Sunday, March 27, 2016

दंगार्इ पत्रकारिता-मीडिया तब भी कराता था दंगा!

पत्रकार न तब कुछ कर सकता था आैर न ही अब कुछ कर सकता है. यह एक मजदूर है जो सिर्फ बौद्घिक मजदूरी करता है. खेल पहले भी होता था आैर खेल अब भी होता है लेकिन इस स्तर पर नहीं होता था कि एक प्रशासनिक अक्षमता को सांप्रदायिक रंग देनी की सियासत होती है...डाॅ नारंग जो अभी सेवा के लिए आए ही थी कि दरिंदों ने उन्माद में आकर हत्या कर दी आैर अब सियासत का बाजार गर्म है.
उत्तर प्रदेश चुनाव से पहले यह आैर होना तय है जिस तरह से बयार चल रही है इसमें प्रशासनिक अधिकारियों को कमर कस लेनी चाहिए जो उन्होंने वर्दी पहनते वक्त कसम खार्इ थी दोहरा लेना चाहिए वरना उत्तर प्रदेश का चुनाव इस बार दंगा सरकार हो जाएगा.कानपुर से लेकर रामपुर तक चल रही सियासत में हिंदू भी मरेंगे आैर मुसलमान भी लेकिन सत्ता की सियासत चलती रहेगी आैर आपका परिवार बिखर जाएगा.मीडिया तटस्थ नहीं रहेगा बल्कि रेंगेगा.
उत्तर प्रदेश में बुलेट से बैलेट का इतिहास पुराना है लेकिन रेखाचित्र इस बार नया होना जा रहा है अंदर खाने सपा आैर भाजपा का गठजोड आैर जहर घोलने को तैयार है तुष्टीकरण की रणनीति पर सब कुछ तबाह की भी तैयारी हो चुकी है. मायावती की ताकत को तोडने के लिए हर काम किया जाएगा आैर फिर अलग-अलग सीट लेकर भाजपा-सपा सरकार बनाने की तैयारी भी कर ली गर्इ है.अब यह होता कैसे है आगे आगे देखिए होता है क्या...

दोनों ही पक्ष आए हैं तैयारियों के साथ
हम गर्दनों के साथ हैं वो आरियों के साथ
बोया न कुछ भीए फ़सल मगर ढूँढते हैं लोग
कैसा मज़ाक चल रहा है क्यारियों के साथ

दंगा कैसे कराया जाता है वरिष्ठ पत्रकार शंभूनाथ शुक्ल की कलम से समझिए आैर इसमें मीडिया को तब क्या चाहिए होता था आैर अब क्या चाहिए यह भी समझिए..



मीडिया तब भी कराता था दंगा!
शंभूनाथ शुक्ल
बीस मार्च को इस बार आलोक तोमर की याद में जो कार्यक्रम हुआ वह वाकई यादगार बन गया.इस कार्यक्रम में हर वक्ता अपनी बात को यूं जादुई अंदाज में रख रहा था कि मानों अपने आलोक तोमर की यादों का आलोक कभी धुंधला नहीं पडऩे वाला. हर साल बीस मार्च को आलोक की पत्नी सुप्रिया रॉय यह कार्यक्रम कराती हैं और इस प्रोग्राम में जिस शिद्दत से आलोक को याद किया जाता है वह मील का पत्थर बन जाता है. इस बार इस कार्यक्रम में पूर्व केंद्रीय मंत्री आरिफ मोहम्मद खान ने कुछ बातें ऐसी कहीं जो सबसे अलग थीं . लोकतंत्र बनाम भीड़तंत्र मीडिया की भूमिकाष् विषय पर बोलते हुए आरिफ भाई ने कहा कि आज भीड़तंत्र लोकतंत्र को चलाने लगा है जबकि सत्य यह है कि चाहे वह सेमेटिक परंपरा हो अथवा भारतीय परंपरा दोनों का लक्ष्य एक ही है मगर भीड़तंत्र ने इस लोकतांत्रिक मकसद को अस्त.व्यस्त कर दिया है दोनों की परंपराओं में भीड़ काबिज है और ऐसी भीड़ जिसे परंपराए लोकतांत्रिक मूल्यों और नैष्ठिक सिद्घांतों के बारे में कुछ नहीं पता दोनो तरफ उन्मादी भीड़ ही परंपरा के नाम पर लीडर है.
आरएसएस के विचारक और पूर्व छात्र नेता गोविंदाचार्य ने भी भीड़ की अराजकता पर चिंता जताई. हिंदुस्तान की पूर्व प्रधान संपादक मृणाल पांडे ने तो कार्यक्रम में जुटी अपार भीड़ को पहले तो मित्रों कहकर संबोधित किया फिर चुटकी लेते हुए बोलीं कि माफ करिएगा आजकल मित्तरों दुधारू तलवार बन गया है। यह सुनते ही ऐसा ठहाका लगा कि पूरे हाल में काफी देर तक ठहाकों की गूंज बनी रही.  मृणाल पांडे ने बताया कि हिंदुस्तान के प्रधान संपादक पद से मुक्त होने के बाद से वे अध्ययन में अपना समय दे रही हैं और इस समय वे हिंदुस्तान की गवनहारिनों और नचनहारिनों पर शोध कर रही हैंण् इन्हीं नचनहारिनों को याद करते हुए उन्होंने दो किस्से सुनाए.उन्हें पेश कर रहा हूं.
महात्मा गांधी आैर गौहरजान
मृणाल जी ने किस्सा सुनाया कि कलकत्ता में एक गवनहारिन तवायफ थीं गौहरजान जिनका पूर्व में नाम गौहरबानू था. वे इतना अच्छा गाती थीं कि उनकी महफिल में दूर.दूर तक के राजा.महाराजा और अमीर.उमरा जुटते और उनके गाने पर खूब मोहरें लुटाई जातीं. एक बार तो उन्होंने ऐलानिया कह दिया कि हिंदुस्तान का वायसराय की जितनी आमदनी महीने भर में होगी उतना पैसा तो वे एक ही दिन में कमा लेती हैं.
गौहरजान की मशहूरी दूर.दूर तक थी. एक बार महात्मा गांधी जब कलकत्ता गए तो वे गौहर जान से भी मिले और उनसे कहा कि वे भी अपना सहयोग आजादी की लड़ाई में करें. गौहरजान ने कहा कि महात्मा जी हम तो नचनहारिनें हैं भला हम क्या मदद करेंगेण् बस यही कर सकती हूं कि आपकी लड़ाई के वास्ते पैसा भिजवा दिया करूं. गांधी जी ने कहा कि ठीक है गौहर तुम एक कार्यक्रम करो और उससे जितनी आमदनी हो सब की सब कांग्रेस के कोष में दे दो. गौहरजान राजी तो हो गईं पर एक शर्त रख दी कि महात्मा जी आपको उस कार्यक्रम में स्वयं आना पड़ेगा.गांधी जी ने हां कह दी। मगर उस दिन कुछ ऐसी व्यस्तता आन पड़ी कि गांधी जी जा ही नहीं सके लेकिन उनको गौहरजान का वायदा याद था इसलिए अपने किसी सहायक को भेजा कि जाओ गौहर जान से उस कार्यक्रम में हुई आय को ले आओ गौहरजान ने उस सहायक को उस दिन की आमदनी का दो तिहाई पैसा ही दिया और एक तिहाई अपने पास रख लिया तथा महात्मा जी को संदेशा भिजवा दिया कि आपने स्वयं आने का वायदा किया था मगर नहीं आए इसलिए अपने खर्च के रुपये मैं रखे लेती हूं.
यह था उस तवायफ का देश की आजादी की लड़ाई में योगदानण् पर कांग्रेस के पूरे इतिहास में इस दानशीलता और तवायफों के त्याग का जरा भी उल्लेख नहीं है.
संपादक ने करा दिया दंगा
मृणाल जी ने एक अन्य गौहरजान का किस्सा भी सुनाया जो उस वक्त पारसी थियेटर कंपनी में काम करती थीं और उन्हें मिस गौहरजान कहा जाता था.आजादी के पहले जब सिनेमा इतना पापुलर नहीं हुआ था ये पारसी थियेटर कंपनियां पूरे देश में घूम.घूमकर नाटक आयोजित किया करतीं थीं. सन 1940 में यह पारसी कंपनी लाहौर में सीता वनवास का नाटक खेलने गई. अब वहां के नामी उर्दू अखबार के संपादक थे लालचंद फलकण् उन्होंने कंपनी के मालिक के पास संदेशा भेजा कि उनका पूरा परिवार सीता वनवास नाटक देखने आएगा इसलिए फ्री पास भिजवा दिए जाएं. तब तक पारसी नाटक कंपनियां किसी को फ्री पास नहीं जारी करती थीं. सो उसके मालिक ने टका.सा जवाब दे दिया कि हम फ्री पास नहीं देते चाहे वह एडिटर हो या कि कलेक्टर यह जवाब सुनते ही एडिटर लालचंद की भौंहें चढ़ गईं और उन्होंने अगले रोज अपने अखबार के पहले पेज पर खबर छाप दी कि नामी पारसी थियेटर कंपनी ने सीता माता के रोल के लिए मिस गौहरजान नामक तवायफ को चुना है. यह पढ़ते ही जनता भड़क गई और लाहौर में दंगा हो गया. उस पर काबू पाने में सरकार को काफी वक्त लगा. इसके बाद पारसी थियेटर कंपनियों ने फ्री पास जारी करने शुरू किए जो शहर के आला अफसरों,नेताओं और एडिटरों को दिए जाते थे लेकिन तब इन फ्री पास की रंगत से ही पता चल जाता था कि ये दर्शक मुफ्तखोर हैं.
मीडिया किस तरह गुस्साई भीड़ को अराजक तंत्र में बदल देता है इसका बेहतर उदाहरण था यह पत्रकार नीलांजन मुखोपाध्याय ने भीड़ और मॉब में बुनियादी अंतर को रेखांकित किया और कहा कि भीड़ रचनात्मक भी हो सकती है मगर अराजक मॉब तो अराजक ही होगा पत्रकार और जदयू के सांसद हरिवंश ने सरकार की नाकामियों पर हमला किया टीवी एंकर विनोद दुआ भी बोले कार्यक्रम का संचालन विनोद अग्निहोत्री ने किया और शुरुआत आलोक के साथी रहे रमाशंकर सिंह ने यह सुप्रिया का ही कमाल है कि यादों में आलोक का हर कार्यक्रम अपनी अमरता छोड़ जाता है.

बाकी कुंवर बेचैन की ये पंक्तियां आपकाे बताएंगी
दोनों ही पक्ष आए हैं तैयारियों के साथ
हम गर्दनों के साथ हैं वो आरियों के साथ

बोया न कुछ भीए फ़सल मगर ढूँढते हैं लोग
कैसा मज़ाक चल रहा है क्यारियों के साथ

कोई बताए किस तरह उसको चुराऊँ में
पानी की एक बूँद है चिंगारियों के साथ

सेहत हमारी ठीक रहे भी तो किस तरह
आते हैं ख़ुद हक़ीम ही बीमारियों के साथ

कुछ रोज़ से मैं देख रहा हूँ कि हर सुबह
उठती है इक कराह भी किलकारियों के साथ

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