देश में आपातकाल का भूत फिर से जाग गया है. वास्तव में, अब हालात आपातकाल से भी बदतर होने जा रहे हैं. कुख्यात इमरजेंसी काल में सत्ता से सवाल करने वाले किसी भी व्यक्ति को सलाखों के पीछे कर दिया जाता था. अगर विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग की चले तो आपको अपने आनुवांशिकीय संवर्धित भोजन की सुरक्षा पर सवाल उठाने पर गिरफ्तार किया जा सकता है. जिस प्रकार आदिवासी बाहुल्य इलाकों में नक्सलवादियों के खिलाफ भारी पुलिस अभियान 'आपरेशन ग्रीनहंट' चलाया जा रहा है, उसी प्रकार सरकार सुरक्षित खाद्य पदार्थ की मांग उठाने वालों को चुप करने के लिए एक और पुलिस अभियान चलाने की तैयार कर रही है. प्रस्तावित बायोटेक्नोलाजी रेगुलेटरी अथारिटी बिल पारित होने के बाद सरकार अपने ही नागरिकों के खिलाफ एक और युद्ध छेड़ने वाली है. इन लोगों का अपराध यह पूछना है कि जिस भोजन को खाने के लिए उन्हें बाध्य किया जा रहा है, वह स्वास्थ्य के लिए सुरक्षित है भी या नहीं.
प्रस्तावित बिल में बहुराष्ट्रीय कंपनियों और बड़े औद्योगिक घरानों को सूचना छिपाने, अनुसंधान के नतीजों में छेड़छाड़ करने और भोले-भाले नागरिकों को नुकसानदायक उत्पाद पेश करने से रोकने का कोई प्रावधान नहीं है. न ही किसी हादसे के लिए कंपनी को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है. स्पष्ट है कि यह बिल बड़ी कृषि-उद्योग कंपनियों के हित में और उनका मुनाफा बढ़ाने के उद्देश्य से लाया गया है. संभवत: बजट सत्र में पेश होने वाले बीआरएआई बिल के कुछ अंश प्रत्येक नागरिक को संविधान द्वारा दी गई बोलने की स्वतंत्रता पर एक अभूतपूर्व छींका लगाते हैं.
सेक्सन 63 के चैप्टर 13 में लिखा है, 'जो व्यक्ति बिना साक्ष्यों या वैज्ञानिक रेकार्ड के जनता को उत्पादों की सुरक्षा के बारे में गुमराह करेगा उसे कम से कम छह माह और अधिक से अधिक एक साल की कैद या दो लाख रुपए तक के अर्थदंड या फिर दोनों सजाएं सुनाई जा सकती हैं.'
इमरजेंसी के दौरान राजनीतिक मतभिन्नता के कारण लोगों को महज जेल ही जाना पड़ा था, किंतु अगर बीआरएआई बिल कानून बन गया तो जेल जाने के साथ-साथ अर्थदंड भी चुकाना पड़ेगा. यहां तक कि आलोचनात्मक लेख के लेखक को भी जेल में डाला जा सकता है. जो प्रयोगों का विरोध करेगा या फिर इसमें बाधा उत्पन्न करेगा, उसे भी जेल की हवा खानी पड़ सकती है.
प्रयोगों का स्वास्थ्य और पर्यावरण पर पड़ने वाले दुष्परिणाम जानने के लोगों के अधिकार को भी कुंठित कर दिया गया है. विधेयक के आर्टिकल 27 के अनुसार जीएम उत्पादों के शोध, अनुमोदन और विज्ञान के विषय में जानकारी हासिल करना भी सूचना के अधिकार के दायरे से बाहर किया जा रहा है.
नेशनल कैंपेन फार पीपल्स राइट टु इंफोर्मेशन के अनुसार सेक्सन 2 (एच) 'गोपनीय व्यावसायिक सूचना' की परिभाषा को इस रूप में सीमित और निषिद्ध करती है कि अथारिटी के पास उत्पादों के शोध, परिवहन या आयात संबंधी किसी भी दस्तावेज को जनता को उपलब्ध नहीं कराया जाएगा. यही नहीं, इसका सेक्शन 81 सूचना के अधिकार 2005 के प्रावधानों का उल्लंघन करता है. प्रस्तावित विधेयक के अनुसार, 'इस एक्ट के प्रावधान किसी भी रूप में प्रचलित कानून से किसी भी प्रकार प्रभावित होते हैं तो इन्हें ही प्रभावी व बाध्यकारी माना जाएगा.'
भोजन जैसी साधारण चीज के संबंध में भी आलोचना के स्वर दबाने का सीधा सा मतलब है की स्वास्थ्य के लिए नुकसानदायक जीएम खाद्य पदार्र्थो को जनता के हलक के नीचे उतारने का सरकार ने इरादा बना लिया है. जीएम फसलें पर्यावरण और पारिस्थिकी पर गंभीर नकारात्मक प्रभाव डालने के लिए जानी जाती हैं. इसकी स्वीकार्यता के लिए मजबूर करने से जैवविविधता संरक्षण कम हो जाएगा.
यह स्वामीनाथन टास्क फोर्स रिपोर्ट की अनुशंसाओं के खिलाफ है, जो कहती है- किसी भी जैवविविध नियामक नीति को हर हाल में पर्यावरण और कृषि के किफायती व पारिस्थितिकी टिकाऊ तंत्र की सुरक्षा करनी चाहिए. बेशक, विधेयक का मसौदा यह भी कहता है कि बीआरएआई अपनी खुद का पुनर्विचार संबंधी ट्रिब्यूनल गठित करेगा, जो बायो प्रौद्योगिकी संबंधी किसी भी मामले की सुनवाई करेगा. किसी भी विवाद की स्थिति में याचिकाकर्ता केवल सुप्रीम कोर्ट में ही अपील कर सकेगा.
दूसरे शब्दों में, विवादों का निपटारा केवल सुप्रीम कोर्ट में करने के प्रावधान के कारण प्रस्तावित विधेयक आम आदमी की कानूनी सहायता तक पहुंच दूभर कर देता है. हर कोई आसानी से सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचने के साधन व पैसा नहीं जुटा सकता. किसी भी नियामक तंत्र को विज्ञान और प्रौद्योगिकी के संबंध में लोगों की जबान पर ताला लगाने के बजाए इनमें जनता का विश्वास पैदा करना चाहिए. पहले ही भारत में जीएम फसलों के पर्यावरण पर प्रभाव के संबंध में अनुमति देने वाली जेनेटिक इंजीनियरिंग अप्रूवल कमिटी (जीईएसी) बायोटेक्नोलाजी उद्योग की पिट्ठू बनने के कारण अपनी भद पिटवा चुकी है.
यह भी समझ से परे है कि विवादास्पद जीएम फसलों के लिए एकल खिड़की त्वरित अनुमति व्यवस्था की क्या जरूरत है. यहां तक कि अमरीका में जीएम फसलों को अनुमति प्रदान करने के लिए त्रीस्तरीय व्यवस्था काम कर रही है. फिर भी, अमरीकी नियामक प्रक्रिया पर समय-समय पर सवाल उठाए जाते रहे हैं और इसे दोषपूर्ण बताया जाता रहा है. सबसे पहले तो जीईएसी को बीटी बैगन को अनुमति प्रदान करने के घपले के लिए जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए और इसके अधिकारियों को दंडित किया जाना चाहिए.
-देविंदर शर्मा
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