Saturday, March 13, 2010

बुझे दिलों से कुछ उठता धुआँ भी हो

कोई नयी ज़मीं हो, नया आसमाँ भी हो


ए दिल अब उसके पास चले, वो जहाँ भी हो

अफ़सुर्दगी- ए- इश्क़ में सोज़- ए- निहाँ भी हो

यानी बुझे दिलों से कुछ उठता धुआँ भी हो

इस दरजा इख़्तिलात और इतनी मुगैरत

तू मेरे और अपने कभी दरमियाँ भी हो

हम अपने ग़म-गुसार-ए-मोहब्बत न हो सके

तुम तो हमारे हाल पे कुछ मेहरबाँ भी हो

बज़्मे-तस्व्वुरात में ऐ दोस्त याद आ

इस महफ़िले-निशात में ग़म का समाँ भी हो

महबूब वो कि सर से क़दम तक ख़ुलूस हो

आशिक़ वही जो इश्क़ से कुछ बदगुमाँ भी हो

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