दांतेवाड़ा यात्रा वृत्तान्त का अंत एक ऐसे शाएर की एक मशहूर नज़्म के एक टुकड़े से करती है, जो अपनी रुमानी क्रांतिकारिता के लिए प्रसिद्ध है- फ़ैज़।
वहाँ पाया गया अंश यह है :
हम अहले-सफ़ा मर्दूदे-हरम
मसनद पे बिठाए जाएंगे
सब ताज उछाले जाएंगे
सब तख़्त गिराए जाएंगे
नज़्म के इसी तेवर के चलते पाकिस्तान में इस पर लम्बे समय तक बंदिश रही। लेकिन क्या अरुंधति को आभास है कि यह नज़्म इस्लामी क़यामत की धारणा में गहरे तक धंसी हुई है? यह पूरी नज़्म क़यामत के रोज़ होने वाले इंसाफ़ को समर्पित है जिसे ख़ुदा ने अपनी विशालकाय पट्टी (लौहे अज़ल) पर पहले से ही लिख रखा है। इस नज़र से नज़्म में एक तरह का नियतिवाद है। मगर तख़्त ओ ताज उछालने की बात भर से इंक़लाबी बेहद भावुक हो कर अपनी रुमानियत में और उतराने लगते हैं।
फ़ैज़ की रूमानियत को ऐसे और समझा जाया कि उनकी वफ़ात हुए चौथाई सदी गुज़र गई है। तख़्त ओ ताज कई उछले और गिरे लेकिन जो नारा गूंज रहा है पाकिस्तान की फ़िज़ाओं में, वो अनल हक़ का नहीं है। (अनल हक़-अह्म ब्रह्मास्मि- फ़ारस के प्रसिद्ध सूफ़ी मंसूर हल्लाज का वो नारा था जिसकी उद्घोषणा के लिए उसे अनेक यातना देने के बाद मौत के घाट उतार दिया गया था)
क्या यह सिर्फ़ संयोग है कि अरुंधति का दांतेवाड़ा वृतान्त एक रूमानियत पर अंत होता है?
फ़ैज़ की पूरी नज़्म कुछ यूं है:
हम देखेंगे
लाज़िम है के हम भी देखेंगे
वो दिन की जिसका वादा है
जो लौहे-अज़ल पे लिखा है
जब ज़ुल्मो-सितम के कोहे-गरां
रूई की तरह उड़ जाएंगे
हम महकूमों के पांव तले
ये धरती धड़-धड़ धड़केगी
और अहले-हिकम के सर ऊपर
जब बिजली कड़-कड़ कड़केगी
जब अर्ज़े-ख़ुदा के काबे से
सब बुत उठवाए जाएंगे
हम अहले-सफ़ा मर्दूदे-हरम
मसनद पे बिठाए जाएंगे
सब ताज उछाले जाएंगे
सब तख़्त गिराए जाएंगे
बस नाम रहेग अल्लाह का
जो ग़ायब भी है, हाज़िर भी
जो मंज़र भी है, नाज़िर भी
उठ्ठेगा अनलहक़ का नारा
जो मैं भी हूं और तुम भी हो
और राज करेगी ख़ल्क़े-ख़ुदा
जो मैं भी हूं और तुम भी हो
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