Tuesday, March 9, 2010

कुछ तबीयत ही मिली थी / निदा फ़ाज़ली

कुछ तबीयत ही मिली थी ऐसी चैन से जीने की सूरत ना हुई


जिसको चाहा उसे अपना ना सके जो मिला उससे मुहब्बत ना हुई

जिससे जब तक मिले दिल ही से मिले दिल जो बदला तो फसाना बदला

रस्में दुनिया की निभाने के लिए हमसे रिश्तों की तिज़ारत[1] ना हुई

दूर से था वो कई चेहरों में पास से कोई भी वैसा ना लगा

बेवफ़ाई भी उसी का था चलन फिर किसीसे भी शिकायत ना हुई

वक्त रूठा रहा बच्चे की तरह राह में कोई खिलौना ना मिला

दोस्ती भी तो निभाई ना गई दुश्मनी में भी अदावत[2] ना हुई



शब्दार्थ:



↑ व्यापार, व्यवसाय

↑ दुश्मनी

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