Monday, March 8, 2010

मैं ढूँढता हूँ जिसे वो जहाँ नहीं मिलता / कैफ़ी आज़मी

मैं ढूँढता हूँ जिसे वो जहाँ नहीं मिलता


नई ज़मीं नया आसमाँ नहीं मिलता

नई ज़मीं नया आसमाँ भी मिल जाये

नये बशर का कहीं कुछ निशाँ नहीं मिलता

वो तेग़ मिल गई जिस से हुआ है क़त्ल मेरा

किसी के हाथ का उस पर निशाँ नहीं मिलता

वो मेरा गाँव है वो मेरे गाँव के चूल्हे

कि जिन में शोले तो शोले धुआँ नहीं मिलता

जो इक ख़ुदा नहीं मिलता तो इतना मातम क्यूँ

यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलता

खड़ा हूँ कब से मैं चेहरों के एक जंगल में

तुम्हारे चेहरे का कुछ भी यहाँ नहीं मिलता

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