Tuesday, March 9, 2010

उठ के कपड़े बदल / निदा फ़ाज़ली

उठ के कपड़े बदल


घर से बाहर निकल

जो हुआ सो हुआ॥



जब तलक साँस है

भूख है प्यास है

ये ही इतिहास है

रख के कांधे पे हल

खेत की ओर चल

जो हुआ सो हुआ॥



खून से तर-ब-तर

कर के हर राहगुज़र

थक चुके जानवर

लकड़ियों की तरह

फिर से चूल्हे में जल

जो हुआ सो हुआ॥



जो मरा क्यों मरा

जो जला क्यों जला

जो लुटा क्यों लुटा

मुद्दतों से हैं गुम

इन सवालों के हल

जो हुआ सो हुआ॥



मंदिरों में भजन

मस्ज़िदों में अज़ाँ

आदमी है कहाँ

आदमी के लिए

एक ताज़ा ग़ज़ल

जो हुआ सो हुआ।।

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