इसमें इसमें कोई शक नहीं कि नक्सलवाद का सबसे सघन और भविष्यमूलक हमला छत्तीसगढ़ पर हो गया है. यह असर देश के सबसे बड़े भौगोलिक राज्य मध्यप्रदेश के इस दक्षिण पूर्वी हिस्से पर ही महसूस किया जाता था, लेकिन अविभाजित मध्यप्रदेश की लगभग 27 प्रतिशत की आबादी के आधार पर बने छत्तीसगढ़ के तिहाई हिस्से में नक्सलवाद की सक्रिय, चिंताजनक और विवादग्रस्त उपस्थिति है. 'नक्सलवाद' और 'माओवाद' शब्दों का घालमेल समझना जरूरी है. सोवियत गणराज्य और चीन समेत पूर्वी यूरोप तथा कुछ लातीनी अमेरिकी और दक्षिण एशियाई मुल्कों में मार्क्सवाद के बौद्धिक सिद्धांतों का परिणामकारी कम्युनिस्ट आंदोलन जीवन्त रहा है. इनमें से मुख्यत: चीन ने माओ त्से तुंग के नेतृत्व और उनसे भी ज्यादा उनके उत्तराधिकारी लिन पियाओ के बेहद हिंसात्मक दर्शन 'दुश्मन का उन्मूलन करो' का पाठ साकार करने की कोशिश की. नतीजतन सोवियत रूस के नेतृत्व से छिटकर चीन अपनी अहमियत का देश बना. उसने गुरिल्ला युद्ध की छापामार शैली को अपनाते हुए हिंसा की इतनी तल्ख वकालत की कि उसके राजदर्शन में असहमति का कोई स्थान ही नहीं रहा.
रूस और चीन के खेमों में कम्युनिस्ट आन्दोलन के बंट जाने का असर 1964 के आसपास भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के विभाजन और बाद में उसके कई धड़ों में टूटते जाने से हुआ. जिस तरह किसान मजदूर प्रजा पार्टी जैसी समाजवादी पार्टी के इतने धड़े हुए कि उन्हें गिन पाना मुश्किल हुआ, वही भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन के साथ भी हुआ.
1960 के दशक में पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी से उपजा चारु मजूमदार, कनु सान्याल, जंगल सन्थाल और सुशीतल राय चौधरी वगैरह दर्जनों बुद्धिजीवियों के नेतृत्व में कोलकाता के महाविद्यालयीन परिसरों में नक्सलवाद पुष्ट हुआ. 1972 के आसपास कांग्रेसी मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर राय के नेतृत्व में उसे इतनी बुरी तरह कुचल दिया गया जिसकी नक्सलियों को कल्पना नहीं रही होगी. सिद्धार्थ बाबू लेकिन चाणक्य नहीं थे. उन्हें घास की जड़ों में मठा डालने की भविष्यमूलकता नहीं मालूम थी. लिहाजा नक्सली आंदोलन नागभूषण पटनायक और नागी रेड्डी जैसे उड़ीसा और आंध्रप्रदेश के कई माओवादी नेताओं के हत्थे चढ़ गया. उसके बाद धीरे धीरे फैलता हुआ यह आंदोलन तत्कालीन मध्यप्रदेश के छत्तीसगढ़ अंचल में प्रवेश कर गया.
उसका एक बड़ा कारण आंध्रप्रदेश की सरकार का रवैया था जिसकी कड़ाई की वजह से नक्सलियों को आंध्र की सीमा पार कर छत्तीसगढ़ आना अनुकूल हुआ. भोपाल से बस्तर की दूरी ने प्रशासन को वैसे ही ढीला ढाला रखा. कुल मिलाकर वह नक्सलियों के लिए अप्रत्यक्ष वरदान ही हुआ.
छत्तीसगढ़ में लगभग 30 वर्षों में पला बढ़ा नक्सली आंदोलन अब बौद्धिक-राजनीतिक कम लेकिन यौद्धिक तेवर का ज्यादा दिखाई देता है. माओ और लेनिन ने यथासम्भव सुशिक्षित जनता की भागीदारी के बगैर जन आंदोलन का कभी समर्थन नहीं किया. माओ ने सदैव कहा कि जनता में क्रांति का आशय बुनियादी और अंतिम तौर पर जनता के राजनीतिक शिक्षण से है.
ऐसा कोई आंदोलन नहीं हो सकता जिसमें जनता को गुलाम समझे जाने की परिकल्पना हो. इसी तरह भारतीय कम्युनिस्टों के एक शिष्ट मंडल से लेनिन ने साफ कहा था कि भारतीय स्वाधीनता के आंदोलन में कम्युनिस्टों को प्रतिभागिता करनी चाहिए और धीरे धीरे आंदोलन से बुर्जुआ नेतृत्व की छुट्टी करनी चाहिए भले ही उसका नेतृत्व गांधी जैसे कद्दावर नेता कर रहे हों.
छत्तीसगढ़ का मौजूदा नक्सलवादी आंदोलन इस बात की परवाह क्या कर रहा है कि बस्तर के आदिवासियों को माओवादी आंदोलन की बौद्धिक संरचना, प्रासंगिकता और निर्विकल्पता को लेकर कोई राजनीतिक शिक्षण दिया जाए. मीडिया में नक्सलियों की ओर से भारतीय संवैधानिक गणराज्य की स्वीकृत प्रणाली के बदले चीन जैसे गणराज्य की कल्पना की पैरवी की जाती है. लेकिन क्या उसके लिए कोई जनतांत्रिक दस्तावेज, प्रदर्शनियां, विमर्श आयोजित किये जाते हैं? इतिहास को यह समझना ज़रूरी होगा कि महाराष्ट्र, आंध्र और ओडिसा जैसे प्रदेश भूगोल के उपनिवेश नहीं हैं. उनके पास सदियों पुरानी भाषाएं हैं जिन्होंने अपनी ज्यामिति की परिधि में मनुष्यता का संस्कार रचा. मातृभाषा स्कूली शिक्षण का परिणाम नहीं होती. इसलिए इन राज्यों के नक्सली नेतृत्व को माओवादी दर्शन को जनभाषा में परोसते हुए कोई सांस्कृतिक या रणनीतिक कठिनाई नहीं होती.
इसके बरक्स छत्तीसगढ़ केवल एक स्थानीय भाषा, उपभाषा या बोली का एकल क्षेत्र नहीं रहा है. यह समझना ज़रूरी होगा कि गोंडी, हलबी, मुरिया, मारिया जैसी आदिवासी बोलियां हिन्दी के करीब ठहरती उस छत्तीसगढ़ी का अंतर्भूत अंश नहीं हैं जो इन निपट आदिवासी क्षेत्रों के बाहर लगभग कस्बाई हिस्सों की अभिव्यक्ति है. नक्सलियों ने आदिवासी बोलियों में उस विदेशी साहित्य का अनुवाद, प्रचार और शिक्षण क्या व्यापक तौर पर किया है जिससे लगभग निरक्षर आदिवासियों को उनकी मादरी जुबानों में माओवादी राजदर्शन की घुट्टी पिलाई जा सके?
भारतीय संविधान में परिकल्पित लोकतंत्र हो या माओ के राजदर्शन के अनुसार स्थापित कथित कम्युनिस्ट जनवाद-उनके मूल में यही शिक्षा मुखर है कि शासन व्यवस्था को समर्थन देने वाले हर मतदाता को उसकी रूपरेखा की मोटी जानकारी ज़रूर हो. शिक्षा का एक फलितार्थ अक्षर ज्ञान भी तो होता है. लेकिन उसके मूल में संस्कृति से साहचर्य और तादात्म्य का ऐसा अंतर्निहित आग्रह है जिसके लिए औपचारिक अक्षर ज्ञान की ज़रूरत नहीं है. नानी और दादी की कहानियां स्कूली समर्थन से नहीं उपजी हैं. नक्सलियों ने बस्तर के लाचार और निहत्थे आदिवासियों को भौतिक, सामरिक, रणनीतिक और बौद्धिक रूप से बंधक बनाकर रखा है अथवा अनुवाद के जरिए आदिवासी बोलियों के लिखित और वाचिक ज्ञानकोष को समृद्ध बनाया है-यह सवाल तो ठहरा हुआ है.
पूरी दुनिया में पदार्थिक और व्यापारिक सभ्यता ने आदिवासी जीवन का मटियामेट किया है. न्यूजीलैंड, ऑस्ट्रेलिया, उत्तर अमेरिका, केनेडा और दक्षिण अफ्रीका वगैरह में गोरी जातियों ने वहां के आदिवासियों माओरी, रेड इंडियन और नीग्रो लोगों का कत्लेआम किया है और उनकी सभ्यताओं को इतिहास में दफ्न कर दिया है. नक्सली भी ऐसा ही कुछ क्या नहीं कर रहे हैं?
जिन आदिवासियों की रक्षा करने का वे दावा कर रहे हैं, उनकी तो सांस्कृतिक बुनियाद ही खिसक रही है. सदियों से आदिवासी जंगलों में रहते हुए सभ्यता की मुख्य धारा से या तो अलग रहे या रखे गए. उन्होंने हिंसा और युयुत्सा का अपने समुदाय और उसकी भूमिका को जीवित रखने के लिए सहारा नहीं लिया, भले ही इसके अपवाद रहे हों. आदिवासी सहिष्णु, सादगी पसंद, संकोची और दब्बू तक होते हैं. उनमें स्वाभिमान लेकिन इतना घनीभूत होता है कि उसकी रक्षा के लिए वे मृत्यु तक की चिंता नहीं करते.
गांधी ने अपनी महान कृति 'हिन्द स्वराज' में सभ्यता की जिस दार्शनिक उपपत्ति का निरूपण किया-उसका सार यही था कि जीवन के स्पन्दन को बनाए रखने के लिए स्वैच्छिक सादगी, स्वैच्छिक गरीबी और स्वैच्छिक धीमी गति नियामक मूल्य होने चाहिए. आश्चर्य है कि ये तीनों आदर्श गांधी की मदद के बिना आदिवासियों के सामाजिक जीवन के सदियों पुराने मूलमंत्र हैं. गांधी ने भविष्य के जिस भारत का सपना देखा था (हालांकि वह पूरा नहीं हुआ और शायद नहीं हो पाएगा) उसके लिए उन्हें एक महान राजनीतिक विचारक घोषित किया गया. लेकिन उनके इस स्वप्न को तो भारत के करोड़ों आदिवासी सदियों से खुद जी कर दिखा रहे हैं.
यदि आदिवासियों के बुनियादी स्वभाव में बंदूकें, देसी कट्टे, ग्रेनेड और बम थमाकर उन्हें बलात हिंसक बनाया जाएगा तो उससे तो उनकी आनुवांशिक, जातीय और स्वाभाविक सांस्कृतिक आदतें ही नष्ट हो जाएंगी. आदिवासी सभ्यता का विनाश करके नक्सली कुछ मनुष्य इकाइयों को अपने बाड़े में बांधकर रख भी लेंगे-तो यह माओवाद का कैसा रूपांतरण है जो मनुष्य द्वारा की जाने वाली क्रांतियों को समाज-चेतना बनाने के बदले आत्मघाती बनाता चलता है. हमारे राजनीतिक नेताओं के लिए मोटर गाड़ियों में किराए के कपड़ों और झंडों में लकदक, पूड़ी साग के पैकेट पकड़े, जेब में दैनिक मजदूरी डाले निर्विकार गरीबों के जत्थे जानवरों की तरह पकड़कर लाए जाते हैं. क्या नक्सली भी वैसा ही रिहर्सल करते हुए नासमझ, मजबूर, लाचार आदिवासियों को इस्तेमाल करना चाहते हैं? एक ढकोसले का जवाब दूसरा ढकोसला कैसे दे सकता है?
संस्कृति सभ्यता का अक्स होती है और उसका निचोड़ या पाथेय भी. जंगल आदिवासी संस्कृति की केवल भूगोल नहीं हैं. वहां नदियों, पक्षियों, झुरमुटों, वन्य पशुओं, विरल मनुष्य-समूहों की हलचल एक ऐसी सांगीतिक अनुभूति होती है जिसे आदिवासी जीवन की प्राणपद वायु कहा जा सकता है. नक्सली अतिथि भी नहीं हैं जो कुछ दिन भले ही अवांछित हों लेकिन चले तो जाते हैं. आदिवासी जीवन का अल्हड़पन, फक्कड़पन, अंधविश्वास, रूढ़ियां, सामूहिक विवेक और तरह तरह की प्रयोगधर्मिताएं उनकी संस्कृति के आधार हैं.
यदि जंगलों को नष्ट कर दिया गया, आदिवासियों को उनके स्वाभाविक परिवेश से हटाकर बंधकनुमा मानव इकाइयों में तब्दील कर दिया गया, उन्हें अपने विवेक के अनुसार निर्णय लेने के बदले आततायी आदेशों का पालन करने विवश कर दिया गया तो इससे आदिवासी संस्कृति का तेजी से क्षरण होना लाजिमी है. नक्सली नेतृत्व यदि माओ का वंशज है, तो भले ही वह विवादग्रस्त हो, लेकिन माओ की तरह सांस्कृतिक क्रांति के संबंध में कोई श्वेत पत्र या ऑडियो वीडियो कैसेट उन आदिवासियों के विमर्श के लिए जारी क्यों नहीं करता. सांस्कृतिक मूल्यों के नियमन का यह सर्वमान्य तकाज़ा है कि कोई भी समय, व्यक्ति या समूह अपने हुक्मनामे के आधार पर संस्कृति का निर्धारण नहीं कर सकता. नक्सली यह बताएं कि बस्तर जैसे इलाकों में एक तरह के जनयुद्ध का ऐलान करने से वह कालजयी संस्कृति सुरक्षित रहेगी तो मार्क्सवाद या माओवाद के प्रसारणशील होने पर भी वह खुदकुशी करने पर मजबूर नहीं की जाएगी.
इक्कीसवीं सदी का मनुष्य जीवन बहुत सी नई चुनौतियां और दुविधाएं भी लेकर आया है. एक संवैधानिक गणराज्य में आदिवासियों को अजायबघर की दर्शनीय वस्तु बनाकर नहीं रखा जा सकता-ऐसा विकास समर्थकों का तर्क है. शिक्षा, स्वास्थ्य, नियोजन, यातायात, संचार आदि अनाज, पानी और पर्यावरण के बाद आदिवासी जीवन की बुनियादी आवश्यकतायें हैं. इसमें कहां शक है कि शुरुआती लोकतांत्रिक सरकारें ये बुनियादी सुविधाएं जुटाने में फिसड्डी रहीं. फिर उदासीन सरकारें आईं और अब वे निर्लज्ज क्रूरता पर उतारू हैं. नेहरू-युग का राष्ट्रीय नेतृत्व बुनियादी तौर पर ऊंचे कद का था. भले ही उसमें धीरे धीरे वंशजों के दीमक उगते रहे.
इंदिरा-युग में पढ़े लिखों की जमात पीछे धकेली गई और सामंती तथा राजनीतिक राजवंशों ने राजनीति का कबाड़ा किया. नरसिंह राव की हुकूमत से भारत में आर्थिक, राजनीतिक, चारित्रिक पतन का दौर शुरु हुआ और देश की गाड़ी अब ढाल पर है. आदिवासी इलाकों में वैश्य कुनबों ने जंगलों, खदानों, लोककर्म, सिंचाई, आबकारी वगैरह विभागों के ठेके हथिया लिए. उनके कारिंदों तक के उपनिवेश सुदूर आदिवासी अंचलों में विस्तृत हैं. उन्होंने कुछ पढ़े लिखे प्रतिनिधिक आदिवासी नेतृत्व को बरगला कर उसे अवांछित सुविधाओं का पराश्रयी बना दिया. इसी वर्ग को बाद में न्यायिक भाषा में 'मलाईदार तबका' कहा गया. इस प्रक्रिया के चलते नक्सलवाद एक समानांतर राह से गुजरकर बस्तर के भी जंगलों में चुपचाप लेकिन जबरिया घुस आया.
वह मूलत: आर्थिक राजनीतिक शोषकों को चुनौती देने का मुखौटा ओढ़कर आया, यद्यपि उसने ऐसा कुछ नहीं किया. उसने अन्यथा भले ही सोचा हो लेकिन पाया यही कि बस्तर के जंगलों में अलग अलग तरह के शोषकों की एक साथ सहकार करती हुई उपस्थिति संभव है. इसलिए उसने पर्याप्त गणितीय संख्या में आदिवासियों को बंधुआ मज़दूर की तरह अपने निषिद्ध क्षेत्र में बांध कर रख लिया. फिर आर्थिक शोषण के नए पैंतरे चुनते हुए उसने सभी तरह के उद्योगपतियों, व्यापारियों और ठेकेदारों वगैरह से चौथ वसूलनी शुरु की जो बदस्तूर जारी है.
यदि किसी राजनीतिक आंदोलन में उसके सदस्य स्वेच्छा या हालात के कारणों से चंदा देते हैं तो वह भी तो आंदोलन का कायिक हिस्सा माना जाता है. बस्तर के नक्सली आंदोलन के आर्थिक स्त्रोत आदिवासियों या अनुयायियों में नहीं हैं क्योंकि उनकी माली हालत वैसी कहां है. भले ही नक्सली नेतृत्व और सरकारी कर्मचारी भी उनकी बकरियों, मुर्गियों और बहू बेटियों तक का शारीरिक और चारित्रिक जिबह करते रहें. दुनिया में कोई भी वामपंथी क्रांति धनाढयों से चौथ वसूल कर सफल नहीं हुई. यह तो नक्सली नेतृत्व को समझ आता होगा
भारत एक संवैधानिक लोकतंत्र है. जिस तरह नास्तिकों को भी तीर्थ स्थानों में रहने का अधिकार है या हर तरह के अल्पसंख्यक या अल्पमत को बहुमत या बहुसंख्यकों के क्षेत्र में-उसी तरह भारतीय संविधान या प्रजातंत्र से सवाल करने वाले लोगों को भी संविधान और प्रजातंत्र असहमति का स्पेस देते हैं. नक्सली कह रहे हैं और कह सकते हैं कि उनके लिए संविधान की पोथी बेमानी है और प्रजातंत्र एक ढकोसला. संविधान अनुच्छेद 19 में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को तिलिस्मी, प्रसारणशील और लचीली हद तक जाने की छूट देता है. इसके साथ-साथ संविधान एक व्यक्ति की अभिव्यक्ति की आजादी को दूसरे व्यक्ति की अभिव्यक्ति की आजादी पर तलवार की तरह चलाने की इजाजत नहीं देता.
रूस और चीन समेत दुनिया के तमाम कम्युनिस्ट मुल्कों से कई बुद्धिजीवी और लेखक निर्वासित होकर अमरीकी और यूरोपीय मुल्कों में पनाह लेते रहे हैं. वे वहां भी बदस्तूर पूंजीवाद और साम्यवाद दोनों के खिलाफ लिखते रहे. नक्सलवादी सोचेंगे कि स्वातंत्र्योत्तर काल में भारत से कितने लेखक शासकीय दबाव के चलते निर्वासित होकर दूसरे देशों में बसे हैं. कम्युनिज्म के जो मुल्क बौद्धिक विरोध तक बर्दाश्त नहींकर सकते उनके भारतीय राजनीतिक वंशज यह आग्रह क्यों करते हैं कि उन्हें भारत में हर तरह के हिंसक विरोध की अनुमति मिलनी चाहिए और भारत के संविधान के अनैतिक विरोध की भी.
ऐसा ही आचरण इस्लामी कठमुल्लापन के कुछ देश भी कर रहे हैं. सलमान रश्दी और तस्लीमा नसरीन जैसे कई लेखकों को भी निर्वासित होना पड़ा है क्योंकि इस्लामी देशों में भी भारतीय संविधान का कोई समानांतर नहीं है. अभिव्यक्ति की आजादी की सरहदें तय करने के नाम पर नक्सली एक खुले बौद्धिक विमर्श की मांग कर सकते हैं, लेकिन करते नहीं हैं. वे बुद्धिजीवियों से मदद मांगते हैं कि सरकार से बातचीत करने में बुद्धिजीवी उनकी मदद करें. लेकिन वे बुद्धिजीवियों से अपने बुनियादी उसूलों, कार्यक्रम और भविष्य की रूपरेखा को लेकर खुट्टी किए क्यों बैठे हैं? उन्हें यह भी मालूम होना चाहिए कि बुद्धिजीवी क्रांति के सूत्रधार, पक्षधर और पथप्रर्दशक तो क्या प्रतिभागी तक हो सकते हैं लेकिन वे मध्यस्थ नहीं होते.
बुद्धिजीवियों से मदद मांगने का एक उलट अर्थ यह भी निकलता है कि नक्सली आंदोलन में बुद्धिजीवियों की कमी है और ऐसे तत्वों का उन्हें आयात करने की ज़रूरत है. बुद्धिजीवियों की कमी तो सरकारी खेमे में भी है. देश के बहुलांश में ऐसे राजनेताओं का वर्चस्व है जो फूहड़ भाषा, संदिग्ध चरित्र और नासमझ ज्ञान के धनी हैं. बात बात में नक्सलियों को नेस्तनाबूद करने की धमकी देने वाले मंत्री भी ऐसे नासमझ खुशामदखोरों से घिरे हुए हैं जो बुद्धिजीवियों का मुखौटा ओढ़े हुए हैं. भारतीय संविधान के नियामक आदर्शों को व्यवहृत करने को लेकर जो बुद्धिजीवी मौलिक, दार्शनिक उपपत्तियां गढ़ रहे हैं, उनके साथ बैठने से मंत्रियों और सचिवों को खासा परहेज होता है क्योंकि बुद्धिजीवी तो वही होता है जिसके सामने छद्म की कलई खुल जाती है.
नक्सलियों ने इस बात पर तो गौर किया होगा कि आदिवासियों की स्वायत्तता, दिनचर्या, रहन सहन, खानपान और नवोन्मेष को लेकर उन पर लगाए गए प्रतिबंध एक तरह का गैर जनतांत्रिक आचरण है जो भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत भी दंडनीय भी हैं. भारतीय संविधान अलग अलग धर्मों के प्रचार तक की संवैधानिक अनुमति देता है (जो कि दुनिया में अन्यत्र संभव नहीं है). यहां संवैधानिक उपपत्तियों को लेकर नक्सली सार्वजनिक बहसें क्यों नहीं आमंत्रित करते? उन्हें यह भी ध्यान देना होगा कि जिस वामपंथ के वे सबसे छिटके और भटके हुए उग्र तत्व हैं-उसके मातृ संगठन की सरकारें केरल, पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा में बार बार दरकती क्यों रहती हैं.
जब उदार और संसदीय साम्यवाद तक को भारत की सबसे सुशिक्षित जनता तक समर्थन देने से संकोच करती है, तब बस्तर के निरक्षर आदिवासियों का स्वैच्छिक समर्थन उन्हें कैसे मिल सकता है? अन्यथा भी नक्सलवादी जल्दी में क्यों हैं. यदि भारत को माओवाद के रास्ते पर चलना ही होगा, तो वह तो जनता को तय करना होगा और उसे माओ की कदकाठी के नेता की भी प्रतीक्षा होगी. यह ठीक है कि माओ का फिलहाल कोई समानांतर नहीं है तो गांधी का भी कहां है? आंदोलन भविष्य के फिक्स्ड डिपॉज़िट भी तो होते हैं केवल करेन्ट एकाउन्ट नहीं. हर चेक को तुरंत भुनाने की क्या ज़रूरत है जब मौजूदा खर्च महंगाई के बावजूद किसी तरह चल रहा हो.
नक्सलियों ने बच्चों के स्कूली शिक्षण, आदिवासियों की चिकित्सा और सस्ते और पर्याप्त मात्रा में अनाज की सुविधाएं मुहैया कराने के आधे अधूरे, आंशिक भ्रष्ट और अपर्याप्त सरकारी साधनों को भी आदिवासियों तक क्यों नहीं पहुंचने दिया? युद्ध एक आपात स्थिति या अपवाद है. वह सामान्य जीवन नहीं है. वर्षों तक निकम्मी सरकारों ने नक्सली उन्मूलन के लिए भी कुछ नहीं किया. नक्सलियों ने बुनियादी सुविधाओं के लिए क्या किया है?
जब नक्सली विशेष पुलिस भर्ती अभियान का विरोध करते हैं कि 16-18 वर्ष के आदिवासी बच्चों के हाथों में सरकारें बंदूक नहीं थमा सकतीं, तो उससे भी छोटी उम्र के बच्चों को वे यही सब करने को मजबूर क्यों करते हैं और साथ-साथ स्त्रियों को भी, बल्कि बूढ़ों को भी? अगर यह इकतरफा ज़िद है कि माओवाद को लाने के नाम पर जो कुछ चल रहा है वह चलता रहेगा तो सरकारें भी अपनी ज़िद में काम करती रह सकती हैं और उन्हें संविधान इज़ाजत भी देता है. दुविधा का यक्ष प्रश्न यही है कि आदिवासी जीवन को वेस्टमिंस्टर पद्धति की ढीली ढाली संसदीय पद्धति की बेलगाम नौकरशाही और 'मेरी मुर्गी की एक टांग' जैसे नक्सली फरमान के बीच पीसा क्यों जा रहा है? सरकारी योजनाओं का ज्यादा से ज्यादा लाभ आदिवासियों को मिले इसके लिए नक्सलवादी आग्रही क्यों नहीं हो सकते? साथ-साथ चाहें तो माओवाद का राजनीतिक शिक्षण देते रहें.
आज से लगभग 40 वर्ष पूर्व नक्सलवाद के सामने जो राजनीतिक चुनौतियां उपस्थित थीं वैसी आज तो नहीं हैं. उनमें गुणात्मक परिवर्तन हो गए हैं. नेहरू से इन्दिरा युग तक भारत मिश्रित अर्थव्यवस्था का देश ज़रूर रहा है. उसका नेतृत्व बूर्जुआ वर्ग से ही आया था, लेकिन तब वैश्वीकरण की उदारता का युग नहीं था.
1971 में बांग्लादेश के उदय के समय इंदिरा गांधी ने अमेरिका के सातवें समुद्री बेड़े के हिन्द महासागर में रहने के बावजूद बांग्लादेश की फौरी फौजी मदद करने में कोताही नहीं की. तब तीसरी दुनिया और साम्यवादी देशों के खेमे का समर्थन भारत के पास था.
अब सोवियत रूस का विखंडन हो गया है और चीन समेत तमाम साम्यवादी मुल्क अमेरिका की डगर पर हैं. जब खुद माओ के वंशज लाल क्रांति के रक्त कण नहीं रहे तो चीन के अतीत से वर्तमान में प्रेरणा ग्रहण कर नक्सली तत्व भारत का भविष्य किस तरह बनाएंगे. 1949 में आज़ाद हुए चीन में माओ के विचारों को पांच छह दशक में ही लगभग दफ्न कर दिया गया है. चीन की गरीब आबादी विश्व में सबसे गरीब है. उसे मुंह में कौर डालने या बोलने की भारतीय शैली की आज़ादी भी कहां है. इसका यह मतलब नहीं कि बोल्शेविक और चीनी क्रांतियां इतिहास की दुर्घटनाएं हैं.
प्रसिद्ध वामपंथी विचारक देब्रे के अनुसार क्रांति गोलाकार गति में होती है. वह नीचे से ऊपर और ऊपर से नीचे होती रहती है और उसका पुनर्मूल्यांकन होता है. यदि आज माओ होते तो मौजूदा आर्थिक उदारवाद की चुनौतियों के मद्देनजर क्या रणनीति बनाते? नक्सली यदि माओ को केवल चीन का नेता नहीं मानते तो उन्हें चाहिए कि वे उनके विचारों को खंगाल कर उन्हें बहुउद्देशिय बनाएं. इतिहास का यह संयोग है कि माओ के समानांतर भारत में भी विश्व ख्याति का एक नेता पैदा हुआ भले ही उसके विचारों को आज तक प्रासंगिक करार नहीं दिया गया. उन विचारों को अमल योग्य भी नहीं माना गया.
माओवाद को भारतीय शासन व्यवस्था का मूलमंत्र बनाने की किसी भी बौद्धिक वर्जिश में उन देशज विचारों पर भी नक्सलियों को अप्रतिहत होकर सोचना होगा, जिससे वे संभावित संशोधित माओवाद का सही चेहरा तराशा सकें. इन सब तात्विक बहसों से बचते हुए बस्तर का नक्सलवाद एक हिंसक समूह के रूप में इतिहास से क्यों अपनी पहचान मांगता है? अलग अलग राजनीतिक और सामाजिक कारणों से पंजाब में आतंकवाद, चंबल में डाकुओं की समस्या और वैश्विक आतंकवाद जैसी स्थितियां समय समय पर निर्मित होती रहती हैं. उनके पीछे मजबूत और तार्किक बौद्धिक आग्रह नहीं होते. नक्सलवाद भी क्या ऐसा ही होना चाहता है.
राज्य की हिंसा किसी भी गिरोह की हिंसा से बड़ी होती है. वह पांच साल में एक बार लिए गए जनसमर्थन को पूरी अवधि तक अपनी ताकत बनाए रखती है. ऑपरेशन ग्रीन हंट यदि हिंसा का हिंसा द्वारा ही हथियारबंद उत्तर होगा तो नक्सलियों को प्रभाकरन का श्रीलंकाई हादसा भी ध्यान में रखना होगा. ढीले-ढाले भारतीय लोकतंत्र में सरकारें जनता की उम्मीदों के अनुसार कतई खरी नहीं उतरी हैं. यदि सरकारों ने गुनाह नहीं किए होते तो नक्सलवाद को पांव पसारना मुश्किल होता. भारतीय संविधान भारत के इतिहास में एक अनोखा प्रजातांत्रिक प्रयोग है. वह सामूहिक लेखन की किताब के जरिए चलाया जा रहा है.गीता, बाइबिल या कुरान शरीफ की आयतें निजी जीवन की कंदील की रोशनियां हैं. सड़कों, अस्पतालों, पार्कों, स्कूलों और स्टेश्नों वगैरह पर संविधान की बिजली जगमगा रही है. उनके बल्ब फोड़ने से क्या होगा? बिजली अंदरूनी ताकत है. प्रकाश उसका प्रवक्ता है. इसलिए बस्तर जैसे सांस्कृतिक समृद्धि के लोक कलात्मक जीवन को यदि उसकी लय में ही आत्मसात नहीं किया जाता तो सरकारों और उग्र आंदोलनों का एक जैसा हश्र होगा.
नक्सलियों और कभी कभी सरकारों ने भी तथाकथित शहरी जीवन के साक्षर लोगों को बुद्धिजीवी मानकर उनके सहयोग की औपचारिक मांग की है. शहरों का मध्य वर्ग कूढ़मगज का भी है. एक ओर बस्तर जहां फ्रायड वगैरह को अन्वेषण की चुनौतियां देता हुआ घोटुल जैसी अद्भुत मानवीय प्रेम की परंपरा का ऊर्जा विश्वविद्यालय रहा है, क्या वे लोग वहां मदद करने आएंगे जो वेलेन्टाइन दिवस के अवसर पर अपनी थुलथुल देह, खरखरी आवाज़ और कुरूप चेहरा लिए युवा बच्चे-बच्चियों को मारते फिरते हैं? क्या वे लोग मदद करने के काबिल हैं जो तथाकथित सहगोत्रीय कबाइली और गैर कानूनी परंपरा के फतवा घर बने नव विवाहितों की हत्या कर रहे हैं? वे बुद्धिजीवी मदद करने आएंगे जो सरकारों, मंत्रियों, अफसरों और पूंजीपतियों के इशारे पर स्वागत गीत, विवाहनामा और अभिनंदन पत्र लिखते रहते हैं?
बस्तर के आदिवासी डायनोसॉर के युग के नहीं हैं जिनके अवशेषों का कोई पुरातात्विक महत्व है. वे एक जीवंत मानव कौम हैं. उनकी आर्थिक बदहाली, अशिक्षा, कुपोषण, राजनीतिक पराभव, सामाजिक दबाव, पलायन आदि वे राक्षस हैं जो एक गरिमामय इंसानी जीवन शैली में ज़हर घोल रहे हैं. टाटा, एस्सार, अंबानी, बिड़ला वगैरह के विकसित होने से उनका कोई लेना देना नहीं है. वे जानते हैं कि उनकी ज़मीनें नहीं छिननी चाहिए.
भू अर्जन अधिनियम 1894 लुटेरे अंग्रेज़ों ने बनाया था. यही हाल वन अधिनियम का है और भारतीय सुखभोग अधिनियम का भी, भारतीय दंड संहिता का भी और उन तमाम उन बुनियादी कानूनों का जो 1947 के पहले बनाए गए. भारतीय संविधान ने कलम की नोक पर इन सभी प्रतिगामी कानूनों को वैधता प्रदान कर दी. उन्नीसवीं सदी के बिल में जो अंगरेजी सांप पैदा हुआ वह इक्कीसवीं सदी में फुफकार रहा है. उसे संशोधन की केंचुल से कोई परहेज नहीं होता क्योंकि उसके दांत और ज़हर तो सुरक्षित हैं.
यह कैसा विकास है जो एक एकड़, आधा एकड़ तक के आदिवासी भूमि धारकों को जबरिया बेदखल करके उनकी छाती पर अनाज के बदले इस्पात उगाकर विकास कहलाना चाहता है. वह जंगलों का सर्वनाश करे. नदियों का पानी सोख ले. हवा में ज़हरीला धुंआ घोल दे. पशुओं को मार डाले. पक्षियों को देश निकाला दे दे. जंगल के संगीत के बदले कारखानों के शोर का डीज़े उगा दे. वह आदिवासी बेटियों को कामुकता का अड्डा समझे. नौजवान बेटों को बेदखल कर शहरों में बहिष्कृत कर दे और पूरे बस्तर जैसे क्षेत्र को भारत के भूगोल में छद्म रूप से जीवित रखते हुए उसे इतिहास का अनाथालय बना दे.
नक्सलवाद यदि इन गंभीर चुनौतियों को समझता है-और वह दावा तो करता है कि वह समझता है-तो उसे नीचे लिखे मुद्दों पर बुद्धिजीवियों और समाज को सम्बोधित करना चाहिए:
1. बस्तर में शाल वनों के द्वीपों को उजाड़कर पाइन (चीड़ या देवदार) वृक्षों को उगाने की परियोजनाएं जब चखचख बाजार में थीं तो नक्सली विचारकों ने उस समय क्या किया था?
2. ज़ब बस्तर में बोधघाट जल विद्युत योजना का मुद्दा उठाया गया तब नक्सली विचारक बस्तर में उपस्थित थे और उन्होंने क्या विकल्प सुझाए?
3. भारत के संविधान की पांचवीं अनुसूची के बस्तर में लागू करने के संबंध में नक्सलियों ने क्या विचार किया है?
4. बस्तर में शराब के ठेकों और आदिवासियों की तत्संबंधी परंपराओं को लेकर नक्सलवाद की क्या सोच है?
5. अनुसूचित जनजाति और अन्य परंपरागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता अधिनियम, 2006) को लागू करने को लेकर नक्सलवाद के क्या सुझाव हैं?
6. जितने भी आयोग और जांच दल छत्तीसगढ़ में आए हैं, उनकी रिपोर्टों के किसी अंश के प्रति क्या नक्सलियों की कोई सहमति है उसे अग्रसर करने के लिए उन्होंने कोई कार्यवाही की है?
7. पंचायत एक्सटेंशन टू शिडयूल्ड एरियाज़ एक्ट (पेसा) को बस्तर जैसे क्षेत्र में आवश्यकतानुसार लागू करने को लेकर क्या नक्सली विचारधारा की अपनी कोई समझ है और इस तरह के विधायन के प्रति समर्थन भी?
8. बस्तर में जिस तरह और जितने खनिज आधारित उद्योग चल रहे या स्थापित हो रहे हैं, उनको लेकर नक्सली आंदोलन की अपनी क्या समझ, चिंताएं और सिफारिशें हैं?
9. राजनीतिक और न्यायिक प्रशासन के विकेन्द्रीकरण को लेकर बस्तर के हर आदिवासी के द्वार पर दस्तक दी जा सके इसको लेकर नक्सलवाद क्या कोई सुझाव पत्रक पे6ा करना चाहेगा?
10. आदिवासियों के सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक अधिकारों की बस्तर-कथा के कौन से विशेष तत्व हैं जिनकी हेठी या अनदेखी आज तक होती रही है? आर्थिक विकास, शैक्षणिक सुधार, सांस्कृतिक अनुरक्षण और आधुनिक सुविधाओं की उपलब्धता जैसी जुदा जुदा स्थितियों को लेकर नक्सलवाद अपनी उपस्थिति के क्षेत्रों में किस तरह का जनोन्मुखी प्रयत्न कर रहा है? उसका कोई एजेंडा या कंस्ट्रक्ट उसके जेहन में है? उसे अंतत: किस तरह क्रियान्वित किया जाए?
11. जब पूरी दुनिया और विशेषकर चीन में अमरीकी पूंजीवाद दादागिरी के साथ घुस आया है क्योंकि चीन वर्षों की मशक्कत के बाद पूंजीवादी पश्चिमी दुनिया से जुड़ पाया है. (भले ही भारत तो उससे ज्यादा पूंजीवादी अमरीका पर निर्भर हो गया है.) तब नक्सलवाद का राजनीतिक मकसद, कार्यक्रम और भविष्य क्या होगा, यह भी समझने की ज़रूरत होगी.
12. वैश्विक कंपनियों के अतिरिक्त यदि बस्तर में टाटा और एस्सार स्टील उद्योग सरकार की मदद से लग रहे हैं तो उनके संबंध में इक्का दुक्का नकली विरोध करने की बजाय नक्सली बस्तर के औद्योगिक विकास का क्या नक्शा खींचना चाहते हैं. उपभोक्तावादी संस्कृति से उपजे व्यापारिक दबावों के चलते बस्तर में भी भारत के किसी अन्य इलाके की तरह विकास के नाम पर आदिवासी जनजीवन को या तो विस्थापित किया जा रहा है या हाशिए पर डाला जा रहा है. इसको लेकर नक्सली कोई श्वेत पत्र क्यों नहीं प्रकाशित करते?
13. क़िसान और गांव की अर्थव्यवस्था तथा सामाजिक जीवन की रीढ़ रहे हैं चाहे वे बड़े किसान, मध्यम किसान, छोटे किसान, सीमांत किसान या भूमिहीन किसान मज़दूर हों. देश में किसान हज़ारों की संख्या में शासकीय नीतियों के कारण आत्महत्या कर रहे हों. नक्सलवादियों का इस बड़े मुद्दे को लेकर मौन रहना सवाल पूछता है कि किसानों की मदद के बिना दुनिया में कोई भी वामपंथी क्रांति सफल नहीं हुई है, तब वे चुप क्यों हैं?
14. नक्सलवाद के सिद्धांतों और 'सामान्य' कार्यक्रम में निजी व्यक्तियों की हत्या का कोई प्रावधान नहीं रहा था, फिर बस्तर में जनता के विभिन्न वर्गों, सरकारी कर्मचारियों, व्यापारियों, छात्रों, महिलाओं और यात्रियों तक को क्यों कत्ल किया जाता है भले ही उन पर सत्ता प्रतिष्ठान को सहायता देने का आरोप नक्सली लगाते रहें. वैसे भी माओवाद के चश्मे से देखने पर राज्य सत्ता में उत्पन्न हुई सड़ांध किसी एक व्यक्ति, संस्था घटना या निर्णय में नहीं ढूंढ़ी जा सकती. उसका सर्जिकल ऑपरेशन करने का दायित्व भले ही नक्सलियों ने ले लिया हो, वे हर मामूली चोट को ठीक करने के लिए हृदय को प्रतिरोपित करने जैसी डॉक्टरी मुद्रा क्यों अख्तियार कर लेते हैं. बांझ नौकरशाही, भ्रष्ट राजनीतिक नेतृत्व और लोकतंत्र को खोखला करते तरह तरह के अरबपति दीमक हैं लेकिन उनके नुमाइंदों, कारिंदों और कर्मचारियों को इक्का दुक्का मार देने से मार्क्सवाद से लेकर माओवाद तक का कौन सा आदेश हिमायत करता है यह तो उन्हें बताना चाहिए.
15. साम्यवाद के कई धड़े धीरे धीरे संसदीय राजनीति का हिस्सा बनने के लिए चुनाव लड़ते आए हैं. एक बहुत छोटा हिस्सा चुनाव के बहिष्कार की बात करता है तो उससे क्या हासिल होगा? लोकतंत्र में चुनाव के बिना तो कम्युनिस्ट देशों का भी शासन नहीं चलता है.
16. अंग्रेज़ी दैनिक 'हिन्दू' में प्रकाशित क्या यह खबर सही है कि जनवरी 2006 में माओवादी केंद्रीय समिति की बैठक में यह परेशानी महसूस की गई थी कि पार्टी का औद्योगिक इलाकों और शहरों में कोई जनाधार नहीं बन रहा है क्योंकि ऐसे इलाकों में छापामार किस्म की गुरिल्ला कार्रवाई संचालित नहीं की जा सकती और फिलहाल माओवाद के पास उसका कोई विकल्प नहीं है?
17. बड़े उद्योगों का समर्थन करने के बावजूद चीन में कुटीर उद्योगों का जाल इस कदर फैला हुआ है कि आज चीनी खिलौने, यंत्र और घरेलू सामान दुनिया के बाजार में छा गये हैं. ऐसे में बस्तर जैसे इलाके में नक्सलवाद कुटीर उद्योगों को प्रोत्साहन देने के लिए क्या कुछ कर रहा है. कहीं नक्सलियों को इसमें गांधी के विचारों की गंध तो महसूस नहीं होती जो उनके लिए कुफ्र है?
18. लेनिन, माओ, हो ची मिन्ह और फिदेल कास्त्रो ने सत्ता पाने की तकनीकी को लगातार परिस्थितियों के अनुसार संशोधित और विकसित किया था. मौजूदा नक्सलवाद की तकनीकी पर कोई विशेषज्ञ नोट कहीं पढ़ने में नहीं आता, जिससे पता चले कि नक्सली हिंसा को फूहड़ तरीकों से परहेज हो गया है.
-कनक तिवारी
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