Thursday, July 22, 2010

कोचिंग क्लास वालों, इतना क्यों इतराते हो?

IIT Coaching Classes Kota

जून के महीने में अखबार पढ़ना एक बेहद त्रासदायक और संतापदायक काम होता है, आप सोचेंगे ऐसा क्यों? असल में मई के आखिरी सप्ताह या जून के पहले सप्ताह देश में “रिजल्ट” का मौसम होता है। दसवीं, बारहवीं, पीईटी, पीएमटी, आईआईटी-जेईई, और भी न जाने क्या-क्या लगातार रिजल्ट आते ही रहते हैं। जाहिर है कि रिजल्ट आयेंगे तो “सबसे ज्यादा मुनाफ़े वाले धंधेबाज” यानी कि कोचिंग क्लास वाले मानो पूरा का पूरा अखबार ही खरीद लेते हैं। रिजल्ट के अगले ही दिन फ़ुल पेज के विज्ञापन झलकने लगते हैं, “हमने ऐसा तीर मारा, हमारे यहाँ के अलाँ-फ़लाँ स्टूडेंट ने ये तोप मारी आदि-आदि”। विज्ञापन भी एक-दूसरे कोचिंग क्लास वालों को आपस में नीचा दिखाने की भाषा में किये जाते हैं… “मार लिया मैदान…”, “क्रैक करके रख दिया”, “है कोई दूसरा हमारे जैसा”, “हम ही हैं सिरमौर…” जैसे हेडिंग वाले भड़काऊ विज्ञापन दिये जाते हैं। अखबार वालों का क्या जा रहा है, उन्हें तो खासी मोटी रकम वाली कमाई हो रही है (मुश्किल हम जैसे मूर्खों की होती है जो तीन-चार रुपये का अखबार खरीदते हैं, जिसमें पढ़ने के लिये दो या तीन पेज ही होते हैं, बाकी के पेज कोचिंग क्लासेस, केन्द्र या राज्य सरकार की कोई फ़ालतू सी योजना, किसी कमीने नेता के जन्मदिन की बधाईयाँ, बाइक-मोबाइल-कार-फ़्रिज-टीवी बेचने के लिये फ़ूहड़ता… आदि होता है) और कोचिंग वालों का भी क्या लग रहा है “तेरा तुझको अर्पण…” की तर्ज पर पालकों से झटकी हुई मोटी रकम में से थोड़ा सा खर्च कर दिया, ताकि अगले साल के “कटने वाले बकरे” पहले से ही बुक किये जा सकें । एक ही छात्र की तस्वीर दो-तीन-चार कोचिंग क्लास वालों के विज्ञापन में दिखाई दे जाती है। यह संभव ही नहीं कि कोई छात्र एक साथ इतनी सारी कोचिंग क्लास में जा सकता है, लेकिन खामख्वाह “झाँकी” जमाने में क्या जा रहा है, कौन उनसे इस बाबत पूछताछ करने वाला है। रिजल्ट आते ही एक तरह का मकड़जाल बुन लिया जाता है, तरह-तरह के दावे और लुभावने विज्ञापन देकर “हम ही श्रेष्ठ हैं, बाकी सब तो बेकार हैं” का भाव पैदा किया जाता है।



यह खबर सबने सुनी होगी कि बिहार में शौकिया तौर पर गरीब छात्रों के लिये आईआईटी की क्लासेस चलाने वाले “सुपर-30” में सभी 30 गरीब छात्रों का चयन आईआईटी के लिये हो गया है (पिछले वर्ष यह 30 में से 28 था), अर्थात लगभग 100% छात्र सफ़ल। धन्य हैं श्री अभयानन्द जी जिन्होंने यह प्रकल्प हाथ में लिया है। अब नजर डालते हैं कोटा की महान(?) कोचिंग संस्थाओं पर… अव्वल तो ये लोग कभी भी विज्ञापन देकर जाहिर नहीं करते कि उनके यहाँ कुल कितने छात्रों ने प्रवेश लिया। लेकिन हाल ही में एक विज्ञापन देखकर पता चला कि एक “बड़ी” कोचिंग क्लास ने लिखा “1547 छात्रों में से 184 का चयन”, एक और उभरती हुई कोचिंग संस्था ने बताया कि कुल “48 छात्रों में से 4 का चयन आईआईटी-एआईईईई में”। अब खुद ही हिसाब लगाइये कि कितना प्रतिशत हुआ? मुश्किल से 12-14% सफ़लता!!! इस सड़ी सी बात पर इतना क्या इतराना? क्यों इतना डंका पीटना? अरे तुमसे दस गुना अच्छे तो “सुपर-30” वाले हैं, जिनके पास न तो चिकने पन्नों वाले ब्रोशर हैं, न ही एसी रूम हैं, न उनकी फ़ैकल्टी फ़ाइव स्टार में रुकती है, न ही वे मोटी फ़ीस वसूलते हैं, फ़िर भी उनका रिजल्ट लगभग 100% है, तो कोटा में “शिक्षा इंडस्ट्री” चलाने वाले किस बात पर गर्व करते हैं? अच्छा, एक बात और है… ये कथित महान कोचिंग क्लासेस वाले अपने यहाँ छात्रों को प्रवेश कैसे देते हैं… सबसे पहले वे 85-90 प्रतिशत अंक से कम लाने वाले को साफ़ मना कर देते हैं। फ़िर उच्च अंक लाने वाले बेहतरीन तीक्ष्ण बुद्धि वाले लड़के छाँटे जाते हैं, उनमें भी एक “एन्ट्रेन्स परीक्षा” आयोजित की जाती है, उसमें जो सफ़ल होते हैं उन्हें ही कोटा में प्रवेश मिलता है… इसका मतलब यह कि दूध में से क्रीम निकालने के बाद उस क्रीम को भी फ़ेंटकर सबसे बढ़िया घी निकाल लिया, फ़िर दावा करते हैं कि 1547 छात्रों में से 184 का चयन???? अरे भाई तुम तो पहले से ही कुशाग्र बुद्धि वाले लड़के छाँट चुके हो, फ़िर भी इतना कम सफ़लता प्रतिशत?? उम्दा किस्म का “हीरा” पहले से ही तुम्हारे पास है, सिर्फ़ उसे तराशना है, फ़िर भी??? यदि इतने ही शूरवीर(?) हो, तो किसी गरीब लड़के को जिसके 80 प्रतिशत नम्बर आये हों, मुफ़्त में पढ़ाकर दिखाओ और उसका सिलेक्शन आईआईटी में करवाओ। जब तुम्हें मालूम है कि आईआईटी में सिर्फ़ 6000-6500 सीटें हैं, तो एक साल के लिये ऐसा करके दिखाओ कि सब बड़े-बड़े कोचिंग वाले आपस में मिलकर सिर्फ़ और सिर्फ़ 8000 छात्रों को प्रवेश दो, और उसमें से ज्यादा नहीं तो 5000 सिलेक्शन करवा के दिखा दो, तो माना जाये कि वाकई में तुम्हारी शिक्षा(?) में कुछ दम है।



एक पेंच और है, जब इस “महान” देश में IAS, IPS की परीक्षा तक में धांधली हो जाती है, “मुन्नाभाई” किसी अन्य की जगह जाकर परीक्षा दे आते हैं, पैसा देकर पेपर आउट हो जाते हैं, होटलों में बैठकर परीक्षापत्र हल किये जाते हैं, तो क्या गारंटी है कि IIT, IIM, AIEEE की परीक्षा भी बेदाग होती होगी??? बड़े कोचिंग संस्थान जिनकी आमदनी करोड़ों में है, क्या “ऊपर” तक सेटिंग नहीं कर सकते? भारत जैसे “बिकाऊ लोगों के देश" में बिलकुल कर सकते हैं।



अब आते हैं खर्चों पर… एक छात्र की फ़ीस तीस हजार से पचास हजार (जैसी दुकान हो उस हिसाब से), 11वी-12वीं पास करवाने की गारंटी की जुगाड़ की फ़ीस अलग से, उस छात्र का रहना-खाना आदि का खर्च 5 से 10 हजार प्रतिमाह, इसके अलावा पुस्तकें, स्टेशनरी, परीक्षायें दिलवाने के खर्च, बीच-बीच में घर आने-जाने का खर्चा… कहने का मतलब यह कि एक लड़के पर दो साल में कम से कम तीन-चार लाख रुपये खर्च होता है, इसके बाद भी इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि बेचारे का सिलेक्शन IIT नहीं, तो AIEEE नहीं, तो किसी अच्छे कॉलेज में ही हो जाये, और यदि हो भी जाये तो फ़िर से खर्चों की नई ABCD शुरु होगी वह अलग है, और सिलेक्शन नहीं हुआ तो तीन-चार लाख गये पानी में? बताइये इतना बड़ा जुआ खेलने की ताकत भारत के कितने प्रतिशत परिवारों में है? क्या यह भी एक प्रकार का आर्थिक आरक्षण नहीं है? क्योंकि मैंने ऐसे कई गरीब-निम्न मध्यमवर्गीय परिवार देखे हैं, जिनमें बच्चों ने 12वीं में 80-85 प्रतिशत तक अंक लाये हैं, लेकिन वे लोग पहले से ही इस “खेल” से बाहर हैं, क्योंकि वे बेचारे तो बड़े कोचिंग संस्थानों के दरवाजे में भी घुसने से डरते हैं। लेकिन हमारी “नौकरी पाने पर आधारित” शिक्षा व्यवस्था का यह एक दर्दनाक पहलू है कि हरेक पालक को इंजीनियर, डॉक्टर ही चाहिये, चाहे उसके लिये कुछ भी करना पड़े, आँखों में एक सपना लिये माँ-बाप दिन-रात खटते रहते हैं, लेकिन अन्य किसी विकल्प पर विचार तक नहीं करते। छोटे-छोटे कस्बों में ही तीन-तीन टेक्निकल कॉलेज खुल गये हैं, जिसमें 12वीं में सप्लीमेंट्री पाये हुए लड़के को भी एडमिशन दे दिया जाता है, फ़िर वह जैसे-तैसे धक्के खाते-खाते चार या पाँच साल में 60-70 प्रतिशत वाली डिग्री हाथ में लेकर बाहर निकलता है। उज्जैन से हर साल 350-400 सॉफ़्टवेयर/केमिकल/सिविल इंजीनियर पैदा होते हैं, जिनमें से 30-40 को ही ठीकठाक “प्लेसमेंट” मिल पाती है, बाकी के इंजीनियर सड़क नापते रहते हैं, कुछ “फ़्रस्ट्रेट” हो जाते हैं, कुछ ठेकेदार बन जाते हैं, कुछ कोई और धंधा कर लेते हैं, लेकिन ताकत न होते हुए भी हजारों परिवार यह महंगा जुआ हर साल खेल रहे हैं। आखिर क्या फ़ायदा है ऐसी शिक्षा का? फ़ायदा तो भरपूर हुआ लेकिन कोचिंग क्लास वालों का और उसके बाद प्रायवेट इंजीनियरिंग कॉलेज वालों का… लेकिन फ़िलहाल इस “शिक्षा बाजार के खेल” का कोई तात्कालिक हल नहीं है, इसके लिये शिक्षा व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन करने होंगे, चाहिये होगी दूरदृष्टि, पक्का इरादा और ईमानदार नीति निर्माता, जिनका काफ़ी समय से अकाल पड़ा हुआ है…
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