वित्तमंत्री चिदम्बरम, प्रमुख योजनाकार अहलूवालिया और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की त्रिमूर्ति एक बेहतरीन अर्थशास्त्रियों की टीम मानी जाती है (सिर्फ़ मानी जाती है, असल में है नहीं)। बजट के पहले सोयाबीन तेल का भाव 60 रुपये किलो था जो बजट के बाद एकदम तीन दिनों में 75 रुपये हो गया… चावल के भाव आसमान छू रहे हैं लेकिन निर्यात जारी है… दालों के भाव को सट्टेबाजों ने कब्जे में कर रखा है, लेकिन उसे कमोडिटी एक्सचेंज से बाहर नहीं किया जा रहा। देश की आम जनता को सोनिया गाँधी के विज्ञापन के जरिये यह समझाने का प्रयास किया जा रहा है कि “हमने पिछले पाँच साल से मिट्टी के तेल के भाव नहीं बढ़ाये”, मानो गरीब सिर्फ़ केरोसीन से ही रोटी खाता हो और केरोसीन ही पीता हो। तमाम अखबार चिल्ला-चिल्ला कर कह रहे हैं कि कमोडिटी एक्सचेंजों से खुलेआम सट्टेबाजी जारी है, निर्यात ऑर्डरों में भारी घपले करके, बैकडेट आदि में नकली बिलिंग करके खाद्यान्न निर्यातक, करोड़ों को अरबों में बदल रहे हैं और चिदम्बरम साहब हमे 9 प्रतिशत की विकास दर दिखा रहे हैं। पहले तो बैंकों में ब्याज दर कम कर-कर के जनता को शेयर बाजार और म्युचुअल फ़ण्डों में पैसा लगाने की लत लगा दी, अब बाजार नीचे जा रहा है, विदेशी निवेशक कमा कर चले गये तो त्रिमूर्ति को कुछ सूझ नहीं रहा… समूचा देश सट्टेबाजों के हवाले कर दिया गया है, और माननीय वित्तमंत्री कहते हैं कि “महंगाई को काबू करना हमारे बस में नहीं है, यह एक अंतर्राष्ट्रीय घटना है…”। कांग्रेस एक और प्रवक्ता आँकड़े देते हुए कहते हैं कि “कमाई में विकास होता है तो महंगाई तो बढ़ती ही है”, क्या खूब!!! जरा वे यह बतायें कि कमाई किसकी और कितनी बढ़ी है? और महंगाई किस रफ़्तार से बढ़ी है? लेकिन असल में AC कमरों से बाहर नहीं निकलने वाले सरकारी सचिवों और नेताओं को (1) या तो जमीनी हकीकत मालूम ही नहीं है, (2) या वे जानबूझ कर अंजान बने हुए हैं, (3) या फ़िर इस सट्टेबाजी में इनके भी हाथ-पाँव-मुँह सब चकाचक लालमलाल हो रहे हैं… और आने वाले चुनावों के खर्च का बन्दोबस्त किया जा रहा है।
सबसे आपत्तिजनक रवैया तो लाल झंडे वालों का है, वे मूर्खों की तरह परमाणु-परमाणु रटे जा रहे हैं, नंदीग्राम में नरसंहार करवाये जा रहे हैं, लगातार कुत्ते की तरह सिर्फ़ भौंक रहे हैं, लेकिन समन्वय समिति की बैठक में जाते ही सोनिया उन्हें पता नहीं क्या घुट्टी पिलाती हैं, वे दुम दबाकर वापस आ जाते हैं, अगली धमकी के लिये। पाँच साल तक बगैर किसी जिम्मेदारी और जवाबदारी के सत्ता की मलाई चाटने वाले इन लोगों को दाल-चावल-तेल के भाव नहीं दिखते? परमाणु समझौता बड़ा या महंगाई इसकी उन्हें समझ नहीं है। सिर्फ़ तीन राज्यों में सिमटे हुए ये परजीवी (Parasites) सरकार को एक साल और चलाने के मूड में दिखते हैं क्योंकि इन्हें भी मालूम है कि लोकसभा में 62 सीटें, अब इन्हें जीवन में कभी नहीं मिलेंगी। भगवाधारी भी न जाने किस दुनिया में हैं, उन्हें रामसेतु से ही फ़ुर्सत नहीं है। वे अब भी राम-राम की रट लगाये हुए हैं, वे सोच रहे हैं कि राम इस बार चुनावों में उनकी नैया पार लगा देंगे, लेकिन ऐसा होगा नहीं। बार-बार मोदी की रट लगाये जाते हैं, लेकिन मोदी जैसे काम अपने अन्य राज्यों मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ आदि में नहीं करवा पाते, जहाँ कुछ ही माह में चुनाव होने वाले हैं। जिस तरह से हमारा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया “अमिताभ को ठंड लगी”, “ऐश्वर्या राय ने छत पर कबूतरों को दाने डाले”, जैसी “ब्रेकिंग न्यूज” दे-देकर आम जनता से पूरी तरह कट गया है, वैसे ही हैं ये राजनैतिक दल…जिस तरह एनडीए के पाँच साल में सबसे ज्यादा गिरी थी भाजपा, उसी तरह यूपीए के पाँच साला कार्यकाल में सबसे ज्यादा साख गिरी है लाल झंडे वालों की, और कांग्रेस तो पहले से गिरी हुई है ही…
अब सीन देखिये… चिदम्बरम ने किसान ॠण माफ़ करने की सीमा जून तय की है (किसान खुश), छठा वेतन आयोग मार्च-अप्रैल में अपनी रिपोर्ट सौंप देगा (कर्मचारी खुश), मम्मी के दुलारे राजकुमार भारत यात्रा पर निकल पड़े हैं और उड़ीसा के कालाहांडी से उन्होंने शुरुआत कर दी है (राहुल की प्राणप्रतिष्ठा), परमाणु समझौते पर हौले-हौले कदम आगे बढ़ ही रहे हैं (अमेरिका भी खुश), अखबारों में किसान और कर्मचारी समर्थक होने के विज्ञापन आने लगे हैं, यानी कि चुनाव के वक्त से पहले होने के पूरे आसार बन रहे हैं, लेकिन विपक्षी दल नींद में गाफ़िल हैं। वक्त आते ही “महारानी”, लाल झंडे वालों की पीठ में छुरा घोंप कर (कांग्रेस की परम्परानुसार) चुनाव का बिगुल फ़ूंक देंगी और ये लाल-भगवा-हरे झंडे वाले देखते ही रह जायेंगे। रही बात आम जनता की, चाहे वह किसी को पूर्ण बहुमत दे या खंडित जनादेश, साँप-नाग-कोबरा-अजगर में से किसी एक को चुनने के लिये वह शापित है…
महाजाल पर सुरेश चिपलूनकर
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bhai inko pay khan dena padta hai jo inko keemat ka pata ho.....
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