वे भूली कहाँ थीं कुछ भी!
रह-रहकर वही दृश्य तो उनके मन को कुरेदते रहते हैं और वे अपने-आप से ही आँखें चुराने की कोशिश में लग जाती हैं।
पहला ही दिन था उसका उनके यहाँ।
उन्होंने बच्ची को चायपत्ती के डिब्बे के साथ मुफ़्त मिली साबुन की टिकिया थमाते हुए कहा था, "बहुत महँगा साबुन है। अच्छी तरह मल-मलकर नहाना, समझी! और सुन, जो नया फ्रॉक तुझे पिंकी की मम्मी ने दिया है, वही पहनना। पुराना वाला अपनी काकी को दे देना, जब वह तुझसे मिलने आए। वह अपनी लड़की को पहना लेगी। तेरे लिए तो पिंकी की मम्मी ने और भी बहुत-से कपड़े ले रखे हैं।"
नसीहतें देतीं वे मुड़ी ही थीं कि मन कहीं कौंधा- 'लड़की ने ये क्या घिसे हुए सस्ते-से प्लास्टिक के गुलाबी क्लिप बालों में लगा रखे हैं! कितने भद्दे लग रहे हैं, घटिया से!'
"सुन!"
बच्ची ठिठकी। एक बाँह पर नए कपड़ों का भार लादे और दूसरे हाथ में साबुन की नई टिकिया थामे उसने सहमकर उनकी ओर दृष्टि उठाई।
वे उसके हुलिये का एकटक मुआयना करते हुए बोलीं, "देख, ये क्लिप उतार दे बालों से। इन्हें भी दे दीयो काकी को, उसकी बेटी के लिए। तुझे पिंकी की मम्मी अच्छे वाले ला देगी। इससे बहुत अच्छे, जैसा तेरा फ्रॉक है न, उसी रंग के, और सुन, पिंकी की मम्मी को 'आँटी जी' बोला कर, समझी! और मुझे 'दादी जी', जैसे पिंकी कहती है।"
उन्होंने बच्ची को उत्साह में भरकर देखा था कि नए फ्रॉक के बाद, साबुन की नई टिकिया, दूसरे नए कपड़ों और बालों के लिए नए बढ़िया क्लिपों के मिलने का सुनकर लड़की की क्या प्रतिक्रिया होती है। लेकिन बच्ची के निर्विकार, निरपेक्ष चेहरे पर वे कुछ भी मनचाहा नहीं पढ़ पाई थीं और मन ही मन कुढ़ी थीं, 'ये गरीब लोग भी कितने घुन्ने हो गए हैं आजकल! अभी ज़रा-सी है और चालाकी का आलम यह कि भनक भी नहीं लगने दे रही कि इतना सब जो मिल रहा है उसे यहाँ, उसकी कब सोची थी उसने या उसकी काकी ने! ख़ासी पगार के अलावा बढ़िया खाना-पीना, जैसा वे खुद खाते हैं। साबुन-तेल, कपड़ा-लत्ता, कंघा-आइना - सब। अपना अलग बाथरूम। छोटा-सा ही सही - अलग कमरा। ऐश है उसकी तो। कहाँ उन झुग्गियों में काकी के ढेरों बच्चों के साथ कोने में दुबककर सोना! न रोज़ नहाने-धोने को मिलना, न भर पेट खाना नसीब होना। यहाँ तो सब कुछ है!' देखा था उन्होंने कि झाड़-पोंछ की आड़ में कैसे वह पिंकी के ड्रेसिंग टेबल के सामने खड़ी होकर अपने-आपको निहारती रहती थी।
उनके बेटा-बहू चाहते थे कि घर के सदस्य की तरह ही दिखे वह। अड़ोसियों-पड़ोसियों को कहने-सोचने का मौका न मिले कि बच्ची को काम पर लगा रखा है। समझते रहें कि किसी ग़रीब लड़की की परवरिश कर रहे हैं अपने यहाँ रखकर, अपनी ही बच्ची की तरह।
शनिवार-इतवार को बगल वाले ब्लॉक के शॉपिंग सेंटर के सामने जो एक्सपोर्ट सरप्लस का हाट लगता है, बहू वहाँ से उसके लिए कुछ जोड़े अच्छे कपड़े भी ख़रीद लाई थी, सस्ते में। साफ़-सुथरी रहेगी, ढंग के कपड़े पहनेगी, तो घर में हर वक्त इसकी उपस्थिति भी नहीं खलेगी। और बच्ची काम भी करेगी खुशी-खुशी।
बच्ची!
वे अपने-आप में ही सकपकायी थीं। बच्ची ही तो थी वह। रखवाते वक्त उसकी काकी ने पैसे बढ़वाने के चक्कर में भले ही बताया था कि तेरह-चौदह साल की थी, पर वे खूब समझ सकती थीं कि लड़की की उम्र दस-ग्यारह से ऊपर नहीं थी।
मजबूरी थी उनकी भी, सो रख लिया था। दिल्ली से लगे इस उपनगर में गगनचुंबी इमारतें तो बनती जा रही थीं, एक के बाद एक। और खुले वातावरण तथा सस्ते के आकर्षण में लोग बसते भी जा रहे थे यहाँ। लेकिन बिजली-पानी की मूलभूत ज़रूरतों के अलावा घरेलू कामवालियों की भी ख़ासी किल्लत थी। दूर-दूर तक छिटके-छितरे बहुमंज़िली इमारतों के झुंड के झुंड। लेकिन परिवहन व्यवस्था एकदम अव्यवस्थित, असंतुलित। बसों की आवाजाही दिल्ली की तरह थोड़े ही थी कि दूर-दूर से काम करने आ जातीं महरियाँ। न ही यहाँ दिल्ली की तरह पॉश कॉलोनियों के साथ लगते गाँव थे, जैसे वसंत विहार के साथ वसंत गाँव, मुनीरका के साथ मुनीरका गाँव, सिरी फोर्ट के साथ शाहपुर जाट या साकेत के साथ खिड़की गाँव। दिल्ली की तरह यहाँ अभी मलिन बस्तियों के जमघट भी नहीं जमे थे कि पैसे वालों और जीविका के लिए उनके यहाँ काम करने वाले निर्धनों की परस्पर निर्भरता का लाभ यहाँ के बाशिंदों को मिल जाता। यहाँ तो रियल एस्टेट के मालिकों ने चप्पा-चप्पा ज़मीन कब्ज़ा रखी थी, भविष्य में अपनी रियासतें विकसित करने के लिए।
बहरहाल, इस 'हैप्पी हैवेन' सोसायटी में काम करने आनेवाली कुछ गिनी-चुनी कामवालियों के नखरों से तो वे नहीं ही निभा सकती थीं। हर काम के चार-चार सौ रुपए। यानी झाडू-पोंछा, बर्तन, कपड़ों के कुल मिलाकर बारह सौ रुपए। तिस पर हर दूसरे दिन नागा! और जो एक काम भी ऊपर से कह दो तो मजाल है कि कर दें! खुशी-खुशी! कहेंगी, "आँटी जी, और भी चार घरों में काम करना है। मेरे पास टैम कहाँ है!" इधर आजकल एक नया ट्रेंड निकला है महरियों-कामवालियों में, बीबी जी के बदले 'आँटी जी' या 'दीदी' कहने का। उम्र के हिसाब से या व्यक्तिगत रख-रखाव के हिसाब से। अर्थात अगर बाल-वाल रंगे हुए रहती हों, सलवार-सूट या जींस पहनती हों, तो बुढ़ापे में भी 'दीदी' कहला सकती हैं! लेकिन अगर जो देह थुलथुल हुई, केशराशि नैसर्गिक श्वेत-धवल, तो वे भी बेचारी क्या कहें 'आँटी जी' के सिवा!
तो ऐसी पार्टटाइम कामवालियों से भला काम चल सकता था उनका! वह भी तब, जबकि सारे घर के कामों का दायित्व अकेले उन्हीं के कंधों पर था। बेटा-बहू तो सवेरे ही अपने-अपने दफ़्तरों को निकल जाते थे।
यद्यपि वे फ़ुलटाइम अर्थात घर पर ही रहने वाले नौकर या नौकरानी को रखने के लिए बाध्य थीं, लेकिन जवान लड़का या लड़की वे हरगिज़ नहीं रखना चाह रही थीं। लड़का रखतीं, तो हर वक्त डर कि पता नहीं कब टेंटुआ दबा दे या चोरी करवा दे। जवान लड़की की अलहदा परेशानियाँ। आस-पड़ोस के नौकरों-चौकीदारों से आँख-मटक्के करेगी और कुछ ऊँच-नीच हो जाए, तो फँसेगा घर का मालिक ही। जवान लड़की रखकर तो उनकी बहू भी राज़ी नहीं थी। कहाँ तक करेगी अपने पति की निगरानी। सो दिल्ली में किसी रिश्तेदार के यहाँ काम करने वाली महरी को कहकर इस बच्ची यानी मीनू को मँगवाया था, अपने यहाँ काम करने के लिए।
बस्ती के श्मशान घाट के पास से बहते नाले के किनारे बनी झुग्गियों में रहती थी मीनू, अपने काका-काकी के चार बच्चों के साथ। उन सब बच्चों में बड़ी वही थी। घर पर रहती तो बच्चों की देखभाल करती और जब काकी काम पर निकलती, तो वह भी साथ जाकर उसका हाथ बँटाती। काकी झाडू देती, तो वह पोंछा लगाती। काकी कपड़े फींचती, तो वह बर्तन मल देती।
पता नहीं कैसे कराते होंगे झुग्गियों से सीधे आने वाली कामवालियों से काम! उन्होंने तो नहाने-वहाने और साफ़-सुथरा रहने की आदत डाल एकदम ही बदल डाला था लड़की को। लेकिन उसके चेहरे की चिरंतन उदासी, उसका वह टुकुर-टुकुर ताकना! क्या करतीं वे उसका भी। जितना ही उससे बात करने की कोशिश करतीं, लड़की उतनी ही अपने-आप में सिमटती जाती। मुँह में जैसे ज़बान ही नहीं। जो काम कह दो, चुपचाप कर दिया। न हाँ, न ना। चेहरा ऐसा सपाट, जैसे साफ़ की गई स्लेट।
मुस्कान कुछ तिरती थी उसके चेहरे पर, तो बस पिंकी को देखकर, जब वह स्कूल से लौटती। और पिंकी भी तो! 'मीनू दीदी, मीनू दीदी' करते उसके आसपास ही बनी रहती, चाहे वह बर्तन मांज रही हो या पोंछा लगा रही हो। बहू ने ही सिखाया था पिंकी को उसे 'मीनू दीदी' कहकर पुकारना। कितनी तो छोटी थी पिंकी उससे। अभी छह की ही तो हुई थी पिछले महीने। और वैसी ही भोली उसकी बातें - 'मीनू दीदी, आप मेरे वाले स्कूल में क्यों नहीं पढ़तीं? आप वहाँ पटरे पर क्यों बैठती हो, नीचे? आओ ना, यहाँ मेरे साथ सोफे पर बैठकर देखो ना, टी.वी.!'
उनको तो, काटो तो खून नहीं! सकपकाकर वे दौड़ी थीं उसके पास। मीनू को किसी काम से रसोई में भेज वे पिंकी को खींचकर अपने कमरे में ले गई थीं, "अरे, बुद्धू, वह हमारी मेड है, काम करने वाली। वह तेरे साथ सोफ़े पर कैसे बैठेगी? उसके माँ-बाप बहुत ग़रीब हैं। गाँव में रहते हैं। इसे खिला-पिला भी नहीं सकते। इसीलिए तो इसको काकी के पास भेज दिया दिल्ली में कि काम करके उनको पैसे भेजे।"
वे अपने-आप पर ही शर्मिंदा-सी हुई थीं कि वे भी क्या समझा रही हैं छह साल की अपनी नासमझ-सी पोती को। खुद अपने-आप को ही भला कहाँ समझा पाई थीं वे! हर बार जब मीनू अपने नन्हें-नन्हें हाथों से बर्तनों पर विम घिसकर नल तक पहुँचने के लिए पटरे पर चढ़कर उचककर पानी बहाती थी, तब आत्मग्लानि की एक अंतर्धारा उनके सीने में भी बहने लगती थी। और तब कुर्सी पर बैठीं वे ऊन में गुँथी अपनी सलाइयाँ नहीं चला पाती थीं। उन्हें वहीं कुर्सी पर छोड़ वे धीरे-धीरे चलती उसके पास पहुँच जातीं। मीनू के धोये बर्तनों को सूखे कपड़ों से पोंछती वे जल्दी-जल्दी उन्हें उनकी जगह पर लगाने लगतीं कि किसी तरह उसका काम जल्दी ख़त्म हो और वह अपनी चटाई पर जाकर आराम को लेटे, ताकि वे भी थोड़ी चैन की साँस लें।
तब से तो और भी बेचैन रहने लगी थीं वे, जब दिल्ली में पढ़ रही उनकी भतीजी गरिमा आई थी उनसे मिलने। आते ही उसने सबसे पहले यही 'नोट' किया था, "ओ गॉड, बुआ! यह क्या कर रही हैं आप? चाइल्ड लेबर? इस बच्ची के पढ़ने के दिन हैं और आपने यहाँ इसे काम पर लगा रखा है?"
उन्होंने अपनी दलीलें दी थीं, "यह अपनी काकी के साथ दिल्ली में कई-कई घरों में काम करने जाती थीं, वहाँ कौन-सा पढ़ने जा रही थी? यहाँ तो एक ही घर का काम करना पड़ता है। फिर, हम इसे इतनी अच्छी तरह रख भी तो रहे हैं।"
"सवाल यह नहीं है, बुआ। सवाल है बच्चों के अधिकारों का। बच्चों के शिक्षा पाने के अधिकार का। आप इसकी काकी को काम पर रख लेतीं और इसे पढ़ने भेज देतीं। आजकल तो 'वेल टु डू' लोग अपने नौकरों के बच्चों की पढ़ाई-लिखाई स्पांसर करते हैं।"
गरिमा की इन बातों का वे क्या जवाब देतीं?
किस आदर्शवाद, किस यूटोपिया की बातें कर रही है यह लड़की! घर-गृहस्थी से पाला पड़ेगा, तब पूछेंगी वे उससे सिद्धांत और व्यवहार का फ़र्क! वे कोई अनपढ़-गँवार नहीं हैं कि उन्हें यह सब पता नहीं, जो गरिमा कह रही है और इतने बडे ओहदे पर कार्यरत उनकी बहू भी क्या गरिमा से कम पढ़ी-लिखी है! लेकिन मीनू का ही सोचने लगतीं वे दोनों, तो उनका अपना क्या होता! कौन निबटाता घर भर का इतना काम, इतने सहज तरीके से!
और फिर उन्होंने क्या ठेका ले रखा है दुनिया भर को साक्षर बनाने का! पढ़ाने का! अपने ही घर के प्राणियों की सही देखभाल हो जाए, यही बहुत है। आज के युग में अपने ही एक-दो बच्चों को पालने-पढ़ाने में लोगों की चूलें हिल जाती हैं।
जभी तो बरसी थी बहू उस दिन पिंकी, मीनू पर और साथ ही उन पर भी, जब साल के आखिर में बची हुई 'कैजुअल लीव' लेकर कुछ दिन घर बैठी थी। दोपहर को पिंकी के कमरे में अचानक ही गई, तो देखती क्या है कि पिंकी अपना बस्ता बिखेरे एक-एक कॉपी-किताब मीनू को दिखा रही थी, "देखो, यह इंग्लिश की वर्कबुक है, यह कर्सिव राइटिंग की कॉपी है, यह मैथ्स की बुक है और देखो, मेरी ड्राइंग बुक, यह मेरी स्क्रैप बुक, बड़ा मज़ा आता है स्कूल में औ़र टिफिन टाइम में झूलों पर तो बड़ा ही मज़ा।"
"अच्छा! बड़ा मज़ा आता है स्कूल में? और घर पर पढ़ाई में ज़रा भी मज़ा नहीं आता? सारा दिन खेलती रहती है इस मीनू की बच्ची के साथ?" बहू ने पिंकी के कान उमेठते हुए उसे अचानक ही चौंका दिया था।
मीनू काँपकर जहाँ की तहाँ खड़ी रह गई थी। पिंकी रुँआसी-सी हो अपनी कॉपियाँ-किताबें स्कूल बैग में भरने लगी थी।
"तू क्या कर रही है खड़ी-खड़ी?" बहू ने फटकार लगाई, "जा, अपना काम कर जाकर! बिगाड़ रही है लड़की को। ख़बरदार जो फिर पिंकी के कमरे में आकर डिस्टर्ब किया इसको!" मीनू कमरे से निकल सरपट भागी थी।
वे जानती थीं, मीनू देर तक अपने कमरे में पड़ी सिसकती रही थी।
कई दिनों तक यों ही उदास-उदास-सा चेहरा लिए काम करती रही थी वह। लेकिन बहू के दफ़्तर जाते ही पिंकी और मीनू दोनों ही भूल गई थीं बहू की घुड़क। पिंकी के कमरे से आती दोनों की हँसने-खिलखिलाने की आवाज़ें सुन सकती थीं वे। न जाने क्या-क्या बातें करती होंगी दोनों! आख़िर बच्चियाँ ही तो थीं! पिंकी शायद उसे बर्थडे में मिले गिफ्ट दिखा रही होगी और बता रही होगी कि किसने क्या-क्या दिया या फिर जन्म से लेकर अब तक के अपने फ़ोटोग्राफ्स के अलबम दिखा रही होगी उसको। बहू चाहे जो कहे, वे नहीं रोक पाती थीं बच्चों को खेलने-बतियाने से। आख़िर एक ही घर की छत के नीचे कैसे दूर रखा जा सकता था दो बच्चों को! बहरहाल
उस दिन को भूल नहीं सकती थीं क्या वे! महीना पूरा होते ही मीनू की काकी उसकी पगार लेने आ पहुँची थी। वह तो पैसे लेने ही आई थी, लेकिन मीनू ने उसे देखकर जो रोना शुरू किया कि वे हैरान ही हो गईं। काकी ने तो यही समझा होगा कि पता नहीं कितनी बुरी तरह रखा जा रहा है उसे यहाँ। तब उन्होंने ही उसकी काकी से कहा था कि एकाध दिन के लिए ले जाए उसे अपने साथ। घर हो आएगी, चचेरे भाई-बहनों से मिल आएगी, तो मन हल्का हो जाएगा इसका।
मीनू की खुशी छिपाए नहीं छिप रही थी। दौड़ते-भागते हुए अपने जाने की तैयारी में जुट गई वह। साथ ले जाने के लिए प्लास्टिक के बैग में अपने कपड़े भी भर लिए। अब उसे इंतज़ार था तो सिर्फ़ पिंकी के स्कूल से लौटने का। उसकी काकी को वापस लौटने की जल्दी थी, पर मीनू पिंकी से मिलकर ही जाना चाहती थी।
पिंकी आई, तो उसके साथ मीनू सीधे उसके कमरे में ही दौड़ी। दोनों में पता नहीं क्या बातें हुईं। पता नहीं क्या कहा था मीनू ने उसे अपने जाने को लेकर कि उसके जाने के बाद पिंकी ने चुप्पी ही साध ली। कितना पूछा था उन्होंने कि आख़िर क्या कहकर गई थी मीनू उससे, जो घर भर से कुट्टी ही कर ली थी। पर पिंकी को नहीं बताना था, सो नहीं बताया।
मीनू को गए दो दिन बीते, फिर तीसरा दिन और फिर पूरा हफ्ता ही। आख़िर कितने दिनों तक बैठी रहेगी यों अपनी काकी के घर! उन्हें तो फिक्र लगने लगी थी। कहीं उसकी काकी ने ज़्यादा पैसों पर उसे किसी और के घर तो नहीं रखवा दिया? इन लोगों का कोई भरोसा नहीं। फिर यह ख़याल भी आया मन में कि कहीं बीमार-वीमार तो नहीं पड़ गई! पता तो करना चाहिए।
बहू से कहकर उसकी रिश्तेदार के यहाँ फ़ोन करवाया कि पुछवाएँ मीनू की काकी से कि अभी तक वह उसे वापस छोड़ने क्यों नहीं आई। बहू ने फ़ोन उन्हें ही पकड़ा दिया। और जो सुना उन्होंने उस तरफ़ से, वे स्तब्ध ही रह गईं। बहू की रिश्तेदार बता रही थी, "मीनू की काकी तो आप लोगों से बहुत नाराज़ है। कह रही थी कि एकदम बिगाड़कर रख दिया था आप लोगों ने लड़की को। छोटे मुँह बड़ी बातें करने लगी थीं कि काकी, हाथ धोकर खाना बनाओ, सब्ज़ियों को धोकर काटो, गंदे कपड़े दो दिन तक नहीं पहनेगी वह, वगैरह-वगैरह। और सबसे बड़ी ज़िद तो यह करने लगी थी कि वह स्कूल में पढ़ने जाएगी और आपके यहाँ काम पर वापस नहीं लौटेगी। आपकी पोती की तरह वह भी स्कूल में पढ़ेगी। अब काकी बेचारी क्या करती उसका! उसने उसे यहाँ काम कराने के लिए रखा था, न कि पढ़ाने के लिए। सो भेज दिया वापस वहीं गाँव में, उसके माँ-बाप के पास। वही पढ़ाते रहें उसे वहाँ।"
"हे भगवान!" उन्होंने अपना माथा पीटा, "अब फिर से नए नौकर की खोज!"
तभी न जाने क्या कौंधा उनके मन में, "अरे, मैंने तो जाते वक्त उसका बैग भी नहीं देखा। उसने वापस न लौटने की सोची थी, तो कहीं घर की कोई कीमती चीज़ न ले-लवा गई हो अपने साथ!"
ओह, उनका दिल ज़ोरों से धड़कने लगा। घर का सारा कीमती सामान तो खुला ही पड़ा रहता था उसके सामने। घड़ियाँ, चूड़ियाँ, अंगूठियाँ - सभी तो दराज़ों में डाले रखती थी पिंकी की मम्मी। और पिंकी के कमरे में तो घुसी ही रहती थी मीनू।
बहू के कमरे की चीज़ें तो बहू ही जाने। वे पिंकी के कमरे की तरफ़ दौड़ीं। एक-एक दराज़ खोल उलट-पुलटकर जाँचने लगीं। कपड़े, खिलौने, पेन, पेंसिलें - सभी गिनने की कोशिश करती रहीं। पिंकी की किताबों के शेल्फ! उस पर सजी नाचने वाली गुड़िया, क्रिस्टल का कीमती सजावटी सामान, चिड़िया वाली घड़ी - सभी तो सलामत थे अपनी जगह।
"अरे!" वे ठिठकीं, "पिंकी, तेरी फ़ोटो वाला फ्रेम कहाँ है? यहीं तो पड़ा रहता था!"
पिंकी चुप। जैसे सुना ही न हो।
उन्होंने इधर-उधर ढूँढ़ा। शायद झाड़-पोंछ करते मीनू ने कहीं और रख दिया हो। या फिर टूट ही न गया हो गिरकर उससे। और डर से उन्हें बताया न हो।
उन्होंने पिंकी को हल्के से झकझोरा, "पिंकी, बेटा! बता दे ना! वह फ़ोटो कहाँ है, जो यहाँ शेल्फ पर पड़ी रहती थी?"
उन्होंने देखा, पिंकी की आँखों में एक संशय-सा। बताए या नहीं! कहीं डाँट ही न पड़े!
इस बार उन्होंने ज़रा प्यार से, लाड़ से पूछा, "क्या हुआ तेरी उस फ़ोटो के फ्रेम का? क्या मीनू से गिरकर टूट गया था?"
"नहीं, दादी जी।" पिंकी उनसे लिपटते हुए बोली, "वह तो मैंने उस दिन मीनू को गिफ़्ट कर दिया था, जिस दिन वह जा रही थी।"
हैरान-सी वे उसे डपटने लगीं, "क्यों भला? किसलिए?"
पिंकी रूआँसी हो आई, "तो क्या हुआ, दादी जी! देखो ना।" उसने झटके से अपनी स्टडी टेबल का दराज़ खोला, "देखो ना, दादी जी, उसने भी तो बदले में मुझे इतना अच्छा गिफ़्ट दिया!"
उनकी विस्मित, विस्फारित आँखों के सामने पिंकी की खुली हथेली पर वही दो 'घटिया-से, घिसे-पिटे, प्लास्टिक के गुलाबी 'हेयर-क्लिप' चमक रहे थे जिन्हें पहले ही दिन उन्होंने मीनू के बालों से उतरवाया था।
-उषा महाजन
Saturday, March 13, 2010
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