कर्नाटक के रेड्डी बन्धुओं द्वारा किये गये अरबों रुपये के खनन घोटाले के बारे में काफ़ी कुछ लिखा-पढ़ा जा चुका है, इसी प्रकार झारखण्ड के (भ्रष्टाचार में "यशस्वी") मुख्यमंत्री मधु कौड़ा के बारे में भी हंगामा बरपा हुआ था और उनके रुपयों के लेनदेन और बैंक खातों के बारे में अखबार रंगे गये हैं। लगता है कि भारत की खनिज सम्पदा, कोयला, लौह अयस्क इत्यादि कई-कई अफ़सरों, नेताओं, ठेकेदारों (और अब नक्सलियों और माओवादियों) के लिये भी अनाप-शनाप कमाई का साधन बन चुकी है, जहाँ एक तरफ़ नेताओं और अफ़सरों की काली कमाई स्विस बैंकों और ज़मीनों-सोने-कम्पनियों को खरीदने में लगती है, वहीं दूसरी तरफ़ नक्सली खनन के इस काले पैसे से हथियार खरीदना, अन्दरूनी आदिवासी इलाकों में अपने पठ्ठे तैयार करने और अपना सूचना तंत्र मजबूत करने में लगाते हैं।
असल में यह सारा खेल ठेकेदार-कम्पनियों और नक्सलियों का मिलाजुला होता है, सबका हिस्सा बँटा हुआ होता है, क्योंकि उस इलाके में सरकारों की तो कुछ चलती ही नहीं है। उदाहरण के तौर पर उड़ीसा के विजिलेंस विभाग ने 151 छोटी खदानों को पर्यावरण कानूनों और राजस्व के विभिन्न मामलों में केस दर्ज करके बन्द करवा दिया, लेकिन घने जंगलों में स्थित बड़ी कम्पनियों को लूट का खुला अवसर आज भी प्राप्त है। क्योंझर (डोलोमाइट), जिलिम्गोटा (लौह अयस्क) और कसिया (मैगनीज़) की एस्सेल और बिरला की खदानें 2001 से 2008 तक बेरोकटोक अवैध चलती रहीं हैं। इन कम्पनियों को सिर्फ़ 2,76,000 मीट्रिक टन का खनन करने की अनुमति थी, जबकि इन्होंने इस अवधि में 1,38,0391 मीट्रिक टन की खुदाई करके सरकार को सिर्फ़ 6 साल में 1178 करोड़ का चूना लगा दिया। संरक्षित वन क्षेत्र में अमूमन खुदाई की अनुमति नहीं दी जाती, लेकिन इधर वन विभाग भी मेहरबान है और उसने 127 हेक्टेयर के वन क्षेत्र में खदान बनाने की अनुमति दे डाली… और फ़िर भी अनुमति धरी रह गई अपनी जगह… क्योंकि जब वास्तविक स्थिति देखी गई तो "भाई" लोगों ने 127 की बजाय 242 हेक्टेयर वन क्षेत्र में खुदाई कर डाली। यदि पर्यावरण प्रेमी और सूचना के अधिकार वाले जागरुक लोग समय पर आवाज़ नहीं उठाते तो शायद ये कम्पनियाँ खुदाई करते-करते भुवनेश्वर तक पहुँच जातीं।
मजे की बात तो यह है कि इन कम्पनियों को पर्यावरण मंत्रालय और राज्य के खनन विभागों की अनुमति भी बड़ी जल्दी मिल जाती है… क्योंकि इन विभागों के उच्च अधिकारियों से लेकर वन-रक्षक के हाथ "रिश्वत के ग्रीज़" से चिकने बना दिये जाते हैं।सूचना के अधिकार कानून से भी क्या होने वाला है, क्योंकि सरकार ने अपने लिखित जवाब में बता दिया कि "आपकी शिकायत सही पाई गई है और उक्त खदान में खनन कार्य बन्द किया जा चुका है…" जबकि उस स्थान पर जाकर देखा जाये तो वह खदानें बाकायदा उसी गति से चल रही हैं, अब उखाड़ लो, जो उखाड़ सकते हो…।
सर्वोच्च न्यायालय द्वारा गठित एक विशेष पैनल ने अपनी सनसनीखेज़ रिपोर्ट में पाया है कि उड़ीसा में 215 खदानें ऐसी हैं, जिनके खनन लाइसेंस 20 साल पहले ही खत्म हो चुका है। पैनल ने कहा है कि घने जंगलों में ऐसी कई खदाने हैं जो अवैध रुप से चल रही हैं जिन्होंने न तो किसी प्रकार का पर्यावरण NOC लिया है न ही उनके लाइसेंस हैं (कोई बच्चा भी बता सकता है कि इस प्रकार की खदानों से किसकी कमाई होती होगी… पता नहीं नक्सलवादी नेता ऊँचे-ऊँचे आदर्शों की बातें क्यों करते हैं?)। इस लूट में कोल इंडिया लिमिटेड के उच्चाधिकारियों की मिलीभगत से महानदी कोलफ़ील्ड्स लिमिटेड भी दोनों हाथों से अवैध खनन कर रही है। यह खेल "खनिज सम्पदा छूट कानून 1960" के नियम 24A(6) के तहत किया जा रहा है, जबकि इस कानून को इसलिये बनाया गया था ताकि कोई खदान सरकारी स्वीकृति मिलने की देरी होने पर भी चालू हालत में रखी जा सके। इस नियम के तहत जब तक लाइसेंस नवीनीकरण नहीं होता तब तक उसी खदान को अस्थायी तौर पर शुरु रखने की अनुमति दी जाती है। उड़ीसा में इन सैकड़ों मामलों में खदानों के लाइसेंस पूरे हुए 10, 15 या 20 साल तक हो चुके हैं, न तो नवीनीकरण का आवेदन किया गया, न ही खदान बन्द की गई…।
राष्ट्रीय वन्य जीव क्षेत्र (नेशनल पार्क) के आसपास कम से कम 2 किमी तक कोई खदान नहीं होनी चाहिये, लेकिन इस नियम की धज्जियाँ भी सरेआम उड़ीसा में उड़ती नज़र आ जाती हैं। अब सुप्रीम कोर्ट ने इन खदान मालिकों को आज के वर्तमान बाजार भाव के हिसाब से लीज़ का पैसा चुकाने को कहा है, और पिछली लूट को यदि छोड़ भी दें तब भी सरकार के खजाने में इस कदम से करोड़ों रुपये आयेंगे। उल्लेखनीय है कि जब खनन करने वाली कम्पनी को 5000 रुपये का फ़ायदा होता है तब सरकार के खाते में सिर्फ़ 27 रुपये आते हैं (रॉयल्टी के रुप में), लेकिन ये बड़ी कम्पनियाँ और इनके मालिक इतने टुच्चे और नीच हैं कि ये 27 रुपये भी सरकारी खजाने में जमा नहीं करना चाहते, इसलिये अवैध खनन के जरिये अफ़सरों, ठेकेदारों और नक्सलियों-माओवादियों की मिलीभगत से सरकार को (यानी प्रकारांतर से हमें भी) चूना लगता रहता है। आदित्य बिरला की कम्पनी पर आरोप है कि उसने लगभग 2000 करोड़ रुपये का अवैध खनन सिर्फ़ उड़ीसा में किया है। यदि सूचना का अधिकार न होता तो विश्वजीत मोहन्ती जैसे कार्यकर्ताओं की मेहनत से हमें यह सब कभी पता नहीं चलता…। वेदान्ता और पोस्को द्वारा की जा रही लूट के बारे में काफ़ी शोरगुल और हंगामा होता रहता है, लेकिन भारतीय कम्पनियों द्वारा खनन में तथा माओवादियों द्वारा जंगलों में अवैध वसूली और लकड़ी/लौह अयस्क तस्करी के बारे में काफ़ी कम बात की जाती है, जबकि सारे के सारे एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं (कुछ झोलेवालों को यह मुगालता है कि नक्सलवादी या माओवादी किसी परम पवित्र उद्देश्य की लड़ाई लड़ रहे हैं…)। उधर रेड्डी बन्धुओं ने तो आंध्रप्रदेश और कर्नाटक की सीमा के चिन्ह भी मिटा डाले हैं ताकि जब जाँच हो, या कोई ईमानदार अधिकारी उधर देखने जाये तो उसे, कभी कर्नाटक तो कभी आंध्रप्रदेश की सीमा का मामला बताकर केस उलझा दिया जाये…
लेकिन सूचना के इस अधिकार से हमें सिर्फ़ घोटाले की जानकारी ही हुई है… न तो कम्पनियों का कुछ बिगड़ा, न ही अधिकारियों-ठेकेदारों का बाल भी बाँका हुआ, न ही मुख्यमंत्री या किसी अन्य मंत्री ने इस्तीफ़ा दिया … सूचना हासिल करके क्या उखाड़ लोगे? सजा दिलाने के लिये रास्ता तो थाना-कोर्ट-कचहरी-विधानसभा-लोकसभा के जरिये ही है, जहाँ इन बड़ी-बड़ी कम्पनियों के दलाल और शुभचिन्तक बैठे हैं। मध्यप्रदेश और राजस्थान के जिन IAS अधिकारियों के घरों से छापे में करोड़ों रुपये निकल रहे हैं, उन्हें सड़क पर घसीटकर जूतों से मारने की बजाय उन्हें उच्च पदस्थापनाएं मिल जाती हैं तो कैसा और क्या सिस्टम बदलेंगे हम और आप?
भई… जब देश की राजधानी में ऐन प्रधानमंत्री की नाक के नीचे कॉमनवेल्थ खेलों के नाम पर करोड़ों रुपये दिनदहाड़े लूट लिये जाते हों तो उड़ीसा, झारखण्ड, छत्तीसगढ़ के दूरदराज के घने जंगलों में देखने वाला कौन है… यह देश पूरी तरह लुटेरों की गिरफ़्त में है…कोई दिल्ली में लूट रहा है तो कोई क्योंझर या मदुरै या जैसलमेर में…
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