तरफ है। उन्होंने कहा कि देश के सभी मंदिरों तथा अन्य धार्मिक स्थलों में स्थापित हाथियों की मूर्तियों में हाथी की सूंड स्वागत मुद्रा में ऊपर उठी हुई है, जो हमारी संस्कृति का एक हिस्सा है मगर बसपा के चुनाव चिन्ह में हाथी की सूंड नीचे की तरफ है।

माया की मायावती

मायावती की हज़ार-हज़ार के नोटो की माला ?
क्या आपकी आँखे ठीक है?
 टेस्ट करे- बताए की ये नोटो की माला है या विशेष फुलो की?
 जो बहन मायावती जी ने पहन रखी हे
फिर क्यों न हो वसूली
जान लेकर ये जान से मार कर
यह है माया...कुछ समझ में आया
भूखा मरता रहा किसान
नोटों को पहन हुआ है भान
जो दिखता है वो बिकता है
इस लिए दिखाओ और अपनी कीमत लगवाओ




Saturday, March 13, 2010

नक्सलियों से छत्तीसगढ़ के सवाल

इसमें इसमें कोई शक नहीं कि नक्सलवाद का सबसे सघन और भविष्यमूलक हमला छत्तीसगढ़ पर हो गया है. यह असर देश के सबसे बड़े भौगोलिक राज्य मध्यप्रदेश के इस दक्षिण पूर्वी हिस्से पर ही महसूस किया जाता था, लेकिन अविभाजित मध्यप्रदेश की लगभग 27 प्रतिशत की आबादी के आधार पर बने छत्तीसगढ़ के तिहाई हिस्से में नक्सलवाद की सक्रिय, चिंताजनक और विवादग्रस्त उपस्थिति है. 'नक्सलवाद' और 'माओवाद' शब्दों का घालमेल समझना जरूरी है. सोवियत गणराज्य और चीन समेत पूर्वी यूरोप तथा कुछ लातीनी अमेरिकी और दक्षिण एशियाई मुल्कों में मार्क्सवाद के बौद्धिक सिद्धांतों का परिणामकारी कम्युनिस्ट आंदोलन जीवन्त रहा है. इनमें से मुख्यत: चीन ने माओ त्से तुंग के नेतृत्व और उनसे भी ज्यादा उनके उत्तराधिकारी लिन पियाओ के बेहद हिंसात्मक दर्शन 'दुश्मन का उन्मूलन करो' का पाठ साकार करने की कोशिश की. नतीजतन सोवियत रूस के नेतृत्व से छिटकर चीन अपनी अहमियत का देश बना. उसने गुरिल्ला युद्ध की छापामार शैली को अपनाते हुए हिंसा की इतनी तल्ख वकालत की कि उसके राजदर्शन में असहमति का कोई स्थान ही नहीं रहा.
रूस और चीन के खेमों में कम्युनिस्ट आन्दोलन के बंट जाने का असर 1964 के आसपास भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के विभाजन और बाद में उसके कई धड़ों में टूटते जाने से हुआ. जिस तरह किसान मजदूर प्रजा पार्टी जैसी समाजवादी पार्टी के इतने धड़े हुए कि उन्हें गिन पाना मुश्किल हुआ, वही भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन के साथ भी हुआ.
1960 के दशक में पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी से उपजा चारु मजूमदार, कनु सान्याल, जंगल सन्थाल और सुशीतल राय चौधरी वगैरह दर्जनों बुद्धिजीवियों के नेतृत्व में कोलकाता के महाविद्यालयीन परिसरों में नक्सलवाद पुष्ट हुआ. 1972 के आसपास कांग्रेसी मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर राय के नेतृत्व में उसे इतनी बुरी तरह कुचल दिया गया जिसकी नक्सलियों को कल्पना नहीं रही होगी. सिद्धार्थ बाबू लेकिन चाणक्य नहीं थे. उन्हें घास की जड़ों में मठा डालने की भविष्यमूलकता नहीं मालूम थी. लिहाजा नक्सली आंदोलन नागभूषण पटनायक और नागी रेड्डी जैसे उड़ीसा और आंध्रप्रदेश के कई माओवादी नेताओं के हत्थे चढ़ गया. उसके बाद धीरे धीरे फैलता हुआ यह आंदोलन तत्कालीन मध्यप्रदेश के छत्तीसगढ़ अंचल में प्रवेश कर गया.
उसका एक बड़ा कारण आंध्रप्रदेश की सरकार का रवैया था जिसकी कड़ाई की वजह से नक्सलियों को आंध्र की सीमा पार कर छत्तीसगढ़ आना अनुकूल हुआ. भोपाल से बस्तर की दूरी ने प्रशासन को वैसे ही ढीला ढाला रखा. कुल मिलाकर वह नक्सलियों के लिए अप्रत्यक्ष वरदान ही हुआ.
छत्तीसगढ़ में लगभग 30 वर्षों में पला बढ़ा नक्सली आंदोलन अब बौद्धिक-राजनीतिक कम लेकिन यौद्धिक तेवर का ज्यादा दिखाई देता है. माओ और लेनिन ने यथासम्भव सुशिक्षित जनता की भागीदारी के बगैर जन आंदोलन का कभी समर्थन नहीं किया. माओ ने सदैव कहा कि जनता में क्रांति का आशय बुनियादी और अंतिम तौर पर जनता के राजनीतिक शिक्षण से है.
ऐसा कोई आंदोलन नहीं हो सकता जिसमें जनता को गुलाम समझे जाने की परिकल्पना हो. इसी तरह भारतीय कम्युनिस्टों के एक शिष्ट मंडल से लेनिन ने साफ कहा था कि भारतीय स्वाधीनता के आंदोलन में कम्युनिस्टों को प्रतिभागिता करनी चाहिए और धीरे धीरे आंदोलन से बुर्जुआ नेतृत्व की छुट्टी करनी चाहिए भले ही उसका नेतृत्व गांधी जैसे कद्दावर नेता कर रहे हों.
छत्तीसगढ़ का मौजूदा नक्सलवादी आंदोलन इस बात की परवाह क्या कर रहा है कि बस्तर के आदिवासियों को माओवादी आंदोलन की बौद्धिक संरचना, प्रासंगिकता और निर्विकल्पता को लेकर कोई राजनीतिक शिक्षण दिया जाए. मीडिया में नक्सलियों की ओर से भारतीय संवैधानिक गणराज्य की स्वीकृत प्रणाली के बदले चीन जैसे गणराज्य की कल्पना की पैरवी की जाती है. लेकिन क्या उसके लिए कोई जनतांत्रिक दस्तावेज, प्रदर्शनियां, विमर्श आयोजित किये जाते हैं? इतिहास को यह समझना ज़रूरी होगा कि महाराष्ट्र, आंध्र और ओडिसा जैसे प्रदेश भूगोल के उपनिवेश नहीं हैं. उनके पास सदियों पुरानी भाषाएं हैं जिन्होंने अपनी ज्यामिति की परिधि में मनुष्यता का संस्कार रचा. मातृभाषा स्कूली शिक्षण का परिणाम नहीं होती. इसलिए इन राज्यों के नक्सली नेतृत्व को माओवादी दर्शन को जनभाषा में परोसते हुए कोई सांस्कृतिक या रणनीतिक कठिनाई नहीं होती.
इसके बरक्स छत्तीसगढ़ केवल एक स्थानीय भाषा, उपभाषा या बोली का एकल क्षेत्र नहीं रहा है. यह समझना ज़रूरी होगा कि गोंडी, हलबी, मुरिया, मारिया जैसी आदिवासी बोलियां हिन्दी के करीब ठहरती उस छत्तीसगढ़ी का अंतर्भूत अंश नहीं हैं जो इन निपट आदिवासी क्षेत्रों के बाहर लगभग कस्बाई हिस्सों की अभिव्यक्ति है. नक्सलियों ने आदिवासी बोलियों में उस विदेशी साहित्य का अनुवाद, प्रचार और शिक्षण क्या व्यापक तौर पर किया है जिससे लगभग निरक्षर आदिवासियों को उनकी मादरी जुबानों में माओवादी राजदर्शन की घुट्टी पिलाई जा सके?
भारतीय संविधान में परिकल्पित लोकतंत्र हो या माओ के राजदर्शन के अनुसार स्थापित कथित कम्युनिस्ट जनवाद-उनके मूल में यही शिक्षा मुखर है कि शासन व्यवस्था को समर्थन देने वाले हर मतदाता को उसकी रूपरेखा की मोटी जानकारी ज़रूर हो. शिक्षा का एक फलितार्थ अक्षर ज्ञान भी तो होता है. लेकिन उसके मूल में संस्कृति से साहचर्य और तादात्म्य का ऐसा अंतर्निहित आग्रह है जिसके लिए औपचारिक अक्षर ज्ञान की ज़रूरत नहीं है. नानी और दादी की कहानियां स्कूली समर्थन से नहीं उपजी हैं. नक्सलियों ने बस्तर के लाचार और निहत्थे आदिवासियों को भौतिक, सामरिक, रणनीतिक और बौद्धिक रूप से बंधक बनाकर रखा है अथवा अनुवाद के जरिए आदिवासी बोलियों के लिखित और वाचिक ज्ञानकोष को समृद्ध बनाया है-यह सवाल तो ठहरा हुआ है.
पूरी दुनिया में पदार्थिक और व्यापारिक सभ्यता ने आदिवासी जीवन का मटियामेट किया है. न्यूजीलैंड, ऑस्ट्रेलिया, उत्तर अमेरिका, केनेडा और दक्षिण अफ्रीका वगैरह में गोरी जातियों ने वहां के आदिवासियों माओरी, रेड इंडियन और नीग्रो लोगों का कत्लेआम किया है और उनकी सभ्यताओं को इतिहास में दफ्न कर दिया है. नक्सली भी ऐसा ही कुछ क्या नहीं कर रहे हैं?
जिन आदिवासियों की रक्षा करने का वे दावा कर रहे हैं, उनकी तो सांस्कृतिक बुनियाद ही खिसक रही है. सदियों से आदिवासी जंगलों में रहते हुए सभ्यता की मुख्य धारा से या तो अलग रहे या रखे गए. उन्होंने हिंसा और युयुत्सा का अपने समुदाय और उसकी भूमिका को जीवित रखने के लिए सहारा नहीं लिया, भले ही इसके अपवाद रहे हों. आदिवासी सहिष्णु, सादगी पसंद, संकोची और दब्बू तक होते हैं. उनमें स्वाभिमान लेकिन इतना घनीभूत होता है कि उसकी रक्षा के लिए वे मृत्यु तक की चिंता नहीं करते.

गांधी ने अपनी महान कृति 'हिन्द स्वराज' में सभ्यता की जिस दार्शनिक उपपत्ति का निरूपण किया-उसका सार यही था कि जीवन के स्पन्दन को बनाए रखने के लिए स्वैच्छिक सादगी, स्वैच्छिक गरीबी और स्वैच्छिक धीमी गति नियामक मूल्य होने चाहिए. आश्चर्य है कि ये तीनों आदर्श गांधी की मदद के बिना आदिवासियों के सामाजिक जीवन के सदियों पुराने मूलमंत्र हैं. गांधी ने भविष्य के जिस भारत का सपना देखा था (हालांकि वह पूरा नहीं हुआ और शायद नहीं हो पाएगा) उसके लिए उन्हें एक महान राजनीतिक विचारक घोषित किया गया. लेकिन उनके इस स्वप्न को तो भारत के करोड़ों आदिवासी सदियों से खुद जी कर दिखा रहे हैं.
यदि आदिवासियों के बुनियादी स्वभाव में बंदूकें, देसी कट्टे, ग्रेनेड और बम थमाकर उन्हें बलात हिंसक बनाया जाएगा तो उससे तो उनकी आनुवांशिक, जातीय और स्वाभाविक सांस्कृतिक आदतें ही नष्ट हो जाएंगी. आदिवासी सभ्यता का विनाश करके नक्सली कुछ मनुष्य इकाइयों को अपने बाड़े में बांधकर रख भी लेंगे-तो यह माओवाद का कैसा रूपांतरण है जो मनुष्य द्वारा की जाने वाली क्रांतियों को समाज-चेतना बनाने के बदले आत्मघाती बनाता चलता है. हमारे राजनीतिक नेताओं के लिए मोटर गाड़ियों में किराए के कपड़ों और झंडों में लकदक, पूड़ी साग के पैकेट पकड़े, जेब में दैनिक मजदूरी डाले निर्विकार गरीबों के जत्थे जानवरों की तरह पकड़कर लाए जाते हैं. क्या नक्सली भी वैसा ही रिहर्सल करते हुए नासमझ, मजबूर, लाचार आदिवासियों को इस्तेमाल करना चाहते हैं? एक ढकोसले का जवाब दूसरा ढकोसला कैसे दे सकता है?
संस्कृति सभ्यता का अक्स होती है और उसका निचोड़ या पाथेय भी. जंगल आदिवासी संस्कृति की केवल भूगोल नहीं हैं. वहां नदियों, पक्षियों, झुरमुटों, वन्य पशुओं, विरल मनुष्य-समूहों की हलचल एक ऐसी सांगीतिक अनुभूति होती है जिसे आदिवासी जीवन की प्राणपद वायु कहा जा सकता है. नक्सली अतिथि भी नहीं हैं जो कुछ दिन भले ही अवांछित हों लेकिन चले तो जाते हैं. आदिवासी जीवन का अल्हड़पन, फक्कड़पन, अंधविश्वास, रूढ़ियां, सामूहिक विवेक और तरह तरह की प्रयोगधर्मिताएं उनकी संस्कृति के आधार हैं.
यदि जंगलों को नष्ट कर दिया गया, आदिवासियों को उनके स्वाभाविक परिवेश से हटाकर बंधकनुमा मानव इकाइयों में तब्दील कर दिया गया, उन्हें अपने विवेक के अनुसार निर्णय लेने के बदले आततायी आदेशों का पालन करने विवश कर दिया गया तो इससे आदिवासी संस्कृति का तेजी से क्षरण होना लाजिमी है. नक्सली नेतृत्व यदि माओ का वंशज है, तो भले ही वह विवादग्रस्त हो, लेकिन माओ की तरह सांस्कृतिक क्रांति के संबंध में कोई श्वेत पत्र या ऑडियो वीडियो कैसेट उन आदिवासियों के विमर्श के लिए जारी क्यों नहीं करता. सांस्कृतिक मूल्यों के नियमन का यह सर्वमान्य तकाज़ा है कि कोई भी समय, व्यक्ति या समूह अपने हुक्मनामे के आधार पर संस्कृति का निर्धारण नहीं कर सकता. नक्सली यह बताएं कि बस्तर जैसे इलाकों में एक तरह के जनयुद्ध का ऐलान करने से वह कालजयी संस्कृति सुरक्षित रहेगी तो मार्क्सवाद या माओवाद के प्रसारणशील होने पर भी वह खुदकुशी करने पर मजबूर नहीं की जाएगी.
इक्कीसवीं सदी का मनुष्य जीवन बहुत सी नई चुनौतियां और दुविधाएं भी लेकर आया है. एक संवैधानिक गणराज्य में आदिवासियों को अजायबघर की दर्शनीय वस्तु बनाकर नहीं रखा जा सकता-ऐसा विकास समर्थकों का तर्क है. शिक्षा, स्वास्थ्य, नियोजन, यातायात, संचार आदि अनाज, पानी और पर्यावरण के बाद आदिवासी जीवन की बुनियादी आवश्यकतायें हैं. इसमें कहां शक है कि शुरुआती लोकतांत्रिक सरकारें ये बुनियादी सुविधाएं जुटाने में फिसड्डी रहीं. फिर उदासीन सरकारें आईं और अब वे निर्लज्ज क्रूरता पर उतारू हैं. नेहरू-युग का राष्ट्रीय नेतृत्व बुनियादी तौर पर ऊंचे कद का था. भले ही उसमें धीरे धीरे वंशजों के दीमक उगते रहे.
इंदिरा-युग में पढ़े लिखों की जमात पीछे धकेली गई और सामंती तथा राजनीतिक राजवंशों ने राजनीति का कबाड़ा किया. नरसिंह राव की हुकूमत से भारत में आर्थिक, राजनीतिक, चारित्रिक पतन का दौर शुरु हुआ और देश की गाड़ी अब ढाल पर है. आदिवासी इलाकों में वैश्य कुनबों ने जंगलों, खदानों, लोककर्म, सिंचाई, आबकारी वगैरह विभागों के ठेके हथिया लिए. उनके कारिंदों तक के उपनिवेश सुदूर आदिवासी अंचलों में विस्तृत हैं. उन्होंने कुछ पढ़े लिखे प्रतिनिधिक आदिवासी नेतृत्व को बरगला कर उसे अवांछित सुविधाओं का पराश्रयी बना दिया. इसी वर्ग को बाद में न्यायिक भाषा में 'मलाईदार तबका' कहा गया. इस प्रक्रिया के चलते नक्सलवाद एक समानांतर राह से गुजरकर बस्तर के भी जंगलों में चुपचाप लेकिन जबरिया घुस आया.
वह मूलत: आर्थिक राजनीतिक शोषकों को चुनौती देने का मुखौटा ओढ़कर आया, यद्यपि उसने ऐसा कुछ नहीं किया. उसने अन्यथा भले ही सोचा हो लेकिन पाया यही कि बस्तर के जंगलों में अलग अलग तरह के शोषकों की एक साथ सहकार करती हुई उपस्थिति संभव है. इसलिए उसने पर्याप्त गणितीय संख्या में आदिवासियों को बंधुआ मज़दूर की तरह अपने निषिद्ध क्षेत्र में बांध कर रख लिया. फिर आर्थिक शोषण के नए पैंतरे चुनते हुए उसने सभी तरह के उद्योगपतियों, व्यापारियों और ठेकेदारों वगैरह से चौथ वसूलनी शुरु की जो बदस्तूर जारी है.
यदि किसी राजनीतिक आंदोलन में उसके सदस्य स्वेच्छा या हालात के कारणों से चंदा देते हैं तो वह भी तो आंदोलन का कायिक हिस्सा माना जाता है. बस्तर के नक्सली आंदोलन के आर्थिक स्त्रोत आदिवासियों या अनुयायियों में नहीं हैं क्योंकि उनकी माली हालत वैसी कहां है. भले ही नक्सली नेतृत्व और सरकारी कर्मचारी भी उनकी बकरियों, मुर्गियों और बहू बेटियों तक का शारीरिक और चारित्रिक जिबह करते रहें. दुनिया में कोई भी वामपंथी क्रांति धनाढयों से चौथ वसूल कर सफल नहीं हुई. यह तो नक्सली नेतृत्व को समझ आता होगा
भारत एक संवैधानिक लोकतंत्र है. जिस तरह नास्तिकों को भी तीर्थ स्थानों में रहने का अधिकार है या हर तरह के अल्पसंख्यक या अल्पमत को बहुमत या बहुसंख्यकों के क्षेत्र में-उसी तरह भारतीय संविधान या प्रजातंत्र से सवाल करने वाले लोगों को भी संविधान और प्रजातंत्र असहमति का स्पेस देते हैं. नक्सली कह रहे हैं और कह सकते हैं कि उनके लिए संविधान की पोथी बेमानी है और प्रजातंत्र एक ढकोसला. संविधान अनुच्छेद 19 में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को तिलिस्मी, प्रसारणशील और लचीली हद तक जाने की छूट देता है. इसके साथ-साथ संविधान एक व्यक्ति की अभिव्यक्ति की आजादी को दूसरे व्यक्ति की अभिव्यक्ति की आजादी पर तलवार की तरह चलाने की इजाजत नहीं देता.

रूस और चीन समेत दुनिया के तमाम कम्युनिस्ट मुल्कों से कई बुद्धिजीवी और लेखक निर्वासित होकर अमरीकी और यूरोपीय मुल्कों में पनाह लेते रहे हैं. वे वहां भी बदस्तूर पूंजीवाद और साम्यवाद दोनों के खिलाफ लिखते रहे. नक्सलवादी सोचेंगे कि स्वातंत्र्योत्तर काल में भारत से कितने लेखक शासकीय दबाव के चलते निर्वासित होकर दूसरे देशों में बसे हैं. कम्युनिज्म के जो मुल्क बौद्धिक विरोध तक बर्दाश्त नहींकर सकते उनके भारतीय राजनीतिक वंशज यह आग्रह क्यों करते हैं कि उन्हें भारत में हर तरह के हिंसक विरोध की अनुमति मिलनी चाहिए और भारत के संविधान के अनैतिक विरोध की भी.
ऐसा ही आचरण इस्लामी कठमुल्लापन के कुछ देश भी कर रहे हैं. सलमान रश्दी और तस्लीमा नसरीन जैसे कई लेखकों को भी निर्वासित होना पड़ा है क्योंकि इस्लामी देशों में भी भारतीय संविधान का कोई समानांतर नहीं है. अभिव्यक्ति की आजादी की सरहदें तय करने के नाम पर नक्सली एक खुले बौद्धिक विमर्श की मांग कर सकते हैं, लेकिन करते नहीं हैं. वे बुद्धिजीवियों से मदद मांगते हैं कि सरकार से बातचीत करने में बुद्धिजीवी उनकी मदद करें. लेकिन वे बुद्धिजीवियों से अपने बुनियादी उसूलों, कार्यक्रम और भविष्य की रूपरेखा को लेकर खुट्टी किए क्यों बैठे हैं? उन्हें यह भी मालूम होना चाहिए कि बुद्धिजीवी क्रांति के सूत्रधार, पक्षधर और पथप्रर्दशक तो क्या प्रतिभागी तक हो सकते हैं लेकिन वे मध्यस्थ नहीं होते.
बुद्धिजीवियों से मदद मांगने का एक उलट अर्थ यह भी निकलता है कि नक्सली आंदोलन में बुद्धिजीवियों की कमी है और ऐसे तत्वों का उन्हें आयात करने की ज़रूरत है. बुद्धिजीवियों की कमी तो सरकारी खेमे में भी है. देश के बहुलांश में ऐसे राजनेताओं का वर्चस्व है जो फूहड़ भाषा, संदिग्ध चरित्र और नासमझ ज्ञान के धनी हैं. बात बात में नक्सलियों को नेस्तनाबूद करने की धमकी देने वाले मंत्री भी ऐसे नासमझ खुशामदखोरों से घिरे हुए हैं जो बुद्धिजीवियों का मुखौटा ओढ़े हुए हैं. भारतीय संविधान के नियामक आदर्शों को व्यवहृत करने को लेकर जो बुद्धिजीवी मौलिक, दार्शनिक उपपत्तियां गढ़ रहे हैं, उनके साथ बैठने से मंत्रियों और सचिवों को खासा परहेज होता है क्योंकि बुद्धिजीवी तो वही होता है जिसके सामने छद्म की कलई खुल जाती है.
नक्सलियों ने इस बात पर तो गौर किया होगा कि आदिवासियों की स्वायत्तता, दिनचर्या, रहन सहन, खानपान और नवोन्मेष को लेकर उन पर लगाए गए प्रतिबंध एक तरह का गैर जनतांत्रिक आचरण है जो भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत भी दंडनीय भी हैं. भारतीय संविधान अलग अलग धर्मों के प्रचार तक की संवैधानिक अनुमति देता है (जो कि दुनिया में अन्यत्र संभव नहीं है). यहां संवैधानिक उपपत्तियों को लेकर नक्सली सार्वजनिक बहसें क्यों नहीं आमंत्रित करते? उन्हें यह भी ध्यान देना होगा कि जिस वामपंथ के वे सबसे छिटके और भटके हुए उग्र तत्व हैं-उसके मातृ संगठन की सरकारें केरल, पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा में बार बार दरकती क्यों रहती हैं.
जब उदार और संसदीय साम्यवाद तक को भारत की सबसे सुशिक्षित जनता तक समर्थन देने से संकोच करती है, तब बस्तर के निरक्षर आदिवासियों का स्वैच्छिक समर्थन उन्हें कैसे मिल सकता है? अन्यथा भी नक्सलवादी जल्दी में क्यों हैं. यदि भारत को माओवाद के रास्ते पर चलना ही होगा, तो वह तो जनता को तय करना होगा और उसे माओ की कदकाठी के नेता की भी प्रतीक्षा होगी. यह ठीक है कि माओ का फिलहाल कोई समानांतर नहीं है तो गांधी का भी कहां है? आंदोलन भविष्य के फिक्स्ड डिपॉज़िट भी तो होते हैं केवल करेन्ट एकाउन्ट नहीं. हर चेक को तुरंत भुनाने की क्या ज़रूरत है जब मौजूदा खर्च महंगाई के बावजूद किसी तरह चल रहा हो.
नक्सलियों ने बच्चों के स्कूली शिक्षण, आदिवासियों की चिकित्सा और सस्ते और पर्याप्त मात्रा में अनाज की सुविधाएं मुहैया कराने के आधे अधूरे, आंशिक भ्रष्ट और अपर्याप्त सरकारी साधनों को भी आदिवासियों तक क्यों नहीं पहुंचने दिया? युद्ध एक आपात स्थिति या अपवाद है. वह सामान्य जीवन नहीं है. वर्षों तक निकम्मी सरकारों ने नक्सली उन्मूलन के लिए भी कुछ नहीं किया. नक्सलियों ने बुनियादी सुविधाओं के लिए क्या किया है?
जब नक्सली विशेष पुलिस भर्ती अभियान का विरोध करते हैं कि 16-18 वर्ष के आदिवासी बच्चों के हाथों में सरकारें बंदूक नहीं थमा सकतीं, तो उससे भी छोटी उम्र के बच्चों को वे यही सब करने को मजबूर क्यों करते हैं और साथ-साथ स्त्रियों को भी, बल्कि बूढ़ों को भी? अगर यह इकतरफा ज़िद है कि माओवाद को लाने के नाम पर जो कुछ चल रहा है वह चलता रहेगा तो सरकारें भी अपनी ज़िद में काम करती रह सकती हैं और उन्हें संविधान इज़ाजत भी देता है. दुविधा का यक्ष प्रश्न यही है कि आदिवासी जीवन को वेस्टमिंस्टर पद्धति की ढीली ढाली संसदीय पद्धति की बेलगाम नौकरशाही और 'मेरी मुर्गी की एक टांग' जैसे नक्सली फरमान के बीच पीसा क्यों जा रहा है? सरकारी योजनाओं का ज्यादा से ज्यादा लाभ आदिवासियों को मिले इसके लिए नक्सलवादी आग्रही क्यों नहीं हो सकते? साथ-साथ चाहें तो माओवाद का राजनीतिक शिक्षण देते रहें.
आज से लगभग 40 वर्ष पूर्व नक्सलवाद के सामने जो राजनीतिक चुनौतियां उपस्थित थीं वैसी आज तो नहीं हैं. उनमें गुणात्मक परिवर्तन हो गए हैं. नेहरू से इन्दिरा युग तक भारत मिश्रित अर्थव्यवस्था का देश ज़रूर रहा है. उसका नेतृत्व बूर्जुआ वर्ग से ही आया था, लेकिन तब वैश्वीकरण की उदारता का युग नहीं था.
1971 में बांग्लादेश के उदय के समय इंदिरा गांधी ने अमेरिका के सातवें समुद्री बेड़े के हिन्द महासागर में रहने के बावजूद बांग्लादेश की फौरी फौजी मदद करने में कोताही नहीं की. तब तीसरी दुनिया और साम्यवादी देशों के खेमे का समर्थन भारत के पास था.

अब सोवियत रूस का विखंडन हो गया है और चीन समेत तमाम साम्यवादी मुल्क अमेरिका की डगर पर हैं. जब खुद माओ के वंशज लाल क्रांति के रक्त कण नहीं रहे तो चीन के अतीत से वर्तमान में प्रेरणा ग्रहण कर नक्सली तत्व भारत का भविष्य किस तरह बनाएंगे. 1949 में आज़ाद हुए चीन में माओ के विचारों को पांच छह दशक में ही लगभग दफ्न कर दिया गया है. चीन की गरीब आबादी विश्व में सबसे गरीब है. उसे मुंह में कौर डालने या बोलने की भारतीय शैली की आज़ादी भी कहां है. इसका यह मतलब नहीं कि बोल्शेविक और चीनी क्रांतियां इतिहास की दुर्घटनाएं हैं.
प्रसिद्ध वामपंथी विचारक देब्रे के अनुसार क्रांति गोलाकार गति में होती है. वह नीचे से ऊपर और ऊपर से नीचे होती रहती है और उसका पुनर्मूल्यांकन होता है. यदि आज माओ होते तो मौजूदा आर्थिक उदारवाद की चुनौतियों के मद्देनजर क्या रणनीति बनाते? नक्सली यदि माओ को केवल चीन का नेता नहीं मानते तो उन्हें चाहिए कि वे उनके विचारों को खंगाल कर उन्हें बहुउद्देशिय बनाएं. इतिहास का यह संयोग है कि माओ के समानांतर भारत में भी विश्व ख्याति का एक नेता पैदा हुआ भले ही उसके विचारों को आज तक प्रासंगिक करार नहीं दिया गया. उन विचारों को अमल योग्य भी नहीं माना गया.
माओवाद को भारतीय शासन व्यवस्था का मूलमंत्र बनाने की किसी भी बौद्धिक वर्जिश में उन देशज विचारों पर भी नक्सलियों को अप्रतिहत होकर सोचना होगा, जिससे वे संभावित संशोधित माओवाद का सही चेहरा तराशा सकें. इन सब तात्विक बहसों से बचते हुए बस्तर का नक्सलवाद एक हिंसक समूह के रूप में इतिहास से क्यों अपनी पहचान मांगता है? अलग अलग राजनीतिक और सामाजिक कारणों से पंजाब में आतंकवाद, चंबल में डाकुओं की समस्या और वैश्विक आतंकवाद जैसी स्थितियां समय समय पर निर्मित होती रहती हैं. उनके पीछे मजबूत और तार्किक बौद्धिक आग्रह नहीं होते. नक्सलवाद भी क्या ऐसा ही होना चाहता है.
राज्य की हिंसा किसी भी गिरोह की हिंसा से बड़ी होती है. वह पांच साल में एक बार लिए गए जनसमर्थन को पूरी अवधि तक अपनी ताकत बनाए रखती है. ऑपरेशन ग्रीन हंट यदि हिंसा का हिंसा द्वारा ही हथियारबंद उत्तर होगा तो नक्सलियों को प्रभाकरन का श्रीलंकाई हादसा भी ध्यान में रखना होगा. ढीले-ढाले भारतीय लोकतंत्र में सरकारें जनता की उम्मीदों के अनुसार कतई खरी नहीं उतरी हैं. यदि सरकारों ने गुनाह नहीं किए होते तो नक्सलवाद को पांव पसारना मुश्किल होता. भारतीय संविधान भारत के इतिहास में एक अनोखा प्रजातांत्रिक प्रयोग है. वह सामूहिक लेखन की किताब के जरिए चलाया जा रहा है.गीता, बाइबिल या कुरान शरीफ की आयतें निजी जीवन की कंदील की रोशनियां हैं. सड़कों, अस्पतालों, पार्कों, स्कूलों और स्टेश्नों वगैरह पर संविधान की बिजली जगमगा रही है. उनके बल्ब फोड़ने से क्या होगा? बिजली अंदरूनी ताकत है. प्रकाश उसका प्रवक्ता है. इसलिए बस्तर जैसे सांस्कृतिक समृद्धि के लोक कलात्मक जीवन को यदि उसकी लय में ही आत्मसात नहीं किया जाता तो सरकारों और उग्र आंदोलनों का एक जैसा हश्र होगा.
नक्सलियों और कभी कभी सरकारों ने भी तथाकथित शहरी जीवन के साक्षर लोगों को बुद्धिजीवी मानकर उनके सहयोग की औपचारिक मांग की है. शहरों का मध्य वर्ग कूढ़मगज का भी है. एक ओर बस्तर जहां फ्रायड वगैरह को अन्वेषण की चुनौतियां देता हुआ घोटुल जैसी अद्भुत मानवीय प्रेम की परंपरा का ऊर्जा विश्वविद्यालय रहा है, क्या वे लोग वहां मदद करने आएंगे जो वेलेन्टाइन दिवस के अवसर पर अपनी थुलथुल देह, खरखरी आवाज़ और कुरूप चेहरा लिए युवा बच्चे-बच्चियों को मारते फिरते हैं? क्या वे लोग मदद करने के काबिल हैं जो तथाकथित सहगोत्रीय कबाइली और गैर कानूनी परंपरा के फतवा घर बने नव विवाहितों की हत्या कर रहे हैं? वे बुद्धिजीवी मदद करने आएंगे जो सरकारों, मंत्रियों, अफसरों और पूंजीपतियों के इशारे पर स्वागत गीत, विवाहनामा और अभिनंदन पत्र लिखते रहते हैं?
बस्तर के आदिवासी डायनोसॉर के युग के नहीं हैं जिनके अवशेषों का कोई पुरातात्विक महत्व है. वे एक जीवंत मानव कौम हैं. उनकी आर्थिक बदहाली, अशिक्षा, कुपोषण, राजनीतिक पराभव, सामाजिक दबाव, पलायन आदि वे राक्षस हैं जो एक गरिमामय इंसानी जीवन शैली में ज़हर घोल रहे हैं. टाटा, एस्सार, अंबानी, बिड़ला वगैरह के विकसित होने से उनका कोई लेना देना नहीं है. वे जानते हैं कि उनकी ज़मीनें नहीं छिननी चाहिए.
भू अर्जन अधिनियम 1894 लुटेरे अंग्रेज़ों ने बनाया था. यही हाल वन अधिनियम का है और भारतीय सुखभोग अधिनियम का भी, भारतीय दंड संहिता का भी और उन तमाम उन बुनियादी कानूनों का जो 1947 के पहले बनाए गए. भारतीय संविधान ने कलम की नोक पर इन सभी प्रतिगामी कानूनों को वैधता प्रदान कर दी. उन्नीसवीं सदी के बिल में जो अंगरेजी सांप पैदा हुआ वह इक्कीसवीं सदी में फुफकार रहा है. उसे संशोधन की केंचुल से कोई परहेज नहीं होता क्योंकि उसके दांत और ज़हर तो सुरक्षित हैं.
यह कैसा विकास है जो एक एकड़, आधा एकड़ तक के आदिवासी भूमि धारकों को जबरिया बेदखल करके उनकी छाती पर अनाज के बदले इस्पात उगाकर विकास कहलाना चाहता है. वह जंगलों का सर्वनाश करे. नदियों का पानी सोख ले. हवा में ज़हरीला धुंआ घोल दे. पशुओं को मार डाले. पक्षियों को देश निकाला दे दे. जंगल के संगीत के बदले कारखानों के शोर का डीज़े उगा दे. वह आदिवासी बेटियों को कामुकता का अड्डा समझे. नौजवान बेटों को बेदखल कर शहरों में बहिष्कृत कर दे और पूरे बस्तर जैसे क्षेत्र को भारत के भूगोल में छद्म रूप से जीवित रखते हुए उसे इतिहास का अनाथालय बना दे.
नक्सलवाद यदि इन गंभीर चुनौतियों को समझता है-और वह दावा तो करता है कि वह समझता है-तो उसे नीचे लिखे मुद्दों पर बुद्धिजीवियों और समाज को सम्बोधित करना चाहिए:

1. बस्तर में शाल वनों के द्वीपों को उजाड़कर पाइन (चीड़ या देवदार) वृक्षों को उगाने की परियोजनाएं जब चखचख बाजार में थीं तो नक्सली विचारकों ने उस समय क्या किया था?
2. ज़ब बस्तर में बोधघाट जल विद्युत योजना का मुद्दा उठाया गया तब नक्सली विचारक बस्तर में उपस्थित थे और उन्होंने क्या विकल्प सुझाए?
3. भारत के संविधान की पांचवीं अनुसूची के बस्तर में लागू करने के संबंध में नक्सलियों ने क्या विचार किया है?
4. बस्तर में शराब के ठेकों और आदिवासियों की तत्संबंधी परंपराओं को लेकर नक्सलवाद की क्या सोच है?
5. अनुसूचित जनजाति और अन्य परंपरागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता अधिनियम, 2006) को लागू करने को लेकर नक्सलवाद के क्या सुझाव हैं?
6. जितने भी आयोग और जांच दल छत्तीसगढ़ में आए हैं, उनकी रिपोर्टों के किसी अंश के प्रति क्या नक्सलियों की कोई सहमति है उसे अग्रसर करने के लिए उन्होंने कोई कार्यवाही की है?
7. पंचायत एक्सटेंशन टू शिडयूल्ड एरियाज़ एक्ट (पेसा) को बस्तर जैसे क्षेत्र में आवश्यकतानुसार लागू करने को लेकर क्या नक्सली विचारधारा की अपनी कोई समझ है और इस तरह के विधायन के प्रति समर्थन भी?
8. बस्तर में जिस तरह और जितने खनिज आधारित उद्योग चल रहे या स्थापित हो रहे हैं, उनको लेकर नक्सली आंदोलन की अपनी क्या समझ, चिंताएं और सिफारिशें हैं?
9. राजनीतिक और न्यायिक प्रशासन के विकेन्द्रीकरण को लेकर बस्तर के हर आदिवासी के द्वार पर दस्तक दी जा सके इसको लेकर नक्सलवाद क्या कोई सुझाव पत्रक पे6ा करना चाहेगा?
10. आदिवासियों के सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक अधिकारों की बस्तर-कथा के कौन से विशेष तत्व हैं जिनकी हेठी या अनदेखी आज तक होती रही है? आर्थिक विकास, शैक्षणिक सुधार, सांस्कृतिक अनुरक्षण और आधुनिक सुविधाओं की उपलब्धता जैसी जुदा जुदा स्थितियों को लेकर नक्सलवाद अपनी उपस्थिति के क्षेत्रों में किस तरह का जनोन्मुखी प्रयत्न कर रहा है? उसका कोई एजेंडा या कंस्ट्रक्ट उसके जेहन में है? उसे अंतत: किस तरह क्रियान्वित किया जाए?
11. जब पूरी दुनिया और विशेषकर चीन में अमरीकी पूंजीवाद दादागिरी के साथ घुस आया है क्योंकि चीन वर्षों की मशक्कत के बाद पूंजीवादी पश्चिमी दुनिया से जुड़ पाया है. (भले ही भारत तो उससे ज्यादा पूंजीवादी अमरीका पर निर्भर हो गया है.) तब नक्सलवाद का राजनीतिक मकसद, कार्यक्रम और भविष्य क्या होगा, यह भी समझने की ज़रूरत होगी.
12. वैश्विक कंपनियों के अतिरिक्त यदि बस्तर में टाटा और एस्सार स्टील उद्योग सरकार की मदद से लग रहे हैं तो उनके संबंध में इक्का दुक्का नकली विरोध करने की बजाय नक्सली बस्तर के औद्योगिक विकास का क्या नक्शा खींचना चाहते हैं. उपभोक्तावादी संस्कृति से उपजे व्यापारिक दबावों के चलते बस्तर में भी भारत के किसी अन्य इलाके की तरह विकास के नाम पर आदिवासी जनजीवन को या तो विस्थापित किया जा रहा है या हाशिए पर डाला जा रहा है. इसको लेकर नक्सली कोई श्वेत पत्र क्यों नहीं प्रकाशित करते?
13. क़िसान और गांव की अर्थव्यवस्था तथा सामाजिक जीवन की रीढ़ रहे हैं चाहे वे बड़े किसान, मध्यम किसान, छोटे किसान, सीमांत किसान या भूमिहीन किसान मज़दूर हों. देश में किसान हज़ारों की संख्या में शासकीय नीतियों के कारण आत्महत्या कर रहे हों. नक्सलवादियों का इस बड़े मुद्दे को लेकर मौन रहना सवाल पूछता है कि किसानों की मदद के बिना दुनिया में कोई भी वामपंथी क्रांति सफल नहीं हुई है, तब वे चुप क्यों हैं?
14. नक्सलवाद के सिद्धांतों और 'सामान्य' कार्यक्रम में निजी व्यक्तियों की हत्या का कोई प्रावधान नहीं रहा था, फिर बस्तर में जनता के विभिन्न वर्गों, सरकारी कर्मचारियों, व्यापारियों, छात्रों, महिलाओं और यात्रियों तक को क्यों कत्ल किया जाता है भले ही उन पर सत्ता प्रतिष्ठान को सहायता देने का आरोप नक्सली लगाते रहें. वैसे भी माओवाद के चश्मे से देखने पर राज्य सत्ता में उत्पन्न हुई सड़ांध किसी एक व्यक्ति, संस्था घटना या निर्णय में नहीं ढूंढ़ी जा सकती. उसका सर्जिकल ऑपरेशन करने का दायित्व भले ही नक्सलियों ने ले लिया हो, वे हर मामूली चोट को ठीक करने के लिए हृदय को प्रतिरोपित करने जैसी डॉक्टरी मुद्रा क्यों अख्तियार कर लेते हैं. बांझ नौकरशाही, भ्रष्ट राजनीतिक नेतृत्व और लोकतंत्र को खोखला करते तरह तरह के अरबपति दीमक हैं लेकिन उनके नुमाइंदों, कारिंदों और कर्मचारियों को इक्का दुक्का मार देने से मार्क्सवाद से लेकर माओवाद तक का कौन सा आदेश हिमायत करता है यह तो उन्हें बताना चाहिए.
15. साम्यवाद के कई धड़े धीरे धीरे संसदीय राजनीति का हिस्सा बनने के लिए चुनाव लड़ते आए हैं. एक बहुत छोटा हिस्सा चुनाव के बहिष्कार की बात करता है तो उससे क्या हासिल होगा? लोकतंत्र में चुनाव के बिना तो कम्युनिस्ट देशों का भी शासन नहीं चलता है.
16. अंग्रेज़ी दैनिक 'हिन्दू' में प्रकाशित क्या यह खबर सही है कि जनवरी 2006 में माओवादी केंद्रीय समिति की बैठक में यह परेशानी महसूस की गई थी कि पार्टी का औद्योगिक इलाकों और शहरों में कोई जनाधार नहीं बन रहा है क्योंकि ऐसे इलाकों में छापामार किस्म की गुरिल्ला कार्रवाई संचालित नहीं की जा सकती और फिलहाल माओवाद के पास उसका कोई विकल्प नहीं है?
17. बड़े उद्योगों का समर्थन करने के बावजूद चीन में कुटीर उद्योगों का जाल इस कदर फैला हुआ है कि आज चीनी खिलौने, यंत्र और घरेलू सामान दुनिया के बाजार में छा गये हैं. ऐसे में बस्तर जैसे इलाके में नक्सलवाद कुटीर उद्योगों को प्रोत्साहन देने के लिए क्या कुछ कर रहा है. कहीं नक्सलियों को इसमें गांधी के विचारों की गंध तो महसूस नहीं होती जो उनके लिए कुफ्र है?
18. लेनिन, माओ, हो ची मिन्ह और फिदेल कास्त्रो ने सत्ता पाने की तकनीकी को लगातार परिस्थितियों के अनुसार संशोधित और विकसित किया था. मौजूदा नक्सलवाद की तकनीकी पर कोई विशेषज्ञ नोट कहीं पढ़ने में नहीं आता, जिससे पता चले कि नक्सली हिंसा को फूहड़ तरीकों से परहेज हो गया है.
                                                                                                                                -कनक तिवारी

अंधेरी गलियों के रौशन सितारे -----------------------------------------------शिरीष खरे

शहरी झोपड़पट्टियों में रहने वाले बच्चों की जिंदगी को बोझिल, बेबस और हताश जानकर अक्सर उनसे मुंह फेर लिया जाता है. मगर एक सूझबूझ भरे प्रयास के चलते उसी दुनिया की कुछ लड़कियां आज न केवल सामाजिक अनदेखियों और तमाम बाधाओं से आगे निकल रही हैं, बल्कि खेलने-कूदने और पढ़ने-लिखने के रास्तों से उजाला भी दिखा रही हैं. चेन्नई से शक्ति और दिल्ली से अस्मिना वंचित समुदाय की ऐसी ही लड़कियां हैं जो इस बदलाव को सिर्फ महसूस ही नहीं कर रही हैं बल्कि दूसरों के लिए प्रेरणा भी बन रही हैं.

शक्ति बदलाव की
दक्षिण भारत के सबसे तेज बढ़ते शहर चेन्नई का एक चेहरा यहां की अनगिनत झोपड़पट्टियां भी हैं, जिन्हें बदनुमा दाग समझा जाता है. मगर तमाम बाधाओं के बीच यहां सपने देखने का हौसला भी है और उसे हकीकत में बदलने का जज्बा भी. शहर के उत्तरी हिस्से की ऐसी ही एक गुमनाम-सी झोपड़पट्टी में शक्ति नाम की लड़की इसी बदलाव की इबारत लिख रही है.

उसकी हमउम्र दूसरी लड़कियां जहां तीन साल की उम्र में नर्सरी स्कूल जाने लगी थीं, वहीं 6 साल की उम्र में शक्ति मछली बेचने की एक दुकान पर काम करने लगी थी. मछलियां छांटते और नंगे हाथों से बर्फ फोड़ते हुए उसने जाना कि उसके लिए तमाम खेल सपने की तरह हैं फिर वह फुटबाल ही क्यों न हो जो कि उसे बेहद पसंद था.
छह घंटे के काम के बदले उसे रोजाना महज 15 रु. मिलते थे. काम से छुट्टी मिलते ही वह घर की तरफ दौड़ पड़ती और स्कूल जाने को मचल पड़ती. इसकी एक वजह यह भी थी कि उसे वहां के मैदान पर फुटबाल खेलने को जो मिलता था. वैसे तो उसके जैसी कुछ और लड़कियां भी फुटबाल खेलती थीं, मगर गरीबी उसे स्कूल की दूसरी लड़कियों से अलग कर देती थी. इसी गरीबी के चलते एक रोज उसे पढ़ाई, फुटबाल और दोस्तों को छोड़ना पड़ा था. इसके बाद वह 12 घंटे काम करके रोजाना 30 रू. कमाने लगी. शक्ति के पिता को रोज-रोज काम नहीं मिलता था, लिहाजा घर चलाने के लिए उसकी मां को दूसरों के घरों में काम करना पड़ता था.

बदली ज़िंदगी
शक्ति से फुटबाल का खेल क्या छूटा उसकी जिंदगी से खुशियां ही गायब हो गईं. मानो उसका बचपन ही उजड़ गया. मगर उसके चेहरे पर खुशियां तब लौट आई जब वह एससीएसटीईडीएस यानी `स्लम चिल्ड्रन स्पोर्ट्स टेलेंट एजुकेशन डेवल्पमेंट सोसाइटी´ से जुड़ गई.
एससीएसटीईडीएस एक सामुदायिक संस्था है जो वहां की झोपड़पट्टियों के बच्चों को इकट्ठा करती है और नगर-निगम के मैदान पर फुटबाल खेलने के लिए प्रेरित करती है. दरअसल यह बच्चों के व्यवहार को जानने का पहला कदम होता है. यहीं से स्कूल छोड़ने वाले बच्चों के बारे में भी पता चलता है और उन्हें स्कूल से जोड़ा जाता है. शक्ति भी कुछ इसी तरीके से जुड़ी और यहां से उसे एक स्टॉर फुटबाल खिलाड़ी के तौर पर जाने जाना लगा.
एससीएसटीईडीएस के थंगराज कहते हैं "जब शक्ति स्कूल जाती थी तो उसके टीचर उसे मछुआरा समुदाय की होने की वजह से अक्सर अपमानित करते थे." संस्था ने उसे हौसला दिया और शक्ति के माता-पिता को इस बात के लिए राजी किया कि वह अपनी बेटी को एक बार फिर से नगर-निगम के स्कूल में भेजे.
थंगराज याद करते हैं, "इस बार शक्ति के माता-पिता ने उसकी पढ़ाई की कमियों को देखा और उसके आने वाले कल में संभावनाएं तलाशी. अब वह अपनी बेटी की पढ़ाई फिर से शुरू करवाने को उत्सुक थे." इसी विश्वास के साथ शक्ति के बड़े और छोटे भाईयों को भी स्कूल में भर्ती कराया गया. उनके भीतर पढ़ाई से लेकर खेल जैसी तमाम प्रतिभाओं का मूल्यांकन किया गया और उसके मुताबिक सबको मौका दिया गया.

शानदार गोल
एससीएसटीईडीएस ने शक्ति की मजबूरियों और जरूरतों को ध्यान में रखकर कदम बढ़ाया. मसलन, स्कूल जाने के लिए बस का किराया, यूनीफार्म, दिन का खाना और फुटबाल खेलने से जुड़ी जरूरतें. शक्ति की खेल प्रतिभा को देखकर एससीएसटीईडीएस ने उसके नियमित तौर पर फुटबाल के अभ्यास की व्यवस्था की. धीरे-धीरे उसके भीतर छिपी खेल प्रतिभा उभरकर सामने आने लगी और उसके भीतर से स्कूल को लेकर पैदा हुए सारे डर भी दूर हो गए. कुछ टीचर तो शक्ति के प्रशंसक और सहयोगी तक बन गए.
उसे नियमित प्रशिक्षण मिला जिसके चलते शक्ति ने अंडर-14 की राज्य स्तरीय फुटबाल टीम में अपनी जगह बनाई. बीते 4 सालों में उसने जिला और राज्य स्तर के कई मैच खेले हैं.

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अब वह 18 साल की हो चुकी है. पांच साल पहले कालेज जाना उसके लिए सपना ही था जो अब हकीकत में बदल रहा है. उसका बड़ा भाई अब नौकरी करता है और उसने अपनी छोटी बहन को कालेज भेजने का फैसला लिया है. शक्ति अब भारत की महिला फुटबाल टीम में शामिल होकर अंतरराष्ट्रीय स्तर के मैच खेलना चाहती है. वाकई उसने अपनी जिदंगी में मिले मौकों को शानदार गोल में बदला है.
अस्मिना ने ऐसा सोचा न था
दो साल की छोटी-सी उम्र में अस्मिना को अपने माता-पिता के साथ बिहार के पूर्णिया जिले से पलायन करना पड़ा था. उसका परिवार काम की तलाश में दिल्ली आया और यहां-वहां की जद्दोजहद के बाद रंगपुरी कबाड़ी बस्ती में बस गया. यह जगह कूड़ा बीनने वाले बच्चों की झोपड़पट्टी के तौर पर जानी जाती है. अस्मिना भी अपने पिता के साथ इसी धंधे में हाथ बटाते हुए बड़ी होने लगी. पता ही नहीं चला कि कैसे उसके दिन गलियों और नुक्कड़ों पर पड़े घूरे के ढ़ेरों को साफ करते हुए बीत रहे हैं. इन ढेरों से वह प्लास्टिक और रद्दी की ऐसी चीजें बीनती जिन्हें फिर से तैयार किया जा सके.
गरीबी की वजह से अस्मिना सहित उसके पांचों भाई-बहन कूड़ा बीनने का काम करने को मजबूर थे. हर सुबह काम पर जाते वक्त वह देखती कि उसकी उम्र के दूसरे बच्चे उजले कपड़े पहनकर स्कूल जाते हैं. उसके लिए स्कूल की बात मानो किसी और दुनिया की बात थी, एक ऐसी दुनिया जो कचरे से भरी उसकी मलिन दुनिया से बिल्कुल जुदा थी. उसकी दुनिया में स्लेट पेंसिल की जगह कांच के टुकड़े और जंग लगी धातु जैसी चीजें थीं जिससे वह कभी-कभी जख्मी भी हो जाती थी. अस्मिना जैसे बहुत से बच्चे ऐसे ही कूड़ों की वजह से त्वचा और आंख से जुड़ी कई गंभीर संक्रमित बीमारियों की चपेट में आ जाते हैं. उनके आसपास अपनी सुरक्षा के मुनासिब बंदोबस्त की बात तो छोड़िए उनके पैरों में जूते तक नहीं होते.
एक सामुदायिक संस्था बाल विकास धारा ने जब अस्मिना और उसके दोस्तों के लिए काम शुरू किया तो सबसे पहले यहां गैर औपचारिक केंद्र खोला. यह ऐसे बच्चों को स्कूल से जोड़ने वाला पुल साबित हुआ जो गरीबी और मजबूरी के चलते स्कूल नहीं जा पाते. इससे जुड़ने वाले बच्चों को पहली बार कहने-सुनने-समझने और सीखने को मिला. अस्मिना को यहां एक सुरक्षित और सुविधायुक्त दुनिया नजर आई.



इतना-सा ख्वाब है

दरअसल पढ़ाई की दुनिया से जुड़ने के बाद अब उसके पास आगे बढ़ने के लिए खुद को समर्थ बनाने का रास्ता था. उसकी छोटी बहन भी उसके साथ पढ़ने आने लगी. संस्था के सभी साथियों की मदद से अस्मिना और उसके बहुत सारे दोस्तों को स्थानीय नगर-निगम के स्कूल में भर्ती करवाया गया. गौर करने वाली बात यह है कि उसकी उम्र और लगन को देखते हुए उसे दूसरी कक्षा में दाखिला दिलवाया गया.



अस्मिना जैसी बहुत-सी लड़कियों में पढ़ने-लिखने की चाहत को लगातार बढ़ावा देने के लिए बाल विकास धारा ने भरपूर साथ दिया है. यहां पर बच्चों में बदलाव लाने के लिए उनकी पसंद- नापसंद, ताकत-कमजोरियों और सहूलियतों के बारे में जानकारियां जुटाई जाती हैं. बच्चे, उनके माता-पिता और टीचर आपस में बैठकर उनकी उलझनों को सुलझाते हैं और फिर बच्चों को नगर-निगम के स्कूल में भर्ती करवाने की मुहिम छेड़ी जाती है.



आज अस्मिना पांचवी कक्षा में है और पढ़ने में उसकी खासी दिलचस्पी है. बदलाव का पहाड़ा पढ़ते-पढ़ते अब वह मोटी-मोटी किताबों तक आ पहुंची है. उसका परिवार यह देखकर बहुत खुश होता है कि वह कूड़ा बीनने के बजाय स्कूल में पढ़ने जाती है. अस्मिना अब कहती है "मैं जो कुछ पढ़ रही हूं वह दूसरों को भी पढ़ाऊंगी." उसकी ऐसी बातों से परिवार वालों को लगता है कि वह टीचर बनना चाहती है. वाकई वह जो भी बनना चाहती हो मगर इतना तो तय है कि अस्मिना अब एक ऐसी दुनिया में दाखिल है, जहां सपने देखना मुमकिन हो गया है.

अब वह 18 साल की हो चुकी है. पांच साल पहले कालेज जाना उसके लिए सपना ही था जो अब हकीकत में बदल रहा है. उसका बड़ा भाई अब नौकरी करता है और उसने अपनी छोटी बहन को कालेज भेजने का फैसला लिया है. शक्ति अब भारत की महिला फुटबाल टीम में शामिल होकर अंतरराष्ट्रीय स्तर के मैच खेलना चाहती है. वाकई उसने अपनी जिदंगी में मिले मौकों को शानदार गोल में बदला है.




अस्मिना ने ऐसा सोचा न था





दो साल की छोटी-सी उम्र में अस्मिना को अपने माता-पिता के साथ बिहार के पूर्णिया जिले से पलायन करना पड़ा था. उसका परिवार काम की तलाश में दिल्ली आया और यहां-वहां की जद्दोजहद के बाद रंगपुरी कबाड़ी बस्ती में बस गया. यह जगह कूड़ा बीनने वाले बच्चों की झोपड़पट्टी के तौर पर जानी जाती है. अस्मिना भी अपने पिता के साथ इसी धंधे में हाथ बटाते हुए बड़ी होने लगी. पता ही नहीं चला कि कैसे उसके दिन गलियों और नुक्कड़ों पर पड़े घूरे के ढ़ेरों को साफ करते हुए बीत रहे हैं. इन ढेरों से वह प्लास्टिक और रद्दी की ऐसी चीजें बीनती जिन्हें फिर से तैयार किया जा सके.



गरीबी की वजह से अस्मिना सहित उसके पांचों भाई-बहन कूड़ा बीनने का काम करने को मजबूर थे. हर सुबह काम पर जाते वक्त वह देखती कि उसकी उम्र के दूसरे बच्चे उजले कपड़े पहनकर स्कूल जाते हैं. उसके लिए स्कूल की बात मानो किसी और दुनिया की बात थी, एक ऐसी दुनिया जो कचरे से भरी उसकी मलिन दुनिया से बिल्कुल जुदा थी. उसकी दुनिया में स्लेट पेंसिल की जगह कांच के टुकड़े और जंग लगी धातु जैसी चीजें थीं जिससे वह कभी-कभी जख्मी भी हो जाती थी. अस्मिना जैसे बहुत से बच्चे ऐसे ही कूड़ों की वजह से त्वचा और आंख से जुड़ी कई गंभीर संक्रमित बीमारियों की चपेट में आ जाते हैं. उनके आसपास अपनी सुरक्षा के मुनासिब बंदोबस्त की बात तो छोड़िए उनके पैरों में जूते तक नहीं होते.



एक सामुदायिक संस्था बाल विकास धारा ने जब अस्मिना और उसके दोस्तों के लिए काम शुरू किया तो सबसे पहले यहां गैर औपचारिक केंद्र खोला. यह ऐसे बच्चों को स्कूल से जोड़ने वाला पुल साबित हुआ जो गरीबी और मजबूरी के चलते स्कूल नहीं जा पाते. इससे जुड़ने वाले बच्चों को पहली बार कहने-सुनने-समझने और सीखने को मिला. अस्मिना को यहां एक सुरक्षित और सुविधायुक्त दुनिया नजर आई.



इतना-सा ख्वाब है

दरअसल पढ़ाई की दुनिया से जुड़ने के बाद अब उसके पास आगे बढ़ने के लिए खुद को समर्थ बनाने का रास्ता था. उसकी छोटी बहन भी उसके साथ पढ़ने आने लगी. संस्था के सभी साथियों की मदद से अस्मिना और उसके बहुत सारे दोस्तों को स्थानीय नगर-निगम के स्कूल में भर्ती करवाया गया. गौर करने वाली बात यह है कि उसकी उम्र और लगन को देखते हुए उसे दूसरी कक्षा में दाखिला दिलवाया गया.



अस्मिना जैसी बहुत-सी लड़कियों में पढ़ने-लिखने की चाहत को लगातार बढ़ावा देने के लिए बाल विकास धारा ने भरपूर साथ दिया है. यहां पर बच्चों में बदलाव लाने के लिए उनकी पसंद- नापसंद, ताकत-कमजोरियों और सहूलियतों के बारे में जानकारियां जुटाई जाती हैं. बच्चे, उनके माता-पिता और टीचर आपस में बैठकर उनकी उलझनों को सुलझाते हैं और फिर बच्चों को नगर-निगम के स्कूल में भर्ती करवाने की मुहिम छेड़ी जाती है.



आज अस्मिना पांचवी कक्षा में है और पढ़ने में उसकी खासी दिलचस्पी है. बदलाव का पहाड़ा पढ़ते-पढ़ते अब वह मोटी-मोटी किताबों तक आ पहुंची है. उसका परिवार यह देखकर बहुत खुश होता है कि वह कूड़ा बीनने के बजाय स्कूल में पढ़ने जाती है. अस्मिना अब कहती है "मैं जो कुछ पढ़ रही हूं वह दूसरों को भी पढ़ाऊंगी." उसकी ऐसी बातों से परिवार वालों को लगता है कि वह टीचर बनना चाहती है. वाकई वह जो भी बनना चाहती हो मगर इतना तो तय है कि अस्मिना अब एक ऐसी दुनिया में दाखिल है, जहां सपने देखना मुमकिन हो गया है.

खतरे में सुंदरवन -------------- गीताश्री, सुंदरवन से लौटकर

वे घंटों का कत्ल कर चुके हैं और तारीखों को भूल चुके हैं...

जंगल जो इतना घना है कि इतिहास ने शायद ही कभी इसमें रास्ता खोजा है.

सुंदरवनः यह उन्हें लील लेता है.
' द मिडनाइट्स चिल्ड्रेन ' के नाम से सलीम सिनाई की कहानी लिख कर 1981 में बुकर पुरस्कार पाने वाले सलमान रश्दी अब शायद सुंदरवन का ऐसा उल्लेख नहीं कर पायें. कल तक दुनिया भर में अपने मैनग्रोव फारेस्ट के लिये मशहूर सुंदरवन को धरती का तापमान निगल रहा है. पिछले तीन दशकों में सुंदरबन की नदियों और बैकवाटर का तापमान प्रति दशक 0.5 डिग्री सेंटीग्रेड की दर से बढ़ रहा है. तापमान बढऩे की यह दर औसत तापमान वृद्धि से आठ गुना ज्यादा है. धरती और जंगल के साथ-साथ पानी का तापमान बढ़ रहा है, बाघों और मनुष्य के बीच टकराव बढ़ रहा है और बढ़ रहा है सुंदरवन के हमेशा-हमेशा के लिये खत्म हो जाने का खतरा.







पानी का तापमान बढऩे से सुंदरवन के पानी में घुलनशील ओ2 की मात्रा बढ़ रही है. मछलियां और अन्य पशु पानी में बढ़ते ऑक्सीजन की मात्रा को बर्दाश्त नहीं कर सकते. इससे पशुओं की प्रजनन क्षमता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है और एक तरह से इनके नष्ट होने की आशंका गहराने लगी है.



उजड़ रहा है मैनग्रोव जंगल

सुंदरबन को 'कुबेर का खजाना’ कह सकते हैं मगर यहां के बाशिंदे बेहद गरीब है. हर साल इको-टूरिज्म का मजा लूटने हजारों देशी-विदेशी पर्यटक सुंदरबन आते हैं. सुंदरबन में हजारों लोग मछली मारने के धंधे से जुड़े हैं और बड़े पैमाने पर मछली का कारोबार करते हैं. सुंदरबन के जंगलों से स्थानीय निवासी लगभग 10 हजार टन शहद निकालते हैं. इसके अलावा स्थानीय लोग अन्य वनोपज की मदद से भी अपना जीवन यापन करते हैं. इसके अलावा यहां पेड़-पौधों और वन्यजीवों की हजारों प्रजातियां पाई जाती है.



सुंदरवान का मैनग्रोव जंगल तेजी से सिकुड़ रहा है. सुंदरवन में पेड़ पौधों की कटाई का पुराना इतिहास रहा है. एक अनुमान के अनुसार हर साल दो लाख टन लकड़ी सुंदरवन से कोलकाता और 24 परगना जाता है. ये और बात है कि यहां संरक्षित वन होने की वजह से पेड़ो की कटाई अवैध है. सुंदरवन के विशेषज्ञ कुमुद रंजन नास्कर के अनुसार “ आबादी बसाने के नाम पर पिछले एक सौ साल में 2000 वर्ग किलोमीटर जंगल का सफाया हुआ है. सुंदरवन के लगभग 54 द्वीपो पर नहीं के बराबर पेड़-पौधे हैं. ऐसे में इतनी बड़ी संख्या में पेड़ों का काटा जाना भी संदरवन के हक में नहीं है.”



पश्चिम बंगाल और बांग्लादेश के बीच तकरीकन 300 कि.मी. तक सैकड़ों छोटे बड़े द्वीप समूहों को समेटे, पसरा हुआ है सुंदरवन. सुंदरवन, जिसे हम सब विश्व के विशालतम-डेलटा या सघनतम वनों में से एक के तौर पर जानते है. ये तब बसा जब बंगाल की खाड़ी में मिलने से पहले गंगा, ब्राह्मपुत्र और मेघना नदियों ने अपना पलद्दर जमा किया. वैसे, अब भी यह क्षेत्र नदी के बहाव को झेलता है, नदी के चौड़े मुहाने देखता है नदियों अपना खारा पानी यहां तक लेकर आती है- तलद्दर अब भी जमा होता है, छोटे-छोटे द्वीप अब भी बन रहे हैं जिन्हें पानी की लहरों का करंट अक्सर जुदा कर जाता है.



घटते द्वीप

सुंदरवन का वह भाग जो पश्चिम बंगाल में है, भारत का 60 प्रतिशत वन प्रदेश कहलाता है. इसमें 102 द्वीप है, जिनमें से 54 में लोगों का वास भी है. इन 54 द्वीपों में ज्यादातर 1700 ई.पू. में अंग्रेजों द्वारा वन काटकर बसाए गए ताकि वहां से भी राजस्व वसूला जा सके. अब दो सौ साल से ज्यादा समय गुजर जाने के बाद जंगलों का नामोनिशान उन 54 द्वीपों से तकरीबन मिट चुका है. शिकार, प्राकृतिक संसाधनों का दोहन, इन सबने मिलकर इस इलाके को तूफान और चक्रवात संवेदी बना डाला है.



हालांकि मानव सघनता वाले उन 54 द्वीपों पर अब जंगल नहीं, पर सुंदरवन के शेष 10,000 स्क्वेयर कि.मी. क्षेत्र (जिसमें से 40 प्रतिशत भारत का हिस्सा है) पर सघन वन और वन्यजीव अब भी पाए जाते है. ये वो इलाका है, जो कई-कई दिनों तक पानी में डूबा रहता है. इन दुर्गम वनों में तकरीबन 100 जैव प्रजातियों का निवास है. इनमें रॉयल बंगाल टाइगर, जंगली मगरमच्छ, शार्क, स्पॉटेड डीयर, वाइल्ड वॉट और कई अन्य सांपों और पक्षियों की प्रजातियां शामिल हैं. इस इलाके के वन एक तरह से बंगाल के तटीय इलाकों के रक्षक हैं, जो मृदा को तो बांधते ही है, साथ ही विभिन्न प्राकृतिक आपदाओं से तटीय क्षेत्रों की रक्षा भी करते हैं.
वैसे तो सुंदरवन की पहचान वहां रह रहे रॉयल बंगाल टाइगर्स से है पर भारत के वन्य जीव संरक्षण विभाग का ध्यान पहली बार 1960 में इस तरफ तब गया जब यहां रह रही बड़ी बिल्लियों की संख्या में तेजी से गिरावट देखी गई. जब तक वन्य जीव संरक्षण आंदोलन ने गति पकड़ी तब तक वॉटरफेलो, गेंडों की प्रजातियां और कई पौधों की प्रजातियां लुप्त हो चुकी थी.




1973 में भारत सरकार ने 2,585 स्कवेयर किमी. के सुदंरवन क्षेत्र को प्रोजेक्ट टाइगर के अंतर्गत संक्षिप्त घोषित किया. 1985 में इस क्षेत्र को यूनेस्को के वर्ल्ड हैरीटेज के अंतर्गत शामिल किया गया और 1980 में तकरीबन 9, 360 स्कवेयर किमी. क्षेत्र को वायोस्फीयर रिजर्व घोषित किया गया.



इन सभी प्रावधानों ने जहां एक और सुंदरवन के रक्षक और संरक्षण में मदद की, वहीं यह जनसामान्य के बीच एक रहस्यमयी जंगलों के रूप में स्थापित हुआ.



खतरा टला नहीं है

सुंदरवन तकरीबन 3.9 मिलियन लोगों का घर है, जहां बाढ और चक्रवात संवेदी इलाकों में मछली पालन और कृषि के जरिए लोग अपनी गुजर-बसर कर रहे हैं. प्राकृतिक आपदाओं को ध्यान में रखते हुए लोग यहां बिखरे हुए नहीं बल्कि करीब-करीब साथ-साथ रह रहे है. तब ही यहां की आबादी 1200 व्यक्ति प्रति वर्ग किमी. है. करीब 45000 स्केवयर कि.मी. पर रह रहे ये लोग सिर्फ 280 कि.मी. की सड़कों और 42 स्कवेयर कि.मी. तक रेल से जुड़े हुए है. रिक्शा यहां आवाजाही का मुख्य साधन है. आधारभूत सुविधाओं और अधोसंरचना की कमी ने इसे देश के सबसे गरीब इलाकों में शामिल कर दिया है जहां कि प्रति व्यक्ति आय सालाना 10,000 रुपये या उससे भी कम है.

सुंदरवन में औसत तापमान

1980- 31.4
1985- 31.6
1990- 31.5
1995- 31.8
2000- 32.0
2005- 32.2
2007- 32.5

सुंदरबन के बारे में बात करते हुए जादवपुर यूनिवर्सिटी स्कूल ऑफ ईसियनों ग्राफी स्टडीज के निदेशक सुगाता हाजरा एक बेहद दिलचस्प बयान देते है. “ सुंदरवन अपनी तरह का वो विशिष्ट इलाका है जहां देश की सबसे ज्यादा सामाजिक और आर्थिक रूप से कमजोर जनता, सबसे अधिक कमजोर और संवेदनशील जमीन पर रह रही है. पिछले 20 साल में समुंदर ने दो द्वीपों को अपने में जब्त कर लिया.”



'लोहाछाड़ा' और 'सुपारीभंगा' इन दो द्वीपों के बाद अब वैज्ञानिकों की चेतावनी मानें तो अगला नंबर 'घोराभारा' और 'सागर' का है. श्री हाजरा और उनकी टीम ने कई वर्षों तक इस क्षेत्र का अध्ययन करने के बाद अपनी विश्लेषण रिपोर्ट जारी की, जिसमें की गई टिप्पणियां और जिसमें दिए गए तथ्य चौंका देने वाले है. रिपोर्ट कहती है कि समुद्र स्तर में वार्षिक रूप से 3.3 मिली मीटर की वृध्दि है जिसपर दक्षिणी तटों पर बसे द्वीप समुद्र में समा रहे है. 3.3 मि.मी. की वृध्दि औसत 200 मि.मीटर से कही अधिक है, जिसका कारण तीव्र मृदा क्षरण को माना जा रहा है.



इसके अलावा समुद्र जल स्तर के बढ़ने के कई अन्य कारण भी है.



बढ़ता क्षरण

श्री हाजरा के मुताबिक सबसे महत्वपूर्ण कारण तो वन्य क्षेत्र का कम होना है, जिसके कारण मिट्टी को बांधकर रख पाना मुश्किल हो रहा है. 1885 में सुंदरवन का वन क्षेत्र जहां 20 हजार स्केवेयर कि.मी. था वहीं अब ये तकरीबन 9,600 स्क्वेयर कि.मी. ही बचा है जिनमें से घने जंगल सिर्फ 4200 स्कवेयर कि.मी. में ही देखे जा सकते है.



दूसरा महत्वपूर्ण कारण जनसंख्या वृध्दि है. आजादी के बाद से अब तक सुंदरवन ने 234 प्रतिशत की जनसंख्या वृध्दि देखी है. इस गति से बढ़ती जनसंख्या अगर सन 2020 तक 5 मिलियन का आंकड़ा पार कर ले तो कोई आश्चर्य की बात नहीं. मिट्टी, पत्थर, गाद जो पहले नदियां अपने पानी के साथ बहा कर ले आया करती थी, वो भी अब बांधों के आसपास ही रूक जाया करता है.



ये सभी कारण सुंदरवन को अतिसंवेदनशील बना देते है. 15 साल तक लगातार श्री हाजरा की टीम ने लहरों और उनकी स्वभाव को समझा और मापा. इस सबके बाद जो सामने आया, वो बहुत खौफनाक था. सन 2050 तक सागर द्वीप के आसपास समुद्र जल स्तर तकरीबन 50 से मी की गति से बढ़ेगा, साथ ही इस ही अनुपात में क्षरण भी बढ़ेगा. ऐसे में दक्षिण तटीय बाहर द्वीपों की पहचान कर ली गई है जिनके डूब जाने की संभावना है.



राज्य सिंचाई और वन विभाग के साथ-साथ स्थानीय प्रशासन द्वीप मुहैया कराए गए आंकड़े कहते है कि पिछले 20 सालों में करीब 485 जिंदगियों और 130.6 करोड़ की संपत्ति का नुकसान हो चुका है. अगर श्री हाजरा की टीम द्वारा जताई गई संभावनाएं सत्य साबित हुई तो आनेवाले समय में ये नुकसान कई गुना बढ़ेगा.

रुबाईयाँ / फ़िराक़ गोरखपुरी

1. लहरों में खिला कंवल नहाए जैसे


दोशीज़: ए सुबह गुनगुनाए जैसे

ये रूप, ये लोच, ये तरन्नुम, ये निखार

बच्चा सोते में मुसकुराए जैसे


2. दोशीज़: ए बहार मुसकुराए जैसे

मौज ए तसनीम गुनगुनाए जैसे

ये शान ए सुबकरवी, ये ख्नुशबू ए बदन

बल खाई हुई नसीम गाए जैसे


3. ग़ुनचे को नसीम गुदगुदाए जैसे

मुतरिब कोई साज़ छेड़जाए जैसे

यूँ फूट रही है मुस्कुराहट की किरन

मन्दिर में चिराग़ झिलमिलाए जैसे

4. मंडलाता है पलक के नीचे भौंवरा

गुलगूँ रुख्नसार की बलाऎं लेता

रह रह के लपक जाता है कानों की तरफ़

गोया कोई राज़ ए दिल है इसको कहना


5. माँ और बहन भी और चहीती बेटी

घर की रानी भी और जीवन साथी

फिर भी वो कामनी सरासर देवी

और सेज पे बेसवा वो रस की पुतली


6. अमृत में धुली हुई फ़िज़ा ए सहरी

जैसे शफ़्फ़ाफ़ नर्म शीशे में परी

ये नर्म क़बा में लेहलहाता हुआ रूप

जैसे हो सबा की गोद फूलोँ से भरी



7. हम्माम में ज़ेर ए आब जिसम ए जानाँ

जगमग जगमग ये रंग ओ बू का तूफ़ाँ

मलती हैं सहेलियाँ जो मेंहदी रचे पांव

तलवों की गुदगुदी है चहरे से अयाँ


8. चिलमन में मिज़: की गुनगुनाती आँखें

चोथी की दुल्हन सी लजाती आँखें

जोबन रस की सुधा लुटाती हर आन

पलकोँ की ओट मुस्कुराती आँखें

9. तारों को भी लोरियाँ सुनाती हुई आँख

जादू शब ए तार का जगाती हुई आँख

जब ताज़गी सांस ले रही हो दम ए सुब:

दोशीज़: कंवल सी मुस्कुराती हुई आँख


10. भूली हुई ज़िन्दगी की दुनिया है कि आँख

दोशीज़: बहार का फ़साना है कि आँख

ठंडक, ख्नुशबू, चमक, लताफ़त, नरमी

गुलज़ार ए इरम का पहला तड़का है कि आँख


लहरों में खिला कंवल नहाए जैसे

दोशीज़: ए सुबह गुनगुनाए जैसे

ये रूप, ये लोच, ये तरन्नुम, ये निखार

बच्चा सोते में मुसकुराए जैसे


दोशीज़-ए-बहार मुस्कुराए जैसे

मौज ए तसनीम गुनगुनाए जैसे

ये शान ए सुबकरवी, ये ख़ुशबू-ए-बदन

बल खाई हुई नसीम गाए जैसे



ग़ुनचे को नसीम गुदगुदाए जैसे

मुतरिब कोई साज़ छेड़ जाए जैसे

यूँ फूट रही है मुस्कुराहट की किरन

मन्दिर में चिराग़ झिलमिलाए जैसे


मंडलाता है पलक के नीचे भौंवरा

गुलगूँ रुख़सार की बलाएँ लेता

रह रह के लपक जाता है कानों की तरफ़

गोया कोई राज़ ए दिल है इसको कहना


माँ और बहन भी और चहेती बेटी

घर की रानी भी और जीवन साथी

फिर भी वो कामनी सरासर देवी

और सेज पे बेसवा वो रस की पुतली

अमृत में धुली हुई फ़िज़ा ए सहरी

जैसे शफ़्फ़ाफ़ नर्म शीशे में परी

ये नर्म क़बा में लेहलहाता हुआ रूप

जैसे हो सबा की गोद फूलोँ से भरी

हम्माम में ज़ेर ए आब जिस्म ए जानाँ

जगमग जगमग ये रंग-ओ-बू का तूफ़ाँ

मलती हैं सहेलियाँ जो मेंहदी रचे पांव

तलवों की गुदगुदी है चहरे से अयाँ


चिलमन में मिज़: की गुनगुनाती आँखें

चोथी की दुल्हन सी लजाती आँखें

जोबन रस की सुधा लुटाती हर आन

पलकों की ओट मुस्कुराती आँखें


तारों को भी लोरियाँ सुनाती हुई आँख

जादू शब ए तार का जगाती हुई आँख

जब ताज़गी सांस ले रही हो दम ए सुब:

दोशीज़: कंवल सी मुस्कुराती हुई आँख


भूली हुई ज़िन्दगी की दुनिया है कि आँख

दोशीज़: बहार का फ़साना है कि आँख

ठंडक, ख्नुशबू, चमक, लताफ़त, नरमी

गुलज़ार ए इरम का पहला तड़का है कि आँख


किस प्यार से दे रही है मीठी लोरी

हिलती है सुडौल बांह गोरी-गोरी

माथे पे सुहाग आंखों मे रस हाथों में

बच्चे के हिंडोले की चमकती डोरी


किस प्यार से होती है ख़फा बच्चे से

कुछ त्योरी चढ़ाए मुंह फेरे हुए

इस रूठने पे प्रेम का संसार निसार

कहती है कि जा तुझसे नहीं बोलेंगे

है ब्याहता पर रूप अभी कुंवारा है

मां है पर अदा जो भी है दोशीज़ा है

वो मोद भरी मांग भरी गोद भरी

कन्या है , सुहागन है जगत माता

हौदी पे खड़ी खिला रही है चारा

जोबन रस अंखड़ियों से छलका छलका

कोमल हाथों से है थपकती गरदन

किस प्यार से गाय देखती है मुखड़ा

वो गाय को दुहना वो सुहानी सुब्हें

गिरती हैं भरे थन से चमकती धारें

घुटनों पे वो कलस का खनकना कम-कम

या चुटकियों से फूट रही हैं किरनें

मथती है जमे दही को रस की पुतली

अलकों की लटें कुचों पे लटकी-लटकी

वो चलती हुई सुडौल बाहों की लचक

कोमल मुखड़े पर एक सुहानी सुरखी

आंखें हैं कि पैग़ाम मुहब्बत वाले

बिखरी हैं लटें कि नींद में हैं काले

पहलू से लगा हुआ हिरन का बच्चा

किस प्यार से है बग़ल में गर्दन डाले

आँगन में सुहागनी नहा के बैठी हुई

रामायण जानुओं पे रक्खी है खुली

जाड़े की सुहानी धूप खुले गेसू की

परछाईं चमकते सफ़हे* पर पड़ती हुई

मासूम जबीं और भवों के ख़ंजर

वो सुबह के तारे की तरह नर्म नज़र

वो चेहरा कि जैसे सांस लेती हो सहर

वो होंट तमानिअत** की आभा जिन पर

अमृत वो हलाहल को बना देती है

गुस्से की नज़र फूल खिला देती है

माँ लाडली औलाद को जैसे ताड़े

किस प्यार से प्रेमी को सज़ा देती है

प्यारी तेरी छवि दिल को लुभा लेती है

इस रूप से दुनिया की हरी खेती है

ठंडी है चाँद की किरन सी लेकिन

ये नर्म नज़र आग लगा देती है

सफ़हे – माथा, तमानिअत - संतोष

प्रेमी को बुखार, उठ नहीं सकती है पलक
बैठी हुई है सिरहाने, माँद मुखड़े की दमक

जलती हुई पेशानी पे रख देती है हाथ

पड़ जाती है बीमार के दिल में ठंडक



चेहरे पे हवाइयाँ निगाहों में हिरास*

साजन के बिरह में रूप कितना है उदास

मुखड़े पे धुवां धुवां लताओं की तरह

बिखरे हुए बाल हैं कि सीता बनवास



पनघट पे गगरियाँ छलकने का ये रंग

पानी हचकोले ले के भरता है तरंग

कांधों पे, सरों पे, दोनों बाहों में कलस

मंद अंखड़ियों में, सीनों में भरपूर उमंग



ये ईख के खेतों की चमकती सतहें

मासूम कुंवारियों की दिलकश दौड़ें

खेतों के बीच में लगाती हैं छलांग

ईख उतनी उगेगी जितना ऊँचा कूदें

जब विद्यासागर जी ने चप्पल फेंकी

जब विद्यासागर जी ने चप्पल फेंकी फिर एक चप्पल चली। रोज ही कहीं ना कहीं यह पदत्राण थलचर हाथों में आ कर नभचर बन अपने गंत्वय की ओर जाने क...