Tuesday, March 9, 2010

ये चांदनी भी जिन को छूते हुए डरती है / बशीर बद्र

ये चाँदनी भी जिन को छूते हुए डरती है


दुनिया उन्हीं फूलों को पैरों से मसलती है

शोहरत की बुलंदी भी पल भर का तमाशा है

जिस डाल पे बैठे हो वो टूट भी सकती है

लोबान में चिंगारी जैसे कोई रख दे

यूँ याद तेरी शब भर सीने में सुलगती है

आ जाता है ख़ुद खींच कर दिल सीने से पटरी पर

जब रात की सरहद से इक रेल गुज़रती है

आँसू कभी पलकों पर ता देर नहीं रुकते

उड़ जाते हैं ये पंछी जब शाख़ लचकती है

ख़ुश रंग परिंदों के लौट आने के दिन आये

बिछड़े हुए मिलते हैं जब बर्फ़ पिघलती है

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