Sunday, April 11, 2010

दंतेवाड़ा के सवाल

विचाराधारात्मक रूप से माओवाद और सैद्धांतिक रूप से हिंसा में हमारा विश्वास नहीं है. छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा में नक्सलियों द्वारा इतने बड़े पैमाने पर हत्या किसी भी लोकतांत्रिक और यहां तक कि समाजवादी व्यक्ति के लिए बर्बर और निंदनीय है. उतना ही जितना कि प्रवीरचंद्र भंजदेव की राजसत्ता द्वारा की गई हत्या. लेकिन जिस तरीके से मीडिया और संचार के दूसरे माध्यम बहुत हड़बड़ी और बचकानेपन के साथ नक्सल समस्या को परोस रहे हैं, वह चकित करता है.

इस हिंसा के बाद मीडिया द्वारा चलाए जा रहे इस देश के अभिजात्य वर्ग के पाप को ढंकने के लिए नक्सली क्रूरता और हिंसा का लबादा बनाया जाना एक गंदी राजनीति का हिस्सा है, जिसकी एक बानगी एनडीटीवी पर मरभूक्खों के देश में ‘ज़ायका इंडिया का’ खोजने वाले विनोद दुआ के हालिया शो विनोद दुआ लाईव में देखा जा सकता है. उन्होंने खाप पंचायतों का उदाहरण देते हुए कहा कि वे आधुनिक सुविधाओं का इस्तेमाल करते हैं लेकिन फैसले मध्ययुगीन मानकों से करते हैं. बात बिल्कुल वाजिब है लेकिन संदर्भ बिल्कुल गलत.

उन्होंने यह कहते हुए कि कॉर्पोरेट सेक्टर एवं सरकार में काम करने वाले लोग जब व्यवस्था का विरोध करते हैं तो वो खाप पंचायतों की तरह व्यवहार कर रहे होते हैं. निहितार्थ बिल्कुल स्पष्ट है कि आमजन की त्रासद जीवन स्थितियों पर करुणायुक्त होने वाले लोग सरकार या कॉर्पोरेट हाउस से पैसा लेते हैं, इसीलिए उनको इसका हक नहीं है. दुआ जी, वे काम के बदले पैसा पाते हैं. आप क्या कहते हैं, वे अभिजात्यों की दलाली का पैसा पाते हैं ?

यह सच है कि क्रांति के उत्स में करुणा बैठी होती है और कम से कम करूणा को मार कर कोई क्रांति नहीं लाई जा सकती. विचारधारा के रथ पर सवार सैद्धांतिक एरोगंस अगर सत्ता में हो तो वह तानाशाही लाता है और अगर वह सत्ता से बाहर है तो मिलिटेंसी लाता है और कम से कम वह किसी समस्या का हल नहीं है. हमारे अंदर इतनी बौद्धिक विनम्रता होनी चाहिए कि हम ये समझ सकें कि हम सारी चिजों के बारे में, सारी बातें नहीं जानते हैं. इसलिये एक स्पेस को क्रियेट कर के रखा जाना चाहिये. लेकिन हम इस स्पेस को खत्म कर देना चाहता है.

इतिहास के जटिलतम प्रश्नों को इतने सरलीकृत तरीके से हल कर देने की बयानबाजी और उत्तर थोड़ी देर के लिये वाहवाही तो दिलवा सकती है लेकिन वह समस्या का समाधान तलाशने के बजाय समस्या को और उलझाने का ही काम करेगी.

जिस देश में 77% से ज्यादा लोग 20 रुपए से नीचे की जिंदगी गुजारते हैं, उस देश में उनके पक्ष में बोलने वाले लोगों की आलोचना का अर्थ है लोकतांत्रिक विस्तार को मीडिया के हमले द्वारा खत्म करना. और जिसका तार्किक अंत नक्सलवादी हिंसा में होगा, जो निंदनीय है. मगर ऐसी किसी कार्यवाही को आप अगली बार देखें तो कारक तत्व के रूप में ऐसे तर्क पेश करने वाले चेहरों को भी साफ-साफ देखना ना भूलें.
सद्दाम की हत्या का विरोध आतंकवाद का समर्थन है. सवाल उसी अंदाज में पूछा जाता है कि या तो आप सलवा जुड़ूम के साथ हैं या नक्सलवादियों के साथ.

सिर्फ मीडिया में ही नहीं, जीवन के हर क्षेत्र में शायनिंग इंडिया की चमक से जगमगाए हुए लोग भूख और ज्ञान और दरिद्रता के कीचड़ में जुझते हुए अपने कर्मों के फल से वंचित अभागे लोगों से घृणा तो करते हैं पर उनके फट पड़ने के भय की ग्रंथि से पीडित भी रहते हैं. ऐसे ही लोग बर्बर और हिंस्र कार्यवाही का इस्तेमाल करके अपना पाप ढंकना चाहते हैं और नक्सलवादी इनको ये अवसर देते हैं. इसीलिए लेनिन कहा करते थे कि उग्रवादी कम्यूनिज़्म एक बचकाना लफ्ज़ है जो सामाजिक बदलाव के राह का रोड़ा भी है.

शो में चलते-चलते विनोद दुआ ने बस्तर में मौजूद अपने संवाददाता से जल्दी से संक्षेप में जानना चाहा कि क्या सारे आदिवासी नक्सलवादी हैं? मुझको लगा कोई पूछ रहा है कि क्या सारे मुसलमान आतंकवादी हैं?

सवालों को इस अंदाज में पेश करने का अर्थ है कि आप या तो इधर हैं या उधर हैं. ठीक वैसे ही जैसे दुनिया का आका कहता है कि या तो आप हमारे साथ हैं या उनके साथ हैं. लेकिन यह सच है कि सद्दाम की हत्या का विरोध आतंकवाद का समर्थन है. सवाल उसी अंदाज में पूछा जाता है कि या तो आप सलवा जुड़ूम के साथ हैं या नक्सलवादियों के साथ.

हमारे जैसे जनतंत्र में आस्था रखने वाले करोड़ों लोग जो सलवा जुड़ूम के साथ नहीं है मगर नक्सलवाद और माओवाद में आस्था तो नहीं ही रखते हैं बल्कि सैद्धांतिक रूप से उसके विरोधी भी हैं. मीडिया और तथाकथित भद्र समाज, जो अपने बीमार और आराम की व्यवस्था में खलल नहीं चाहता है, वो बताए कि हम कहां है?

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