Saturday, March 20, 2010

प्रमोद रंजन के इसी लेख पर बिफरे हैं प्रभाष जोशी

प्रभाष जोशी ने प्रमोद रंजन के जिस लेख का जवाब दिया है वो लेख एक व्यापक नज़रिए से लिखा गया है। इसमें प्रमोद रंजन ने कहीं नहीं कहा है कि ख़बरों के काले धंधे के ख़िलाफ़ प्रभाष जोशी और हरिवंश जैसे वरिष्ठ पत्रकारों की मुहिम ग़लत है। इसमें तो उसी मुहिम को और व्यापक बनाने की मांग की गई है। लेकिन अहंकार में डूबे प्रभाष जोशी ने प्रमोद रंजन के उठाए सवालों पर गौर करने के जगह उन्हें ही कठघरे में खड़ा कर लिया है। यहां हम आपको एक और बात बता देना जरूरी समझते हैं। प्रमोद रंजन ने जनसत्ता को लेख भेजने के साथ एक चिच्ठी भी लिखी थी। उस चिट्ठी में उन्होंने कहा था कि उनके लेख को प्रभाष जोशी के लेखों का जवाब नहीं समझा जाए। वो प्रभाष जोशी की मुहिम का पूरा समर्थन करते हैं और यह चाहते हैं कि मुहिम के दायरे को और बढ़ाया जाए। आप प्रमोद रंजन का पूरा लेख पढ़िए। बॉक्स में वो चिट्ठी भी दी गई है जो उन्होंने जनसत्ता के संपादक ओम थानवी को लिखी थी। – मॉडरेटर





विश्वास का धंधा



“कानपुर में स्वर्गीय नरेंद्र मोहन(दैनिक जागरण के मालिक) के नाम पर पुल का नामांकरण उस समय हुआ जब मैं उत्तर प्रदेश सरकार में मंत्री था. उनके मल्टीप्लैक्स को जमीन हमारे समय में दी गयी. जागरण का जो स्कूल चलता है और उनका जहां दफ्तर है. उनकी जमीनें हमारे समय में उन्हें मिलीं. लेकिन यह सब मैंने किसी अपेक्षा में नहीं अपना मित्र धर्म निभाते हुए किया. फिर भी मेरे साथ ऐसा व्यवहार (खबर के लिए पैसे की मांग) हुआ. इतनी निर्लज्जता से चलेंगे तो कैसे चलेंगे रिश्ते।”

-लालजी टंडन, लखनऊ से भाजपा के विजयी लोकसभा प्रत्याशी (1)



“दैनिक जागरण के मालिक को हमने वोट देकर सांसद बनाया था. वे बताएं वोट के बदले उनने हमें कितना धन दिया था. तब खबर के लिए हम धन क्यों दें।” -मोहन सिंह, देवरिया से सपा के पराजित लोकसभा प्रत्याशी (2)



“मैंने उषा मार्टिन (प्रभात खबर को चलाने वाली कंपनी) को भी कठोतिया कोल ब्लॉक दिया. प्रभात खबर को यह बताना चाहिए कि उसकी ‘शर्तें क्या थीं. मैंने उनसे कितने पैसे लिए.”

-मधु कोड़ा, झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री, चाईबासा से निर्दलीय सांसद (3)





जनसत्ता के संपादक ओम थानवी को भेजा गया पत्र





11 अगस्त, 2009 , पटना



सम्माननीय ओम थानवी जी,



सानंद होंगे.



जनसत्ता के 9 अगस्त, रविवार वाले अंक में श्री प्रभाश जोशी ने अपने कॉलम में `पैकेज´ के संबंध में क्षोभ प्रकट किया है कि जिन समाचार पत्रों के कारनामों का उन्होंने विरोध किया था उन्होंने एकदम चुप्पी साध ली. पलटवार तक नहीं किया. जबकि समाज में इसे लेकर पर्याप्त प्रतिक्रिया हुई है. श्री जोशी का क्षोभ उचित है लेकिन मैं इसे अप्रत्याशित के रूप में नहीं देखता. हिंदी पट्टी में काम कर रहे इन मीडिया संस्थानों की नैतिकता का स्तर इतना नीचा है कि इनकी ओर से किसी संवाद की उम्मीद बेमानी है.

किन्तु, मीडिया की इस प्रवृति का विश्लेशण सरसरी तौर पर भत्र्सना से इतर भी संभव है. वास्तव में यह अधिक जटिल है, जिस पर प्राय: ध्यान नहीं दिया जाता. बहरहाल, `पैकेज´ पर केंद्रित लेख `विश्वास का धंधा´ भेज रहा हूं. यहां यह स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि यह श्री जोशी के लेखों का प्रत्युत्तर कतई नहीं है. यह उनके पाठ से अलग मीडिया के विस्तृत बहुजन पाठ का हिस्सा है. इसे कुछ मायनों में श्री जोशी द्वारा शुरू की गयी मुहिम के विस्तार के रूप में भी देखा जा सकता है.

मीडिया के बहुजन पाठ पर केंद्रित मेरे अध्ययन की एक पुस्तिका `मीडिया में हिस्सेदारी´ प्रेस में है. उसमें यह लेख भी गया है. एक सप्ताह में उसके छपकर आ जाने की उम्मीद है. आपकी प्रति भेजूंगा.

इस लेख पर आपके निर्णय की प्रतीक्षा रहेगी. यदि आप इसे प्रकाशन योग्य समझें तो समाचार पत्र की आवश्यकतानुसार इसके फुट नोट्स कम कर दे सकते हैं,

या फिर हटा भी सकते हैं.



सादर,

प्रमोद रंजन





मीडिया पर चुनावों के दौरान पक्षपात के आरोप लगते रहे हैं. इस तरह के आरोप प्राय: चुनाव हार गये दल और प्रत्याशी लगाते हैं. या फिर दलित-पिछड़े नेताओं की ब्राह्मण-बनिया प्रेस से शिकायतें रही हैं. इस तरह की आपित्तयों को खिसियानी बिल्ली का प्रलाप मान कर नजरअंदाज कर दिया जाता है. लेकिन इस बार किस्सा कुछ अलग है. इस बार शिकायत उन नेताओं को भी है जो चुनाव जीत गये हैं. नाराज वे भी हैं, जो कुछ समय पहले तक इसी मीडिया के खास थे.



इसका कारण सीधा है. बनिया, ब्राह्मण पर भारी पड़ा है. जो काम रिश्तों के आधार पर होता रहा था, उसके लिए अब अचानक दाम मांगा जाने लगा है.



पुल तुम्हारे नाम किया, जमीन दी, जनता के वोट से विधान सभा में पहुंचे तो अपना वोट देकर तुम्हें राज्यसभा में भेजा. आजीवन मित्र धर्म निभाया. तब भी यह अहसानफरामोशी?



वास्तव में यह पहली बार नहीं था जब चुनाव के दौरान अखबारों ने पैसा लेकर खबर छापी हो. पहले यह पैसा पत्रकारों की जेब में जाता था. अखबारों के प्रबंधन ने धीरे-धीरे इसे संस्थागत रूप देना शुरू किया. ज्ञात तथ्यों के अनुसार, छत्तीसगढ़ में वर्ष 1997 के विधानसभा चुनाव से इसकी शुरुआत हिंदी के दो प्रमुख मीडिया समूहों ने की थी. उस चुनाव में 25 हजार रुपये का पैकेज प्रत्याशी के लिए तय किया गया था, जिसमें एक सप्ताह की दौरा-रिपोर्टिंग, तीन अलग-अलग दिन विज्ञापन के साथ मतदान वाले दिन प्रत्याशी का इंटरव्यू प्रकाशित करने का वादा शामिल था. (4)



उसके बाद के सालों में हिमाचल प्रदेश, पंजाब, चंडीगढ़, हरियाणा, राजस्थान आदि में चुनावों के दौरान यह संस्थागत भ्रष्टाचार पैर पसारता गया. उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राजनैतिक रूप से सचेत राज्यों में अखबारों को इस मामले में फूंक-फूंक कर कदम रखना पड़ा.



संस्थागत रूप (जिसमें पैसा सीधे प्रबंधन को जाता है) से उत्तरप्रदेश में अखबारों ने पहली बार उगाही वर्ष 2007 के विधानसभा चुनाव में की.(5)



वैश्विक आर्थिक मंदी के बीच वर्ष 2009 के लोकसभा चुनाव में उगाही की यह प्रणाली बिहार पहुंची. इस चुनाव में बिहार-झारखंड में हिंदुस्तान ने “बिकी हुई” खबरों के नीचे “एचटी मीडिया इनिशिएटिव” लिखा तो प्रभात खबर ने “पीके मीडिया इनिशिएटिव”. दैनिक जागरण ने बिकी हुई खबरों का फांट कुछ बदल दिया. (अस्पिष्ट अर्थ वाले इन शब्दों अथवा बदले हुए फांट से पता नहीं वे पाठकों को धोखा देना चाहते थे या खुद को). इस सीधी वसूली पर कुछ प्रमुख नेताओं ने जब पैसे वसूलने वाले समाचार पत्रों के मालिकों से संपर्क किया तो उनका उत्तर था-जब हमारा संवाददाता उपहार या पैसे लेकर खबरें लिखता है तो हम (मालिक) ही सीधे धन क्यों नहीं ले सकते। (6)



बिहार में बबेला



खबरों के लिए धन की इस संस्थागत उगाही पर बबेला बिहार से शुरू हुआ. इस जागरूकता के लिए बिहार की तारीफ की जानी चाहिए. यद्यपि इस पर संदेह के पर्याप्त कारण भी मौजूद हैं.



तथ्य यह है कि बिहार में दैनिक जागरण, हिंदुस्तान, प्रभात खबर आदि के पत्रकारों द्वारा चुनाव के दौरान स्थानीय स्तर पर वसूली के किस्से आम रहे हैं. झारखंड में तो अखबार चुनावों के दौरान अपना पुराना हिसाब भी चुकता करते रहे हैं.(7) लेकिन ऊंचे तबके (ऊंची जाति/ऊंची शिक्षा/ संपादकों से मित्र धर्म का निर्वाह करने वाले) राजनेताओं से अदना पत्रकार मोल-भाव की हिमाकत नहीं करते. इस कोटि के नेताओं का मीडिया मैनेजमेंट वरिष्ठ पत्रकार, स्थानीय संपादक आदि करते हैं जबकि मीडिया के उपहास, उपेक्षा और भेदभाव की पीड़ा पिछड़े राजनेताओं (नीची जाति/ कम शिक्षित/ गंवई) के हिस्से में रहती है.(8)



लेकिन इस बार अखबार मालिकों ने तो सब धान साढ़े बाईस पसेरी कर डाला. टके सेर भाजी, टके सेर खाजा!



विरोध का धंधा



इस अंधेर को प्रभात खबर के प्रधान संपादक हरिवंश ने “खबरों का धंधा” (9) कहा तो जनसत्ता के पूर्व संपादक प्रभाष जोशी ने “खबरों के पैकेज का काला धंधा” (10). जबकि प्रभात खबर भी इस मामले में शामिल था. (11)



प्रभाष जोशी ने बांका जाकर जदयू के बागी, लोकसभा के निर्दलीय प्रत्याशी दिग्विजय सिंह के पक्ष में आयोजित जनसभा को संबोधित किया था. उनके साथ प्रभात खबर के प्रधान संपादक हरिवंश भी थे. बाद में श्री जोशी ने अपने लेख में दिग्विजय सिंह का “मीडिया प्रबंधन” कर रहे एक पत्रकार की डायरी के हवाले से इस चुनाव में मीडिया के “पैकेज के काले धंधे की” कठोर भर्त्सना की. जोशी का यह लेखकीय साहस प्रशंसनीय है किन्तु उनके लेख में विस्तार से उद्धृत की गयी पत्रकार की डायरी कुछ ज्यादा भेदक प्रसंगों को भी सामने लाती है. श्री जोशी ने इस डायरी के हवाले से सिर्फ पैसों के लेन-देन की निंदा की. अन्य तथ्यों पर उन्होंने कोई ध्यान नहीं दिया.

श्री जोशी द्वारा कोट की गयी डायरी का अंश -



“20 अप्रैल, 2009: आज एक प्रमुख दैनिक के स्थानीय प्रतिनििध अपने विज्ञापन इंचार्ज के साथ आए. संवाददाता कह रहे थे-मैंने खबर भेजी थी, पर वहां एक जाति विशेष के संपादक हैं. छापेंगे नहीं. यानी पैकेज के बिना अखबार में खिड़की-दरवाजे नहीं खुलेंगे”. (12)



“21 अप्रैल, 2009: एक पत्रकार ने. अपने स्थानीय संपादक को बताया कि उसकी खबरें छपनी क्यों जरूरी हैं. स्थानीय संपादक एक जाति विशेश का था और एक दबंग उम्मीदवार भी संपादक की जाति का था. इस पत्रकार ने संपादक को समझाया कि हमने उससे डील की तो जाति समीकरण बिगड़ सकता है. दूसरे उम्मीदवार जो मंत्री हैं उनके बारे में कहा कि वे सरकारी विज्ञापन दिलवाते रहेंगे. उनसे क्या लेन-देन करना. दिल्ली में खूब पहचान रखनेवाले एक उम्मीदवार के बारे में कहा कि जब उनसे मिलने गया तो वे फोन पर.. (अखबार के मालिक) से बात कर रहे थे. उनसे क्या पैकेज लिया जाए”. (13)



जाति, पद और परिचय पर आधारित पत्रकारिता का फरूखाबादी खेल उपरोक्त उद्धरणों में स्पष्ट है, जिसे पत्रकारिता पर जारी बहस के दौरान नजरअंदाज कर दिया गया है. पत्रकारिता का यह पतन वैश्विक मंदी के कारण वर्ष 2009 में अचानक घटित होने वाली घटना नहीं है. जातिजीवी संपादक व पत्रकार इसे वर्षों से इस ओर धकेलते रहे हैं. वस्तुत: पैकेज ने जातिजीवी संपादकों की मुट्ठी में कैद अखबारों के खिड़की-दरवाजे सभी जाति के धनकुबेरों के लिए खोल दिये हैं. इसमें संदेह नहीं कि अखबारों का चुनावी पैकेज बेचना बुरा है. लेकिन अधिक बुरा है पत्रकारिता में जाति धर्म और मित्र धर्म का निर्वाह.



व्यवहारिक दृष्टि से देखा जाए तो…



चुनावों के दौरान खबरों की बिक्री पिछले लगभग एक दशक से चल रही है(14). इसने अखबारों की विश्वसनीयता गिरायी है. लेकिन पैसा लेकर छापी गयी खबर की बदौलत शायद ही किसी प्रत्याशी की जीत हुई हो.(15) उत्तरप्रदेश में वर्ष 2007 के विधान सभा चुनाव में तीन समाचार पत्रों ने सरेआम धन लेकर खबर छापने का अभियान चलाया था और करोड़ों रुपये की अवैध उगाही की थी. समाचार पत्रों के जरिए अपनी छवि सुधारने वाले राजनीतिक दलों ने इन समाचार पत्रों को विज्ञापन देकर भी पैसा पानी की तरह बहाया. परंतु इनके चुनावी सर्वेक्षण व आकर्षक समाचार भी मतदाताओं का रुझान नहीं बदल सके और विज्ञापन पर सबसे कम धन खर्च करने वाली बहुजन समाज पार्टी को पूर्ण बहुमत मिल गया.(16) अखबारों की विश्वसनीयता की हालत यह हो गयी कि प्रत्याशी अब पक्ष में खबर छापने की बजाय कोई खबर न छापने के लिए पैसे देने लगे हैं. बदनामी इतनी हो चुकी है कि पक्ष में खबर छपने पर मतदाताओं द्वारा `उलटा मतलब´ निकाले जाने की आशंका रहती है.(17)



पत्रकारिता के मूल्यों में ऐसे भयावह क्षरण से नुकसान दलित, पिछड़ों की राजनैतिक ताकतों, वाम आंदोलनों तथा प्रतिरोध की उन शक्तियों को भी हुआ है, जो इसके प्रगतिशील तबके से नैतिक और वैचारिक समर्थन की उम्मीद करते हैं. मीडिया के ब्राह्मणवादी पूंजीवाद ने इन्हें उपेक्षित, अपमानित और बुरी तरह दिग्भ्रमित भी किया है. लेकिन मीडिया की गिरती विश्वसनीयता पर जाहिर की जा रही चिंता का कारण यह नहीं है. उन्हें चिंता है कि-`यदि मीडिया की ताकत ही नहीं रहेगी तो कोई अखबार मालिक किसी सरकार को किसी तरह प्रभावित नहीं कर सकेगा. फिर उसे अखबार निकालने का क्या फायदा मिलेगा. यदि साख नष्ट हो गयी तो कौन सा सत्ताधारी नेता, अफसर या फिर व्यापारी मीडिया की परवाह करेगा. इसलिए व्यवहारिक दृष्टि से देखा जाए तो यह अखबार के संचालकों के हक में है कि छोटे-मोटे आर्थिक लाभ के लिए पैकेज पत्रकारिता को बढ़ावा न दें.´ (18)



व्यवहारिकता का यह तकाजा पूंजीवाद से मनुहार करता है कि वह ब्राह्मणवाद से गठजोड़ बनाए रखे. कौड़ी-दो-कौड़ी के लिए इस गठबंधन को नष्ट न करे. सलाह स्पष्ट है अगर हम पहले की तरह गलबहियां डाल चलते रहें तो ज्यादा फायदे में रहेंगे. सरकार, अफसर, व्यापार सब रहेंगे हमारी मुट्ठी में. अभी लोकतंत्र की तूती बोल रही है. इसलिए वह क्षद्म बनाए रखना जरूरी है, जिससे बहुसंख्यक आबादी का विश्वास हम पर बना रहे. मीडिया की `विश्वसनीयता´ बनाए रखना इनके लिए `समय का तकाजा´ है.

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संदर्भ व टिप्पणियां



1. लालजी टंडन से रूपेश पांडेय की बातचीत, प्रथम प्रवक्ता, (संपादक-रामबहादुर राय) का प्रभाष जोशी के निर्देशन में पैकेज पर केंद्रित अंक, 16 जुलाई, 2009.

2. प्रभाश जोशी का लेख `जिसने भुगता वे बोले´, वही.

3. 26 जुलाई, 2009 को आयोजित प्रेस कांफ्रेस में मधु कोड़ा ने कहा – `प्रभात खबर मुझ पर उषा मार्टिन (प्रभात खबर को चलाने वाली कंपनी) का काम नहीं करने के कारण दबाब बना रहा है. दलाली नहीं चली तो कंपनी ने अपने अखबार का इस्तेमाल कर मुझे बदनाम करना शुरू कर दिया. यह सब तब शुरू हुआ जब कंपनी के काम की एक फाइल मेरे पास कोर्ट की अवमानना करते हुए भिजवायी गयी…कोई किसी व्यापारी के साथ कहीं जाने से उसका पाटर्नर हो जाता है क्यार्षोर्षो अगर ऐसा है तो उशा मार्टिन के मालिक समीर लोहिया, झाबर आदि भी मेरे साथ लंदन, स्वीटजरलैंड और पेरिस गये थे तो क्या वे मेरे पाटर्नर हो गयेर्षोर्षो मैंने उशा मार्टिन को भी कठोतिया कोल ब्लॉक दिया. प्रभात खबर को यह बताना चाहिए कि उसकी शर्तें क्या थीं. मैंने उनसे कितने पैसे लिए´, सहारा समय बिहार-झारखंड तथा ईटीवी पर 27 जुलाई, 2009 को प्रसारित.

4. जाकिर हुसैन की रिपोर्ट `छत्तीसगढ़ में पैकेज की पुरानी परंपरा´, प्रथम प्रवक्ता, (संपादक-रामबहादुर राय) का प्रभाश जोशी के निर्देशन में पैकेज पर केंद्रित अंक, 16 जुलाई, 2009.

5. उत्तर प्रदेश से रूप चौधरी की रिपोर्ट `इधर जन जागरण, उधर धन जागरण´, सुशील राधव की रिपोर्ट `जैसा पैसा वैसी खबर´, वही.

6. रूप चौधरी की रिपोर्ट `इधर जन जागरण, उधर धन जागरण´, वही.

7. गत लोकसभा चुनाव में भी ऐसे वाकये सामने आये. चाईबासा से निर्दलीय प्रत्याशी मधु कोड़ा को हराने के लिए बेबुनियाद खबरें छापने के आरोप प्रभात खबर पर लगे. अखबार ने कुछ अज्ञात अल्पसंख्यक संगठनों के बयान प्रमुखता से छापे, जिनमें कोड़ा को वोट न देने की अपील की गयी थी. ये बयान मतदान तिथि के ठीक पहले छापे गये ताकि इनका खंडन न किया जा सके.

8. वर्ष 2000 में झारखंड राज्य बनने के बाद अखबार उसके पिछड़ा-आदिवासी समुदाय से आने वाले जाहिल, काहिल और भ्रष्ट नेतृत्व को बरगलाकर, ब्लैकमेल कर अपना काम निकालते रहे हैं. बिहार में भी राबड़ी-लालू प्रसाद शासन काल के दौरान प्रेस का रवैया कमोवेश ऐसा ही था. सामंती ताकतों के सत्ता में रहने पर इनकी नीति चापलूसी कर काम निकालने की रहती है.

9. अप्रैल,2009 में प्रभात खबर में प्रधान संपादक हरिवंश का लेख.

10. प्रभाष जोशी का लेख, जनसत्ता, 10 मई, 2009

11. झारखंड से प्रवक्ता ब्यूरो की रिपोर्ट “तो फिर खबर नहीं छपेगी”-”प्रभात खबर में भी खबरें उसी की ज्यादा छपीं, जिसने विज्ञापन ज्यादा दिया. वहां अघोषित नियम बनाया गया कि जो पैसा देगा उसको कवरेज मिलेगा”, प्रथम प्रवक्ता,(संपादक-रामबहादुर राय) का प्रभाष जोशी के निर्देशन में पैकेज पर केंद्रित अंक, 16 जुलाई, 2009.

12. प्रभाष जोशी के लेख “खबरों के पैकेज का काला धंधा” में पत्रकार (अनुराग चतुर्वेदी) की डायरी का उद्धरण, जनसत्ता, 10 मई, 2009

13. उपरोक्त व अनुराग चतुर्वेदी की डायरी, प्रभात खबर 15 मई, 2009

14. जाकिर हुसैन की रिपोर्ट “छत्तीसगढ़ में पैकेज की पुरानी परंपरा”, प्रथम प्रवक्ता, (संपादक-रामबहादुर राय) का प्रभाश जोशी के निर्देशन में पैकेज पर केंद्रित अंक, 16 जुलाई, 2009.

15. देखें, इलाहाबाद से राजीव यादव की रिपोर्ट – “एक गैर सरकारी संगठन के प्रत्याशी का कहना कि “देश खतरे में है”, “मतदाता मेरा भगवान” काफी चर्चा रहा. उन्हें 1563 वोट मिले. पर चुनावों में हर दिन उनकी खबर छपती थी. क्योंकि वे चुनाव वोट के लिए नहीं बल्कि खबरों के लिए लड़ रहे थे. जितनी ज्यादा उनकी खबरें छपीं उतनी ज्यादा उन्हें बाद में फंडिंग होगी´. संवाददाता अजय कुमार श्रीवास्तव से बातचीत में देवरिया से पराजित सपा प्रत्याशी मोहन सिंह का कथन -”अखबार इस भ्रम में न रहें कि उनके विज्ञापन से बसपा प्रत्याशी को जीत मिली है. ऐसा होता तो लखनऊ से (लालजी टंडन के प्रतिद्वंद्वी) बसपा प्रत्याशी अखिलेश दास जरूर जीत जाते. पैसा खर्च कर चुनिंदा लोग ही जीते हैं. देवरिया में बसपा प्रत्याशी आठ महीने से पैसा बहा रहा था. उसने अखबारों को “हायर” किया. मंदिर, मदरसों, ग्राम प्रधानों, ब्लॉक प्रमुखों को लाखों बांटे. वहां शिक्षा का स्तर नीचा था इसलिए “धन” जीत गया”. सौरभ राय की रिपोर्ट में आजमगढ़ से चुनाव जीतने वाले भाजपा के रामाकांत यादव का कथन – “हिंदुस्तान अखबार ने खबर छापने के लिए मुझसे 10 लाख रुपये की मांग की थी. जब मैंने रुपये नहीं दिये तो इस अखबार के मुताबिक मैं चुनाव बुरी तरह हार रहा था. लेकिन नतीजा सामने है. मैं चुनाव जीत गया”. सुरेंद्र किशोर का लेख – “खुशखबरी है कि गत लोकसभा चुनाव में जितने उम्मीदवारों ने अखबारों को पैसे देकर अपने पक्ष में तैयार विज्ञापनों को खबरों के रूप में छपवाया, उनमें से अधिकतर उम्मीदवार चुनाव हार गये”, प्रथम प्रवक्ता, (संपादक-रामबहादुर राय) का प्रभाष जोशी के निर्देशन में पैकेज पर केंद्रित अंक, 16 जुलाई, 2009.

16. रूप चौधरी की रिपोर्ट “इधर जन जागरण, उधर धन जागरण”, वही.

17. सोमदत्त शास्त्री की रिपोर्ट – “छत्तीसगढ़ में एक राजनीतिक दल की ओर से मीडिया मैनेजमेंट में लगे पीयूष गुप्ता का कहना है कि उन्होंने कुछ अखबारों को यह कहकर `पैकेज´ की रकम दी कि वे भगवान के लिए कोई खबर न छापें, यही उनके हक में होगा. पीयूष गुप्त के मुताबिक पैकेज को लेकर अखबारों की इतनी बदनामी हो चुकी थी कि अगर वे पक्ष में खबर छापें तो लोग उलटा मतलब निकाल रहे थे.. अधिकांश राजनेताओं की राय है कि अखबारी खबरें हवा बनाने में नाकाम रहीं. इसके बावजूद उन्हें पैकेज केवल इसलिए दिये गये ताकि वे अपना मुंह बंद रखें. किसी तरह का `नयूसेंस´ न क्रियेट करें”. प्रथम प्रवक्ता, (संपादक-रामबहादुर राय) का प्रभाष जोशी के निर्देशन में पैकेज पर केंद्रित अंक, 16 जुलाई, 2009.

18. पत्रकार सुरेंद्र किशोर का लेख “साख नहीं रही तो फिर क्या बचेगा”, वही.



((`मीडिया में हिस्सेदारी` से साभार))

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