Saturday, March 13, 2010

अंधेरी गलियों के रौशन सितारे -----------------------------------------------शिरीष खरे

शहरी झोपड़पट्टियों में रहने वाले बच्चों की जिंदगी को बोझिल, बेबस और हताश जानकर अक्सर उनसे मुंह फेर लिया जाता है. मगर एक सूझबूझ भरे प्रयास के चलते उसी दुनिया की कुछ लड़कियां आज न केवल सामाजिक अनदेखियों और तमाम बाधाओं से आगे निकल रही हैं, बल्कि खेलने-कूदने और पढ़ने-लिखने के रास्तों से उजाला भी दिखा रही हैं. चेन्नई से शक्ति और दिल्ली से अस्मिना वंचित समुदाय की ऐसी ही लड़कियां हैं जो इस बदलाव को सिर्फ महसूस ही नहीं कर रही हैं बल्कि दूसरों के लिए प्रेरणा भी बन रही हैं.

शक्ति बदलाव की
दक्षिण भारत के सबसे तेज बढ़ते शहर चेन्नई का एक चेहरा यहां की अनगिनत झोपड़पट्टियां भी हैं, जिन्हें बदनुमा दाग समझा जाता है. मगर तमाम बाधाओं के बीच यहां सपने देखने का हौसला भी है और उसे हकीकत में बदलने का जज्बा भी. शहर के उत्तरी हिस्से की ऐसी ही एक गुमनाम-सी झोपड़पट्टी में शक्ति नाम की लड़की इसी बदलाव की इबारत लिख रही है.

उसकी हमउम्र दूसरी लड़कियां जहां तीन साल की उम्र में नर्सरी स्कूल जाने लगी थीं, वहीं 6 साल की उम्र में शक्ति मछली बेचने की एक दुकान पर काम करने लगी थी. मछलियां छांटते और नंगे हाथों से बर्फ फोड़ते हुए उसने जाना कि उसके लिए तमाम खेल सपने की तरह हैं फिर वह फुटबाल ही क्यों न हो जो कि उसे बेहद पसंद था.
छह घंटे के काम के बदले उसे रोजाना महज 15 रु. मिलते थे. काम से छुट्टी मिलते ही वह घर की तरफ दौड़ पड़ती और स्कूल जाने को मचल पड़ती. इसकी एक वजह यह भी थी कि उसे वहां के मैदान पर फुटबाल खेलने को जो मिलता था. वैसे तो उसके जैसी कुछ और लड़कियां भी फुटबाल खेलती थीं, मगर गरीबी उसे स्कूल की दूसरी लड़कियों से अलग कर देती थी. इसी गरीबी के चलते एक रोज उसे पढ़ाई, फुटबाल और दोस्तों को छोड़ना पड़ा था. इसके बाद वह 12 घंटे काम करके रोजाना 30 रू. कमाने लगी. शक्ति के पिता को रोज-रोज काम नहीं मिलता था, लिहाजा घर चलाने के लिए उसकी मां को दूसरों के घरों में काम करना पड़ता था.

बदली ज़िंदगी
शक्ति से फुटबाल का खेल क्या छूटा उसकी जिंदगी से खुशियां ही गायब हो गईं. मानो उसका बचपन ही उजड़ गया. मगर उसके चेहरे पर खुशियां तब लौट आई जब वह एससीएसटीईडीएस यानी `स्लम चिल्ड्रन स्पोर्ट्स टेलेंट एजुकेशन डेवल्पमेंट सोसाइटी´ से जुड़ गई.
एससीएसटीईडीएस एक सामुदायिक संस्था है जो वहां की झोपड़पट्टियों के बच्चों को इकट्ठा करती है और नगर-निगम के मैदान पर फुटबाल खेलने के लिए प्रेरित करती है. दरअसल यह बच्चों के व्यवहार को जानने का पहला कदम होता है. यहीं से स्कूल छोड़ने वाले बच्चों के बारे में भी पता चलता है और उन्हें स्कूल से जोड़ा जाता है. शक्ति भी कुछ इसी तरीके से जुड़ी और यहां से उसे एक स्टॉर फुटबाल खिलाड़ी के तौर पर जाने जाना लगा.
एससीएसटीईडीएस के थंगराज कहते हैं "जब शक्ति स्कूल जाती थी तो उसके टीचर उसे मछुआरा समुदाय की होने की वजह से अक्सर अपमानित करते थे." संस्था ने उसे हौसला दिया और शक्ति के माता-पिता को इस बात के लिए राजी किया कि वह अपनी बेटी को एक बार फिर से नगर-निगम के स्कूल में भेजे.
थंगराज याद करते हैं, "इस बार शक्ति के माता-पिता ने उसकी पढ़ाई की कमियों को देखा और उसके आने वाले कल में संभावनाएं तलाशी. अब वह अपनी बेटी की पढ़ाई फिर से शुरू करवाने को उत्सुक थे." इसी विश्वास के साथ शक्ति के बड़े और छोटे भाईयों को भी स्कूल में भर्ती कराया गया. उनके भीतर पढ़ाई से लेकर खेल जैसी तमाम प्रतिभाओं का मूल्यांकन किया गया और उसके मुताबिक सबको मौका दिया गया.

शानदार गोल
एससीएसटीईडीएस ने शक्ति की मजबूरियों और जरूरतों को ध्यान में रखकर कदम बढ़ाया. मसलन, स्कूल जाने के लिए बस का किराया, यूनीफार्म, दिन का खाना और फुटबाल खेलने से जुड़ी जरूरतें. शक्ति की खेल प्रतिभा को देखकर एससीएसटीईडीएस ने उसके नियमित तौर पर फुटबाल के अभ्यास की व्यवस्था की. धीरे-धीरे उसके भीतर छिपी खेल प्रतिभा उभरकर सामने आने लगी और उसके भीतर से स्कूल को लेकर पैदा हुए सारे डर भी दूर हो गए. कुछ टीचर तो शक्ति के प्रशंसक और सहयोगी तक बन गए.
उसे नियमित प्रशिक्षण मिला जिसके चलते शक्ति ने अंडर-14 की राज्य स्तरीय फुटबाल टीम में अपनी जगह बनाई. बीते 4 सालों में उसने जिला और राज्य स्तर के कई मैच खेले हैं.

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अब वह 18 साल की हो चुकी है. पांच साल पहले कालेज जाना उसके लिए सपना ही था जो अब हकीकत में बदल रहा है. उसका बड़ा भाई अब नौकरी करता है और उसने अपनी छोटी बहन को कालेज भेजने का फैसला लिया है. शक्ति अब भारत की महिला फुटबाल टीम में शामिल होकर अंतरराष्ट्रीय स्तर के मैच खेलना चाहती है. वाकई उसने अपनी जिदंगी में मिले मौकों को शानदार गोल में बदला है.
अस्मिना ने ऐसा सोचा न था
दो साल की छोटी-सी उम्र में अस्मिना को अपने माता-पिता के साथ बिहार के पूर्णिया जिले से पलायन करना पड़ा था. उसका परिवार काम की तलाश में दिल्ली आया और यहां-वहां की जद्दोजहद के बाद रंगपुरी कबाड़ी बस्ती में बस गया. यह जगह कूड़ा बीनने वाले बच्चों की झोपड़पट्टी के तौर पर जानी जाती है. अस्मिना भी अपने पिता के साथ इसी धंधे में हाथ बटाते हुए बड़ी होने लगी. पता ही नहीं चला कि कैसे उसके दिन गलियों और नुक्कड़ों पर पड़े घूरे के ढ़ेरों को साफ करते हुए बीत रहे हैं. इन ढेरों से वह प्लास्टिक और रद्दी की ऐसी चीजें बीनती जिन्हें फिर से तैयार किया जा सके.
गरीबी की वजह से अस्मिना सहित उसके पांचों भाई-बहन कूड़ा बीनने का काम करने को मजबूर थे. हर सुबह काम पर जाते वक्त वह देखती कि उसकी उम्र के दूसरे बच्चे उजले कपड़े पहनकर स्कूल जाते हैं. उसके लिए स्कूल की बात मानो किसी और दुनिया की बात थी, एक ऐसी दुनिया जो कचरे से भरी उसकी मलिन दुनिया से बिल्कुल जुदा थी. उसकी दुनिया में स्लेट पेंसिल की जगह कांच के टुकड़े और जंग लगी धातु जैसी चीजें थीं जिससे वह कभी-कभी जख्मी भी हो जाती थी. अस्मिना जैसे बहुत से बच्चे ऐसे ही कूड़ों की वजह से त्वचा और आंख से जुड़ी कई गंभीर संक्रमित बीमारियों की चपेट में आ जाते हैं. उनके आसपास अपनी सुरक्षा के मुनासिब बंदोबस्त की बात तो छोड़िए उनके पैरों में जूते तक नहीं होते.
एक सामुदायिक संस्था बाल विकास धारा ने जब अस्मिना और उसके दोस्तों के लिए काम शुरू किया तो सबसे पहले यहां गैर औपचारिक केंद्र खोला. यह ऐसे बच्चों को स्कूल से जोड़ने वाला पुल साबित हुआ जो गरीबी और मजबूरी के चलते स्कूल नहीं जा पाते. इससे जुड़ने वाले बच्चों को पहली बार कहने-सुनने-समझने और सीखने को मिला. अस्मिना को यहां एक सुरक्षित और सुविधायुक्त दुनिया नजर आई.



इतना-सा ख्वाब है

दरअसल पढ़ाई की दुनिया से जुड़ने के बाद अब उसके पास आगे बढ़ने के लिए खुद को समर्थ बनाने का रास्ता था. उसकी छोटी बहन भी उसके साथ पढ़ने आने लगी. संस्था के सभी साथियों की मदद से अस्मिना और उसके बहुत सारे दोस्तों को स्थानीय नगर-निगम के स्कूल में भर्ती करवाया गया. गौर करने वाली बात यह है कि उसकी उम्र और लगन को देखते हुए उसे दूसरी कक्षा में दाखिला दिलवाया गया.



अस्मिना जैसी बहुत-सी लड़कियों में पढ़ने-लिखने की चाहत को लगातार बढ़ावा देने के लिए बाल विकास धारा ने भरपूर साथ दिया है. यहां पर बच्चों में बदलाव लाने के लिए उनकी पसंद- नापसंद, ताकत-कमजोरियों और सहूलियतों के बारे में जानकारियां जुटाई जाती हैं. बच्चे, उनके माता-पिता और टीचर आपस में बैठकर उनकी उलझनों को सुलझाते हैं और फिर बच्चों को नगर-निगम के स्कूल में भर्ती करवाने की मुहिम छेड़ी जाती है.



आज अस्मिना पांचवी कक्षा में है और पढ़ने में उसकी खासी दिलचस्पी है. बदलाव का पहाड़ा पढ़ते-पढ़ते अब वह मोटी-मोटी किताबों तक आ पहुंची है. उसका परिवार यह देखकर बहुत खुश होता है कि वह कूड़ा बीनने के बजाय स्कूल में पढ़ने जाती है. अस्मिना अब कहती है "मैं जो कुछ पढ़ रही हूं वह दूसरों को भी पढ़ाऊंगी." उसकी ऐसी बातों से परिवार वालों को लगता है कि वह टीचर बनना चाहती है. वाकई वह जो भी बनना चाहती हो मगर इतना तो तय है कि अस्मिना अब एक ऐसी दुनिया में दाखिल है, जहां सपने देखना मुमकिन हो गया है.

अब वह 18 साल की हो चुकी है. पांच साल पहले कालेज जाना उसके लिए सपना ही था जो अब हकीकत में बदल रहा है. उसका बड़ा भाई अब नौकरी करता है और उसने अपनी छोटी बहन को कालेज भेजने का फैसला लिया है. शक्ति अब भारत की महिला फुटबाल टीम में शामिल होकर अंतरराष्ट्रीय स्तर के मैच खेलना चाहती है. वाकई उसने अपनी जिदंगी में मिले मौकों को शानदार गोल में बदला है.




अस्मिना ने ऐसा सोचा न था





दो साल की छोटी-सी उम्र में अस्मिना को अपने माता-पिता के साथ बिहार के पूर्णिया जिले से पलायन करना पड़ा था. उसका परिवार काम की तलाश में दिल्ली आया और यहां-वहां की जद्दोजहद के बाद रंगपुरी कबाड़ी बस्ती में बस गया. यह जगह कूड़ा बीनने वाले बच्चों की झोपड़पट्टी के तौर पर जानी जाती है. अस्मिना भी अपने पिता के साथ इसी धंधे में हाथ बटाते हुए बड़ी होने लगी. पता ही नहीं चला कि कैसे उसके दिन गलियों और नुक्कड़ों पर पड़े घूरे के ढ़ेरों को साफ करते हुए बीत रहे हैं. इन ढेरों से वह प्लास्टिक और रद्दी की ऐसी चीजें बीनती जिन्हें फिर से तैयार किया जा सके.



गरीबी की वजह से अस्मिना सहित उसके पांचों भाई-बहन कूड़ा बीनने का काम करने को मजबूर थे. हर सुबह काम पर जाते वक्त वह देखती कि उसकी उम्र के दूसरे बच्चे उजले कपड़े पहनकर स्कूल जाते हैं. उसके लिए स्कूल की बात मानो किसी और दुनिया की बात थी, एक ऐसी दुनिया जो कचरे से भरी उसकी मलिन दुनिया से बिल्कुल जुदा थी. उसकी दुनिया में स्लेट पेंसिल की जगह कांच के टुकड़े और जंग लगी धातु जैसी चीजें थीं जिससे वह कभी-कभी जख्मी भी हो जाती थी. अस्मिना जैसे बहुत से बच्चे ऐसे ही कूड़ों की वजह से त्वचा और आंख से जुड़ी कई गंभीर संक्रमित बीमारियों की चपेट में आ जाते हैं. उनके आसपास अपनी सुरक्षा के मुनासिब बंदोबस्त की बात तो छोड़िए उनके पैरों में जूते तक नहीं होते.



एक सामुदायिक संस्था बाल विकास धारा ने जब अस्मिना और उसके दोस्तों के लिए काम शुरू किया तो सबसे पहले यहां गैर औपचारिक केंद्र खोला. यह ऐसे बच्चों को स्कूल से जोड़ने वाला पुल साबित हुआ जो गरीबी और मजबूरी के चलते स्कूल नहीं जा पाते. इससे जुड़ने वाले बच्चों को पहली बार कहने-सुनने-समझने और सीखने को मिला. अस्मिना को यहां एक सुरक्षित और सुविधायुक्त दुनिया नजर आई.



इतना-सा ख्वाब है

दरअसल पढ़ाई की दुनिया से जुड़ने के बाद अब उसके पास आगे बढ़ने के लिए खुद को समर्थ बनाने का रास्ता था. उसकी छोटी बहन भी उसके साथ पढ़ने आने लगी. संस्था के सभी साथियों की मदद से अस्मिना और उसके बहुत सारे दोस्तों को स्थानीय नगर-निगम के स्कूल में भर्ती करवाया गया. गौर करने वाली बात यह है कि उसकी उम्र और लगन को देखते हुए उसे दूसरी कक्षा में दाखिला दिलवाया गया.



अस्मिना जैसी बहुत-सी लड़कियों में पढ़ने-लिखने की चाहत को लगातार बढ़ावा देने के लिए बाल विकास धारा ने भरपूर साथ दिया है. यहां पर बच्चों में बदलाव लाने के लिए उनकी पसंद- नापसंद, ताकत-कमजोरियों और सहूलियतों के बारे में जानकारियां जुटाई जाती हैं. बच्चे, उनके माता-पिता और टीचर आपस में बैठकर उनकी उलझनों को सुलझाते हैं और फिर बच्चों को नगर-निगम के स्कूल में भर्ती करवाने की मुहिम छेड़ी जाती है.



आज अस्मिना पांचवी कक्षा में है और पढ़ने में उसकी खासी दिलचस्पी है. बदलाव का पहाड़ा पढ़ते-पढ़ते अब वह मोटी-मोटी किताबों तक आ पहुंची है. उसका परिवार यह देखकर बहुत खुश होता है कि वह कूड़ा बीनने के बजाय स्कूल में पढ़ने जाती है. अस्मिना अब कहती है "मैं जो कुछ पढ़ रही हूं वह दूसरों को भी पढ़ाऊंगी." उसकी ऐसी बातों से परिवार वालों को लगता है कि वह टीचर बनना चाहती है. वाकई वह जो भी बनना चाहती हो मगर इतना तो तय है कि अस्मिना अब एक ऐसी दुनिया में दाखिल है, जहां सपने देखना मुमकिन हो गया है.

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