Thursday, July 22, 2010

प्यार-मोहब्बत की किताबी बातें हाँकने वालों से सिर्फ़ एक सवाल… यह मोहब्बत(?) वन-वे-ट्रैफ़िक क्यों है?

Love Jihad, Hindu-Muslim Love Relations, Conversion


मेरी पिछली पोस्ट “क्या लव जेहादी अधिक सक्रिय हो गये हैं…” के जवाब में मुझे कई टिप्पणियाँ प्राप्त हुईं और उससे भी अधिक ई-मेल प्राप्त हुए। जहाँ एक ओर बेनामियों (फ़र्जी नामधारियों) ने मुझे मानसिक चिकित्सक से मिलने की सलाह दे डाली, वहीं दूसरी ओर मेरी कुछ महिला पाठकों ने ई-मेल पर कहा कि मुस्लिम लड़के और हिन्दू लड़की के बारे में मेरी इस तरह की सोच “Radical” (कट्टर) और Communal (साम्प्रदायिक) है। ज़ाहिर है कि इस प्रकार की टिप्पणियाँ और ई-मेल प्राप्त होना एक सामान्य बात है। फ़िर भी मैंने “लव-जेहाद की अवधारणा” तथा “प्रेमी जोड़ों” द्वारा धर्म से ऊपर उठने, अमन-शान्ति की बातें करने आदि की तथाकथित हवाई और किताबी बातों का विश्लेषण करने और इतिहास में झाँकने की कोशिश की, तो ऐसे कई उदाहरण मिले जिसमें मेरी इस सोच को और बल मिला कि भले ही “लव जेहाद” नामक कोई अवधारणा स्पष्ट रूप से परिभाषित न हो, लेकिन हिन्दू-मुस्लिम के बीच प्यार-मुहब्बत के इस “खेल” में अक्सर मामला या तो इस्लाम की तरफ़ “वन-वे-ट्रैफ़िक” जैसा होता है, अथवा कोई “लम्पट” हिन्दू व्यक्ति अपनी यौन-पिपासा शान्त करने अथवा किसी लड़की को कैसे भी हो, पाने के लिये इस्लाम का सहारा लेते हैं। वन-वे ट्रैफ़िक का मतलब, यदि लड़का मुस्लिम है और लड़की हिन्दू है तो लड़की इस्लाम स्वीकार करेगी (चाहे नवाब पटौदी और शर्मिला टैगोर उर्फ़ आयेशा सुल्ताना हों अथवा फ़िरोज़ घांदी और इन्दिरा उर्फ़ मैमूना बेगम हों), लेकिन यदि लड़की मुस्लिम है और लड़का हिन्दू है, तो लड़के को ही इस्लाम स्वीकार करना पड़ेगा (चाहे वह कम्युनिस्ट इन्द्रजीत गुप्त हों या गायक सुमन चट्टोपाध्याय)…



ऊपर मैंने कुछ प्रसिद्ध लोगों के नाम लिये हैं जिनका समाज में उच्च स्थान “माना जाता है”, और ऐसे सेलेब्रिटी लोगों से ही युवा प्रेरणा लेते हैं, आईये देखें “लव जेहाद” के कुछ अन्य पुराने प्रकरण (आपके दुर्भाग्य से यह मेरी कल्पना पर आधारित नहीं हैं…सच्ची घटनाएं हैं)-



(1) जेमिमा मार्सेल गोल्डस्मिथ और इमरान खान – ब्रिटेन के अरबपति सर जेम्स गोल्डस्मिथ की पुत्री (21), पाकिस्तानी क्रिकेटर इमरान खान (42) के प्रेमजाल में फ़ँसी, उससे 1995 में शादी की, इस्लाम अपनाया (नाम हाइका खान), उर्दू सीखी, पाकिस्तान गई, वहाँ की तहज़ीब के अनुसार ढलने की कोशिश की, दो बच्चे (सुलेमान और कासिम) पैदा किये… नतीजा क्या रहा… तलाक-तलाक-तलाक। अब अपने दो बच्चों के साथ वापस ब्रिटेन। फ़िर वही सवाल – क्या इमरान खान कम पढ़े-लिखे थे? या आधुनिक(?) नहीं थे? जब जेमिमा ने इतना “एडजस्ट” करने की कोशिश की तो क्या इमरान खान थोड़ा “एडजस्ट” नहीं कर सकते थे? (लेकिन “एडजस्ट” करने के लिये संस्कारों की भी आवश्यकता होती है)…



(2) 24 परगना (पश्चिम बंगाल) के निवासी नागेश्वर दास की पुत्री सरस्वती (21) ने 1997 में अपने से उम्र में काफ़ी बड़े मोहम्मद मेराजुद्दीन से निकाह किया, इस्लाम अपनाया (नाम साबरा बेगम)। सिर्फ़ 6 साल का वैवाहिक जीवन और चार बच्चों के बाद मेराजुद्दीन ने उसे मौखिक तलाक दे दिया और अगले ही दिन कोलकाता हाइकोर्ट के तलाकनामे (No. 786/475/2003 दिनांक 2.12.03) को तलाक भी हो गया। अब पाठक खुद ही अन्दाज़ा लगा सकते हैं कि चार बच्चों के साथ घर से निकाली गई सरस्वती उर्फ़ साबरा बेगम का क्या हुआ होगा, न तो वह अपने पिता के घर जा सकती थी, न ही आत्महत्या कर सकती थी…



अक्सर हिन्दुओं और बाकी विश्व को मूर्ख बनाने के लिये मुस्लिम और सेकुलर विद्वान(?) यह प्रचार करते हैं कि कम पढ़े-लिखे तबके में ही इस प्रकार की तलाक की घटनाएं होती हैं, जबकि हकीकत कुछ और ही है। क्या इमरान खान या नवाब पटौदी कम पढ़े-लिखे हैं? तो फ़िर नवाब पटौदी, रविन्द्रनाथ टैगोर के परिवार से रिश्ता रखने वाली शर्मिला से शादी करने के लिये इस्लाम छोड़कर, बंगाली क्यों नहीं बन गये? यदि उनके “सुपुत्र”(?) सैफ़ अली खान को अमृता सिंह से इतना ही प्यार था तो सैफ़, पंजाबी क्यों नहीं बन गया? अब इस उम्र में अमृता सिंह को बच्चों सहित बेसहारा छोड़कर करीना कपूर से इश्क की पींगें बढ़ा रहा है, और उसे भी इस्लाम अपनाने पर मजबूर करेगा, लेकिन खुद पंजाबी नहीं बनेगा (यही है असली मानसिकता…)।



शेख अब्दुल्ला और उनके बेटे फ़ारुख अब्दुल्ला दोनों ने अंग्रेज लड़कियों से शादी की, ज़ाहिर है कि उन्हें इस्लाम में परिवर्तित करने के बाद, यदि वाकई ये लोग सेकुलर होते तो खुद ईसाई धर्म अपना लेते और अंग्रेज बन जाते…? और तो और आधुनिक जमाने में पैदा हुए इनके पोते यानी कि जम्मू-कश्मीर के वर्तमान मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने भी एक हिन्दू लड़की “पायल” से शादी की, लेकिन खुद हिन्दू नहीं बने, उसे मुसलमान बनाया, तात्पर्य यह कि “सेकुलरिज़्म” और “इस्लाम” का दूर-दूर तक आपस में कोई सम्बन्ध नहीं है और जो हमें दिखाया जाता है वह सिर्फ़ ढोंग-ढकोसला है। जैसे कि गाँधीजी की पुत्री का विवाह एक मुस्लिम से हुआ, सुब्रह्मण्यम स्वामी की पुत्री का निकाह विदेश सचिव सलमान हैदर के पुत्र से हुआ है, प्रख्यात बंगाली कवि नज़रुल इस्लाम, हुमायूं कबीर (पूर्व केन्द्रीय मंत्री) ने भी हिन्दू लड़कियों से शादी की, क्या इनमें से कोई भी हिन्दू बना? अज़हरुद्दीन भी अपनी मुस्लिम बीबी नौरीन को चार बच्चे पैदा करके छोड़ चुके और अब संगीता बिजलानी से निकाह कर लिया, उन्हें कोई अफ़सोस नहीं, कोई शिकन नहीं। ऊपर दिये गये उदाहरणों में अपनी बीवियों और बच्चों को छोड़कर दूसरी शादियाँ करने वालों में से कितने लोग अनपढ़ या कम पढ़े-लिखे हैं? तब इसमें शिक्षा-दीक्षा का कोई रोल कहाँ रहा? यह तो विशुद्ध लव-जेहाद है।



इसीलिये कई बार मुझे लगता है कि सानिया मिर्ज़ा के शोएब के साथ पाकिस्तान जाने पर हायतौबा करने की जरूरत नहीं है, मुझे विश्वास है कि 2-4 बच्चे पैदा करने के बाद “रंगीला रसिया” शोएब मलिक उसे “छोड़” देगा और दुरदुराई हुई सानिया मिर्ज़ा अन्ततः वापस भारत में ही पनाह लेगी, और उस वक्त भी उससे सहानुभूति जताने में नारीवादी और सेकुलर संगठन ही सबसे आगे होंगे।



वहीदा रहमान ने कमलजीत से शादी की, वह मुस्लिम बने, अरुण गोविल के भाई ने तबस्सुम से शादी की, मुस्लिम बने, डॉ ज़ाकिर हुसैन (पूर्व राष्ट्रपति) की लड़की ने एक हिन्दू से शादी की, वह भी मुस्लिम बना, एक अल्पख्यात अभिनेत्री किरण वैराले ने दिलीपकुमार के एक रिश्तेदार से शादी की और गायब हो गई।



प्रख्यात (या कुख्यात) गाँधी-नेहरु परिवार के मुस्लिम इतिहास के बारे में तो सभी जानते हैं। ओपी मथाई की पुस्तक के अनुसार राजीव के जन्म के तुरन्त बाद इन्दिरा और फ़िरोज़ की अनबन हो गई थी और वह दोनों अलग-अलग रहने लगे थे। पुस्तक में इस बात का ज़िक्र है कि संजय (असली नाम संजीव) गाँधी, फ़िरोज़ की सन्तान नहीं थे। मथाई ने इशारों-इशारों में लिखा है कि मेनका-संजय की शादी तत्कालीन सांसद और वरिष्ठ कांग्रेस नेता मोहम्मद यूनुस के घर सम्पन्न हुई, तथा संजय गाँधी की मौत के बाद सबसे अधिक फ़ूट-फ़ूटकर रोने वाले मोहम्मद यूनुस ही थे। यहाँ तक कि मोहम्मद यूनुस ने खुद अपनी पुस्तक “Persons, Passions & Politics” में इस बात का जिक्र किया है कि संजय गाँधी का इस्लामिक रिवाजों के मुताबिक खतना किया गया था।



इस कड़ी में सबसे आश्चर्यजनक नाम है भाकपा के वरिष्ठ नेता इन्द्रजीत गुप्त का। मेदिनीपुर से 37 वर्षों तक सांसद रहने वाले कम्युनिस्ट (जो धर्म को अफ़ीम मानते हैं), जिनकी शिक्षा-दीक्षा सेंट स्टीफ़ेंस कॉलेज दिल्ली तथा किंग्स कॉलेज केम्ब्रिज में हुई, 62 वर्ष की आयु में एक मुस्लिम महिला सुरैया से शादी करने के लिये मुसलमान (इफ़्तियार गनी) बन गये। सुरैया से इन्द्रजीत गुप्त काफ़ी लम्बे समय से प्रेम करते थे, और उन्होंने उसके पति अहमद अली (सामाजिक कार्यकर्ता नफ़ीसा अली के पिता) से उसके तलाक होने तक उसका इन्तज़ार किया। लेकिन इस समर्पणयुक्त प्यार का नतीजा वही रहा जो हमेशा होता है, जी हाँ, “वन-वे-ट्रेफ़िक”। सुरैया तो हिन्दू नहीं बनीं, उलटे धर्म को सतत कोसने वाले एक कम्युनिस्ट इन्द्रजीत गुप्त “इफ़्तियार गनी” जरूर बन गये।



इसी प्रकार अच्छे खासे पढ़े-लिखे अहमद खान (एडवोकेट) ने अपने निकाह के 50 साल बाद अपनी पत्नी “शाहबानो” को 62 वर्ष की उम्र में तलाक दिया, जो 5 बच्चों की माँ थी… यहाँ भी वजह थी उनसे आयु में काफ़ी छोटी 20 वर्षीय लड़की (शायद कम आयु की लड़कियाँ भी एक कमजोरी हैं?)। इस केस ने समूचे भारत में मुस्लिम पर्सनल लॉ पर अच्छी-खासी बहस छेड़ी थी। शाहबानो को गुज़ारा भत्ता देने के लिये सुप्रीम कोर्ट की शरण लेनी पड़ी, सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को राजीव गाँधी ने अपने असाधारण बहुमत के जरिये “वोटबैंक राजनीति” के चलते पलट दिया, मुल्लाओं को वरीयता तथा आरिफ़ मोहम्मद खान जैसे उदारवादी मुस्लिम को दरकिनार किया गया… तात्पर्य यही कि शिक्षा-दीक्षा या अधिक पढ़े-लिखे होने से भी कोई फ़र्क नहीं पड़ता, शरीयत और कुर-आन इनके लिये सर्वोपरि है, देश-समाज आदि सब बाद में…।



(यदि इतना ही प्यार है तो “हिन्दू” क्यों नहीं बन गये? मैं यह बात इसलिये दोहरा रहा हूं, कि आखिर मुस्लिम बनाने की जिद क्यों? इसके जवाब में तर्क दिया जा सकता है कि हिन्दू कई समाजों-जातियों-उपजातियों में बँटा हुआ है, यदि कोई मुस्लिम हिन्दू बनता है तो उसे किस वर्ण में रखेंगे? हालांकि यह एक बहाना है क्योंकि इस्लाम के कथित विद्वान ज़ाकिर नाइक खुद फ़रमा चुके हैं कि इस्लाम “वन-वे ट्रेफ़िक” है, कोई इसमें आ तो सकता है, लेकिन इसमें से जा नहीं सकता…(यहाँ देखें http://blog.sureshchiplunkar.com/2010/02/zakir-naik-islamic-propagandist-indian.html)। लेकिन चलो बहस के लिये मान भी लें, कि जाति-वर्ण के आधार पर आप हिन्दू नहीं बन सकते, लेकिन फ़िर सामने वाली लड़की या लड़के को मुस्लिम बनाने की जिद क्योंकर? क्या दोनो एक ही घर में अपने-अपने धर्म का पालन नहीं कर सकते? मुस्लिम बनना क्यों जरूरी है? और यही बात उनकी नीयत पर शक पैदा करती है)



एक बात और है कि धर्म परिवर्तन के लिये आसान निशाना हमेशा होते हैं “हिन्दू”, जबकि ईसाईयों के मामले में ऐसा नहीं होता, एक उदाहरण और देखिये –



पश्चिम बंगाल के एक गवर्नर थे ए एल डायस (अगस्त 1971 से नवम्बर 1979), उनकी लड़की लैला डायस, एक लव जेहादी ज़ाहिद अली के प्रेमपाश में फ़ँस गई, लैला डायस ने जाहिद से शादी करने की इच्छा जताई। गवर्नर साहब डायस ने लव जेहादी को राजभवन बुलाकर 16 मई 1974 को उसे इस्लाम छोड़कर ईसाई बनने को राजी कर लिया। यह सारी कार्रवाई तत्कालीन कांग्रेसी मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर राय की देखरेख में हुई। ईसाई बनने के तीन सप्ताह बाद लैला डायस की शादी कोलकाता के मिडलटन स्थित सेंट थॉमस चर्च में ईसाई बन चुके जाहिद अली के साथ सम्पन्न हुई। इस उदाहरण का तात्पर्य यह है कि पश्चिमी माहौल में पढ़े-लिखे और उच्च वर्ग से सम्बन्ध रखने वाले डायस साहब भी, एक मुस्लिम लव जेहादी की “नीयत” समझकर उसे ईसाई बनाने पर तुल गये। लेकिन हिन्दू माँ-बाप अब भी “सहिष्णुता” और “सेकुलरिज़्म” का राग अलापते रहते हैं, और यदि कोई इस “नीयत” की पोल खोलना चाहता है तो उसे “साम्प्रदायिक” कहते हैं। यहाँ तक कि कई लड़कियाँ भी अपनी धोखा खाई हुई सहेलियों से सीखने को तैयार नहीं, हिन्दू लड़के की सौ कमियाँ निकाल लेंगी, लेकिन दो कौड़ी की औकात रखने वाले मुस्लिम जेहादी के बारे में पूछताछ करना उन्हें “साम्प्रदायिकता” लगती है…



इस मामले में एक “एंगल” और है, वह है “लम्पट” और बहुविवाह की लालसा रखने वाले हिन्दुओं का… धर्मेन्द्र-हेमामालिनी का उदाहरण तो हमारे सामने है ही कि किस तरह से हेमा से शादी करने के लिये धर्मेन्द्र झूठा शपथ-पत्र दायर करके मुसलमान बने…। दूसरा केस चन्द्रमोहन (चाँद) और अनुराधा (फ़िज़ा) का है, दोनों प्रेम में इतने अंधे और बहरे हो गये थे कि एक-दूसरे को पाने के लिये इस्लाम स्वीकार कर लिया। ऐसा ही एक और मामला है बंगाल के गायक सुमन चट्टोपाध्याय का… सुमन एक गीतकार-संगीतकार और गायक भी हैं। ये साहब जादवपुर सीट से लोकसभा के लिये भी चुने गये हैं। एक इंटरव्यू में वह खुद स्वीकार कर चुके हैं कि वह कभी एक औरत से संतुष्ट नहीं हो सकते, और उन्हें ढेर सारी औरतें चाहिये। अब एक बांग्लादेशी गायिका सबीना यास्मीन से शादी(?) करने के लिये इन्होंने इस्लाम स्वीकार कर लिया है, यह इनकी पाँचवीं शादी है, और अब इनका नाम है सुमन कबीर। आश्चर्य तो इस बात का है कि इस प्रकार के लम्पट किस्म के और इस्लामी शरीयत कानूनों का अपने फ़ायदे के लिये इस्तेमाल करने वाले लोगों को, मुस्लिम भाई बर्दाश्त कैसे कर लेते हैं?



मुझे यकीन है कि, मेरे इस लेख के जवाब में मुझे सुनील दत्त-नरगिस से लेकर रितिक रोशन-सुजैन खान तक के (गिनेचुने) उदाहरण सुनने को मिलेंगे, लेकिन फ़िर भी मेरा सवाल वही रहेगा कि क्या सुनील दत्त या रितिक रोशन ने अपनी पत्नियों को हिन्दू धर्म ग्रहण करवाया? या शाहरुख खान ने गौरी के प्रेम में हिन्दू धर्म अपनाया? नहीं ना? जी हाँ, वही वन-वे-ट्रैफ़िक!!!!



सवाल उठना स्वाभाविक है कि ये कैसा प्रेम है? यदि वाकई “प्रेम” ही है तो यह वन-वे ट्रैफ़िक क्यों है? इसीलिये सभी सेकुलरों, प्यार-मुहब्बत-भाईचारे, धर्म की दीवारों से ऊपर उठने आदि की हवाई-किताबी बातें करने वालों से मेरा सिर्फ़ एक ही सवाल है, “कितनी मुस्लिम लड़कियों (अथवा लड़कों) ने “प्रेम”(?) की खातिर हिन्दू धर्म स्वीकार किया है?” मैं इसका जवाब जानने को बेचैन हूं।



मुझे “कट्टर” और Radical साबित करने और मुझे अपनी गलती स्वीकार करने के लिये कृपया आँकड़े और प्रसिद्ध व्यक्तियों के आचरण द्वारा सिद्ध करें, कि “भाईचारे”(?) की खातिर कितने मुस्लिम लड़के अपनी हिन्दू प्रेमिका की खातिर हिन्दू धर्म में आये? यदि आँकड़े और तथ्य आपके पक्ष में हुए तो मैं खुशी-खुशी आपसे माफ़ी माँग लूंगा… मैं इन्तज़ार कर रहा हूं… यदि नहीं, तो हकीकत को पहचानिये और मान लीजिये कि कुछ न कुछ गड़बड़ अवश्य है। अपनी लड़कियों को अच्छे संस्कार दीजिये और अच्छे-बुरे की पहचान करना सिखाईये। सबसे महत्वपूर्ण बात कि यदि लड़की के सच्चे प्रेम में कोई मुसलमान युवक, हिन्दू धर्म अपनाने को तैयार होता है तो उसका स्वागत खुले दिल से कीजिये…

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(इस लेख में उल्लेखित घटनाएं असली जिन्दगी से सरोकार रखती हैं तथा बंगाली लेखक रबिन्द्रनाथ दत्ता की पुस्तक “The Silent Terror” से ली गई हैं)



http://www.faithfreedom.org/islam/why-hindu-or-non-muslim-girl-must-not-marry-muslim-part-3-0



(यदि बोर हो गये हों, तो इतना लम्बा लेख लिखने के लिये मुझे माफ़ करें, लेकिन आठ-दस दिनों के लम्बे अन्तराल के बाद इतना बड़ा लेख तो बनता ही है, फ़िर तथ्यों, घटनाओं और आँकड़ों के कारण लेख की लम्बाई बढ़ना स्वाभाविक भी है)

क्या "लव जेहादी" अधिक सक्रिय होते जा रहे हैं…? (संदर्भ-नागपुर केस)...

 Love Jehad, Hindu Girls and Muslim Youth




नागपुर के भानखेड़ा इलाके में योगेश्वर साखरे का परिवार रहता है, कुछ दिनों पहले तक यह एक सामान्य खुशहाल परिवार था। एक पुत्र प्रतीक (28), बड़ी पुत्री पल्लवी (20) और उससे छोटी रिंकू। लगभग सवा माह पहले एक गम्भीर बीमारी की वजह से प्रतीक की मृत्यु हो गई, और जब प्रतीक के गुज़रने के सवा महीने बाद उसके क्रियाकर्म संस्कार की रस्म निभाई जा रही थी, ठीक उसी दिन पल्लवी की मौत की खबर आई।
पल्लवी की लाश नागपुर के एक सार्वजनिक शौचालय में पाई गई और पोस्टमार्टम रिपोर्ट से पता चला कि वह चार माह की गर्भवती भी थी। पल्लवी का गला उसी के कुर्ते से घोंटा गया था और उसकी अर्धनग्न लाश पर कुछ घाव भी पाये गये। गहन तफ़्तीश और मोबाइल रिकॉर्ड की छानबीन के बाद पुलिस ने मोहम्मद शमीम (25) नामक एक शख्स को गिरफ़्तार किया है। मोहम्मद शमीम पहले से शादीशुदा है और नौ माह की बच्ची का बाप भी। हालांकि इस मामले में पुलिस ने अब तक सिर्फ़ हत्या का मामला दर्ज किया है, बलात्कार का नहीं, लेकिन कानूनी विशेषज्ञों से सलाह-मशविरा किया जा रहा है। पल्लवी साखरे, नागपुर के PWS कॉलेज में बीए प्रथम वर्ष की छात्रा थी, जबकि शमीम एक कारपेंटर (बढ़ई) है।


पुलिस जाँच में पता चला है कि पल्लवी और शमीम के रिश्ते 2 साल से थे, और इसके पहले भी पल्लवी एक बार गर्भपात करवा चुकी थी। सूत्रों के मुताबिक पल्लवी शमीम से दूसरे गर्भपात के लिये पैसा माँग रही थी साथ ही उस पर शादी के लिये दबाव भी बना रही थी, तथा 7 मार्च (रविवार) को उसने उसके घर आकर हंगामा करने की धमकी भी दी थी। पुलिस के अनुसार शमीम ने उसे मिलने के लिये बुलाया और उनके बीच हुई गर्मागर्मी के बाद शमीम ने उसका गला घोंट दिया और लाश को सार्वजनिक शौचालय में छिपा दिया, जहाँ से वह तड़के 8 मार्च को बरामद हुई। पुलिस की मार खाने के बाद शमीम ने बताया है कि उसकी पत्नी रिज़वाना सुल्तान को यह बात पता थी और उसे उसकी दूसरी शादी से कोई आपत्ति नहीं थी। पल्लवी की छोटी बहन रिंकू ने बताया कि पल्लवी के सेलफ़ोन पर शनिवार रात 10 बजे शमीम का फ़ोन आया था और उसके बाद से वह गायब हो गई, चूंकि परिवार पहले से ही युवा पुत्र के गम में डूबा था और कर्मकाण्ड के कार्यक्रम की तैयारियों में व्यस्त था इसलिये उन्होंने तुरन्त पुलिस को खबर करने में कोताही बरती, और शायद यही पल्लवी की मौत का कारण बना। नागपुर नगरनिगम में कार्यरत योगेश्वर और शारदाबाई साखरे के परिवार पर डेढ़ माह के भीतर यह दूसरा वज्रपात हुआ।
यह तो हुआ घटना का विवरण, लेकिन इससे उठने वाले सवाल बहुत गम्भीर हैं और एक सामाजिक समस्या के साथ-साथ “लव जेहादियों” की घृणित मानसिकता को भी दर्शाती है।
1) एक अच्छे परिवार की पढ़ी-लिखी लड़की, किसी कम पढ़े-लिखे और शादीशुदा मुस्लिम के जाल में कैसे फ़ँस गई?
2) दो साल से शोषण करवा रही, और एक बार गर्भपात करवा चुकी उस मूर्ख लड़की को क्या तब भी पता नहीं चला कि मोहम्मद शमीम की नीयत ठीक नहीं है?
3) आखिर पढ़ी-लिखी हिन्दू लड़कियाँ, किस प्रकार से कारपेंटर, ऑटो रिक्शा चालक, सब्जी बेचने वाले ( यहाँ तक कि बेरोज़गार) मुसलमान युवकों के जाल में फ़ँस जाती हैं? क्या तथाकथित प्रेम(?) करने के दौरान उनकी अक्ल घास चरने चली जाती है?
4) शमीम की बीवी उसकी दूसरी शादी के लिये सहमत थी (और बेचारी करती भी क्या?) फ़िर भी शमीम की नीयत यही थी कि पल्लवी का देह-शोषण करता रहे, और जिम्मेदारी से बचा भी रहे। यह मानसिकता क्या प्रदर्शित करती है?
5) क्या यह माना जाये कि हिन्दू लड़कियों को अधिक स्वतन्त्रता प्राप्त है इसलिये ऐसे मामले आजकल अधिक हो रहे हैं?
6) जब भी इस प्रकार का मामला (हिन्दू लड़की – मुसलमान लड़का) होता है, और हिन्दू संगठन अथवा राजनैतिक दल विरोध करते हैं तो हिन्दुओं के भीतर से ही उनका विरोध शुरु हो जाता है, इस मानसिकता को क्या कहा जाये? (सन्दर्भ - कोलकाता का रिज़वान-तोड़ी मामला)
7) जबकि ठीक इसके उलट (हिन्दू लड़का-मुस्लिम लड़की) का मामला सामने आता है तब मुसलमानों की तरफ़ से जमकर, एकजुट और परिणामकारक (सेकुलर) विरोध और जोड़तोड़ होता है (सन्दर्भ - कश्मीर का रजनीश-अमीना यूसुफ़ मामला)।
8) कर्नाटक और केरल हाईकोर्ट भी प्रथम दृष्टया मान चुके हैं कि भले ही “लव जेहाद” नाम की कोई आधिकारिक परिभाषा न हो, लेकिन पिछले 5 वर्षों में इन दोनों राज्यों की 2000 से अधिक लड़कियों में से… कुछ गायब हुई हैं, कुछ की मौत संदिग्ध स्थितियों में हुई, जबकि कुछ ने धर्म परिवर्तन किया, तो निश्चित ही कुछ न कुछ गड़बड़ है… (इसी प्रकार कुछ शहरों में “MMS ब्लैकमेल काण्ड” में भी जो लड़के पकड़ाये हैं उनमें से अधिकतर मुस्लिम ही हैं, जिन्होंने हिन्दू लड़कियों को फ़ँसाकर उनके अश्लील चित्र नेट पर अपलोड किये थे)।

http://hinduexistence.wordpress.com/2009/12/10/love-jihad-is-real-says-kerala-high-court-islamic-love-racket-in-india-for-conversion/

और तो और लन्दन से भी ऐसे मामले सामने आने लगे हैं…
http://www.dailymail.co.uk/news/article-437871/Police-protect-girls-forced-convert-Islam.html
9) महिला आरक्षण का विरोध करने वालों में मुस्लिम सांसद सबसे आगे और मुखर थे, तो क्या उन सांसदों को किसी ने “पिंक चड्डी” भेजने का मन बनाया है? (कल्बे जव्वाद ने तो अपरोक्ष रूप से औरतों को बच्चे पैदा करने की मशीन तक बता डाला)
बहरहाल बाकी के सवाल तो बाद में खड़े होते हैं, मुख्य सवाल पहला वाला है कि “माना, कि प्यार अंधा होता है, लेकिन क्या प्यार बहरा और मूर्ख भी होता है?” जिसके चलते हिन्दू लड़कियाँ ऐसे-ऐसे मुस्लिम नौजवानों के जाल में फ़ँस जाती हैं जिनकी औकात भी नहीं उनके परिवार के साथ उठने-बैठने की?

(सैफ़ अली खान, आमिर खान जैसों की बात अलग है, वह दो-दो हिन्दू लड़कियों को फ़ँसाना “अफ़ोर्ड” कर सकते हैं… तथा करीना या किरण राव जिस “समाज” में रहती हैं, वह समाज भी बाकी के भारत से अलग-थलग और कटा हुआ है)।
कहने का मतलब कि, यह सिर्फ़ धार्मिक समस्या नहीं, बल्कि सामाजिक और मनोवैज्ञानिक समस्या भी है, और हमें मिलकर चिन्तन करने की आवश्यकता है कि - 1) ऐसे मामले पिछले कुछ वर्षो में अचानक क्यों बढ़ गये हैं? 2) क्या “लव जेहादी” अत्यधिक सक्रिय हो गये हैं? इसी प्रकार ऐसे मामलों में दोनों धर्मों के लोगों की “प्रतिक्रिया की मानसिकता” का अध्ययन भी किया जाना चाहिये… कि 3) हिन्दू “ऐसा” रिएक्ट क्यों करते हैं तथा मुस्लिम “वैसा” रिएक्ट क्यों करते हैं? 4) यह डाटा भी एकत्रित किया जाना चाहिये कि परदे और घुटन से बाहर आ चुकी कितनी मुस्लिम लड़कियों ने हिन्दू लड़कों से प्रेम (या शादी) की है? ताकि सही-सही स्थिति पता चल सके…
बहरहाल, समाजशास्त्रियों, शोधकर्ताओं और मनोवैज्ञानिकों के लिये कई मुद्दों पर बहुत सारा काम इकठ्ठा कर दिया है मैने…। अब प्रगतिशील महिलाएं, मुझे कोसने के लिये स्वतन्त्र हैं और धर्मनिरपेक्षतावादी, मुझे गरियाने के लिये…। यदि कोई “लव जेहाद” को समस्या मानने से ही इंकार कर दे तो मैं कुछ नहीं कर सकता… जो मेरा काम था (सूचना देना) वह मैंने कर दिया… बाकी की समीक्षा, विश्लेषण, अध्ययन वगैरह बुद्धिजीवियों का शगल है, वे करेंगे ही, मैं बुद्धिजीवी तो कतई नहीं हूँ…।

आप भी एक "सलाह" (I repeat, सलाह) के रूप में (वरना "हिन्दुओं" के लिये रिज़र्व की गई पिंक चड्डी आपके माथे आयेगी…) इस पोस्ट के मुद्दों को अपनी सहेलियों, बहनों और भाईयों को भेजें… उसके बाद भी वे नहीं मानतीं तो यह उनकी चॉइस होगी…। आखिर हम लोग "कोड़े" - "बुरके" वाले तालिबानी तो हैं नहीं…कि जबरदस्ती करें…

[अचानक इस पोस्ट को लिखने का विचार इसलिये आया कि इधर उज्जैन में भी ऐसी ही एक "खिचड़ी" पक रही है, लड़की बीएससी फ़र्स्ट क्लास है और एक निजी कम्पनी में कार्यरत है, जबकि लड़का (लव जेहादी) बमुश्किल 11वीं पास है…। लड़की का बाप एक प्रतिष्ठित कपड़ा व्यवसायी है, जबकि लव जेहादी कहने को तो प्रापर्टी ब्रोकर है (लेकिन असल में मकान खाली करवाने वाला गुण्डा है)… ऐसे में भला कौन सा समझदार बाप अपनी लड़की को आत्महत्या करने देगा, लेकिन लड़की उसी से शादी करने पर आमादा है। यह बात खुलते-खुलते लगभग सभी लोग जान गये हैं, लेकिन "बाहरी लोग" इस मामले में तब तक दखल नहीं दे सकते, जब तक लड़की का बाप न चाहे…। लड़की का बाप प्रतिष्ठा और इज्जत बचाने के चक्कर में दोनों को समझाने-बुझाने में लगा हुआ है… लड़की समझ नहीं रही और लव जेहादी समझना नहीं चाहता…। इस केस में लव जेहादी शादीशुदा तो नहीं है, लेकिन दोनों के बीच की सामाजिक-आर्थिक-शैक्षणिक खाई इतनी चौड़ी है कि लड़की की "प्रेम-अक्ल" पर तरस आता है…। मामला संवेदनशील है, तथा बखेड़ा खड़ा न हो जाये इसलिये बाहरी लोग अभी चुपचाप तमाशा देख रहे हैं… देखते हैं आगे क्या होता है]



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स्रोत - http://timesofindia.indiatimes.com/city/nagpur/Lover-murders-pregnant-girlfriend-in-public-loo/articleshow/5656034.cms

कोचिंग क्लास वालों, इतना क्यों इतराते हो?

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जून के महीने में अखबार पढ़ना एक बेहद त्रासदायक और संतापदायक काम होता है, आप सोचेंगे ऐसा क्यों? असल में मई के आखिरी सप्ताह या जून के पहले सप्ताह देश में “रिजल्ट” का मौसम होता है। दसवीं, बारहवीं, पीईटी, पीएमटी, आईआईटी-जेईई, और भी न जाने क्या-क्या लगातार रिजल्ट आते ही रहते हैं। जाहिर है कि रिजल्ट आयेंगे तो “सबसे ज्यादा मुनाफ़े वाले धंधेबाज” यानी कि कोचिंग क्लास वाले मानो पूरा का पूरा अखबार ही खरीद लेते हैं। रिजल्ट के अगले ही दिन फ़ुल पेज के विज्ञापन झलकने लगते हैं, “हमने ऐसा तीर मारा, हमारे यहाँ के अलाँ-फ़लाँ स्टूडेंट ने ये तोप मारी आदि-आदि”। विज्ञापन भी एक-दूसरे कोचिंग क्लास वालों को आपस में नीचा दिखाने की भाषा में किये जाते हैं… “मार लिया मैदान…”, “क्रैक करके रख दिया”, “है कोई दूसरा हमारे जैसा”, “हम ही हैं सिरमौर…” जैसे हेडिंग वाले भड़काऊ विज्ञापन दिये जाते हैं। अखबार वालों का क्या जा रहा है, उन्हें तो खासी मोटी रकम वाली कमाई हो रही है (मुश्किल हम जैसे मूर्खों की होती है जो तीन-चार रुपये का अखबार खरीदते हैं, जिसमें पढ़ने के लिये दो या तीन पेज ही होते हैं, बाकी के पेज कोचिंग क्लासेस, केन्द्र या राज्य सरकार की कोई फ़ालतू सी योजना, किसी कमीने नेता के जन्मदिन की बधाईयाँ, बाइक-मोबाइल-कार-फ़्रिज-टीवी बेचने के लिये फ़ूहड़ता… आदि होता है) और कोचिंग वालों का भी क्या लग रहा है “तेरा तुझको अर्पण…” की तर्ज पर पालकों से झटकी हुई मोटी रकम में से थोड़ा सा खर्च कर दिया, ताकि अगले साल के “कटने वाले बकरे” पहले से ही बुक किये जा सकें । एक ही छात्र की तस्वीर दो-तीन-चार कोचिंग क्लास वालों के विज्ञापन में दिखाई दे जाती है। यह संभव ही नहीं कि कोई छात्र एक साथ इतनी सारी कोचिंग क्लास में जा सकता है, लेकिन खामख्वाह “झाँकी” जमाने में क्या जा रहा है, कौन उनसे इस बाबत पूछताछ करने वाला है। रिजल्ट आते ही एक तरह का मकड़जाल बुन लिया जाता है, तरह-तरह के दावे और लुभावने विज्ञापन देकर “हम ही श्रेष्ठ हैं, बाकी सब तो बेकार हैं” का भाव पैदा किया जाता है।



यह खबर सबने सुनी होगी कि बिहार में शौकिया तौर पर गरीब छात्रों के लिये आईआईटी की क्लासेस चलाने वाले “सुपर-30” में सभी 30 गरीब छात्रों का चयन आईआईटी के लिये हो गया है (पिछले वर्ष यह 30 में से 28 था), अर्थात लगभग 100% छात्र सफ़ल। धन्य हैं श्री अभयानन्द जी जिन्होंने यह प्रकल्प हाथ में लिया है। अब नजर डालते हैं कोटा की महान(?) कोचिंग संस्थाओं पर… अव्वल तो ये लोग कभी भी विज्ञापन देकर जाहिर नहीं करते कि उनके यहाँ कुल कितने छात्रों ने प्रवेश लिया। लेकिन हाल ही में एक विज्ञापन देखकर पता चला कि एक “बड़ी” कोचिंग क्लास ने लिखा “1547 छात्रों में से 184 का चयन”, एक और उभरती हुई कोचिंग संस्था ने बताया कि कुल “48 छात्रों में से 4 का चयन आईआईटी-एआईईईई में”। अब खुद ही हिसाब लगाइये कि कितना प्रतिशत हुआ? मुश्किल से 12-14% सफ़लता!!! इस सड़ी सी बात पर इतना क्या इतराना? क्यों इतना डंका पीटना? अरे तुमसे दस गुना अच्छे तो “सुपर-30” वाले हैं, जिनके पास न तो चिकने पन्नों वाले ब्रोशर हैं, न ही एसी रूम हैं, न उनकी फ़ैकल्टी फ़ाइव स्टार में रुकती है, न ही वे मोटी फ़ीस वसूलते हैं, फ़िर भी उनका रिजल्ट लगभग 100% है, तो कोटा में “शिक्षा इंडस्ट्री” चलाने वाले किस बात पर गर्व करते हैं? अच्छा, एक बात और है… ये कथित महान कोचिंग क्लासेस वाले अपने यहाँ छात्रों को प्रवेश कैसे देते हैं… सबसे पहले वे 85-90 प्रतिशत अंक से कम लाने वाले को साफ़ मना कर देते हैं। फ़िर उच्च अंक लाने वाले बेहतरीन तीक्ष्ण बुद्धि वाले लड़के छाँटे जाते हैं, उनमें भी एक “एन्ट्रेन्स परीक्षा” आयोजित की जाती है, उसमें जो सफ़ल होते हैं उन्हें ही कोटा में प्रवेश मिलता है… इसका मतलब यह कि दूध में से क्रीम निकालने के बाद उस क्रीम को भी फ़ेंटकर सबसे बढ़िया घी निकाल लिया, फ़िर दावा करते हैं कि 1547 छात्रों में से 184 का चयन???? अरे भाई तुम तो पहले से ही कुशाग्र बुद्धि वाले लड़के छाँट चुके हो, फ़िर भी इतना कम सफ़लता प्रतिशत?? उम्दा किस्म का “हीरा” पहले से ही तुम्हारे पास है, सिर्फ़ उसे तराशना है, फ़िर भी??? यदि इतने ही शूरवीर(?) हो, तो किसी गरीब लड़के को जिसके 80 प्रतिशत नम्बर आये हों, मुफ़्त में पढ़ाकर दिखाओ और उसका सिलेक्शन आईआईटी में करवाओ। जब तुम्हें मालूम है कि आईआईटी में सिर्फ़ 6000-6500 सीटें हैं, तो एक साल के लिये ऐसा करके दिखाओ कि सब बड़े-बड़े कोचिंग वाले आपस में मिलकर सिर्फ़ और सिर्फ़ 8000 छात्रों को प्रवेश दो, और उसमें से ज्यादा नहीं तो 5000 सिलेक्शन करवा के दिखा दो, तो माना जाये कि वाकई में तुम्हारी शिक्षा(?) में कुछ दम है।



एक पेंच और है, जब इस “महान” देश में IAS, IPS की परीक्षा तक में धांधली हो जाती है, “मुन्नाभाई” किसी अन्य की जगह जाकर परीक्षा दे आते हैं, पैसा देकर पेपर आउट हो जाते हैं, होटलों में बैठकर परीक्षापत्र हल किये जाते हैं, तो क्या गारंटी है कि IIT, IIM, AIEEE की परीक्षा भी बेदाग होती होगी??? बड़े कोचिंग संस्थान जिनकी आमदनी करोड़ों में है, क्या “ऊपर” तक सेटिंग नहीं कर सकते? भारत जैसे “बिकाऊ लोगों के देश" में बिलकुल कर सकते हैं।



अब आते हैं खर्चों पर… एक छात्र की फ़ीस तीस हजार से पचास हजार (जैसी दुकान हो उस हिसाब से), 11वी-12वीं पास करवाने की गारंटी की जुगाड़ की फ़ीस अलग से, उस छात्र का रहना-खाना आदि का खर्च 5 से 10 हजार प्रतिमाह, इसके अलावा पुस्तकें, स्टेशनरी, परीक्षायें दिलवाने के खर्च, बीच-बीच में घर आने-जाने का खर्चा… कहने का मतलब यह कि एक लड़के पर दो साल में कम से कम तीन-चार लाख रुपये खर्च होता है, इसके बाद भी इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि बेचारे का सिलेक्शन IIT नहीं, तो AIEEE नहीं, तो किसी अच्छे कॉलेज में ही हो जाये, और यदि हो भी जाये तो फ़िर से खर्चों की नई ABCD शुरु होगी वह अलग है, और सिलेक्शन नहीं हुआ तो तीन-चार लाख गये पानी में? बताइये इतना बड़ा जुआ खेलने की ताकत भारत के कितने प्रतिशत परिवारों में है? क्या यह भी एक प्रकार का आर्थिक आरक्षण नहीं है? क्योंकि मैंने ऐसे कई गरीब-निम्न मध्यमवर्गीय परिवार देखे हैं, जिनमें बच्चों ने 12वीं में 80-85 प्रतिशत तक अंक लाये हैं, लेकिन वे लोग पहले से ही इस “खेल” से बाहर हैं, क्योंकि वे बेचारे तो बड़े कोचिंग संस्थानों के दरवाजे में भी घुसने से डरते हैं। लेकिन हमारी “नौकरी पाने पर आधारित” शिक्षा व्यवस्था का यह एक दर्दनाक पहलू है कि हरेक पालक को इंजीनियर, डॉक्टर ही चाहिये, चाहे उसके लिये कुछ भी करना पड़े, आँखों में एक सपना लिये माँ-बाप दिन-रात खटते रहते हैं, लेकिन अन्य किसी विकल्प पर विचार तक नहीं करते। छोटे-छोटे कस्बों में ही तीन-तीन टेक्निकल कॉलेज खुल गये हैं, जिसमें 12वीं में सप्लीमेंट्री पाये हुए लड़के को भी एडमिशन दे दिया जाता है, फ़िर वह जैसे-तैसे धक्के खाते-खाते चार या पाँच साल में 60-70 प्रतिशत वाली डिग्री हाथ में लेकर बाहर निकलता है। उज्जैन से हर साल 350-400 सॉफ़्टवेयर/केमिकल/सिविल इंजीनियर पैदा होते हैं, जिनमें से 30-40 को ही ठीकठाक “प्लेसमेंट” मिल पाती है, बाकी के इंजीनियर सड़क नापते रहते हैं, कुछ “फ़्रस्ट्रेट” हो जाते हैं, कुछ ठेकेदार बन जाते हैं, कुछ कोई और धंधा कर लेते हैं, लेकिन ताकत न होते हुए भी हजारों परिवार यह महंगा जुआ हर साल खेल रहे हैं। आखिर क्या फ़ायदा है ऐसी शिक्षा का? फ़ायदा तो भरपूर हुआ लेकिन कोचिंग क्लास वालों का और उसके बाद प्रायवेट इंजीनियरिंग कॉलेज वालों का… लेकिन फ़िलहाल इस “शिक्षा बाजार के खेल” का कोई तात्कालिक हल नहीं है, इसके लिये शिक्षा व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन करने होंगे, चाहिये होगी दूरदृष्टि, पक्का इरादा और ईमानदार नीति निर्माता, जिनका काफ़ी समय से अकाल पड़ा हुआ है…
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स्विस बैंक से 180 देशों के हजारों खातों की जानकारी चोरी… "ईमानदार" प्रधानमंत्री जी, कुछ कीजिये…

 Swiss Bank Client list hacked


भारत के करोड़ों ईमानदार टैक्सदाताओं और नागरिकों के लिये यह एक खुशखबरी है कि फ़्रांस के HSBC बैंक के दो कर्मचारियों हर्व फ़ेल्सियानी और जॉर्जीना मिखाइल ने दावा किया है कि उनके पास स्विस बैंकों में से एक बैंक में स्थित 180 देशों के कर चोरों की पूरी डीटेल्स मौजूद हैं। 2 साल से इन्होंने लगातार यूरोपीय देशों की सरकारों को ईमेल भेजकर "टैक्स चोरों" को पकड़वाने में मदद की पेशकश की है। जर्मनी की गुप्तचर सेवा को भेजे अपने ईमेल में इन्होंने कहा कि ये लोग स्विटज़रलैण्ड स्थित एक निजी बैंक के महत्वपूर्ण डाटा और उस कम्प्यूटर तक पुलिस की पहुँच बना सकते हैं। इसी प्रकार के ईमेल ब्रिटेन, फ़्रांस और स्पेन की सरकारों, विदेश मंत्रालयों और पुलिस को भेजे गये हैं (यहाँ देखें…)। यूरोप के देशों में इस बात पर बहस छिड़ी है कि एक "हैकर" या बैंक के कर्मचारी द्वारा चोरी किये गये डाटा पर भरोसा करना ठीक है और क्या ऐसा करना नैतिक रुप से सही है? लेकिन फ़ेल्सियानी जो कि HSBC बैंक के पूर्व कर्मचारी हैं, पर फ़िलहाल फ़्रांस और जर्मनी तो भरोसा कर रहे हैं, जबकि स्विस सरकार लाल-पीली हो रही है। HSBC के वरिष्ट अधिकारियों ने माना है कि फ़ेल्सियानी ने बैंक के मुख्यालय और इसकी एक स्विस सहयोगी बैंक से महत्वपूर्ण डाटा को अपने PC में कॉपी कर लिया है और उसने बैंक की गोपनीयता सम्बन्धी सेवा शर्तों का उल्लंघन किया है।

फ़ेल्सियानी ने स्वीकार किया है कि उनके पास 180 देशों के विभिन्न "ग्राहकों" का डाटा है, लेकिन उन्होंने किसी कानून का उल्लंघन नहीं किया, क्योंकि इस डाटा से उनका उद्देश्य पैसा कमाना नहीं है, बल्कि स्विस बैंक द्वारा अपनाई जा रही "गोपनीयता बैंकिंग प्रणाली" पर सवालिया निशान लगाना भर है। बहरहाल, फ़्रांस सरकार फ़ेल्सियानी से प्राप्त जानकारियों के आधार पर टैक्स चोरों के खिलाफ़ अभियान छेड़ चुकी है। स्विस पुलिस ने फ़ेल्सियानी के निवास पर छापा मारकर उसका कम्प्यूटर और अन्य महत्वपूर्ण हार्डवेयर जब्त कर लिया है लेकिन फ़ेल्सियानी का दावा है कि उसका डाटा सुरक्षित है और वह किसी "दूरस्थ सर्वर" पर अपलोड किया जा चुका है। इधर फ़्रांस सरकार का कहना है कि उन्हें इसमें किसी कानूनी उल्लंघन की बात नज़र नहीं आती, और वे टैक्स चोरों के खिलाफ़ अभियान जारी रखेंगे। फ़्रांस सरकार ने इटली की सरकार को 7000 अकाउंट नम्बर दिये, जिसमें लगभग 7 अरब डालर की अवैध सम्पत्ति जमा थी। स्पेन के टैक्स विभाग ने भी इस डाटा का उपयोग करते हुए इनकी जाँच शुरु कर दी है।

फ़ेल्सियानी ने सन् 2000 मे HSBC बैंक की नौकरी शुरु की थी, वह कम्प्यूटर प्रोग्रामिंग में स्नातक और बैंक के सुरक्षा सॉफ़्टवेयर के कोड लिखता है। बैंक में उसका कई बार प्रमोशन हो चुका है और 2006 में उसे जिनेवा स्थित HSBC के मुख्यालय में ग्राहक डाटाबेस की सुरक्षा बढ़ाने के लिये तैनात किया गया था। इसलिये फ़ेल्सियानी की बातों और उसके दावों पर शक करने की कोई वजह नहीं बनती। फ़ेल्सियानी का कहना है कि बैंक का डाटा वह एक रिमोट सर्वर पर बैक-अप के रुप में सुरक्षित करके रखता था, जो कि एक निर्धारित प्रक्रिया थी, और मेरा इरादा इस डाटा से पैसा कमाना नहीं है।
जून 2008 से अगस्त 2009 के बीच अमेरिका के कर अधिकारियों ने स्विस बैंक UBS के "नट-बोल्ट टाइट" किये तब उसने अमेरिका के 4450 कर चोरों के बैंक डीटेल्स उन्हें दे दिये। कहने का मतलब यह है कि स्विटज़रलैण्ड की एक बैंक (जी हाँ फ़िलहाल सिर्फ़ एक बैंक) के 180 देशों के हजारों ग्राहकों (यानी डाकुओं) के खातों की पूरी जानकारी फ़ेल्सियानी नामक शख्स के पास है… अब हमारे "ईमानदार" बाबू के ज़मीर और हिम्मत पर यह निर्भर करता है कि वे यह देखना सुनिश्चित करें कि फ़ेल्सियानी के पास उपलब्ध आँकड़ों में से क्या भारत के कुछ हरामखोरों के आँकड़े भी हैं? भले ही इस डाटा को हासिल करने के लिये हमें फ़ेल्सियानी को लाखों डालर क्यों न चुकाने पड़ें, लेकिन जब फ़्रांस, जर्मनी, स्पेन और अमेरिका जैसे देश फ़ेल्सियानी के इन आँकड़ों पर न सिर्फ़ भरोसा कर रहे हैं, बल्कि छापेमारी भी कर रहे हैं… तो हमें "संकोच" नहीं करना चाहिये।
भारत के पिछले लोकसभा चुनावों में स्विस बैंकों से भारत के बड़े-बड़े मगरमच्छों द्वारा वहाँ जमा किये गये धन को भारत वापस लाने के बारे में काफ़ी हो-हल्ला मचाया गया था। भाजपा की तरफ़ से कहा गया था कि सत्ता में आने पर वे स्विस सरकार से आग्रह करेंगे कि भारत के तमाम खातों की जानकारी प्रदान करे। भाजपा की देखादेखी कांग्रेस ने भी उसमें सुर मिलाया था, लेकिन चुनाव निपटकर एक साल बीत चुका है, और हमेशा की तरह कांग्रेस ने अब तक इस दिशा में कोई कदम नहीं उठाया है।
एक व्यक्ति के रुप में, प्रधानमंत्री की ईमानदार छवि पर मुझे पूरा यकीन है, लेकिन क्या वे इस मौके का उपयोग देशहित में करेंगे…? यदि फ़ेल्सियानी की लिस्ट से भारत के 8-10 "मगरमच्छ" भी फ़ँसते हैं, तो मनमोहन सिंह भारत में इतिहास-पुरुष बन जायेंगे…। परन्तु जिस प्रकार की "आत्माओं" से वे घिरे हुए हैं, उस माहौल में क्या ऐसा करने की हिम्मत जुटा पायेंगे? उम्मीद तो कम ही है, क्योंकि दूरसंचार मंत्री ए राजा के खिलाफ़ पक्के सबूत, मीडिया में छपने के बावजूद वे उन पर कोई कार्रवाई नहीं कर पा रहे हैं, तो फ़ेल्सियानी की स्विस बैंक लिस्ट में से पता नहीं कौन सा "भयानक भूत" निकल आये और उनकी सरकार को हवा में उड़ा ले जाये…।

Monday, July 19, 2010

"सुद्ध" नहीं "शुद्ध" हिन्दी बोलो / लिखो

हमारी राष्ट्रभाषा अर्थात हिन्दी, जिसकी देश में स्थापना के लिये अब तक न जाने कितने ही व्यक्तियों, विद्यालयों और संस्थाओं ने लगातार संघर्ष किया, इसमें वे काफ़ी हद तक सफ़ल भी रहे हैं । अब तो दक्षिण से भी हिन्दी के समर्थन में आवाजें उठ रही हैं, और हमारी प्यारी हिन्दी धीरे-धीरे लोकप्रिय हो रही है और अब इसे कोई रोक भी नहीं सकता । वैसे भी "बाजार"की ताकतें बहुत बडी हैं और हिन्दी में "माल" खींचने की काफ़ी सम्भावनायें हैं इसलिये कैसे भी हो हिन्दी का झंडा तो बुलन्द होकर रहेगा । तमाम चैनलों के चाकलेटी पत्रकार भी धन्धे की खातिर ही सही टूटी-फ़ूटी ही सही, लेकिन हमें "ईराक के इन्टेरिम प्रधानमन्त्री मिस्टर चलाबी ने यूएन के अध्यक्ष से अधिक ग्रांट की माँग की है" जैसी अंग्रेजी की बघार लगी हिन्दी हमें झिलाने लगे हैं, खैर कैसे भी हो हिन्दी का प्रसार तो हो रहा है ।

परन्तु हिन्दी बेल्ट (जी हाँ, जिसे अंग्रेजों और हमारे तथाकथित बुद्धिजीवियों की एक जमात ने "गोबर पट्टी" का नाम दे रखा है, पता नहीं क्यों ?) अर्थात उत्तरप्रदेश, बिहार, राजस्थान और मध्यप्रदेश के रहवासी शुद्ध हिन्दी लिखना तो दूर, ठीक से बोल भी नहीं पाते हैं, यह एक दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य है । इन प्रदेशों को हिन्दी का हृदय-स्थल कहा गया है, अनेक महान साहित्यकारों की जन्मभूमि एवं कर्मभूमि यही चारों प्रदेश रहे हैं और इस पर गर्व भी किया जाता है । हिन्दी साहित्य को अतुलनीय योगदान इन्हीं प्रदेशों की विभूतियों ने दिया है । इन्हीं चारों प्रदेशों का गठन भाषा के आधार पर नहीं हुआ, इसलिये जहाँ बाकी राज्यों की हिन्दी के अलावा कम से कम अपनी एक आधिकारिक भाषा तो है, चाहे वह मराठी, तमिल, तेलुगू, कन्नड़, मलयालम, उडिया, बंगाली, पंजाबी, मणिपुरी, कोंकणी आदि हों, वहीं दूसरी ओर से इन चारों हिन्दी प्रदेशों की आधिकारिक भाषा हिन्दी होते हुए भी आमजन में इसकी भीषण दुर्दशा साफ़ देखी जा सकती है । इन प्रदेशों में, मालवी है, बुन्देलखंडी है, बघेली, निमाडी़, भोजपुरी, अवधी और भी बहुत सी हैं.... गरज कि हिन्दी को छोडकर सभी अपनी-अपनी जगह हैं, और हिन्दी कहाँ है ? हिन्दी अर्थात जिसे हम साफ़, शुद्ध, भले ही अतिसाहित्यिक और आलंकारिक ना हो, लेकिन "सिरी बिस्वास" (श्री विश्वास) जैसी भी ना हो । ऐसी हिन्दी कहाँ है, क्या सिर्फ़ उपन्यासों में, सहायक वाचनों, बाल भारती, आओ सुलेख लिखें जैसी किताबों में । आम बोलचाल की भाषा में जो हिन्दी का रूप हमें देखने को मिलता है उससे लगता है कि कहीं ना कहीं बुनियादी गड़बडी है । यहाँ तक कि प्रायमरी और मिडिल स्कूलों में पढाने वाले कई अध्यापक / अध्यापिकायें स्नातक और स्नातकोत्तर होने के बावजूद सरेआम... "तीरंगा" और "आर्शीवाद" लिखते हैं, और यही संस्कार (?) वे नौनिहालों को भी दे रहे हैं, फ़िर उनके स्नातकोत्तर होने का क्या उपयोग है ? आम तौर पर देखा गया है कि 'श' को 'स' और 'व' को 'ब' तो ऐसे बोला जाता है मानो दोनों एक ही शब्द हों और उन्हें कैसे भी बोलने पर कोई फ़र्क नहीं पड़ता । "अरे बिस्नू जी जे डीस तो बासेबल है" (विष्णु जी यह डिश वाशेबल है) सुनकर भला कौन अपना सिर नहीं पीट लेगा ? लेकिन जैसा कि पहले ही कहा गया कि मध्यप्रदेश और उत्तरप्रदेश के कुछ हिस्सों में ऐसी हिन्दी बोलना कतई गलत नहीं माना जाता, बल्कि यह आम बोलचाल की भाषा बन गई है, लेकिन हिन्दी ही कहलाती है । कई स्थानीय चैनलों के समाचारों में 'चेनल' (चैनल), टावर चोक (चौक), बेट (बैट) और रेट (रैट) हमेशा सुनाई दे जाता है, जो कि बडा़ भद्दा लगता है । लेकिन जब "बिद्या" प्रदान करने वाले ही गलत-सलत पढायेंगे तो भविष्य में उसे ठीक करना मुश्किल हो जाता है । इसके मूल में है शुद्ध संस्कृत के अध्ययन का अभाव । जो अध्यापक या विद्यार्थी संस्कृत की तमाम क्रिया, लकारों के साथ शुद्ध बोल पायेंगे वे कभी भी हिन्दी में बोलते समय या लिखते समय "ब्योपारी", "बिबेक" या "संबिधान संसोधन" जैसी गलती कर ही नहीं सकते । रही-सही कसर हिन्दी को "हिंग्रेजी" बना देने की फ़ूहड़ कोशिश करने वालों के कारण हो रही है । खामख्वाह अपनी विद्वत्ता झाडने के लिये हिन्दी के बीच में अंग्रेजी शब्दों को घुसेड़ना एक फ़ैशन होता जा रहा है । यदि अंग्रेजी शब्द सही ढंग और परिप्रेक्ष्य में बोला जाये तो भी आपत्ति नहीं है, लेकिन "छत पर बाऊंड्री वॉल" (अर्थात पैराफ़िट वॉल), या "सिर में हेडेक", "सुबह मॉर्निंग में ही तो मिले थे", "उन्हें बचपन से बहुत लेबर करने की आदत है इसीलिये आज वे एक सेक्सीफ़ुल व्यक्ति हैं" सुनकर तो कोई भी कपडे़ फ़ाडने पर मजबूर हो जायेगा । जब किसी बडे अधिकारी या पढे-लिखे व्यक्ति के मुँह से ऐसा कुछ सुनने को मिलता है तो हैरत के साथ-साथ क्षोभ भी होता है, कि वर्षों से हिन्दी क्षेत्र में रहते हुए भी वे एक सामान्य सी साफ़ हिन्दी भी नहीं बोल पाते हैं और अपने अधीनस्थों को सरेआम "सांबास-सांबास" कहते रहते हैं, किसी अल्पशिक्षित व्यक्ति या सारी जिन्दगी गाँव में बिता देने वाले किसी वृद्ध के मुँह से ऐसी हिन्दी अस्वाभाविक नहीं लगती, लेकिन किसी आईएएस अधिकारी या प्रोफ़ेसर के मुँह से नहीं । इसलिये हमें "दुध" (दूध), "लोकि" (लौकी), "शितल" (शीतल) आदि लिखे पर ध्यान देने की आवश्यकता तो है ही, बल्कि क्या और कैसे बोला जा रहा है, क्या उच्चारण किया जा रहा है, इस पर भी विचार करने की आवश्यकता है । आईये प्रण करें कि भविष्य में जब कभी किसी से "पीछे का बैकग्राऊंड", "आगे का फ़्यूचर", "ओवरब्रिज वाला पुल", "मेरा तो बैडलक ही खराब है", जैसे वाक्य सुनाई दे जायें तो तत्काल उसमें सुधार करवायें, भले ही सामने वाला बुरा मान जाये...

पौराणिक मान्यताओं पर प्रश्नचिन्ह क्यों ?

क्या किसी देश का इतिहास या उसकी पौराणिक मान्यतायें शर्म का विषय हो सकती हैं ? यदि हजारों वर्षों के इतिहास में कोई शर्म का विषय है भी, तो उसके मायने अलग-अलग समुदायों के लिये अलग-अलग क्यों होना चाहिये ? यह सवाल आजकल कई लोगों के मनोमस्तिष्क को झकझोर रहा है । इतिहास के साथ छेड़छाड़ करना शासकों का प्रिय शगल रहा है, लेकिन जब बुद्धिजीवी वर्ग भी उसी मुहिम में शामिल हो जाये तो फ़िर यह बहस का विषय हो जाता है । मंगल पांडे पर एक फ़िल्म बनती है और सारे देश में उसके बारे में चर्चा होने लगती है, पोस्टर फ़ाडे जाने लगते हैं, चाणक्य पर एक धारावाहिक बनता है, तत्काल उसे सांप्रदायिक घोषित करने की मुहिम चालू हो जाती है, ऐसा ही कुछ रामायण के बारे में भी करने की कोशिश की गई थी, लेकिन चूँकि रामायण जन-जन के दिल में बसा है, इसलिये विरोधियों को उस वक्त मौके की नजाकत देखते हुए चुप बैठना पडा़ । लेकिन जिस तरह की टिप्पणियाँ और विचार वाम समर्थकों द्वारा व्यक्त किये जा रहे हैं, वह भविष्य के एक खतरे की ओर संकेत करते हैं...

कभी हमें पाठ्यपुस्तकों में यह बताया जाता है कि राम और कृष्ण मात्र कल्पना है, इनका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है । यदि इन लेखकों की चले तो इनके अनुसार वैज्ञानिक आधार ईसा के जन्म के बाद ही माना जाता है । उसके पहले का भारत कुछ कबीलों, साँप पकड़ने वालों, और छोटी-छोटी रियासतों के आपस मे लड़ मरने वाला एक भूभाग मात्र ही था । उसकी कोई संस्कृति थी ही नहीं । अब कोई उनसे पूछे कि यदि राम और कृष्ण काल्पनिक हैं तो सदियों से उनके नाम, कर्म, कथायें और आदर्श पीढियों से पीढियों तक कैसे चलते आये हैं ? "नासा" ने यह क्यों कहा कि भारत और श्रीलंका के मध्य वाकई में एक पुलनुमा "स्ट्रक्चर" था ! महाभारत में "कुरुक्षेत्र" का उल्लेख क्यों है, टिम्बकटू का क्यों नहीं ? रामायण में पंचवटी का उल्लेख क्यों है, कजाकिस्तान का क्यों नहीं ? यह सब क्या है, मात्र कल्पना या एक मुखारविन्द से दूसरे मुखारविन्द तक फ़ैलती गई अफ़वाहें ? यह माना जा सकता है कि इन चरित्रों से जुडे़ कथानक कहीं-कहीं अतिशयोक्तिपूर्ण हो गये हों, लेकिन जब किंवदंतियाँ होती हैं, तो ऐसी कहानियाँ जन्म ले ही लेती हैं । मैं खुद यह मानने को तैयार नहीं हूँ कि गोवर्धन पर्वत सचमुच में एक ऊँगली पर उठाया गया होगा । हो सकता है यमुना नदी में एक भयंकर साँप को कृष्ण ने मारा होगा, जिसे अनेक लोगों ने कहानी सुनाते-सुनाते, दसियों फ़न वाले राक्षस का रूप दे दिया...अब जाहिर है कि अर्जुन के रथ पर हनुमान सवार नहीं हो सकते, लेकिन ऐसा कुछ तो हुआ ही होगा, जिसके कारण इस कथा को बल मिला, और हजारों वर्षों तक करोडों लोगों ने इस बात पर विश्वास किया । दरअसल इन घटनाओं के व्यापक विश्लेषण की आवश्यकता है, लेकिन सिरे से इनको काल्पनिक घोषित कर देना मानसिक दिवालियापन है.. ठीक उसी तरह जिस तरह से इन कहानियों पर आँख मूँद कर विश्वास कर लेना...अधिक दूर जाने की जरूरत नहीं है, अब से मात्र सौ वर्ष पश्चात लोग इस बात पर यकीन ही नहीं करेंगे कि अहिंसा से भी कोई आन्दोलन खडा किया जा सकता है, और गाँधी नाम का कोई व्यक्ति इस धरती पर चलता-फ़िरता रहा होगा, उस समय भी गाँधी के बारे में कई तरह के मिथक पैदा हो जायेंगे... ये तो होता ही है, लेकिन प्रत्येक बात को आँख मूँद्कर मान लेना या हरेक बात का विरोध के लिये विरोध ठीक नहीं है.. इन वाम लेखकों का बस चले तो ये तुलसीदास को भी काल्पनिक घोषित कर दें । दरअसल यह सब हो रहा है एक विशेष अभियान के तहत और विशिष्ट मानसिकता का पोषण करने के लिये... किस तरह से हिन्दुओं के मन में हीनभावना को जगाया जाये, यह इस मुहिम का हिस्सा होता है । हमें बताया जाता है कि महाराणा प्रताप भगौडे़ थे, या असल में शिवाजी का राज्य कभी था ही नहीं । औरंगजेब से लड़ने वाले सिख गुरुओं की भी प्रशंसा नहीं की जाती, लेकिन अकबर के दीन-ए-इलाही के कसीदे काढे जाते हैं... और भी ऐसे अनेकों उदाहरण हैं... हो सकता है कि इन्होंने यह सब किया भी हो, लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं कि बाकी के सारे हिन्दू राजा या लडाके निरे मूर्ख थे ? इसी विध्वंसक मानसिकता से ग्रसित होकर सतत वन्देमातरम का विरोध किया जाता है, सरस्वती वन्दना की हँसी उडाई जाती है, हिन्दी को हीन दृष्टि से देखने की परम्परा विकसित की जाती है... प्रेमचन्द कुछ नहीं थे, लेकिन शेक्सपीयर महान थे, निराला और महादेवी वर्मा को कोई खास महत्व नहीं लेकिन कीट्स का गुणगान, यह सब क्या है ? बार-बार यह अह्सास दिलाने की कोशिश की जाती है कि "भारत की संस्कृति" नाम की कोई चीज ही नहीं है । लेकिन उन "बाँये चलने वाले लेखकों" के लाख प्रयासों के बावजूद यह तथ्य एक सर्वेक्षण में उभरकर आया है कि लोगों में धार्मिकता बढी है, चाहे उसके कोई दूसरे कारण क्यों ना हो । इस स्थिति का फ़ायदा अंधविश्वास बढाने में लगे "दुकानदारों" ने भी उठाया है, और अधिक आक्रामक तरीके से अपनी "मार्केटिंग" करके जनता में धर्म को प्रचारित करने में लगे हैं । जबकि लोगों में अपने इतिहास का सच जानने की भूख है । आवश्यकता है उसे सही दिशा देने की, उन्हें वैज्ञानिक तरीके से समझाने की, तर्क-वितर्क से बात को दिमाग में बैठाने की, न कि उनके दिमागों में गलत-सलत जानकारी भरने की । लेकिन दुर्भाग्य से यही हो रहा है, जिसमें दोनों पक्ष शामिल हैं...

लालची और ढोंगी हैं आधुनिक ज्ञान-गुरु, आध्यात्म-गुरु

लाइनस टोर्वाल्ड्स और रिचर्ड स्टॉलमैन, ये दो नाम हैं। जो लोग कम्प्यूटर क्षेत्र से नहीं हैं, उन्हें इन दोनों व्यक्तियों के बारे में पता नहीं होगा। पहले व्यक्ति हैं लाइनस जिन्होंने कम्प्यूटर पर “लाइनक्स ऑपरेटिंग सिस्टम” का आविष्कार किया और उसे मुक्त और मुफ़्त किया। दूसरे सज्जन हैं स्टॉलमैन, जो कि “फ़्री सॉफ़्टवेयर फ़ाउंडेशन” के संस्थापक हैं, एक ऐसा आंदोलन जिसने सॉफ़्टवेयर दुनिया में तहलका मचा दिया, और कई लोगों को, जिनमें लाइनस भी थे, प्रेरित किया कि वे लोग निस्वार्थ भाव से समाज की सेवा के लिये मुफ़्त सॉफ़्टवेयर उपलब्ध करवायें। अधिकतर पाठक सोच रहे होंगे कि ये क्या बात हुई? क्या ये कोई क्रांतिकारी कदम है? जी हाँ है… खासकर यदि हम आधुनिक तथाकथित गुरुओं, ज्ञान गुरुओं और आध्यात्मिक गुरुओं के कामों को देखें तो।



(लाइनस टोरवाल्ड्स)



(रिचर्ड स्टॉलमैन)





आजकल के गुरु/ बाबा / महन्त / योगी / ज्ञान गुरु आदि समाज को देते तो कम हैं उसके बदले में शोषण अधिक कर लेते हैं। आजकल के ये गुरु कॉपीराइट, पेटेंट आदि के जरिये पैसा बनाने में लगे हैं, यहाँ तक कि कुछ ने तो कतिपय योग क्रियाओं का भी पेटेण्ट करवा लिया है। पहले हम देखते हैं कि इनके “भक्त”(?) इनके बारे में क्या कहते हैं –

- हमारे गुरु आध्यात्म की ऊँचाइयों तक पहुँच चुके हैं

- हमारे गुरु को सांसारिक भौतिक वस्तुओं का कोई मोह नहीं है

- फ़लाँ गुरु तो इस धरती के जीवन-मरण से परे जा चुके हैं

- हमारे गुरु तो मन की भीतरी शक्ति को पहचान चुके हैं और उन्होंने आत्मिक शांति हासिल कर ली है… यानी कि तरह-तरह की ऊँची-ऊँची बातें और ज्ञान बाँटना…







अब सवाल उठता है कि यदि ये तमाम गुरु इस सांसारिक जीवन से ऊपर उठ चुके हैं, इन्हें पहले से ही आत्मिक शांति हासिल है तो काहे ये तमाम लोग कॉपीराइट, पेटेण्ट और रॉयल्टी के चक्करों में पड़े हुए हैं? उनके भक्त इसका जवाब ये देते हैं कि “हमारे गुरु दान, रॉयल्टी आदि में पैसा लेकर समाजसेवा में लगा देते हैं…”। इस प्रकार तो “बिल गेट्स” को विश्व के सबसे बड़े आध्यात्मिक गुरु का दर्जा दिया जाना चाहिये। बल्कि गेट्स तो “गुरुओं के गुरु” हैं, “गुरु घंटाल” हैं, बिल गेट्स नाम के गुरु ने भी तो कॉपीराइट और पेटेण्ट के जरिये अरबों-खरबों की सम्पत्ति जमा की है और अब एक फ़ाउण्डेशन बना कर वे भी समाजसेवा कर रहे हैं। श्री श्री 108 श्री बिल गेट्स बाबा ने तो करोड़ों डॉलर का चन्दा विभिन्न सेवा योजनाओं में अलग-अलग सरकारों, अफ़्रीका में भुखमरी से बचाने, एड्स नियंत्रण के लिये दे दिया है।



यदि लोग सोचते हैं कि अवैध तरीके से, भ्रष्टाचार, अनैतिकता, अत्याचार करके कमाई हुई दौलत का कुछ हिस्सा वे अपने कथित “धर्मगुरु” को देकर पाप से बच जाते हैं, तो जैसे उनकी सोच गिरी हुई है, ठीक वैसी ही उनके गुरुओं की सोच भी गिरी हुई है, जो सिर्फ़ इस बात में विश्वास रखते हैं कि “पैसा कहीं से भी आये उन्हें कोई मतलब नहीं है, पैसे का कोई रंग नहीं होता, कोई रूप नहीं होता…” इसलिये बेशर्मी और ढिठाई से तानाशाहों, भ्रष्ट अफ़सरों, नेताओं और शोषण करने वाले उद्योगपतियों से रुपया-पैसा लेने में कोई बुराई नहीं है। ऐसा वे खुद प्रचारित भी करते / करवाते हैं कि, पाप से कमाये हुए धन का कुछ हिस्सा दान कर देने से “पुण्य”(?) मिलता है। और इसके बाद वे दावा करते हैं कि वे निस्वार्थ भाव से समाजसेवा में लगे हैं, सभी सांसारिक बन्धनों से वे मुक्त हैं आदि-आदि… जबकि उनके “कर्म” कुछ और कहते हैं। बिल गेट्स ने कभी नहीं कहा कि वे एक आध्यात्मिक गुरु हैं, या कोई महान आत्मा हैं, बिल गेट्स कम से कम एक मामले में ईमानदार तो हैं, कि वे साफ़ कहते हैं “यह एक बिजनेस है…”। लेकिन आडम्बर से भरे ज्ञान गुरु यह भी स्वीकार नहीं करते कि असल में वे भी एक “धंधेबाज” ही हैं… आधुनिक गुरुओं और बाबाओं ने आध्यात्म को भी दूषित करके रख दिया है, “आध्यात्म” और “ज्ञान” कोई इंस्टेण्ट कॉफ़ी या पिज्जा नहीं है कि वह तुरन्त जल्दी से मिल जाये, लेकिन अपने “धंधे” के लिये एक विशेष प्रकार का “नकली-आध्यात्म” इन्होंने फ़ैला रखा है।



दूसरी तरफ़ लाइनस और स्टॉलमैन जैसे लोग हैं, जो कि असल में गुरु हैं, “धंधेबाज” गुरुओं से कहीं बेहतर और भले। ये दोनों व्यक्ति ज्यादा “आध्यात्मिक” हैं और सच में सांसारिक स्वार्थों से ऊपर उठे हुए हैं। यदि ये लोग चाहते तो टेक्नोलॉजी के इस प्रयोग और इनका कॉपीराइट, पेटेण्ट, रॉयल्टी से अरबों डॉलर कमा सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। मेहनत और बुद्धि से बनाई हुई तकनीक उन्होंने विद्यार्थियों और जरूरतमन्द लोगों के बीच मुफ़्त बाँट दी। कुछ ऐसा ही हिन्दी कम्प्यूटिंग और ब्लॉगिंग के क्षेत्र में है। कई लोग शौकिया तौर पर इससे जुड़े हैं, मुफ़्त में अपना ज्ञान बाँट रहे हैं, जिन्हें हिन्दी टायपिंग नहीं आती उनकी निस्वार्थ भाव से मदद कर रहे हैं, क्यों? क्या वे भी पेटेण्ट करवाकर कुछ सालों बाद लाखों रुपया नहीं कमा सकते थे? लेकिन कई-कई लोग हैं जो सैकड़ों-हजारों की तकनीकी मदद कर रहे हैं। क्या इसमें हमें प्राचीन भारतीय ॠषियों की झलक नहीं मिलती, जिन्होंने अपना ज्ञान और जो कुछ भी उन्होंने अध्ययन करके पाया, उसे बिना किसी स्वार्थ या कमाई के लालच में न सिर्फ़ पांडुलिपियों और ताड़पत्रों पर लिपिबद्ध किया बल्कि अपने शिष्यों और भक्तों को मुफ़्त में वितरित भी किया। बगैर एक पल भी यह सोचे कि इसके बदले में उन्हें क्या मिलेगा?







लेकिन ये आजकल के कथित गुरु-बाबा-प्रवचनकार-योगी आदि… किताबें लिखते हैं तो उसे कॉपीराइट करवा लेते हैं और भारी दामों में भक्तों को बेचते हैं। कुछ अन्य गुरु अपने गीतों, भजनों और भाषणों की कैसेट, सीडी, डीवीडी आदि बनवाते हैं और पहले ये देख लेते हैं कि उससे कितनी रॉयल्टी मिलने वाली है। कुछ और “पहुँचे हुए” गुरुओं ने तो योग क्रियाओं का भी पेटेण्ट करवा लिया है। जबकि देखा जाये तो जो आजकल के बाबा कर रहे हैं, या बता रहे हैं या ज्ञान दे रहे हैं वह सब तो पहले से ही वेदों, उपनिषदों और ग्रंथों में है, फ़िर ये लोग नया क्या दे रहे हैं जिसकी कॉपीराइट करना पड़े, क्या यह भी एक प्रकार की चोरी नहीं है? सबसे पहली आपत्ति तो यही होना चाहिये कि उन्होंने कुछ “नया निर्माण” तो किया नहीं है, फ़िर वे कैसे इससे पेटेण्ट / रॉयल्टी का पैसा कमा सकते हैं?



लेकिन फ़िर भी उनके “भक्त” (अंध) हैं, वे जोर-शोर से अपना “धंधा” चलाते हैं, दुनिया को ज्ञान(?) बाँटते फ़िरते हैं, दुनियादारी के मिथ्या होने के बारे में डोज देते रहते हैं (खुद एसी कारों में घूमते हैं)। स्वयं पैसे के पीछे भागते हैं, झोला-झंडा-चड्डी-लोटा-घंटी-अंगूठी सब तो बेचते हैं, सदा पाँच-सात सितारा होटलों और आश्रमों में ठहरते हैं, तर माल उड़ाते हैं।



कोई बता सकता है कि क्यों पढ़े-लिखे और उच्च तबके के लोग भी इनके झाँसे में आ जाते हैं? बिल गेट्स भले कोई महात्मा न सही, लेकिन इनसे बुरा तो नहीं है…

तीसरे मोर्चे की बासी कढ़ी, बेकाबू महंगाई और पाखंडी वामपंथी

माकपा के हालिया सम्मेलन में प्रकाश करात साहब ने दो चार बातें फ़रमाईं, कि “हम भाजपा को सत्ता में आने से रोकने के लिये कुछ भी करेंगे”, कि “तीसरा मोर्चा बनाने की कोशिशे जारी हैं”, कि “हम बढती महंगाई से चिन्तित हैं”, कि “यूपीए सरकार गरीबों के लिये ठीक से काम नहीं कर रही”, कि ब्ला-ब्ला-ब्ला-ब्ला… उधर भाकपा ने पुनः बर्धन साहब को महासचिव चुन लिया है, और उठते ही उन्होने कहा कि “हम महंगाई के खिलाफ़ देशव्यापी प्रदर्शन करने जा रहे हैं…”


गत 5 वर्षों में सर्वाधिक बार अपनी विश्वसनीयता खोने वाले ये ढोंगी वामपंथी पता नहीं किसे बेवकूफ़ बनाने के लिये इस प्रकार की बकवास करते रहते हैं। क्या महंगाई अचानक एक महीने में बढ़ गई है? क्या दालों और तेल आदि के भाव पिछले एक साल से लगातार नहीं बढ़ रहे? क्या कांग्रेस अचानक ही बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की खैरख्वाह बन गई है? जिस “कॉमन मिनिमम प्रोग्राम” का ढोल वे लगातार पीटते रहते हैं, उसका उल्लंघन कांग्रेस ने न जाने कितनी बार कर लिया है, क्या लाल झंडे वालों को पता नहीं है? यदि ये सब उन्हें पता नहीं है तो या तो वे बेहद मासूम हैं, या तो वे बेहद शातिर हैं, या फ़िर वे परले दर्जे के मूर्ख हैं। भाजपा के सत्ता में आने का डर दिखाकर कांग्रेस ने वामपंथियों का जमकर शोषण किया है, और खुद वामपंथियों ने “शेर आया, शेर आया…” नाम का भाजपा का हौआ दिमाग में बिठाकर कांग्रेसी मंत्रियों को इस देश को जमकर लूटने का मौका दिया है।



अब जब आम चुनाव सिर पर आन बैठे हैं, केरल और बंगाल में इनके कर्मों का जवाब देने के लिये जनता तत्पर बैठी है, नंदीग्राम और सिंगूर के भूत इनका पीछा नहीं छोड़ रहे, तब इन्हें “तीसरा मोर्चा” नाम की बासी कढ़ी की याद आ गई है। तीसरा मोर्चा का मतलब है, “थकेले”, “हटेले”, “जातिवादी” और क्षेत्रीयतावादी नेताओं का जमावड़ा, एक भानुमति का कुनबा जिसमें कम से कम चार-पाँच प्रधानमंत्री हैं, या बनने की चाहत रखते हैं। एक बात बताइये, तीसरा मोर्चा बनाकर ये नेता क्या हासिल कर लेंगे? वामपंथियों को तो अब दोबारा 60-62 सीटें कभी नहीं मिलने वाली, फ़िर इनका नेता कौन होगा? मुलायमसिंह यादव? वे तो खुद उत्तरप्रदेश में लहूलुहान पड़े हैं। बाकी रहे अब्दुल्ला, नायडू, चौटाला, आदि की तो कोई औकात नहीं है उनके राज्य के बाहर। यानी किसी तरह यदि सभी की जोड़-जाड़ कर 100 सीटें आ जायें, तो फ़िर अन्त-पन्त वे कांग्रेस की गोद में ही जाकर बैठेंगे, भाजपा को सत्ता से बाहर रखने के नाम पर। क्या मिला? नतीजा वही ढाक के तीन पात। और करात साहब को पाँच साल बाद जाकर यह ज्ञान हासिल हुआ है कि गरीबों के नाम पर चलने वाली योजनाओं में भारी भ्रष्टाचार हो रहा है, बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को छूट देने के कारण महंगाई बढ़ रही है… वाह क्या बात है? लगता है यूपीए की समन्वय समिति की बैठक में सोनिया गाँधी इन्हें मौसम का हाल सुनाती थीं, और बर्धन-येचुरी साहब मनमोहन को चुटकुले सुनाने जाते थे। तीसरे मोर्चे की “बासी कढ़ी में उबाल लाने” का नया फ़ण्डा इनकी खुद की जमीन धसकने से बचाने का एक शिगूफ़ा मात्र है। इनके पाखंड की रही-सही कलई तब खुल गई जब इनके “विदेशी मालिक” यानी चीन ने तिब्बत में नरसंहार शुरु कर दिया। दिन-रात गाजापट्टी-गाजापट्टी, इसराइल-अमेरिका का भजन करने वाले इन नौटंकीबाजों को तिब्बत के नाम पर यकायक साँप सूंघ गया।



इन पाखंडियों से पूछा जाना चाहिये कि –

1) स्टॉक न होने के बावजूद चावल का निर्यात जारी था, चावल निर्यात कम्पनियों ने अरबों के वारे-न्यारे किये, तब क्या ये लोग सो रहे थे?



2) तेलों और दालों में NCDEX और MCX जैसे एक्सचेंजों में खुलेआम सट्टेबाजी चल रही थी जिसके कारण जनता सोयाबीन के तेल में तली गई, तब क्या इनकी आँखों पर पट्टी बँधी थी?



3) आईटीसी, कारगिल, AWB जैसे महाकाय कम्पनियों द्वारा बिस्कुट, पिज्जा के लिये करोड़ों टन का गेंहूं स्टॉक कर लिया गया, और ये लोग नन्दीग्राम-सिंगूर में गरीबों को गोलियों से भून रहे थे, क्यों?



जब सरकार की नीतियों पर तुम्हारा जोर नहीं चलता, सरकार के मंत्री तुम्हें सरेआम ठेंगा दिखाते घूमते हैं, तो फ़िर काहे की समन्वय समिति, काहे का बाहर से मुद्दा आधारित समर्थन? लानत है…। आज अचानक इन्हें महंगाई-महंगाई चारों तरफ़ दिखने लगी है। ये निर्लज्ज लोग महंगाई के खिलाफ़ प्रदर्शन करेंगे? असल में यह आने वाले चुनाव में संभावित जूते खाने का डर है, और अपनी सर्वव्यापी असफ़लता को छुपाने का नया हथकंडा

ऐ लाल झंडे वाले हरामखोरों, दाल-चावल-तेल नहीं खाते क्या?

वित्तमंत्री चिदम्बरम, प्रमुख योजनाकार अहलूवालिया और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की त्रिमूर्ति एक बेहतरीन अर्थशास्त्रियों की टीम मानी जाती है (सिर्फ़ मानी जाती है, असल में है नहीं)। बजट के पहले सोयाबीन तेल का भाव 60 रुपये किलो था जो बजट के बाद एकदम तीन दिनों में 75 रुपये हो गया… चावल के भाव आसमान छू रहे हैं लेकिन निर्यात जारी है… दालों के भाव को सट्टेबाजों ने कब्जे में कर रखा है, लेकिन उसे कमोडिटी एक्सचेंज से बाहर नहीं किया जा रहा। देश की आम जनता को सोनिया गाँधी के विज्ञापन के जरिये यह समझाने का प्रयास किया जा रहा है कि “हमने पिछले पाँच साल से मिट्टी के तेल के भाव नहीं बढ़ाये”, मानो गरीब सिर्फ़ केरोसीन से ही रोटी खाता हो और केरोसीन ही पीता हो। तमाम अखबार चिल्ला-चिल्ला कर कह रहे हैं कि कमोडिटी एक्सचेंजों से खुलेआम सट्टेबाजी जारी है, निर्यात ऑर्डरों में भारी घपले करके, बैकडेट आदि में नकली बिलिंग करके खाद्यान्न निर्यातक, करोड़ों को अरबों में बदल रहे हैं और चिदम्बरम साहब हमे 9 प्रतिशत की विकास दर दिखा रहे हैं। पहले तो बैंकों में ब्याज दर कम कर-कर के जनता को शेयर बाजार और म्युचुअल फ़ण्डों में पैसा लगाने की लत लगा दी, अब बाजार नीचे जा रहा है, विदेशी निवेशक कमा कर चले गये तो त्रिमूर्ति को कुछ सूझ नहीं रहा… समूचा देश सट्टेबाजों के हवाले कर दिया गया है, और माननीय वित्तमंत्री कहते हैं कि “महंगाई को काबू करना हमारे बस में नहीं है, यह एक अंतर्राष्ट्रीय घटना है…”। कांग्रेस एक और प्रवक्ता आँकड़े देते हुए कहते हैं कि “कमाई में विकास होता है तो महंगाई तो बढ़ती ही है”, क्या खूब!!! जरा वे यह बतायें कि कमाई किसकी और कितनी बढ़ी है? और महंगाई किस रफ़्तार से बढ़ी है? लेकिन असल में AC कमरों से बाहर नहीं निकलने वाले सरकारी सचिवों और नेताओं को (1) या तो जमीनी हकीकत मालूम ही नहीं है, (2) या वे जानबूझ कर अंजान बने हुए हैं, (3) या फ़िर इस सट्टेबाजी में इनके भी हाथ-पाँव-मुँह सब चकाचक लालमलाल हो रहे हैं… और आने वाले चुनावों के खर्च का बन्दोबस्त किया जा रहा है।



सबसे आपत्तिजनक रवैया तो लाल झंडे वालों का है, वे मूर्खों की तरह परमाणु-परमाणु रटे जा रहे हैं, नंदीग्राम में नरसंहार करवाये जा रहे हैं, लगातार कुत्ते की तरह सिर्फ़ भौंक रहे हैं, लेकिन समन्वय समिति की बैठक में जाते ही सोनिया उन्हें पता नहीं क्या घुट्टी पिलाती हैं, वे दुम दबाकर वापस आ जाते हैं, अगली धमकी के लिये। पाँच साल तक बगैर किसी जिम्मेदारी और जवाबदारी के सत्ता की मलाई चाटने वाले इन लोगों को दाल-चावल-तेल के भाव नहीं दिखते? परमाणु समझौता बड़ा या महंगाई इसकी उन्हें समझ नहीं है। सिर्फ़ तीन राज्यों में सिमटे हुए ये परजीवी (Parasites) सरकार को एक साल और चलाने के मूड में दिखते हैं क्योंकि इन्हें भी मालूम है कि लोकसभा में 62 सीटें, अब इन्हें जीवन में कभी नहीं मिलेंगी। भगवाधारी भी न जाने किस दुनिया में हैं, उन्हें रामसेतु से ही फ़ुर्सत नहीं है। वे अब भी राम-राम की रट लगाये हुए हैं, वे सोच रहे हैं कि राम इस बार चुनावों में उनकी नैया पार लगा देंगे, लेकिन ऐसा होगा नहीं। बार-बार मोदी की रट लगाये जाते हैं, लेकिन मोदी जैसे काम अपने अन्य राज्यों मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ आदि में नहीं करवा पाते, जहाँ कुछ ही माह में चुनाव होने वाले हैं। जिस तरह से हमारा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया “अमिताभ को ठंड लगी”, “ऐश्वर्या राय ने छत पर कबूतरों को दाने डाले”, जैसी “ब्रेकिंग न्यूज” दे-देकर आम जनता से पूरी तरह कट गया है, वैसे ही हैं ये राजनैतिक दल…जिस तरह एनडीए के पाँच साल में सबसे ज्यादा गिरी थी भाजपा, उसी तरह यूपीए के पाँच साला कार्यकाल में सबसे ज्यादा साख गिरी है लाल झंडे वालों की, और कांग्रेस तो पहले से गिरी हुई है ही…





अब सीन देखिये… चिदम्बरम ने किसान ॠण माफ़ करने की सीमा जून तय की है (किसान खुश), छठा वेतन आयोग मार्च-अप्रैल में अपनी रिपोर्ट सौंप देगा (कर्मचारी खुश), मम्मी के दुलारे राजकुमार भारत यात्रा पर निकल पड़े हैं और उड़ीसा के कालाहांडी से उन्होंने शुरुआत कर दी है (राहुल की प्राणप्रतिष्ठा), परमाणु समझौते पर हौले-हौले कदम आगे बढ़ ही रहे हैं (अमेरिका भी खुश), अखबारों में किसान और कर्मचारी समर्थक होने के विज्ञापन आने लगे हैं, यानी कि चुनाव के वक्त से पहले होने के पूरे आसार बन रहे हैं, लेकिन विपक्षी दल नींद में गाफ़िल हैं। वक्त आते ही “महारानी”, लाल झंडे वालों की पीठ में छुरा घोंप कर (कांग्रेस की परम्परानुसार) चुनाव का बिगुल फ़ूंक देंगी और ये लाल-भगवा-हरे झंडे वाले देखते ही रह जायेंगे। रही बात आम जनता की, चाहे वह किसी को पूर्ण बहुमत दे या खंडित जनादेश, साँप-नाग-कोबरा-अजगर में से किसी एक को चुनने के लिये वह शापित है…
महाजाल पर सुरेश चिपलूनकर

क्या मुम्बई के डिब्बेवालों, तिरुपुर और नमक्कल से हम कुछ सीखेंगे?

कुछ समय पहले एक प्रतिष्ठित आईआईएम के निदेशक बड़े गर्व से टीवी पर बता रहे थे कि उनके यहाँ से 60 छात्रों का चयन बड़ी-बड़ी कम्पनियों में हो गया है (जाहिर है कि मल्टीनेशनल में ही)…एक छात्र को तो वार्षिक साठ लाख का पैकेज मिला है और दूसरे को अस्सी लाख वार्षिक का…। लेकिन यहाँ सवाल उठता है कि इतना वेतन लेने वाले ये मैनेजर आखिर करेंगे क्या? मल्टीनेशनल कम्पनियों के लिये शोषण के नये-नये रास्ते खोजने का ही… जो कम्पनी इन्हें पाँच लाख रुपये महीना वेतन दे रही है, जाहिर है कि वह इनके “दिमाग”(?) के उपयोग से पचास लाख रुपये महीना कमाने की जुगाड़ में होगी, अर्थात ये साठ मेधावी छात्र आज्ञाकारी नौकर मात्र हैं, जो मालिक के लिये कुत्ते की तरह दिन-रात जुटे रहेंगे।


इन साठ छात्रों का चयन भारत के बेहतरीन मैनेजमेंट इन्स्टीट्यूट में तब हुआ जब वे लाखों के बीच से चुने गये, इनके प्रशिक्षण और रहन-सहन पर इस गरीब देश का करोड़ों रुपया लगा। लेकिन क्या सिर्फ़ इन्हें बहुराष्ट्रीय (या अम्बानी, टाटा, बिरला) कम्पनियों के काम से सन्तुष्ट हो जाना चाहिये? क्या ये मेधावी लोग कभी मालिक नहीं बनेंगे? क्या इनके दिमाग का उपयोग भारत के फ़ायदे के लिये नहीं होगा? इनमें से कितने होंगे जो कुछ सैकड़ों लोगों को ही रोजी-रोटी देने में कामयाब होंगे? यदि भारत के बेहतरीन दिमाग दूसरों की नौकरी करेंगे, तो नौकरी के अवसर कौन उत्पन्न करेगा? दुर्भाग्य की बात यह है कि मैनेजमेंट संस्थानों से निकलने वाले अधिकतर युवा “रिस्क” लेने से घबराते हैं, वे उद्यमशील (Entrepreneur) बनने की कोशिश नहीं करते।



अब तस्वीर का दूसरा पक्ष देखिये। रिलायंस, अम्बानी, टाटा, बिरला, मित्तल का नाम तो सभी जानते हैं, लेकिन कितने लोग तिरुपुर या नमक्कल के बारे में जानते हैं? तिरुपुर, तमिलनाडु के सुदूर में स्थित एक कस्बा है, जहाँ लगभग 4000 छोटे-बड़े सिलाई केन्द्र और अंडरवियर/बनियान बनाने के कुटीर उद्योग हैं। उनमें से लगभग 1000 इकाईयाँ इनका निर्यात भी करती हैं। पिछले साल अकेले तिरुपुर का निर्यात 6000 करोड़ रुपये का था, जो कि सन 1985 में सिर्फ़ 85 करोड़ था। इन छोटी-छोटी इकाईयों और कारखानों की एक एसोसियेशन भी है तिरुपुर एक्सपोर्टर एसोसियेशन। लेकिन सबसे खास बात तो यह है कि दस में से नौ कामगार खुद अपनी इकाई के मालिक हैं, वे लोग पहले कभी किसी सिलाई केन्द्र में काम करते थे, धीरे-धीरे खुद के पैरों पर खड़ा होना सीखा, बैंक से लोन लिये और अपनी खुद की इकाई शुरु की। तिरुपुर कस्बा अपने आप में एक पाठशाला है कि कैसे लोगों को उद्यमशील बनाया जाता है, कैसे उनमें प्रेरणा जगाई जाती है, कैसे उन्हें काम सिखाया जाता है। इनमें से अधिकतर लोग कभी किसी यूनिवर्सिटी या मैनेजमेंट संस्थान में नहीं गये, इनके पास कोई औपचारिक डिग्री नहीं है, लेकिन ये खुद अपना काम तो कर ही रहे हैं दो-चार लोगों को काम दे भी रहे हैं जो आगे चलकर खुद मालिक बन जायेंगे।



जाहिर सी बात है कि अधिकतर कामगार/मालिक अंग्रेजी नहीं जानते, लेकिन फ़िर भी वैश्विक चुनौतियों का वे बखूबी सामना कर रहे हैं, रेट्स के मामले में भी और ग्राहक की पसन्द के मामले में भी। पश्चिमी देशों के मौसम और डिजाइन के अनुकूल अंडर-गारमेण्ट्स ये लोग बेहद प्रतिस्पर्धी कीमतों पर निर्यात करते हैं। इन्हीं में से एक पल्लानिस्वामी साफ़ कहते हैं कि “जब वे बारहवीं कक्षा में फ़ेल हो गये तब वे इस बिजनेस की ओर मुड़े…”। आज की तारीख में वे एक बड़े कारखाने के मालिक हैं, उनका 20 करोड़ का निर्यात होता है और 1200 लोगों को उन्होंने रोजगार दिया हुआ है। वे मानते हैं कि यदि वे पढ़ाई करते रहते तो आज यहाँ तक नहीं पहुँच सकते थे। और ऐसे लोगों की तिरुपुर में भरमार है, जिनसे लक्स, लिरिल, रूपा आदि जैसे ब्राण्ड कपड़े खरीदते हैं, अपनी सील और पैकिंग लगाते हैं और भारी मुनाफ़े के साथ हमे-आपको बेचते हैं, लेकिन सवाल उठता है कि आईआईएम और उनके छात्रों ने देश में ऐसे कितने तिरुपुर बनाये हैं?



मुम्बई के डिब्बेवालों की तारीफ़ में प्रिंस चार्ल्स पहले ही बहुत कुछ कह चुके हैं, उनकी कार्यप्रणाली, उनकी कार्यक्षमता, उनकी समयबद्धता वाकई अद्भुत है। मजे की बात तो यह है कि उनमें से कई तो नितांत अनपढ़ हैं, लेकिन मुम्बई के सुदूर उपनगरों से ठेठ नरीमन पाइंट के कारपोरेट दफ़्तरों तक और वापस डिब्बों को उनके घर तक पहुँचाने में उनका कोई जवाब नहीं है। अब कई मैनेजमेंट संस्थान इन पर शोध कर रहे हैं, लालू भी इनके मुरीद बन चुके हैं, लेकिन इनका जीवन आज भी वैसा ही है। इनकी संस्था ने हजारों को रोजगार दिलवाया हुआ है, खाना बनाने वालों, छोटे किराना दुकानदारों, गरीब बच्चों, जिन्हें कोई बड़ा उद्योगपति अपने दफ़्तर में घुसने भी नहीं देता। आईआईएम के ही एक छात्र ने चेन्नई में अपना खुद का केटरिंग व्यवसाय शुरु किया, शुरु में सिर्फ़ वह इडली बनाकर सप्लाई करते थे, आज उनके पास कर्मचारियों की फ़ौज है और वे टिफ़िन व्यवसाय में जम चुके हैं, लेकिन उनकी प्रेरणा स्रोत थीं उनकी माँ, जिन्होंने बेहद गरीबी के बावजूद अपने मेधावी बेटे को आईआईएम में पढ़ने भेजा, लेकिन सवाल यही है कि ऐसा कदम कितने लोग उठाते हैं?



एक और उदाहरण है नमक्कल का। जाहिर है कि इसका नाम भी कईयों ने नहीं सुना होगा। नमक्कल के 3000 परिवारों के पास 18000 ट्र्क हैं। भारत के 70% टैंकर व्यवसाय का हिस्सा नमक्कल का होता है। चकरा गये ना !! तिरुपुर की ही तरह यहाँ भी अधिक पढ़े-लिखे लोग नहीं हैं, ना ही यहाँ विश्वविद्यालय हैं, न ही मैनेजमेंट संस्थान। लगभग सभी टैंकर मालिक कभी न कभी क्लीनर थे, किसी को अंग्रेजी नहीं आती, लेकिन ट्रक के मामले में वे उस्ताद हैं, पहले क्लीनर, फ़िर हेल्पर, फ़िर ड्रायवर और फ़िर एक टैंकर के मालिक, यही सभी की पायदाने हैं, और अब नमक्कल ट्रकों की बॉडी-बिल्डिंग (ढांचा तैयार करने) का एक बड़ा केन्द्र बनता जा रहा है। एक समय यह इलाका सूखे से लगातार जूझता रहता था, लेकिन यहाँ के मेहनती लोगों ने पलायन करने की बजाय यह रास्ता अपनाया।



पहले उन्होंने हाइवे पर आती-जाती गाड़ियों पर कपड़ा मारने, तेल-हवा भरने का काम किया, फ़िर सीखते-सीखते वे खुद मालिक बन गये। आज हरेक ट्रक पर कम से कम तीन लोगों को रोजगार मिलता है। एक-दो को देखकर दस-बीस लोगों को प्रेरणा मिलती है और वह भी काम पर लग जाता है, ठीक तिरुपुर की तरह। यह एक प्रकार का सामुदायिक विकास है, सहकारिता के साथ, इसमें प्रतिस्पर्धा और आपसी जलन की भावना तो है, लेकिन वह उतनी तीव्र नहीं क्योंकि हरेक के पास छोटा ही सही रोजगार तो है। और यह सब खड़ा किया है समाज के अन्दरूनी हालातों के साथ लोगों की लड़ने की जिद ने, न कि किसी आईआईएम ने। यही नहीं, ऐसे उदाहरण हमें समूचे भारत में देखने को मिल जाते हैं, चाहे वह कोयम्बटूर का वस्त्रोद्योग हो, सिवाकासी का पटाखा उद्योग, लुधियाना का कपड़ा, पटियाला का साइकिल उद्योग हो (यहाँ पर मैंने “अमूल” का उदाहरण नहीं दिया, वह भी सिर्फ़ और सिर्फ़ कुरियन साहब की मेहनत और सफ़ल ग्रामीण सहकारिता का नतीजा है)।



मोटी तनख्वाहें लेकर संतुष्ट हो जाने और फ़िर जीवन भर किसी अंग्रेज की गुलामी करने वालों से तो ये लोग काफ़ी बेहतर लगते हैं, कम से कम उनमें स्वाभिमान तो है। लेकिन जब मीडिया भी अनिल-मुकेश-मित्तल आदि के गुणगान करता रहता है, वे लोग भी पेट्रोल से लेकर जूते और सब्जी तक बेचने को उतर आते हैं, “सेज” के नाम पर जमीने हथियाते हैं, तो युवाओं के सामने क्या आदर्श पेश होता है? आखिर इतनी पूंजी का ये लोग क्या करेंगे? एक ही जगह इतनी ज्यादा पूंजी का एकत्रीकरण क्यों? क्या नीता अम्बानी को जन्मदिन पर 300 करोड़ का हवाई जहाज गिफ़्ट में देना कोई उपलब्धि है? लेकिन हो यह रहा है कि कॉलेज, संस्थान से निकले युवक की आँखों पर इन्हीं लोगों के नामों का पट्टा चढ़ा होता है, वह कुछ नया सोच ही नहीं पाता, नया करने की हिम्मत जुटा ही नहीं पाता, उसकी उद्यमशीलता पहले ही खत्म हो चुकी होती है। इसमें अपनी तरफ़ से टेका लगाते हैं, मैनेजमेंट संस्थान और उनके पढ़े-लिखे आधुनिक नौकर। जबकि इन लोगों को तिरुपुर, नमक्कल जाकर सीखना चाहिये कि स्वाभिमानी जीवन, लाखों की तनख्वाह से बढ़कर होता है…। जो प्रतिभाशाली, दिमागदार युवा दूसरे के लिये काम कर सकते हैं, क्या वे दो-चार का समूह बनाकर खुद की इंडस्ट्री नहीं खोल सकते? जरूर कर सकते हैं, जरूरत है सिर्फ़ मानसिकता बदलने की...

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सोनियाजी ऐसी भी क्या दुश्मनी!!!

Sonia Gandhi Amitabh Bachchan Rivalry

आमतौर पर एक सामाजिक मान्यता है कि भले ही आप किसी परिवार में मांगलिक अवसरों पर उपस्थित न हो सकें तो चलेगा, लेकिन उस परिवार की गमी में अवश्य शामिल होना चाहिये, चाहे उस परिवार से आपका कितना ही मनमुटाव क्यों ना हो... अमिताभ बच्चन की माँ अर्थात तेजी बच्चन के अन्तिम संस्कार में गाँधी परिवार का एक भी सदस्य मौजूद नहीं था, जबकि भैरोंसिंह शेखावत अपने खराब स्वास्थ्य के बावजूद इसमें शामिल हुए।

उल्लेखनीय है कि तेजी बच्चन एक संभ्रांत सिख परिवार की बेटी थीं, जिन्होंने अपने परिवार के भारी विरोध के बावजूद उस जमाने में एक कायस्थ से प्रेम विवाह किया। हालांकि उनके दबंग व्यक्तित्व को रेखांकित करने के लिये यही एक तथ्य काफ़ी है, लेकिन इसके भी परे उन्होंने अपने बच्चों अमिताभ और अजिताभ को बेहतर संस्कार दिये और उन्हें एक मृदुभाषी और संस्कारित व्यक्ति बनाया।

तेजी बच्चन के स्व.इन्दिरा गाँधी से व्यक्तिगत सम्बन्ध रहे और उन्होंने हमेशा राजीव गाँधी को अपने पुत्र के समान माना और स्नेह दिया। जब सोनिया माइनो से राजीव का विवाह तय हुआ उस समय सोनिया को भारतीय संस्कारों और परम्पराओं की जानकारी देने के लिये इंदिरा गाँधी ने तेजी से ही अनुरोध किया था, और एक तरह से तात्कालिक रूप से सोनिया का कन्या पक्ष बच्चन परिवार ही था, और चूँकि भारतीय पद्धति से विवाह (देखें लिंक दिखावे के लिये ही सही) हो रहा था इसलिये “कन्यादान” जैसी रस्म भी बच्चन परिवार ने ही निभाई थी। दो परिवारों के बीच इतने “प्रगाढ़” सम्बन्ध होने के बावजूद ऐसा क्या हो गया कि अब सोनिया एक महत्वपूर्ण शोक के अवसर पर नदारद रहीं। क्या राजनीति और अहं की परछाईयाँ इतनी लम्बी होती हैं कि व्यक्ति अपने सामान्य नैतिक व्यवहार तक भूल जाता है? क्या बच्चन परिवार ने गाँधी परिवार का इतना बुरा कर दिया है कि इस मौके पर भी कम से कम राहुल गाँधी को उपस्थित रहने का निर्देश भी सोनिया नहीं दे सकीं? अब तक तो बच्चन परिवार की ओर से शालीन बर्ताव के कारण यह पता नहीं चल सका है कि इन दोनों परिवारों में मनमुटाव की ऐसी स्थिति क्यों और कैसे बनी (अब तक तो यही देखने में आया है कि अमिताभ के खिलाफ़ आयकर विभाग को सतत काम पर लगाया गया, जया बच्चन की राज्यसभा सदस्यता “दोहरे लाभ पद” वाले मामले में कुर्बान करनी पड़ी) लेकिन एक बार बीच में राहुल के मुँह से निकल गया था कि “बच्चन परिवार ने हमारे साथ विश्वासघात किया है”... हो सकता है कि ऐसी कोई बात हो भी, लेकिन भारतीय संस्कृति में और इतने बड़े सार्वजनिक पद पर रहने के कारण सोनिया का यह फ़र्ज बनता था कि अपने “दुश्मन” के यहाँ इस अवसर पर उपस्थित रहतीं, या परिवार के किसी सदस्य को भेजतीं, और नहीं तो कम से कम एक बयान जारी करके अखबारों में ही संवेदना प्रकट कर देतीं, लेकिनशायद “इटली” के संस्कार भारतीय बहू(?) पर भारी पड़ गये.... ऐसी भी क्या दुश्मनी!!!

सोनिया गाँधी को आप कितना जानते हैं ? (भाग4)

इन दिनों सोनिया गाँधी अपने पति हत्यारों के समर्थकों MDMK, PMK और DMK से सत्ता के लिये मधुर सम्बन्ध बनाये हुए हैं, कोई भारतीय विधवा कभी ऐसा नहीं कर सकती। उनका पूर्व आचरण भी ऐसे मामलों में संदिग्ध रहा है, जैसे कि – जब संजय गाँधी का हवाई जहाज नाक के बल गिरा तो उसमें विस्फ़ोट नहीं हुआ, क्योंकि पाया गया कि उसमें ईंधन नहीं था, जबकि फ़्लाईट रजिस्टर के अनुसार निकलते वक्त टैंक फ़ुल किया गया था, जैसे माधवराव सिंधिया की विमान दुर्घटना के ऐन पहले मणिशंकर अय्यर और शीला दीक्षित को उनके साथ जाने से मना कर दिया गया। इन्दिरा गाँधी की मौत की वजह बना था उनका अत्यधिक रक्तस्राव, न कि सिर में गोली लगने से, फ़िर सोनिया गाँधी ने उस वक्त खून बहते हुए हालत में इन्दिरा गाँधी को लोहिया अस्पताल ले जाने की जिद की जो कि अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (AAIMS) से बिलकुल विपरीत दिशा में है? और जबकि “ऐम्स” में तमाम सुविधायें भी उपलब्ध हैं, फ़िर लोहिया अस्पताल पहुँच कर वापस सभी लोग AAIMS पहुँचे, और इस बीच लगभग पच्चीस कीमती मिनट बरबाद हो गये? ऐसा क्यों हुआ, क्या आज तक किसी ने इसकी जाँच की? सोनिया गाँधी के विकल्प बन सकने वाले लगभग सभी युवा नेता जैसे राजेश पायलट, माधवराव सिन्धिया, जितेन्द्र प्रसाद विभिन्न हादसों में ही क्यों मारे गये? अब सोनिया की सत्ता निर्बाध रूप से चल रही है, लेकिन ऐसे कई अनसुलझे और रहस्यमयी प्रश्न चारों ओर मौजूद हैं, उनका कोई जवाब नहीं है, और कोई पूछने वाला भी नहीं है, यही इटली की स्टाइल है।


[आशा है कि मेरे कई “मित्रों” (?) को कई जवाब मिल गये होंगे, जो मैंने पिछली दोनो पोस्टों में जानबूझकर नहीं उठाये थे, यह भी आभास हुआ होगा कि कांग्रेस सांसद “सुब्बा” कैसे भारतीय नागरिक ना होते हुए भी सांसद बन गया (क्योंकि उसकी महारानी खुद कानून का सम्मान नहीं करती), क्यों बार-बार क्वात्रोच्ची सीबीआई के फ़ौलादी (!) हाथों से फ़िसल जाता है, क्यों कांग्रेस और भाजपा एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं? क्यों हमारी सीबीआई इतनी लुंज-पुंज है? आदि-आदि... मेरा सिर्फ़ यही आग्रह है कि किसी को भी तड़ से “सांप्रदायिक या फ़ासिस्ट” घोषित करने से पहले जरा ठंडे दिमाग से सोच लें, तथ्यों पर गौर करें, कई बार हमें जो दिखाई देता है सत्य उससे कहीं अधिक भयानक होता है, और सत्ता के शीर्ष शिखरों पर तो इतनी सड़ांध और षडयंत्र हैं कि हम जैसे आम आदमी कल्पना भी नहीं कर सकते, बल्कि यह कहना गैरवाजिब नहीं होगा कि सत्ता और धन की चोटी पर बैठे व्यक्ति के नीचे न जाने कितनी आहें होती हैं, कितने नरमुंड होते हैं, कितनी चालबाजियाँ होती हैं.... राजनीति शायद इसी का नाम है...]

सोनिया गाँधी को आप कितना जानते हैं ? (भाग-3)

जब भारतीय प्रधानमंत्री का बेटा लन्दन में एक लड़की से प्रेम करने में लगा हो, तो भला रूसी खुफ़िया एजेंसी “केजीबी” भला चुप कैसे रह सकती थी, जबकि भारत-सोवियत रिश्ते बहुत मधुर हों, और सोनिया उस स्टीफ़ानो की पुत्री हों जो कि सोवियत भक्त बन चुका हो। इसलिये सोनिया का राजीव से विवाह भारत-सोवियत सम्बन्धों और केजीबी के हित में ही था। राजीव से शादी के बाद माइनो परिवार के सोवियत संघ से सम्बन्ध और भी मजबूत हुए और कई सौदों में उन्हें दलाली की रकम अदा की गई । डॉ.येवेग्निया अल्बाट्स (पीएच.डी. हार्वर्ड) एक ख्यात रूसी लेखिका और पत्रकार हैं, वे बोरिस येल्तसिन द्वारा सन 1991 में गठित एक आयोग की सदस्या थीं, ने अपनी पुस्तक “द स्टेट विदिन अ स्टेट : द केजीबी इन सोवियत यूनियन” में कई दस्तावेजों का उल्लेख किया है, और इन दस्तावेजों को भारत सरकार जब चाहे एक आवेदन देकर देख सकती है। रूसी सरकार ने सन 1992 में डॉ. अल्बाट्स के इन रहस्योद्घाटनों को स्वीकार किया, जो कि “हिन्दू” में 1992 में प्रकाशित हो चुका है । उस प्रवक्ता ने यह भी कहा कि “सोवियत आदर्शों और सिद्धांतों को बढावा देने के लिये” इस प्रकार का पैसा माइनो और कांग्रेस प्रत्याशियों को चुनावों के दौरान दिया जाता रहा है । 1991 में रूस के विघटन के पश्चात जब रूस आर्थिक भंवर में फ़ँस गया तब सोनिया गाँधी का पैसे का यह स्रोत सूख गया और सोनिया ने रूस से मुँह मोड़ना शुरु कर दिया। मनमोहन सिंह के सत्ता में आते ही रूस के वर्तमान राष्ट्रपति पुतिन (जो कि घुटे हुए केजीबी जासूस रह चुके हैं) ने तत्काल दिल्ली में राजदूत के तौर पर अपना एक खास आदमी नियुक्त किया जो सोनिया के इतिहास और उनके परिवार के रूसी सम्बन्धों के बारे में सब कुछ जानता था। अब फ़िलहाल जो सरकार है वह सोनिया ही चला रही हैं यह बात जब भारत में ही सब जानते हैं तो विदेशी जासूस कोई मूर्ख तो नहीं हैं, इसलिये उस राजदूत के जरिये भारत-रूस सम्बन्ध अब एक नये दौर में प्रवेश कर चुके हैं। हम भारतवासी रूस से प्रगाढ़ मैत्री चाहते हैं, रूस ने जब-तब हमारी मदद भी की है, लेकिन क्या सिर्फ़ इसीलिये हमें उन लोगों को स्वीकार कर लेना चाहिये जो रूसी खुफ़िया एजेंसी से जुड़े रहे हों? अमेरिका में भी किसी अधिकारी को इसराइल के लिये जासूसी करते हुए बर्दाश्त नहीं किया जायेगा, भले ही अमेरिका के इसराइल से कितने ही मधुर सम्बन्ध हों। सम्बन्ध अपनी जगह हैं और राष्ट्रहित अलग बात है। दिसम्बर 2001 में मैने दिल्ली हाईकोर्ट में एक याचिका दायर करके सभी दस्तावेज प्रस्तुत कर, केजीबी और सोनिया के सम्बन्धों की सीबीआई द्वारा जाँच की माँग की थी, जिसे वाजपेयी सरकार द्वारा ठुकरा दिया गया। इससे पहले तत्कालीन राज्य मंत्री वसुन्धरा राजे सिंधिया ने 3 मार्च 2001 को इस केस की सीबीआई जाँच के आदेश दे दिये थे, लेकिन कांग्रेसियों द्वारा इस मुद्दे पर संसद में हल्ला-गुल्ला करने और कार्रवाई ठप करने के कारण वाजपेयी ने वसुन्धरा का वह आदेश खारिज कर दिया। दिल्ली हाईकोर्ट ने मई 2002 में सीबीआई को रूसी सम्बन्धों के बारे में जाँच करने के आदेश दिये। सीबीआई ने दो वर्ष तक “जाँच” (?) करने के बाद “बिना एफ़आईआर दर्ज किये” कोर्ट को यह बताया कि सोनिया और रूसियों में कोई सम्बन्ध नहीं है, लेकिन सीबीआई को FIR दर्ज करने से किसने रोका, वाजपेयी सरकार ने, क्यों? यह आज तक रहस्य ही है। इस केस की अगली सुनवाई होने वाली है, लेकिन अब सोनिया “निर्देशक” की भूमिका में आ चुकी हैं और सीबीआई से किसी स्वतन्त्र कार्य की उम्मीद करना बेकार है।

सोनिया गाँधी को आप कितना जानते हैं ? (भाग-2)

सोनिया गाँधी भारत की प्रधानमंत्री बनने के योग्य हैं या नहीं, इस प्रश्न का "धर्मनिरपेक्षता", या "हिन्दू राष्ट्रवाद" या "भारत की बहुलवादी संस्कृति" से कोई लेना-देना नहीं है। इसका पूरी तरह से नाता इस बात से है कि उनका जन्म इटली में हुआ, लेकिन यही एक बात नहीं है, सबसे पहली बात तो यह कि देश के सबसे महत्वपूर्ण पद पर आसीन कराने के लिये कैसे उन पर भरोसा किया जाये। सन १९९८ में एक रैली में उन्होंने कहा था कि "अपनी आखिरी साँस तक मैं भारतीय हूँ", बहुत ही उच्च विचार है, लेकिन तथ्यों के आधार पर यह बेहद खोखला ठहरता है। अब चूँकि वे देश के एक खास परिवार से हैं और प्रधानमंत्री पद के लिये बेहद आतुर हैं (जी हाँ) तब वे एक सामाजिक व्यक्तित्व बन जाती हैं और उनके बारे में जानने का हक सभी को है (१४ मई २००४ तक वे प्रधानमंत्री बनने के लिये जी-तोड़ कोशिश करती रहीं, यहाँ तक कि एक बार तो पूर्ण समर्थन ना होने के बावजूद वे दावा पेश करने चल पडी़ थीं, लेकिन १४ मई २००४ को राष्ट्रपति कलाम साहब द्वारा कुछ "असुविधाजनक" प्रश्न पूछ लिये जाने के बाद यकायक १७ मई आते-आते उनमे वैराग्य भावना जागृत हो गई और वे खामख्वाह "त्याग" और "बलिदान" (?) की प्रतिमूर्ति बना दी गईं - कलाम साहब को दूसरा कार्यकाल न मिलने के पीछे यह एक बडी़ वजह है, ठीक वैसे ही जैसे सोनिया ने प्रणब मुखर्जी को राष्ट्रपति इसलिये नहीं बनवाया, क्योंकि इंदिरा गाँधी की मृत्यु के बाद राजीव के प्रधानमंत्री बनने का उन्होंने विरोध किया था... और अब एक तरफ़ कठपुतली प्रधानमंत्री और जी-हुजूर राष्ट्रपति दूसरी तरफ़ होने के बाद अगले चुनावों के पश्चात सोनिया को प्रधानमंत्री बनने से कौन रोक सकता है?)बहरहाल... सोनिया गाँधी उर्फ़ माइनो भले ही आखिरी साँस तक भारतीय होने का दावा करती रहें, भारत की भोली-भाली (?) जनता को इन्दिरा स्टाइल में,सिर पर पल्ला ओढ़ कर "नामास्खार" आदि दो चार हिन्दी शब्द बोल लें, लेकिन यह सच्चाई है कि सन १९८४ तक उन्होंने इटली की नागरिकता और पासपोर्ट नहीं छोडा़ था (शायद कभी जरूरत पड़ जाये) । राजीव और सोनिया का विवाह हुआ था सन १९६८ में,भारत के नागरिकता कानूनों के मुताबिक (जो कानून भाजपा या कम्युनिस्टों ने नहीं बल्कि कांग्रेसियों ने ही सन १९५० में बनाये) सोनिया को पाँच वर्ष के भीतर भारत की नागरिकता ग्रहण कर लेना चाहिये था अर्थात सन १९७४ तक, लेकिन यह काम उन्होंने किया दस साल बाद...यह कोई नजरअंदाज कर दिये जाने वाली बात नहीं है। इन पन्द्रह वर्षों में दो मौके ऐसे आये जब सोनिया अपने आप को भारतीय(!)साबित कर सकती थीं। पहला मौका आया था सन १९७१ में जब पाकिस्तान से युद्ध हुआ (बांग्लादेश को तभी मुक्त करवाया गया था), उस वक्त आपातकालीन आदेशों के तहत इंडियन एयरलाइंस के सभी पायलटों की छुट्टियाँ रद्द कर दी गईं थीं, ताकि आवश्यकता पड़ने पर सेना को किसी भी तरह की रसद आदि पहुँचाई जा सके । सिर्फ़ एक पायलट को इससे छूट दी गई थी, जी हाँ राजीव गाँधी, जो उस वक्त भी एक पूर्णकालिक पायलट थे । जब सारे भारतीय पायलट अपनी मातृभूमि की सेवा में लगे थे तब सोनिया अपने पति और दोनों बच्चों के साथ इटली की सुरम्य वादियों में थीं, वे वहाँ से तभी लौटीं, जब जनरल नियाजी ने समर्पण के कागजों पर दस्तखत कर दिये। दूसरा मौका आया सन १९७७ में जब यह खबर आई कि इंदिरा गाँधी चुनाव हार गईं हैं और शायद जनता पार्टी सरकार उनको गिरफ़्तार करे और उन्हें परेशान करे। "माईनो" मैडम ने तत्काल अपना सामान बाँधा और अपने दोनों बच्चों सहित दिल्ली के चाणक्यपुरी स्थित इटालियन दूतावास में जा छिपीं। इंदिरा गाँधी, संजय गाँधी और एक और बहू मेनका के संयुक्त प्रयासों और मान-मनौव्वल के बाद वे घर वापस लौटीं। १९८४ में भी भारतीय नागरिकता ग्रहण करना उनकी मजबूरी इसलिये थी कि राजीव गाँधी के लिये यह बडी़ शर्म और असुविधा की स्थिति होती कि एक भारतीय प्रधानमंत्री की पत्नी इटली की नागरिक है ? भारत की नागरिकता लेने की दिनांक भारतीय जनता से बडी़ ही सफ़ाई से छिपाई गई। भारत का कानून अमेरिका, जर्मनी, फ़िनलैंड, थाईलैंड या सिंगापुर आदि देशों जैसा नहीं है जिसमें वहाँ पैदा हुआ व्यक्ति ही उच्च पदों पर बैठ सकता है। भारत के संविधान में यह प्रावधान इसलिये नहीं है कि इसे बनाने वाले "धर्मनिरपेक्ष नेताओं" ने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि आजादी के साठ वर्ष के भीतर ही कोई विदेशी मूल का व्यक्ति प्रधानमंत्री पद का दावेदार बन जायेगा। लेकिन कलाम साहब ने आसानी से धोखा नहीं खाया और उनसे सवाल कर लिये (प्रतिभा ताई कितने सवाल कर पाती हैं यह देखना बाकी है)। संविधान के मुताबिक सोनिया प्रधानमंत्री पद की दावेदार बन सकती हैं, जैसे कि मैं या कोई और। लेकिन भारत के नागरिकता कानून के मुताबिक व्यक्ति तीन तरीकों से भारत का नागरिक हो सकता है, पहला जन्म से, दूसरा रजिस्ट्रेशन से, और तीसरा प्राकृतिक कारणों (भारतीय से विवाह के बाद पाँच वर्ष तक लगातार भारत में रहने पर) । इस प्रकार मैं और सोनिया गाँधी,दोनों भारतीय नागरिक हैं, लेकिन मैं जन्म से भारत का नागरिक हूँ और मुझसे यह कोई नहीं छीन सकता, जबकि सोनिया के मामले में उनका रजिस्ट्रेशन रद्द किया जा सकता है। वे भले ही लाख दावा करें कि वे भारतीय बहू हैं, लेकिन उनका नागरिकता रजिस्ट्रेशन भारत के नागरिकता कानून की धारा १० के तहत तीन उपधाराओं के कारण रद्द किया जा सकता है (अ) उन्होंने नागरिकता का रजिस्ट्रेशन धोखाधडी़ या कोई तथ्य छुपाकर हासिल किया हो, (ब) वह नागरिक भारत के संविधान के प्रति बेईमान हो, या (स) रजिस्टर्ड नागरिक युद्धकाल के दौरान दुश्मन देश के साथ किसी भी प्रकार के सम्पर्क में रहा हो । (इन मुद्दों पर डॉ. सुब्रह्मण्यम स्वामी काफ़ी काम कर चुके हैं और अपनी पुस्तक में उन्होंने इसका उल्लेख भी किया है, जो आप पायेंगे इन अनुवादों के "तीसरे भाग" में)। राष्ट्रपति कलाम साहब के दिमाग में एक और बात निश्चित ही चल रही होगी, वह यह कि इटली के कानूनों के मुताबिक वहाँ का कोई भी नागरिक दोहरी नागरिकता रख सकता है, भारत के कानून में ऐसा नहीं है, और अब तक यह बात सार्वजनिक नहीं हुई है कि सोनिया ने अपना इटली वाला पासपोर्ट और नागरिकता कब छोडी़ ? ऐसे में वह भारत की प्रधानमंत्री बनने के साथ-साथ इटली की भी प्रधानमंत्री बनने की दावेदार हो सकती हैं। अन्त में एक और मुद्दा, अमेरिका के संविधान के अनुसार सर्वोच्च पद पर आसीन होने वाले व्यक्ति को अंग्रेजी आना चाहिये, अमेरिका के प्रति वफ़ादार हो तथा अमेरिकी संविधान और शासन व्यवस्था का जानकार हो। भारत का संविधान भी लगभग मिलता-जुलता ही है, लेकिन सोनिया किसी भी भारतीय भाषा में निपुण नहीं हैं (अंग्रेजी में भी), उनकी भारत के प्रति वफ़ादारी भी मात्र बाईस-तेईस साल पुरानी ही है, और उन्हें भारतीय संविधान और इतिहास की कितनी जानकारी है यह तो सभी जानते हैं। जब कोई नया प्रधानमंत्री बनता है तो भारत सरकार का पत्र सूचना ब्यूरो (पीआईबी) उनका बायो-डाटा और अन्य जानकारियाँ एक पैम्फ़लेट में जारी करता है। आज तक उस पैम्फ़लेट को किसी ने भी ध्यान से नहीं पढा़, क्योंकि जो भी प्रधानमंत्री बना उसके बारे में जनता, प्रेस और यहाँ तक कि छुटभैये नेता तक नख-शिख जानते हैं। यदि (भगवान न करे) सोनिया प्रधानमंत्री पद पर आसीन हुईं तो पीआईबी के उस विस्तृत पैम्फ़लेट को पढ़ना बेहद दिलचस्प होगा। आखिर भारतीयों को यह जानना ही होगा कि सोनिया का जन्म दरअसल कहाँ हुआ? उनके माता-पिता का नाम क्या है और उनका इतिहास क्या है? वे किस स्कूल में पढीं? किस भाषा में वे अपने को सहज पाती हैं? उनका मनपसन्द खाना कौन सा है? हिन्दी फ़िल्मों का कौन सा गायक उन्हें अच्छा लगता है? किस भारतीय कवि की कवितायें उन्हें लुभाती हैं? क्या भारत के प्रधानमंत्री के बारे में इतना भी नहीं जानना चाहिये!


(प्रस्तुत लेख सुश्री कंचन गुप्ता द्वारा दिनांक २३ अप्रैल १९९९ को रेडिफ़.कॉम पर लिखा गया है, बेहद मामूली फ़ेरबदल और कुछ भाषाई जरूरतों के मुताबिक इसे मैंने संकलित, संपादित और अनुवादित किया है। डॉ.सुब्रह्मण्यम स्वामी द्वारा लिखे गये कुछ लेखों का संकलन पूर्ण होते ही अनुवादों की इस कडी़ का तीसरा भाग पेश किया जायेगा।) मित्रों जनजागरण का यह महाअभियान जारी रहे, अंग्रेजी में लिखा हुआ अधिकतर आम लोगों ने नहीं पढा़ होगा इसलिये सभी का यह कर्तव्य बनता है कि महाजाल पर स्थित यह सामग्री हिन्दी पाठकों को भी सुलभ हो, इसलिये इस लेख की लिंक को अपने इष्टमित्रों तक अवश्य पहुँचायें, क्योंकि हो सकता है कि कल को हम एक विदेशी द्वारा शासित होने को अभिशप्त हो जायें !

सोनिया गाँधी को आप कितना जानते हैं ? (भाग-१)

जब इंटरनेट और ब्लॉग की दुनिया में आया तो सोनिया गाँधी के बारे में काफ़ी कुछ पढने को मिला । पहले तो मैंने भी इस पर विश्वास नहीं किया और इसे मात्र बकवास सोच कर खारिज कर दिया, लेकिन एक-दो नहीं कई साईटों पर कई लेखकों ने सोनिया के बारे में काफ़ी कुछ लिखा है जो कि अभी तक प्रिंट मीडिया में नहीं आया है (और भारत में इंटरनेट कितने और किस प्रकार के लोग उपयोग करते हैं, यह बताने की आवश्यकता नहीं है) । यह तमाम सामग्री हिन्दी में और विशेषकर "यूनिकोड" में भी पाठकों को सुलभ होनी चाहिये, यही सोचकर मैंने "नेहरू-गाँधी राजवंश" नामक पोस्ट लिखी थी जिस पर मुझे मिलीजुली प्रतिक्रिया मिली, कुछ ने इसकी तारीफ़ की, कुछ तटस्थ बने रहे और कुछ ने व्यक्तिगत मेल भेजकर गालियाँ भी दीं (मुंडे-मुंडे मतिर्भिन्नाः) । यह तो स्वाभाविक ही था, लेकिन सबसे आश्चर्यजनक बात यह रही कि कुछ विद्वानों ने मेरे लिखने को ही चुनौती दे डाली और अंग्रेजी से हिन्दी या मराठी से हिन्दी के अनुवाद को एक गैर-लेखकीय कर्म और "नॉन-क्रियेटिव" करार दिया । बहरहाल, कम से कम मैं तो अनुवाद को रचनात्मक कार्य मानता हूँ, और देश की एक प्रमुख हस्ती के बारे में लिखे हुए का हिन्दी पाठकों के लिये अनुवाद पेश करना एक कर्तव्य मानता हूँ (कम से कम मैं इतना तो ईमानदार हूँ ही, कि जहाँ से अनुवाद करूँ उसका उल्लेख, नाम उपलब्ध हो तो नाम और लिंक उपलब्ध हो तो लिंक देता हूँ) ।
पेश है "आप सोनिया गाँधी को कितना जानते हैं" की पहली कडी़, अंग्रेजी में इसके मूल लेखक हैं एस.गुरुमूर्ति और यह लेख दिनांक १७ अप्रैल २००४ को "द न्यू इंडियन एक्सप्रेस" में - अनमास्किंग सोनिया गाँधी- शीर्षक से प्रकाशित हुआ था ।
"अब भूमिका बाँधने की आवश्यकता नहीं है और समय भी नहीं है, हमें सीधे मुख्य मुद्दे पर आ जाना चाहिये । भारत की खुफ़िया एजेंसी "रॉ", जिसका गठन सन १९६८ में हुआ, ने विभिन्न देशों की गुप्तचर एजेंसियों जैसे अमेरिका की सीआईए, रूस की केजीबी, इसराईल की मोस्साद और फ़्रांस तथा जर्मनी में अपने पेशेगत संपर्क बढाये और एक नेटवर्क खडा़ किया । इन खुफ़िया एजेंसियों के अपने-अपने सूत्र थे और वे आतंकवाद, घुसपैठ और चीन के खतरे के बारे में सूचनायें आदान-प्रदान करने में सक्षम थीं । लेकिन "रॉ" ने इटली की खुफ़िया एजेंसियों से इस प्रकार का कोई सहयोग या गठजोड़ नहीं किया था, क्योंकि "रॉ" के वरिष्ठ जासूसों का मानना था कि इटालियन खुफ़िया एजेंसियाँ भरोसे के काबिल नहीं हैं और उनकी सूचनायें देने की क्षमता पर भी उन्हें संदेह था ।
सक्रिय राजनीति में राजीव गाँधी का प्रवेश हुआ १९८० में संजय की मौत के बाद । "रॉ" की नियमित "ब्रीफ़िंग" में राजीव गाँधी भी भाग लेने लगे थे ("ब्रीफ़िंग" कहते हैं उस संक्षिप्त बैठक को जिसमें रॉ या सीबीआई या पुलिस या कोई और सरकारी संस्था प्रधानमन्त्री या गृहमंत्री को अपनी रिपोर्ट देती है), जबकि राजीव गाँधी सरकार में किसी पद पर नहीं थे, तब वे सिर्फ़ काँग्रेस महासचिव थे । राजीव गाँधी चाहते थे कि अरुण नेहरू और अरुण सिंह भी रॉ की इन बैठकों में शामिल हों । रॉ के कुछ वरिष्ठ अधिकारियों ने दबी जुबान में इस बात का विरोध किया था चूँकि राजीव गाँधी किसी अधिकृत पद पर नहीं थे, लेकिन इंदिरा गाँधी ने रॉ से उन्हें इसकी अनुमति देने को कह दिया था, फ़िर भी रॉ ने इंदिरा जी को स्पष्ट कर दिया था कि इन लोगों के नाम इस ब्रीफ़िंग के रिकॉर्ड में नहीं आएंगे । उन बैठकों के दौरान राजीव गाँधी सतत रॉ पर दबाव डालते रहते कि वे इटालियन खुफ़िया एजेंसियों से भी गठजोड़ करें, राजीव गाँधी ऐसा क्यों चाहते थे ? या क्या वे इतने अनुभवी थे कि उन्हें इटालियन एजेंसियों के महत्व का पता भी चल गया था ? ऐसा कुछ नहीं था, इसके पीछे एकमात्र कारण थी सोनिया गाँधी । राजीव गाँधी ने सोनिया से सन १९६८ में विवाह किया था, और हालांकि रॉ मानती थी कि इटली की एजेंसी से गठजोड़ सिवाय पैसे और समय की बर्बादी के अलावा कुछ नहीं है, राजीव लगातार दबाव बनाये रहे । अन्ततः दस वर्षों से भी अधिक समय के पश्चात रॉ ने इटली की खुफ़िया संस्था से गठजोड़ कर लिया । क्या आप जानते हैं कि रॉ और इटली के जासूसों की पहली आधिकारिक मीटिंग की व्यवस्था किसने की ? जी हाँ, सोनिया गाँधी ने । सीधी सी बात यह है कि वह इटली के जासूसों के निरन्तर सम्पर्क में थीं । एक मासूम गृहिणी, जो राजनैतिक और प्रशासनिक मामलों से अलिप्त हो और उसके इटालियन खुफ़िया एजेन्सियों के गहरे सम्बन्ध हों यह सोचने वाली बात है, वह भी तब जबकि उन्होंने भारत की नागरिकता नहीं ली थी (वह उन्होंने बहुत बाद में ली) । प्रधानमंत्री के घर में रहते हुए, जबकि राजीव खुद सरकार में नहीं थे । हो सकता है कि रॉ इसी कारण से इटली की खुफ़िया एजेंसी से गठजोड़ करने मे कतरा रहा हो, क्योंकि ऐसे किसी भी सहयोग के बाद उन जासूसों की पहुँच सिर्फ़ रॉ तक न रहकर प्रधानमंत्री कार्यालय तक हो सकती थी ।
जब पंजाब में आतंकवाद चरम पर था तब सुरक्षा अधिकारियों ने इंदिरा गाँधी को बुलेटप्रूफ़ कार में चलने की सलाह दी, इंदिरा गाँधी ने अम्बेसेडर कारों को बुलेटप्रूफ़ बनवाने के लिये कहा, उस वक्त भारत में बुलेटप्रूफ़ कारें नहीं बनती थीं इसलिये एक जर्मन कम्पनी को कारों को बुलेटप्रूफ़ बनाने का ठेका दिया गया । जानना चाहते हैं उस ठेके का बिचौलिया कौन था, वाल्टर विंसी, सोनिया गाँधी की बहन अनुष्का का पति ! रॉ को हमेशा यह शक था कि उसे इसमें कमीशन मिला था, लेकिन कमीशन से भी गंभीर बात यह थी कि इतना महत्वपूर्ण सुरक्षा सम्बन्धी कार्य उसके मार्फ़त दिया गया । इटली का प्रभाव सोनिया दिल्ली तक लाने में कामयाब रही थीं, जबकि इंदिरा गाँधी जीवित थीं । दो साल बाद १९८६ में ये वही वाल्टर विंसी महाशय थे जिन्हें एसपीजी को इटालियन सुरक्षा एजेंसियों द्वारा प्रशिक्षण दिये जाने का ठेका मिला, और आश्चर्य की बात यह कि इस सौदे के लिये उन्होंने नगद भुगतान की मांग की और वह सरकारी तौर पर किया भी गया । यह नगद भुगतान पहले एक रॉ अधिकारी के हाथों जिनेवा (स्विटजरलैण्ड) पहुँचाया गया लेकिन वाल्टर विंसी ने जिनेवा में पैसा लेने से मना कर दिया और रॉ के अधिकारी से कहा कि वह ये पैसा मिलान (इटली) में चाहता है, विंसी ने उस अधिकारी को कहा कि वह स्विस और इटली के कस्टम से उन्हें आराम से निकलवा देगा और यह "कैश" चेक नहीं किया जायेगा । रॉ के उस अधिकारी ने उसकी बात नहीं मानी और अंततः वह भुगतान इटली में भारतीय दूतावास के जरिये किया गया । इस नगद भुगतान के बारे में तत्कालीन कैबिनेट सचिव बी.जी.देशमुख ने अपनी हालिया किताब में उल्लेख किया है, हालांकि वह तथाकथित ट्रेनिंग घोर असफ़ल रही और सारा पैसा लगभग व्यर्थ चला गया । इटली के जो सुरक्षा अधिकारी भारतीय एसपीजी कमांडो को प्रशिक्षण देने आये थे उनका रवैया जवानों के प्रति बेहद रूखा था, एक जवान को तो उस दौरान थप्पड़ भी मारा गया । रॉ अधिकारियों ने यह बात राजीव गाँधी को बताई और कहा कि इस व्यवहार से सुरक्षा बलों के मनोबल पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है और उनकी खुद की सुरक्षा व्यवस्था भी ऐसे में खतरे में पड़ सकती है, घबराये हुए राजीव ने तत्काल वह ट्रेनिंग रुकवा दी,लेकिन वह ट्रेनिंग का ठेका लेने वाले विंसी को तब तक भुगतान किया जा चुका था ।
राजीव गाँधी की हत्या के बाद तो सोनिया गाँधी पूरी तरह से इटालियन और पश्चिमी सुरक्षा अधिकारियों पर भरोसा करने लगीं, खासकर उस वक्त जब राहुल और प्रियंका यूरोप घूमने जाते थे । सन १९८५ में जब राजीव सपरिवार फ़्रांस गये थे तब रॉ का एक अधिकारी जो फ़्रेंच बोलना जानता था, उनके साथ भेजा गया था, ताकि फ़्रेंच सुरक्षा अधिकारियों से तालमेल बनाया जा सके । लियोन (फ़्रांस) में उस वक्त एसपीजी अधिकारियों में हड़कम्प मच गया जब पता चला कि राहुल और प्रियंका गुम हो गये हैं । भारतीय सुरक्षा अधिकारियों को विंसी ने बताया कि चिंता की कोई बात नहीं है, दोनों बच्चे जोस वाल्डेमारो के साथ हैं जो कि सोनिया की एक और बहन नादिया के पति हैं । विंसी ने उन्हें यह भी कहा कि वे वाल्डेमारो के साथ स्पेन चले जायेंगे जहाँ स्पेनिश अधिकारी उनकी सुरक्षा संभाल लेंगे । भारतीय सुरक्षा अधिकारी यह जानकर अचंभित रह गये कि न केवल स्पेनिश बल्कि इटालियन सुरक्षा अधिकारी उनके स्पेन जाने के कार्यक्रम के बारे में जानते थे । जाहिर है कि एक तो सोनिया गाँधी तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव के अहसानों के तले दबना नहीं चाहती थीं, और वे भारतीय सुरक्षा एजेंसियों पर विश्वास नहीं करती थीं । इसका एक और सबूत इससे भी मिलता है कि एक बार सन १९८६ में जिनेवा स्थित रॉ के अधिकारी को वहाँ के पुलिस कमिश्नर जैक कुन्जी़ ने बताया कि जिनेवा से दो वीआईपी बच्चे इटली सुरक्षित पहुँच चुके हैं, खिसियाये हुए रॉ अधिकारी को तो इस बारे में कुछ मालूम ही नहीं था । जिनेवा का पुलिस कमिश्नर उस रॉ अधिकारी का मित्र था, लेकिन यह अलग से बताने की जरूरत नहीं थी कि वे वीआईपी बच्चे कौन थे । वे कार से वाल्टर विंसी के साथ जिनेवा आये थे और स्विस पुलिस तथा इटालियन अधिकारी निरन्तर सम्पर्क में थे जबकि रॉ अधिकारी को सिरे से कोई सूचना ही नहीं थी, है ना हास्यास्पद लेकिन चिंताजनक... उस स्विस पुलिस कमिश्नर ने ताना मारते हुए कहा कि "तुम्हारे प्रधानमंत्री की पत्नी तुम पर विश्वास नहीं करती और उनके बच्चों की सुरक्षा के लिये इटालियन एजेंसी से सहयोग करती है" । बुरी तरह से अपमानित रॉ के अधिकारी ने अपने वरिष्ठ अधिकारियों से इसकी शिकायत की, लेकिन कुछ नहीं हुआ । अंतरराष्ट्रीय खुफ़िया एजेंसियों के गुट में तेजी से यह बात फ़ैल गई थी कि सोनिया गाँधी भारतीय अधिकारियों, भारतीय सुरक्षा और भारतीय दूतावासों पर बिलकुल भरोसा नहीं करती हैं, और यह निश्चित ही भारत की छवि खराब करने वाली बात थी । राजीव की हत्या के बाद तो उनके विदेश प्रवास के बारे में विदेशी सुरक्षा एजेंसियाँ, एसपीजी से अधिक सूचनायें पा जाती थी और भारतीय पुलिस और रॉ उनका मुँह देखते रहते थे । (ओट्टावियो क्वात्रोची के बार-बार मक्खन की तरह हाथ से फ़िसल जाने का कारण समझ में आया ?) उनके निजी सचिव विंसेंट जॉर्ज सीधे पश्चिमी सुरक्षा अधिकारियों के सम्पर्क में रहते थे, रॉ अधिकारियों ने इसकी शिकायत नरसिम्हा राव से की थी, लेकिन जैसी की उनकी आदत (?) थी वे मौन साध कर बैठ गये ।
संक्षेप में तात्पर्य यह कि, जब एक गृहिणी होते हुए भी वे गंभीर सुरक्षा मामलों में अपने परिवार वालों को ठेका दिलवा सकती हैं, राजीव गाँधी और इंदिरा गाँधी के जीवित रहते रॉ को इटालियन जासूसों से सहयोग करने को कह सकती हैं, सत्ता में ना रहते हुए भी भारतीय सुरक्षा अधिकारियों पर अविश्वास दिखा सकती हैं, तो अब जबकि सारी सत्ता और ताकत उनके हाथों मे है, वे क्या-क्या कर सकती हैं, बल्कि क्या नहीं कर सकती । हालांकि "मैं भारत की बहू हूँ" और "मेरे खून की अंतिम बूँद भी भारत के काम आयेगी" आदि वे यदा-कदा बोलती रहती हैं, लेकिन यह असली सोनिया नहीं है । समूचा पश्चिमी जगत, जो कि जरूरी नहीं कि भारत का मित्र ही हो, उनके बारे में सब कुछ जानता है, लेकिन हम भारतीय लोग सोनिया के बारे में कितना जानते हैं ? (भारत भूमि पर जन्म लेने वाला व्यक्ति चाहे कितने ही वर्ष विदेश में रह ले, स्थाई तौर पर बस जाये लेकिन उसका दिल हमेशा भारत के लिये धड़कता है, और इटली में जन्म लेने वाले व्यक्ति का....)
(यदि आपको यह अनुवाद पसन्द आया हो तो कृपया अपने मित्रों को भी इस पोस्ट की लिंक प्रेषित करें, ताकि जनता को जागरूक बनाने का यह प्रयास जारी रहे)... समय मिलते ही इसकी अगली कडी़ शीघ्र ही पेश की जायेगी.... आमीन

नेहरू-गाँधी राजवंश (?)

आजकल जबसे "बबुआ" राहुल गाँधी ने राजनीति में आकर अपने बयान देना शुरू कर दिया है, तब से "नेहरू राजवंश" नामक शब्द बार-बार आ रहा है । नेहरू राजवंश अर्थात Nehru Dynasty... इस सम्बन्ध में अंग्रेजी में विभिन्न साईटों और ग्रुप्स में बहुत चर्चा हुई है....बहुत दिनों से सोच रहा था कि इसका हिन्दी में अनुवाद करूँ या नहीं, गूगल बाबा पर भी खोजा, लेकिन इसका हिन्दी अनुवाद कहीं नहीं मिला, इसलिये फ़िर सोचा कि हिन्दी के पाठकों को इन महत्वपूर्ण सूचनाओं से महरूम क्यों रखा जाये. यह जानकारियाँ यहाँयहाँ तथा और भी कई जगहों पर उपलब्ध हैं मुख्य समस्या थी कि इसे कैसे संयोजित करूँ, क्योंकि सामग्री बहुत ज्यादा है और टुकडों-टुकडों में है, फ़िर भी मैने कोशिश की है इसका सही अनुवाद करने की और उसे तारतम्यता के साथ पठनीय बनाने की...जाहिर है कि यह सारी सामग्री अनुवाद भर है, इसमें मेरा सिर्फ़ यही योगदान है... हालांकि मैने लगभग सभी सन्दर्भों (references) का उल्लेख करने की कोशिश की है, ताकि लोग इसे वहाँ जाकर अंग्रेजी में पढ सकें, लेकिन हिन्दी में पढने का मजा कुछ और ही है... बाकी सब पाठकों की मर्जी...हजारों-हजार पाठकों ने इसे अंग्रेजी में पढ ही रखा होगा, लेकिन जो नहीं पढ़ पाये हैं और वह भी हिन्दी में, तो उनके लिये यह पेश है..."नेहरू-गाँधी राजवंश (?) की असलियत"...इसको पढने से हमें यह समझ में आता है कि कैसे सत्ता शिखरों पर सडाँध फ़ैली हुई है और इतिहास को कैसे तोडा-मरोडा जा सकता है, कैसे आम जनता को सत्य से वंचित रखा जा सकता है । हम इतिहास के बारे में उतना ही जानते हैं जितना कि वह हमें सत्ताधीशों द्वारा बताया जाता है, समझाया जाता है (बल्कि कहना चाहिये पीढी-दर-पीढी गले उतारा जाता है) । फ़िर एक समय आता है जब हम उसे ही सच समझने लगते हैं क्योंकि वाद-विवाद की कोई गुंजाईश ही नहीं छोडी जाती । हमारे वामपंथी मित्र इस मामले में बडे़ पहुँचे हुए उस्ताद हैं, यह उनसे सीखना चाहिये कि कैसे किताबों में फ़ेरबदल करके अपनी विचारधारा को कच्चे दिमागों पर थोपा जाये, कैसे जेएनयू और आईसीएचआर जैसी संस्थाओं पर कब्जा करके वहाँ फ़र्जी विद्वान भरे जायें और अपना मनचाहा इतिहास लिखवाया जाये..कैसे मीडिया में अपने आदमी भरे जायें और हिन्दुत्व, भारत, भारतीय संस्कृति को गरियाया जाये...ताकि लोगों को असली और सच्ची बात कभी पता ही ना चले... हम और आप तो इस खेल में कहीं भी नहीं हैं, एक पुर्जे मात्र हैं जिसकी कोई अहमियत नहीं (सिवाय एक ब्लोग लिखने और भूल जाने के)...तो किस्सा-ए-गाँधी परिवार शुरु होता है साहेबान...शुरुआत होती है "गंगाधर" (गंगाधर नेहरू नहीं), यानी मोतीलाल नेहरू के पिता से । नेहरू उपनाम बाद में मोतीलाल ने खुद लगा लिया था, जिसका शाब्दिक अर्थ था "नहर वाले", वरना तो उनका नाम होना चाहिये था "मोतीलाल धर", लेकिन जैसा कि इस खानदान की नाम बदलने की आदत थी उसी के मुताबिक उन्होंने यह किया । रॉबर्ट हार्डी एन्ड्रूज की किताब "ए लैम्प फ़ॉर इंडिया - द स्टोरी ऑफ़ मदाम पंडित" में उस तथाकथित गंगाधर का चित्र छपा है, जिसके अनुसारगंगाधर असल में एक सुन्नी मुसलमान था, जिसका असली नाम गयासुद्दीन गाजी था.लोग सोचेंगे कि यह खोज कैसे हुई ? दरअसल नेहरू ने खुद की आत्मकथा में एक जगह लिखा था कि उनके दादा अर्थात मोतीलाल के पिता गंगा धर थे, ठीक वैसा ही जवाहर की बहन कृष्णा ने भी एक जगह लिखा है कि उनके दादाजी मुगल सल्तनत (बहादुरशाह जफ़र के समय) में नगर कोतवाल थे. अब इतिहासकारों ने खोजबीन की तो पाया कि बहादुरशाह जफ़र के समय कोई भी हिन्दू इतनी महत्वपूर्ण ओहदे पर नहीं था..और खोजबीन पर पता चला कि उस वक्त के दो नायब कोतवाल हिन्दू थे नाम थे भाऊ सिंह और काशीनाथ, जो कि लाहौरी गेट दिल्ली में तैनात थे, लेकिन किसी गंगा धर नाम के व्यक्ति का कोई रिकॉर्ड नहीं मिला (मेहदी हुसैन की पुस्तक : बहादुरशाह जफ़र और १८५७ का गदर, १९८७ की आवृत्ति), रिकॉर्ड मिलता भी कैसे, क्योंकि गंगा धर नाम तो बाद में अंग्रेजों के कहर से डर कर बदला गया था, असली नाम तो था "गयासुद्दीन गाजी" । जब अंग्रेजों ने दिल्ली को लगभग जीत लिया था,तब मुगलों और मुसलमानों के दोबारा विद्रोह के डर से उन्होंने दिल्ली के सारे हिन्दुओं और मुसलमानों को शहर से बाहर करके तम्बुओं में ठहरा दिया था (जैसे कि आज कश्मीरी पंडित रह रहे हैं), अंग्रेज वह गलती नहीं दोहराना चाहते थे, जो हिन्दू राजाओं (पृथ्वीराज चौहान ने) ने मुसलमान आक्रांताओं को जीवित छोडकर की थी, इसलिये उन्होंने चुन-चुन कर मुसलमानों को मारना शुरु किया, लेकिन कुछ मुसलमान दिल्ली से भागकर पास के इलाकों मे चले गये थे । उसी समय यह परिवार भी आगरा की तरफ़ कूच कर गया...हमने यह कैसे जाना ? नेहरू ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि आगरा जाते समय उनके दादा गंगा धर को अंग्रेजों ने रोक कर पूछताछ की थी, लेकिन तब गंगा धर ने उनसे कहा था कि वे मुसलमान नहीं हैं, बल्कि कश्मीरी पंडित हैं और अंग्रेजों ने उन्हें आगरा जाने दिया... बाकी तो इतिहास है ही । यह "धर" उपनाम कश्मीरी पंडितों में आमतौर पाया जाता है, और इसी का अपभ्रंश होते-होते और धर्मान्तरण होते-होते यह "दर" या "डार" हो गया जो कि कश्मीर के अविभाजित हिस्से में आमतौर पाया जाने वाला नाम है । लेकिन मोतीलाल ने नेहरू नाम चुना ताकि यह पूरी तरह से हिन्दू सा लगे । इतने पीछे से शुरुआत करने का मकसद सिर्फ़ यही है कि हमें पता चले कि "खानदानी" लोग क्या होते हैं । कहा जाता है कि आदमी और घोडे़ को उसकी नस्ल से पहचानना चाहिये, प्रत्येक व्यक्ति और घोडा अपनी नस्लीय विशेषताओं के हिसाब से ही व्यवहार करता है, संस्कार उसमें थोडा सा बदलाव ला सकते हैं, लेकिन उसका मूल स्वभाव आसानी से बदलता नहीं है.... फ़िलहाल गाँधी-नेहरू परिवार पर फ़ोकस...अपनी पुस्तक "द नेहरू डायनेस्टी" में लेखक के.एन.राव (यहाँउपलब्ध है) लिखते हैं....ऐसा माना जाता है कि जवाहरलाल, मोतीलाल नेहरू के पुत्र थे और मोतीलाल के पिता का नाम था गंगाधर । यह तो हम जानते ही हैं कि जवाहरलाल की एक पुत्री थी इन्दिरा प्रियदर्शिनी नेहरू । कमला नेहरू उनकी माता का नाम था, जिनकी मृत्यु स्विटजरलैण्ड में टीबी से हुई थी । कमला शुरु से ही इन्दिरा के फ़िरोज से विवाह के खिलाफ़ थीं... क्यों ? यह हमें नहीं बताया जाता...लेकिन यह फ़िरोज गाँधी कौन थे ? फ़िरोज उस व्यापारी के बेटे थे, जो "आनन्द भवन" में घरेलू सामान और शराब पहुँचाने का काम करता था...नाम... बताता हूँ.... पहले आनन्द भवन के बारे में थोडा सा... आनन्द भवन का असली नाम था "इशरत मंजिल" और उसके मालिक थे मुबारक अली... मोतीलाल नेहरू पहले इन्हीं मुबारक अली के यहाँ काम करते थे...खैर...हममें से सभी जानते हैं कि राजीव गाँधी के नाना का नाम था जवाहरलाल नेहरू, लेकिन प्रत्येक व्यक्ति के नाना के साथ ही दादा भी तो होते हैं... और अधिकतर परिवारों में दादा और पिता का नाम ज्यादा महत्वपूर्ण होता है, बजाय नाना या मामा के... तो फ़िर राजीव गाँधी के दादाजी का नाम क्या था.... किसी को मालूम है ? नहीं ना... ऐसा इसलिये है, क्योंकि राजीव गाँधी के दादा थे नवाब खान, एक मुस्लिम व्यापारी जो आनन्द भवन में सामान सप्लाय करता था और जिसका मूल निवास था जूनागढ गुजरात में... नवाब खान ने एक पारसी महिला से शादी की और उसे मुस्लिम बनाया... फ़िरोज इसी महिला की सन्तान थे और उनकी माँ का उपनाम था "घांदी" (गाँधी नहीं)... घांदी नाम पारसियों में अक्सर पाया जाता था...विवाह से पहले फ़िरोज गाँधी ना होकर फ़िरोज खान थे और कमला नेहरू के विरोध का असली कारण भी यही था...हमें बताया जाता है कि राजीव गाँधी पहले पारसी थे... यह मात्र एक भ्रम पैदा किया गया है । इन्दिरा गाँधी अकेलेपन और अवसाद का शिकार थीं । शांति निकेतन में पढते वक्त ही रविन्द्रनाथ टैगोर ने उन्हें अनुचित व्यवहार के लिये निकाल बाहर किया था... अब आप खुद ही सोचिये... एक तन्हा जवान लडकी जिसके पिता राजनीति में पूरी तरह से व्यस्त और माँ लगभग मृत्यु शैया पर पडी़ हुई हों... थोडी सी सहानुभूति मात्र से क्यों ना पिघलेगी, और विपरीत लिंग की ओर क्यों ना आकर्षित होगी ? इसी बात का फ़ायदा फ़िरोज खान ने उठाया और इन्दिरा को बहला-फ़ुसलाकर उसका धर्म परिवर्तन करवाकर लन्दन की एक मस्जिद में उससे शादी रचा ली (नाम रखा "मैमूना बेगम") । नेहरू को पता चला तो वे बहुत लाल-पीले हुए, लेकिन अब क्या किया जा सकता था...जब यह खबर मोहनदास करमचन्द गाँधी को मिली तो उन्होंने ताबडतोड नेहरू को बुलाकर समझाया, राजनैतिक छवि की खातिर फ़िरोज को मनाया कि वह अपना नाम गाँधी रख ले.. यह एक आसान काम था कि एक शपथ पत्र के जरिये, बजाय धर्म बदलने के सिर्फ़ नाम बदला जाये... तो फ़िरोज खान (घांदी) बन गये फ़िरोज गाँधी । और विडम्बना यह है कि सत्य-सत्य का जाप करने वाले और "सत्य के साथ मेरे प्रयोग" लिखने वाले गाँधी ने इस बात का उल्लेख आज तक कहीं नहीं किया, और वे महात्मा भी कहलाये...खैर... उन दोनों (फ़िरोज और इन्दिरा) को भारत बुलाकर जनता के सामने दिखावे के लिये एक बार पुनः वैदिक रीति से उनका विवाह करवाया गया, ताकि उनके खानदान की ऊँची नाक (?) का भ्रम बना रहे । इस बारे में नेहरू के सेक्रेटरी एम.ओ.मथाई अपनी पुस्तक"रेमेनिसेन्सेस ऑफ़ थे नेहरू एज" (पृष्ट ९४ पैरा २) (अब भारत सरकार द्वारा प्रतिबन्धित) में लिखते हैं कि "पता नहीं क्यों नेहरू ने सन १९४२ में एक अन्तर्जातीय और अन्तर्धार्मिक विवाह को वैदिक रीतिरिवाजों से किये जाने को अनुमति दी, जबकि उस समय यह अवैधानिक था, कानूनी रूप से उसे "सिविल मैरिज" होना चाहिये था" । यह तो एक स्थापित तथ्य है कि राजीव गाँधी के जन्म के कुछ समय बाद इन्दिरा और फ़िरोज अलग हो गये थे, हालाँकि तलाक नहीं हुआ था । फ़िरोज गाँधी अक्सर नेहरू परिवार को पैसे माँगते हुए परेशान किया करते थे, और नेहरू की राजनैतिक गतिविधियों में हस्तक्षेप तक करने लगे थे । तंग आकर नेहरू ने फ़िरोज का "तीन मूर्ति भवन" मे आने-जाने पर प्रतिबन्ध लगा दिया था । मथाई लिखते हैं फ़िरोज की मृत्यु से नेहरू और इन्दिरा को बडी़ राहत मिली थी । १९६० में फ़िरोज गाँधी की मृत्यु भी रहस्यमय हालात में हुई थी, जबकि वह दूसरी शादी रचाने की योजना बना चुके थे । अपुष्ट सूत्रों, कुछ खोजी पत्रकारों और इन्दिरा गाँधी के फ़िरोज से अलगाव के कारण यह तथ्य भी स्थापित हुआ कि श्रीमती इन्दिरा गाँधी (या श्रीमती फ़िरोज खान) का दूसरा बेटा अर्थात संजय गाँधी, फ़िरोज की सन्तान नहीं था, संजय गाँधी एक और मुस्लिम मोहम्मद यूनुस का बेटा था । संजय गाँधी का असली नाम दरअसल संजीव गाँधी था, अपने बडे भाई राजीव गाँधी से मिलता जुलता । लेकिन संजय नाम रखने की नौबत इसलिये आई क्योंकि उसे लन्दन पुलिस ने इंग्लैण्ड में कार चोरी के आरोप में पकड़ लिया था और उसका पासपोर्ट जब्त कर लिया था । ब्रिटेन में तत्कालीन भारतीय उच्चायुक्त कृष्ण मेनन ने तब मदद करके संजीव गाँधी का नाम बदलकर नया पासपोर्ट संजय गाँधी के नाम से बनवाया था (इन्हीं कृष्ण मेनन साहब को भ्रष्टाचार के एक मामले में नेहरू और इन्दिरा ने बचाया था) । अब संयोग पर संयोग देखिये... संजय गाँधी का विवाह "मेनका आनन्द" से हुआ... कहाँ... मोहम्मद यूनुस के घर पर (है ना आश्चर्य की बात)...मोहम्मद यूनुस की पुस्तक "पर्सन्स, पैशन्स एण्ड पोलिटिक्स" में बालक संजय का इस्लामी रीतिरिवाजों के मुताबिक खतना बताया गया है, हालांकि उसे "फ़िमोसिस" नामक बीमारी के कारण किया गया कृत्य बताया गया है, ताकि हम लोग (आम जनता) गाफ़िल रहें.... मेनका जो कि एक सिख लडकी थी, संजय की रंगरेलियों की वजह से गर्भवती हो गईं थीं और फ़िर मेनका के पिता कर्नल आनन्द ने संजय को जान से मारने की धमकी दी थी, फ़िर उनकी शादी हुई और मेनका का नाम बदलकर "मानेका" किया गया, क्योंकि इन्दिरा गाँधी को "मेनका" नाम पसन्द नहीं था (यह इन्द्रसभा की नृत्यांगना टाईप का नाम लगता था), पसन्द तो मेनका, मोहम्मद यूनुस को भी नहीं थी क्योंकि उन्होंने एक मुस्लिम लडकी संजय के लिये देख रखी थी । फ़िर भी मेनका कोई साधारण लडकी नहीं थीं, क्योंकि उस जमाने में उन्होंने बॉम्बे डाईंग के लिये सिर्फ़ एक तौलिये में विज्ञापन किया था । आमतौर पर ऐसा माना जाता है कि संजय गाँधी अपनी माँ को ब्लैकमेल करते थे और जिसके कारण उनके सभी बुरे कृत्यों पर इन्दिरा ने हमेशा परदा डाला और उसे अपनी मनमानी करने की छूट दी । ऐसा प्रतीत होता है कि शायद संजय गाँधी को उसके असली पिता का नाम मालूम हो गया था और यही इन्दिरा की कमजोर नस थी, वरना क्या कारण था कि संजय के विशेष नसबन्दी अभियान (जिसका मुसलमानों ने भारी विरोध किया था) के दौरान उन्होंने चुप्पी साधे रखी, और संजय की मौत के तत्काल बाद काफ़ी समय तक वे एक चाभियों का गुच्छा खोजती रहीं थी, जबकि मोहम्मद यूनुस संजय की लाश पर दहाडें मार कर रोने वाले एकमात्र बाहरी व्यक्ति थे...। (संजय गाँधी के तीन अन्य मित्र कमलनाथ, अकबर अहमद डम्पी और विद्याचरण शुक्ल, ये चारों उन दिनों "चाण्डाल चौकडी" कहलाते थे... इनकी रंगरेलियों के किस्से तो बहुत मशहूर हो चुके हैं जैसे कि अंबिका सोनी और रुखसाना सुलताना [अभिनेत्री अमृता सिंह की माँ] के साथ इन लोगों की विशेष नजदीकियाँ....)एम.ओ.मथाई अपनी पुस्तक के पृष्ठ २०६ पर लिखते हैं - "१९४८ में वाराणसी से एक सन्यासिन दिल्ली आई जिसका काल्पनिक नाम श्रद्धा माता था । वह संस्कृत की विद्वान थी और कई सांसद उसके व्याख्यान सुनने को बेताब रहते थे । वह भारतीय पुरालेखों और सनातन संस्कृति की अच्छी जानकार थी । नेहरू के पुराने कर्मचारी एस.डी.उपाध्याय ने एक हिन्दी का पत्र नेहरू को सौंपा जिसके कारण नेहरू उस सन्यासिन को एक इंटरव्यू देने को राजी हुए । चूँकि देश तब आजाद हुआ ही था और काम बहुत था, नेहरू ने अधिकतर बार इंटरव्य़ू आधी रात के समय ही दिये । मथाई के शब्दों में - एक रात मैने उसे पीएम हाऊस से निकलते देखा, वह बहुत ही जवान, खूबसूरत और दिलकश थी - । एक बार नेहरू के लखनऊ दौरे के समय श्रध्दामाता उनसे मिली और उपाध्याय जी हमेशा की तरह एक पत्र लेकर नेहरू के पास आये, नेहरू ने भी उसे उत्तर दिया, और अचानक एक दिन श्रद्धा माता गायब हो गईं, किसी के ढूँढे से नहीं मिलीं । नवम्बर १९४९ में बेंगलूर के एक कॉन्वेंट से एक सुदर्शन सा आदमी पत्रों का एक बंडल लेकर आया । उसने कहा कि उत्तर भारत से एक युवती उस कॉन्वेंट में कुछ महीने पहले आई थी और उसने एक बच्चे को जन्म दिया । उस युवती ने अपना नाम पता नहीं बताया और बच्चे के जन्म के तुरन्त बाद ही उस बच्चे को वहाँ छोडकर गायब हो गई थी । उसकी निजी वस्तुओं में हिन्दी में लिखे कुछ पत्र बरामद हुए जो प्रधानमन्त्री द्वारा लिखे गये हैं, पत्रों का वह बंडल उस आदमी ने अधिकारियों के सुपुर्द कर दिया । मथाई लिखते हैं - मैने उस बच्चे और उसकी माँ की खोजबीन की काफ़ी कोशिश की, लेकिन कॉन्वेंट की मुख्य मिस्ट्रेस, जो कि एक विदेशी महिला थी, बहुत कठोर अनुशासन वाली थी और उसने इस मामले में एक शब्द भी किसी से नहीं कहा.....लेकिन मेरी इच्छा थी कि उस बच्चे का पालन-पोषण मैं करुँ और उसे रोमन कैथोलिक संस्कारों में बडा करूँ, चाहे उसे अपने पिता का नाम कभी भी मालूम ना हो.... लेकिन विधाता को यह मंजूर नहीं था.... खैर... हम बात कर रहे थे राजीव गाँधी की...जैसा कि हमें मालूम है राजीव गाँधी ने, तूरिन (इटली) की महिला सानिया माईनो से विवाह करने के लिये अपना तथाकथित पारसी धर्म छोडकर कैथोलिक ईसाई धर्म अपना लिया था । राजीव गाँधी बन गये थे रोबेर्तो और उनके दो बच्चे हुए जिसमें से लडकी का नाम था "बियेन्का" और लडके का "रॉल" । बडी ही चालाकी से भारतीय जनता को बेवकूफ़ बनाने के लिये राजीव-सोनिया का हिन्दू रीतिरिवाजों से पुनर्विवाह करवाया गया और बच्चों का नाम "बियेन्का" से बदलकर प्रियंका और "रॉल" से बदलकर राहुल कर दिया गया... बेचारी भोली-भाली आम जनता ! प्रधानमन्त्री बनने के बाद राजीव गाँधी ने लन्दन की एक प्रेस कॉन्फ़्रेन्स में अपने-आप को पारसी की सन्तान बताया था, जबकि पारसियों से उनका कोई लेना-देना ही नहीं था, क्योंकि वे तो एक मुस्लिम की सन्तान थे जिसने नाम बदलकर पारसी उपनाम रख लिया था । हमें बताया गया है कि राजीव गाँधी केम्ब्रिज विश्वविद्यालय के स्नातक थे, यह अर्धसत्य है... ये तो सच है कि राजीव केम्ब्रिज यूनिवर्सिटी में मेकेनिकल इंजीनियरिंग के छात्र थे, लेकिन उन्हें वहाँ से बिना किसी डिग्री के निकलना पडा था, क्योंकि वे लगातार तीन साल फ़ेल हो गये थे... लगभग यही हाल सानिया माईनो का था...हमें यही बताया गया है कि वे भी केम्ब्रिज यूनिवर्सिटी की स्नातक हैं... जबकि सच्चाई यह है कि सोनिया स्नातक हैं ही नहीं, वे केम्ब्रिज में पढने जरूर गईं थीं लेकिन केम्ब्रिज यूनिवर्सिटी में नहीं । सोनिया गाँधी केम्ब्रिज में अंग्रेजी सीखने का एक कोर्स करने गई थी, ना कि विश्वविद्यालय में (यह बात हाल ही में लोकसभा सचिवालय द्वारा माँगी गई जानकारी के तहत खुद सोनिया गाँधी ने मुहैया कराई है, उन्होंने बडे ही मासूम अन्दाज में कहा कि उन्होंने कब यह दावा किया था कि वे केम्ब्रिज की स्नातक हैं, अर्थात उनके चमचों ने यह बेपर की उडाई थी) । क्रूरता की हद तो यह थी कि राजीव का अन्तिम संस्कार हिन्दू रीतिरिवाजों के तहत किया गया, ना ही पारसी तरीके से ना ही मुस्लिम तरीके से । इसी नेहरू खानदान की भारत की जनता पूजा करती है, एक इटालियन महिला जिसकी एकमात्र योग्यता यह है कि वह इस खानदान की बहू है आज देश की सबसे बडी पार्टी की कर्ताधर्ता है और "रॉल" को भारत का भविष्य बताया जा रहा है । मेनका गाँधी को विपक्षी पार्टियों द्वारा हाथोंहाथ इसीलिये लिया था कि वे नेहरू खानदान की बहू हैं, इसलिये नहीं कि वे कोई समाजसेवी या प्राणियों पर दया रखने वाली हैं....और यदि कोई सानिया माइनो की तुलना मदर टेरेसा या एनीबेसेण्ट से करता है तो उसकी बुद्धि पर तरस खाया जा सकता है और हिन्दुस्तान की बदकिस्मती पर सिर धुनना ही होगा....यह अनुवाद सिर्फ़ इसीलिये किया गया है कि जो बात बरसों पहले से ही अंग्रेजी में उपलब्ध है, उसे हिन्दी में भी अनुवादित भी होना चाहिये.... यह करने के पीछे उद्देश्य किसी का दिल दुखाना नहीं है, ना ही अपने चिठ्ठे की टीआरपी बढाने का है... हाँ यह स्वार्थ जरूर है कि यदि पाठकों को अनुवाद पसन्द आया तो इस क्षेत्र में भी हाथ आजमाया जाये और इस गरीब की झोली में थोडा़ सा नावां-पत्ता आ गिरे.... (नीले रंग से इटैलिक किये हुए शब्द मेरे हैं, बाकी सब अनुवाद है)
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जब विद्यासागर जी ने चप्पल फेंकी

जब विद्यासागर जी ने चप्पल फेंकी फिर एक चप्पल चली। रोज ही कहीं ना कहीं यह पदत्राण थलचर हाथों में आ कर नभचर बन अपने गंत्वय की ओर जाने क...