जो अहले-जुब्बा की तमकनत से
न रोआब खोएं
न बेचें
न सर झुकाएं
न हाथ जोड़ें
ये हम गुनहगार औरते हैं
के : जिनके जिस्मों की फसल बेचें जो लोग
वो सरफराज ठहरें
नियाबते-इम्तियाज ठहरें
ये हम गुनहगार औरते हैं
के : सच का परचम उठा के निकलीं
तो झूठ से शहराहें अटी मिली हैं

हरएक दहलीज पे
सजाओं की दास्तानें रखी मिली हैं
जो बोल सकती थीं, वो जबानें कटी मिली हैं
के : अब ताअकुब रात भी आए
तो ये आंखें नहीं बुझेंगी
के : अब जो दीवार गिर चुकी है
उसे उठाने की जिद न करना
ये हम गुनहगार औरते हैं
जो अहले जुब्बा की तमकनत से
न रोआब खोएं
न बेचें
न सर झुकाएं, न हाथ जोड़ें."
शब्दार्थ :
(अहले जुब्बा : मजहब के ठेकेदार, सरफराज : सम्मनित, नियाबते इम्तियाज : सही गलत में फर्क करनेवाला, ताअकुब : तलाश में, तमकनत : प्रतिष्ठा)
सुन्दर रचना
ReplyDeleteनव वर्ष की हार्दिक शुभकामनायें
ये गुनाह तो बार बार होना चाहिए।
ReplyDeleteशानदार और अद्भुत रचना को पढवाने का शुक्रिया।
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ये शानदार मौका...
यहाँ खुदा है, वहाँ खुदा है...