राष्ट्र एक आत्मा है, एक आध्यात्मिक सिद्धान्त है। दो चीज़ें, जो वास्तव में एक ही हैं, इस आध्यात्मिक सिद्धान्त की रचना करती हैं। एक भूत काल में है और दूसरे वर्तमान में। एक है स्मृतियों की एक समृद्ध धरोहर पर साझा अधिकार; और दूसरी है आज की तारीख़ में साथ रहने की कामना, हमें समूचे रूप में मिली धरोहर को आगे ले जाने का संकल्प। आदमी, भला आदमी, तात्कालिकता में नहीं जीता। राष्ट्र, व्यक्ति की ही तरह, उद्यमों, बलिदानों और निष्ठा की एक लम्बी परम्परा का परिणाम है। सारे पूजा पंथों में पूर्वजो का पंथ सबसे अधिक संगत है क्योंकि हम जो आज हैं उन्ही की ही वजह से हैं। एक उदात्त अतीत, महान नायक, गौरव (मेरा अर्थ सच्चे गौरव से है), यही है वो सामाजिक सम्पदा जिस पर एक राष्ट्र के विचार की नींव रखी जाती है। अतीत में साझा गौरव और वर्तमान में साझे संकल्प का होना, साथ हासिल की हुई उपलब्धियाँ, भविष्य में वैसी ही और हासिल करने की कामनाएं- यही एक क़ौम होने की पूर्व शर्ते हैं। उन बलिदानों जिसमें उसकी सहमति थी और झेली गई तक़लीफ़ों के अनुपात में ही आदमी प्रेम करता है। आदमी प्रेम करता है उस मकान से जो उसने बनाया है या उसे विरासत में मिला है। स्पार्टन लोगों का गीत - "हम हैं जो तुम हो, हम होंगे जो तुम हो" - हर राष्ट्र गान का, सरल रूप में, संक्षेप है।
रणनीतिक लिहाज़ से साझी सरहदों और चौकियों की तुलना में अतीत में साझी गौरवशाली धरोहर और हसरतें, और भविष्य में लागू करने के लिए (साझी) योजनाएं या साथ झेली हुई तक़लीफ़ें, साथ लिए हुए मज़े और साझी उम्मीदें कहीं अधिक मूल्यवान होती हैं। यही वो चीज़ें है जो प्रजाति और भाषा के फ़र्क़ों के बावजूद समझी जा सकती हैं। मैं ने अभी कहा 'साथ झेली हुई तक़लीफ़ें' और सच में पीड़ा, आनन्द से अधिक एका पैदा करती हैं। जहाँ तक राष्ट्रीय स्मृतियों का सवाल है, तक़लीफ़ें, विजयोल्लास से अधिक मूल्यवान होती हैं, क्योंकि वे कर्तव्य आरोपित करती हैं और एक साझी कोशिश की तलबगार होती हैं।
तो इसलिए अतीत में किए गए और भविष्य में किए जाने वाले उन बलिदानों- जिन्हे करने के लिए लोग तैयार हैं- की भावनाओं से संघटित, राष्ट्र एक व्यापक भाईचारा है। इसमें अतीत की कल्पना पहले से मौजूद है,जबकि ये वर्तमान में एक ठोस तथ्य से परिभाषित होता है, जो है सहमति- एक साझा जीवन बनाए रखने की स्पष्ट अभिव्यक्ति। जैसे एक व्यक्ति का अस्तित्व, जीवन के प्रति उसकी निरन्तर स्वीकृति है उसी तरह, यदि आप मेरे रूपक को क्षमा करें, एक राष्ट्र का अस्तित्व दैनिक जनमत-संग्रह है। और मैं जानता हूँ कि यह दैवीय अधिकार से कम आध्यात्मिक और ऐतिहासिक अधिकार से कम क्रूर है। मैं जो आप के सामने रख रहा हूँ उस विचार के अनुसार एक राष्ट्र के पास किसी राजा से अधिक अधिकार नहीं है कि वो किसी प्रदेश से कह सके, 'तुम मेरे हो, मैं तुम को हस्तगत कर रहा हूँ'। कोई भी प्रदेश, मेरे हिसाब से, उसके लोग हैं; अगर ऐसे मामलों में किसी की रायशुमारी होनी चाहिये तो वे वहाँ के लोग हैं। किसी राष्ट्र का किसी अन्य देश पर, उसकी ख़ाहिशों के ख़िलाफ़ क़ब्ज़ें में उसका अपना कोई सच्चा हित नहीं है। राष्ट्र की इच्छा ही एकमात्र वैधानिक आधार है, और वही हमेशा होना भी चाहिये।
हमने राजनीति में से आध्यात्मिक और धार्मिक अमूर्तन को निकाल फेंका है। तो बचता क्या है? आदमी; अपनी कामनाओं और ज़रूरतों के साथ। आप कहते हैं, कि लम्बी अवधि में अलगाव, राष्ट्रों का बिखराव एक ऐसे विधान का नतीजा होगा जो इन पुरानी संरचनाओं को उन इच्छाओं के रहमो करम पर छोड़ देता है जिन तक ज्ञान का उजाला नहीं पहुँचा है। ज़ाहिर है कि इन मामलों में किसी भी सिद्धान्त पर बहुत बल नहीं देना चाहिये। इस श्रेणी के सत्य एक बहुत ही आम ढंग से ही लागू करने योग्य हैं। मनुष्य के संकल्प बदलते हैं, और यहाँ भी ऐसा क्या है जो नहीं बदलता? राष्ट्र कोई शाश्वत चीज़ नहीं हैं। उनका एक आदि था और एक अन्त भी होना है। एक योरोपियन यूनियन सम्भवतः उनकी जगह ले लेगी। लेकिन जिस सदी में हम रहे हैं उसका ऐसा क़ानून नहीं है। इस दौर में, राष्ट्रों का अस्तित्व एक हितकारी चीज़ है, बल्कि एक ज़रूरत। उनका अस्तित्व आज़ादी की पूर्व-शर्त है, जो दुनिया में एक क़ानून और एक शासक होने से खो जाएगी।
अपनी विविध और अक्सर विरोधी शक्तियों के ज़रिये राष्ट्र, सभ्यता के साझे कार्य में हिस्सा लेते हैं; मानवता के महायज्ञ में अपनी आहुति देते हैं, जो (मानवता) आख़िरकार, वो उच्चतम आदर्श है जिसे हम हासिल कर सकते हैं। अकेले में, सबकी अपनी कमज़ोरियाँ हैं। अपने झूठे गौरव में फूलते रहना, हद दरज़े तक ईर्ष्यालु होना, अंहकारी और झगड़ालू होना, हर छोटे-बड़े बहाने पर अपनी तलवारें खींच लेना- ये सब गुण जो कि एक राष्ट्र के लिए बड़े सद्गुण समझे जाते हैं अगर किसी व्यक्ति में ऐसी ख़ामियाँ होती तो वो आदमी सबसे असहिष्णु माना जाता। मगर फिर भी ये विसंगतियाँ बड़े परिदृश्य में विलीन हो जाती हैं। बेचारी मानवता, तुम तुमने कितना कष्ट सहा है। और न जाने कितने इम्तहान तुम्हारा इंतज़ार कर रहे हैं। कामना करता हूँ कि विवेक तुम्हारे साथ रहे और तुम्हारे रास्ते में बिछे अनगिनत ख़तरों से तुम्हारी रक्षा करे!
सार ये है सज्जनों, कि आदमी न तो अपनी भाषा का दास है न प्रजाति का, न अपने धर्म का, न नदियों के मार्ग का, और न पर्वतमालाओं की दिशा का। सर से सतर्क और दिल से जोशीले मनुष्यों का एक बड़ा समूह उस प्रकार की नैतिक चेतना की रचना करता है जिसे हम राष्ट्र कहते हैं। जब तक यह नैतिक चेतना अपने उन बलिदानों के ज़रिये, जो समुदाय के हित में व्यक्ति के आत्म-त्याग की माँग करते हैं, अपनी शक्ति का सबूत देती है,वो वैध है और उस अस्तित्व में बने रहने का अधिकार है। अगर सरहदों के बारे में दुविधा पैदा होती है तो विवादित क्षेत्र की जनता से मशविरा करें। बेशक़, इस मामले में उन्हें अहम राय देन का हक़ है। यह सिफ़ारिश राजनीति के मुस्काने पर मजबूर कर देगी उन कुलीनों को, उन अमोघ हस्तियों को जो जीवन भर ख़ुद को धोखा देते हैं और फिर अपने उत्कृष्ट सिद्धान्तों की ऊँचाई से हमारी नश्वर चिंताओ पर रहम खाते हैं। "जनता से मशविरा, हे भगवान! क्या मूर्खता है।" मगर ज़रा इन्तज़ार कीजिय़े, सज्जनों; कुलीनों का दौर गुज़र जाने दीजिये; बलशालियों की नफ़रत को धीरज से सह जाइय़े। हो सकता है, कई असफल गठजोड़ों के बाद, लोग हमारे मामूली मगर व्यावहारिक हल की ओर लौट आयें। भविष्य में सही होने का सबसे सही तरीक़ा है, कुछ दौरों में, कि आप अपने आप को फ़ैशन से बाहर होना स्वीकार कर लें।
: अर्न्स्ट रेनान
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अर्न्स्ट रेनान (१८३२-९२) एक अहम फ़्रेंच विचारक थे जिन्होने मुख़्तलिफ़ मसलों पर लिखा। उनका ये प्रसिद्ध लेख "राष्ट्र क्या है?" पहली बार १८८२ में सोबन्न में पढ़ा गया था। विद्वानों के बीच आज भी इसकी एक ख़ास जगह बनी हुई है।
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इस लेख का विशेष सन्दर्भ योरोप ही है और उनकी भविष्यवाणी कितनी सही साबित हुई, आज योरोप के सभी राष्ट्र एक यूनियन में आबद्ध हो चुके हैं। इस लेख के नज़रिये से देखें तो, एक स्तर पर, भारत एक राष्ट्र और कई राष्ट्रों के यूनियन के बीच में कहीं हैं; और दूसरे स्तर पर हम कश्मीर, नागालैण्ड और दूसरे अलगाववादी वृत्तियों का दमन ऐतिहासिक अधिकार से करते हैं।
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