मुश्किलें आई अगर तो, फ़ैसला हो जाएगा
कौन है पानी में कितने, सब पता हो जाएगा
दूरियाँ दिल की कभी जो, बढ़ भी जाएँ तो हुज़ूर
तुम बढ़ाना इक कदम, तय फासला हो जाएगा
लाए थे दुनियाँ में क्या तुम, लेके तुम क्या जाओगे
ये महल, ये रिश्ते-नाते, सब जुदा हो जाएगा
गर दुआ माँगोगे दिल से, और उस पे हो यक़ी
जब बुरा होना भी होगा, तो भला हो जाएगा
आरज़ू थी फूल इक, दामन में मेरे जाए खिल
सोचती हूँ न हुआ तो, क्या ख़ला हो जाएगा
ज़िंदगी का रास्ता होगा, बड़ा काँटों भरा
साथ तुम होगे तो “श्रद्धा” हौसला हो जाएगा
Sunday, September 19, 2010
मेरे दामन में काँटे हैं, मेरी आँखों में पानी है मोहब्बत नाम जिसका है, ये उसने दी निशानी है श्रद्धा जैन
मेरे दामन में काँटे हैं, मेरी आँखों में पानी है
मोहब्बत नाम जिसका है, ये उसने दी निशानी है
क़ज़ा ही लगती है आसां, अगर जीना जुदाई में
मिटाना है मुझे खुद को, उसे यादें मिटानी है
वफ़ा के वादे हैं टूटे, ज़रा सी बात पर रूठे
सज़ा बन जाती है कुरबत, अजब दिल की कहानी है
मिटा कर नक्श कदमों के, बने अंजान हम फिर से
मिले शायद कभी हंस कर, कि लंबी ज़िंदगानी है
कहाँ क़ुरबान होता है, कोई भी संग में “श्रद्धा”
ये बातें हीर-रांझे की, हुई कब से पुरानी है
मोहब्बत नाम जिसका है, ये उसने दी निशानी है
क़ज़ा ही लगती है आसां, अगर जीना जुदाई में
मिटाना है मुझे खुद को, उसे यादें मिटानी है
वफ़ा के वादे हैं टूटे, ज़रा सी बात पर रूठे
सज़ा बन जाती है कुरबत, अजब दिल की कहानी है
मिटा कर नक्श कदमों के, बने अंजान हम फिर से
मिले शायद कभी हंस कर, कि लंबी ज़िंदगानी है
कहाँ क़ुरबान होता है, कोई भी संग में “श्रद्धा”
ये बातें हीर-रांझे की, हुई कब से पुरानी है
वो लौट न पाएँगे, मालूम न था हमको
छोटी सी भी मज़बूरी, कर देगी जुदा हमको
वो लौट न पाएँगे मालूम न था हमको
रिश्तों की कसौटी पर, खुद को ही मिटा आए
हम चलते रहे तन्हा, थे साथ नहीं साए
अश्कों के सिवा उनसे, कुछ भी न मिला हमको
वो लौट न पाएँगे, मालूम न था हमको
मौला ये बता दे मुझे, मेरा दिल क्यूँ सुलगता है
सूरज में जलन है गर, क्यूँ चाँद पिघलता है
साँसों के भी चलने से, लगता है बुरा हमको
वो लौट न पाएँगे मालूम न था हमको
सोचा कि मना लूँ उन्हें, मिन्नत भी कई कर लूँ
कदमों में गिर जाऊं, बाहों में उन्हें भर लूँ
होगा ये नही लेकिन, आसां जो लगा हमको
वो लौट न पाएँगे, मालूम न था हमको
गिरते हुए कदमों की, आहट पर न जाना तुम
मर जाएँगे हम यूँ ही, न अश्क़ बहाना तुम
आँसू ये तेरे अब भी, लगते हैं सज़ा हमको
वो लौट न पाएँगे, मालूम न था हमको
वो लौट न पाएँगे मालूम न था हमको
रिश्तों की कसौटी पर, खुद को ही मिटा आए
हम चलते रहे तन्हा, थे साथ नहीं साए
अश्कों के सिवा उनसे, कुछ भी न मिला हमको
वो लौट न पाएँगे, मालूम न था हमको
मौला ये बता दे मुझे, मेरा दिल क्यूँ सुलगता है
सूरज में जलन है गर, क्यूँ चाँद पिघलता है
साँसों के भी चलने से, लगता है बुरा हमको
वो लौट न पाएँगे मालूम न था हमको
सोचा कि मना लूँ उन्हें, मिन्नत भी कई कर लूँ
कदमों में गिर जाऊं, बाहों में उन्हें भर लूँ
होगा ये नही लेकिन, आसां जो लगा हमको
वो लौट न पाएँगे, मालूम न था हमको
गिरते हुए कदमों की, आहट पर न जाना तुम
मर जाएँगे हम यूँ ही, न अश्क़ बहाना तुम
आँसू ये तेरे अब भी, लगते हैं सज़ा हमको
वो लौट न पाएँगे, मालूम न था हमको
खलवतों में साँप जैसे काटे हैं दिन पाप जैसे
चलो कुछ बात करते हैं
ज़ुबाँ, जज़्बात करते हैं
कही न दिन गुज़र जाए
मोहब्बत फिर न मर जाए
जो है एहसास ज़िंदा ,
तो अभी मुलाकात करते हैं
चलो कुछ बात करते हैं
रहे न मिलन अधूरा अब
मुझे तुम पूरा कर दो अब
मिला के लब से लब को ,
शबनमी ये रात करते हैं
चलो कुछ बात करते हैं
खलवतों में साँप जैसे
काटे हैं दिन पाप जैसे
अभी सूने से आँगन में,
सुरमई बरसात करते हैं
चलो कुछ बात करते हैं
ज़ुबाँ, जज़्बात करते हैं
कही न दिन गुज़र जाए
मोहब्बत फिर न मर जाए
जो है एहसास ज़िंदा ,
तो अभी मुलाकात करते हैं
चलो कुछ बात करते हैं
रहे न मिलन अधूरा अब
मुझे तुम पूरा कर दो अब
मिला के लब से लब को ,
शबनमी ये रात करते हैं
चलो कुछ बात करते हैं
खलवतों में साँप जैसे
काटे हैं दिन पाप जैसे
अभी सूने से आँगन में,
सुरमई बरसात करते हैं
चलो कुछ बात करते हैं
दूर कहीं जलती हो आग,
मेरी आँखों से तेरी आँखों तक
प्यार की जब हो गुपचुप बात
होंठ सिले हों, आँखें नम हो
मौसम बजा रहा हो साज
दूर कही शहनाई बजे और
बागों में खिल उठे गुलाब
स्पर्श तुम्हारा बजे तरंग बन
दूर कहीं जलती हो आग,
एक दूजे को जाने हम जब
मूक हमारे हो संवाद
प्यार की जब हो गुपचुप बात
होंठ सिले हों, आँखें नम हो
मौसम बजा रहा हो साज
दूर कही शहनाई बजे और
बागों में खिल उठे गुलाब
स्पर्श तुम्हारा बजे तरंग बन
दूर कहीं जलती हो आग,
एक दूजे को जाने हम जब
मूक हमारे हो संवाद
जिंदगी में पर हक़ीक़त ख़्वाब सी बिलकुल नहीं है श्रद्धा जैन
कितना आसान लगता था
ख़्वाब में नए रंग भरना
आसमाँ मुट्ठी में करना
ख़ुश्बू से आँगन सजाना
बरसात में छत पर नहाना
कितना आसान लगता था
दौड़ कर तितली पकड़ना
हर बात पर ज़िद में झगड़ना
झील में नए गुल खिलाना
कश्तियों में, पार जाना
कितना आसान लगता था
जिंदगी में पर हक़ीक़त
ख़्वाब सी बिलकुल नहीं है
जिंदगी समझौता है इक
कोई जिद चलती नहीं है
जिंदगी में पर हक़ीक़त
ख़्वाब सी बिलकुल नहीं है
ख़्वाब में नए रंग भरना
आसमाँ मुट्ठी में करना
ख़ुश्बू से आँगन सजाना
बरसात में छत पर नहाना
कितना आसान लगता था
दौड़ कर तितली पकड़ना
हर बात पर ज़िद में झगड़ना
झील में नए गुल खिलाना
कश्तियों में, पार जाना
कितना आसान लगता था
जिंदगी में पर हक़ीक़त
ख़्वाब सी बिलकुल नहीं है
जिंदगी समझौता है इक
कोई जिद चलती नहीं है
जिंदगी में पर हक़ीक़त
ख़्वाब सी बिलकुल नहीं है
है याद तुम्हारा कानों में, हौले से कुछ कह जाना / श्रद्धा जैन
है याद तुम्हारा कानों में, हौले से कुछ कह जाना
वादों से कैसे सीखे, इस भोले दिल को बहलाना
बहुत दिनों के बाद, सपने में तुम्हें फिर पाया है
तकिये को हमने आज फिर, सीने से अपने लगाया है
बहुत प्यारी सी बातें है, बहुत मीठी सी यादें है
तुम इस भोली नाज़ुक लड़की को, सपने से नहीं जगाना
है याद तुम्हारा कानों में, हौले से कुछ कह जाना
वादों से कैसे सीखे, इस भोले दिल को बहलाना
जागी-जागी रतियाँ गुज़री, तारों से बातें करते
थोड़ा सा उम्मीद में जीते, थोड़ा थोड़ा हम मरते
न आते हो मिलने तुम, न कोई खबरिया आती है
ख्वाबों में मिलकर तुमसे, है सीख लिया तुमको पाना
है याद तुम्हारा हौले से, कानों में कुछ कह जाना
वादों से कैसे सीखे, इस भोले दिल को बहलाना
बहुत दिनों के बाद, सपने में तुम्हें फिर पाया है
तकिये को हमने आज फिर, सीने से अपने लगाया है
बहुत प्यारी सी बातें है, बहुत मीठी सी यादें है
तुम इस भोली नाज़ुक लड़की को, सपने से नहीं जगाना
है याद तुम्हारा कानों में, हौले से कुछ कह जाना
वादों से कैसे सीखे, इस भोले दिल को बहलाना
जागी-जागी रतियाँ गुज़री, तारों से बातें करते
थोड़ा सा उम्मीद में जीते, थोड़ा थोड़ा हम मरते
न आते हो मिलने तुम, न कोई खबरिया आती है
ख्वाबों में मिलकर तुमसे, है सीख लिया तुमको पाना
है याद तुम्हारा हौले से, कानों में कुछ कह जाना
तेरे हाथों से छूटी जो, मैं मिट्टी से हमवार हुई / श्रद्धा जैन
तेरे हाथों से छूटी जो, मैं मिट्टी से हम वार हुई
हंसती-खिलती सी गुड़िया थी, इक धक्के से बेकार हुई
ज़ख्मों पर मरहम देने को, उसने तो हाथ बढाया था
मेरे जीवन की पीड़ा ही, इक दोधारी तलवार हुई
ये गर्म फ़ज़ा झुलसाएगी, पैरों में भी छाले लाएगी
देती थी जो साया मुझको, अब दूर वही दीवार हुई
दिन-रात दुआओं में मुझको, माँगा था खुदा से जिसने कभी
ये कुर्बत फिर मालूम नहीं, क्यूँ उसके दिल का भार हुई
जाने कब से खामोश थे लब, और सन्नाटा था जेहन में
इन दोनों की तन्हाई भी, महसूस मुझे इस बार हुई
जिसके कारण महका-महका मेरे जीवन का हर लम्हा
करती शुकराना हूँ उसका जिससे " श्रद्धा " इक प्यार हुई
हंसती-खिलती सी गुड़िया थी, इक धक्के से बेकार हुई
ज़ख्मों पर मरहम देने को, उसने तो हाथ बढाया था
मेरे जीवन की पीड़ा ही, इक दोधारी तलवार हुई
ये गर्म फ़ज़ा झुलसाएगी, पैरों में भी छाले लाएगी
देती थी जो साया मुझको, अब दूर वही दीवार हुई
दिन-रात दुआओं में मुझको, माँगा था खुदा से जिसने कभी
ये कुर्बत फिर मालूम नहीं, क्यूँ उसके दिल का भार हुई
जाने कब से खामोश थे लब, और सन्नाटा था जेहन में
इन दोनों की तन्हाई भी, महसूस मुझे इस बार हुई
जिसके कारण महका-महका मेरे जीवन का हर लम्हा
करती शुकराना हूँ उसका जिससे " श्रद्धा " इक प्यार हुई
भाई-भाई को लड़ते देखा है श्रद्धा जैन
हमने गुलशन उजड़ते देखा है
भाई-भाई को लड़ते देखा है
इतनी वहशत जुदाई से 'तौबा'
ख़्वाब तक में बिछड़ते देखा है
बोझ नजदीकियाँ न बन जाएँ
कीड़ा मीठे में पड़ते देखा है
एक बस दिल की बात सुनने में
हमने रिश्ता बिगड़ते देखा है
अब तो गर्दन बचाना है मुश्किल
पाँव उनको पकड़ते देखा है
हार दुनिया ने मान ली "श्रद्धा"
जब तुझे जिद पे अड़ते देखा है
भाई-भाई को लड़ते देखा है
इतनी वहशत जुदाई से 'तौबा'
ख़्वाब तक में बिछड़ते देखा है
बोझ नजदीकियाँ न बन जाएँ
कीड़ा मीठे में पड़ते देखा है
एक बस दिल की बात सुनने में
हमने रिश्ता बिगड़ते देखा है
अब तो गर्दन बचाना है मुश्किल
पाँव उनको पकड़ते देखा है
हार दुनिया ने मान ली "श्रद्धा"
जब तुझे जिद पे अड़ते देखा है
इक लड़की पागल दीवानी, गुमसुम चुप-चुप सी रहती थी / श्रद्धा जैन
इक लड़की पागल दीवानी, गुमसुम चुप-चुप सी रहती थी
बारिश सा शोर न था उसमें, सागर की तरह वो बहती थी
कोई उस को पढ़ न पाया, न कोई उसको समझा तब
छोटी उदास आँखें उस की, न जाने क्या-क्या कहती थी
शख़्स जो अक़्सर दिखता था, उस दिल के झरोखे में
दर्द कई वो देता था, रखता था उसको धोखे में
जितने पल रुकता था आकर, वो उस में सिमटी रहती थी
छोटी उदास आँखें उस की, न जाने क्या-क्या कहती थी
इक दिन ऐसा भी आया, वो आया पर दर नहीं खुला
दरवाज़े पर हँसता था जो, इक चेहरा उस को नहीं मिला
आँसू के हर्फ़ वहाँ थे, और था वफ़ा का किस्सा भी
तब जान गये आख़िर, सब कैसे वो टूटी, कहाँ मिटी
समझा तब लोगों ने उसको, कैसे वो ताने सहती थी
छोटी उदास आँखें उस की, न जाने क्या-क्या कहती थी
बाद उसके ख़त भी मिले, जिनमें कई प्यार की बातें थी
सौगातें थी पाक दुआ की, भेजी चाँदनी रातें थी
लिखा था उसने, सम्हल के रहना, इतना भी मत गुस्सा करना
अब और कोई न सीखेगा, तुम से जीना, तुम पर मरना
अब वो पागल लड़की नहीं रही, जो तुम को खूब समझती थी
हर गुस्से को हर चुप को, आसानी से जो पढ़ती थी
समझा वो भी अब जाकर, क्या उसकी आँखें कहती थी
था प्यार बला का उससे ही, वो जिसके ताने सहती थी
इक लड़की पागल दीवानी, गुमसुम चुप-चुप सी रहती थी
बारिश सा शोर न था उसमें, सागर की तरह वो बहती थी
कोई उस को पढ़ न पाया, न कोई उसको समझा तब
छोटी उदास आँखें उस की, न जाने क्या-क्या कहती थी
शख़्स जो अक़्सर दिखता था, उस दिल के झरोखे में
दर्द कई वो देता था, रखता था उसको धोखे में
जितने पल रुकता था आकर, वो उस में सिमटी रहती थी
छोटी उदास आँखें उस की, न जाने क्या-क्या कहती थी
इक दिन ऐसा भी आया, वो आया पर दर नहीं खुला
दरवाज़े पर हँसता था जो, इक चेहरा उस को नहीं मिला
आँसू के हर्फ़ वहाँ थे, और था वफ़ा का किस्सा भी
तब जान गये आख़िर, सब कैसे वो टूटी, कहाँ मिटी
समझा तब लोगों ने उसको, कैसे वो ताने सहती थी
छोटी उदास आँखें उस की, न जाने क्या-क्या कहती थी
बाद उसके ख़त भी मिले, जिनमें कई प्यार की बातें थी
सौगातें थी पाक दुआ की, भेजी चाँदनी रातें थी
लिखा था उसने, सम्हल के रहना, इतना भी मत गुस्सा करना
अब और कोई न सीखेगा, तुम से जीना, तुम पर मरना
अब वो पागल लड़की नहीं रही, जो तुम को खूब समझती थी
हर गुस्से को हर चुप को, आसानी से जो पढ़ती थी
समझा वो भी अब जाकर, क्या उसकी आँखें कहती थी
था प्यार बला का उससे ही, वो जिसके ताने सहती थी
इक लड़की पागल दीवानी, गुमसुम चुप-चुप सी रहती थी
नई आँख पुराना ख़्वाब / परवीन शाकिर
आतिशदान के पास
गुलाबी हिद्दत के होले में सिमटकर
तुमसे बातें करते हुए
कभी कभी तो ऐसा लगा है
जैसे ओस में भीगी घास पे
उसके बाजू थामे हुए
मैं फिर नींद में चलने लगी हूँ
गुलाबी हिद्दत के होले में सिमटकर
तुमसे बातें करते हुए
कभी कभी तो ऐसा लगा है
जैसे ओस में भीगी घास पे
उसके बाजू थामे हुए
मैं फिर नींद में चलने लगी हूँ
ख़्वाब का दर बंद है / शहरयार
मेरे लिए रात ने
आज फ़राहम किया
एक नया मर्हला ।
नींदों ने ख़ाली किया
अश्कों से फ़िर भर दिया
कासा: मेरी आँख का
और कहा कान में
मैंने हर एक जुर्म से
तुमको बरी कर दिया
मैंने सदा के लिए
तुमको रिहा कर दिया
जाओ जिधर चाहो तुम
जागो कि सो जाओ तुम
ख़्वाब का दर बंद है
आज फ़राहम किया
एक नया मर्हला ।
नींदों ने ख़ाली किया
अश्कों से फ़िर भर दिया
कासा: मेरी आँख का
और कहा कान में
मैंने हर एक जुर्म से
तुमको बरी कर दिया
मैंने सदा के लिए
तुमको रिहा कर दिया
जाओ जिधर चाहो तुम
जागो कि सो जाओ तुम
ख़्वाब का दर बंद है
आज मोहब्बत का 'ताज' भी गम़जा़या होगा.... / हरकीरत हकीर
अब न जाने कितना गम़ उन्हें पीना होगा
हर पल आँसुओं में डूब कर जीना होगा
दोस्तों किसी का यार न बिछडे़ कभी
आज न जाने किस-किस का घर सूना होगा
अब न सजेंगी मांगे उनकी सिन्दूरों से
न भाल पे उनके कुमकुम लाल होगा
न दीप जलेंगे दीवाली पे उनके घर
न होली पे अब रंग-गुलाल होगा
खोला होगा कैसे परिणय का बंधन
कैसे स्नेह से दिया कंगन उतारा होगा
चढा़कर फूल अपने रहनुमा के चरणों पर
कैसे आँसुओं को घुट-घुट कर पीया होगा
गुजारी होंगी शामें जिन हंसी गुलजारों में
उस सबा ने भी दर्द का गीत गाया होगा
बात-बेबात जिक्र जो उनका आया होगा
आँखों में इक दर्द सा सिमट आया होगा
रातों को हुई होगी जो सन्नाटे से दहशत
तड़प के बेसाख्ता उन्हें पुकारा होगा
ढूँढती रहेंगी हकी़र ताउम्र उन्हें निगाहें
आज मोहब्बत का 'ताज' भी गम़जा़या होगा
हर पल आँसुओं में डूब कर जीना होगा
दोस्तों किसी का यार न बिछडे़ कभी
आज न जाने किस-किस का घर सूना होगा
अब न सजेंगी मांगे उनकी सिन्दूरों से
न भाल पे उनके कुमकुम लाल होगा
न दीप जलेंगे दीवाली पे उनके घर
न होली पे अब रंग-गुलाल होगा
खोला होगा कैसे परिणय का बंधन
कैसे स्नेह से दिया कंगन उतारा होगा
चढा़कर फूल अपने रहनुमा के चरणों पर
कैसे आँसुओं को घुट-घुट कर पीया होगा
गुजारी होंगी शामें जिन हंसी गुलजारों में
उस सबा ने भी दर्द का गीत गाया होगा
बात-बेबात जिक्र जो उनका आया होगा
आँखों में इक दर्द सा सिमट आया होगा
रातों को हुई होगी जो सन्नाटे से दहशत
तड़प के बेसाख्ता उन्हें पुकारा होगा
ढूँढती रहेंगी हकी़र ताउम्र उन्हें निगाहें
आज मोहब्बत का 'ताज' भी गम़जा़या होगा
प्रेम के भाव तुर्त भर लेना" । सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"
नहीं मालूम क्यों यहाँ आया
ठोकरें खाते हुए दिन बीते ।
उठा तो पर न सँभलने पाया
गिरा व रह गया आँसू पीते ।
ताब बेताब हुई हठ भी हटी
नाम अभिमान का भी छोड़ दिया ।
देखा तो थी माया की डोर कटी
सुना व' कहते हैं, हाँ खूब किया ।
पर अहो पास छोड़ आते ही
वह सब भूत फिर सवार हुए ।
मुझे गफलत में ज़रा पाते ही
फिर वही पहले के से वार हुए ।
एक भी हाथ सँभाला न गया
और कमज़ोरों का बस क्या है ।
कहा - निर्दय, कहाँ है तेरी दया,
मुझे दुख देने में जस क्या है ।
रात को सोते य' सपना देखा
कि व' कहते हैं "तुम हमारे हो
भला अब तो मुझे अपना देखा,
कौन कहता है कि तुम हारे हो ।
अब अगर कोई भी सताये तुम्हें
तो मेरी याद वहीं कर लेना
नज़र क्यों काल ही न आये तुम्हें
प्रेम के भाव तुर्त भर लेना" ।
ठोकरें खाते हुए दिन बीते ।
उठा तो पर न सँभलने पाया
गिरा व रह गया आँसू पीते ।
ताब बेताब हुई हठ भी हटी
नाम अभिमान का भी छोड़ दिया ।
देखा तो थी माया की डोर कटी
सुना व' कहते हैं, हाँ खूब किया ।
पर अहो पास छोड़ आते ही
वह सब भूत फिर सवार हुए ।
मुझे गफलत में ज़रा पाते ही
फिर वही पहले के से वार हुए ।
एक भी हाथ सँभाला न गया
और कमज़ोरों का बस क्या है ।
कहा - निर्दय, कहाँ है तेरी दया,
मुझे दुख देने में जस क्या है ।
रात को सोते य' सपना देखा
कि व' कहते हैं "तुम हमारे हो
भला अब तो मुझे अपना देखा,
कौन कहता है कि तुम हारे हो ।
अब अगर कोई भी सताये तुम्हें
तो मेरी याद वहीं कर लेना
नज़र क्यों काल ही न आये तुम्हें
प्रेम के भाव तुर्त भर लेना" ।
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"
लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती ।
नन्हीं चींटी जब दाना लेकर चलती है,
चढ़ती दीवारों पर, सौ बार फिसलती है ।
मन का विश्वास रगों में साहस भरता है,
चढ़कर गिरना, गिरकर चढ़ना न अखरता है ।
आख़िर उसकी मेहनत बेकार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती ।
डुबकियां सिंधु में गोताखोर लगाता है,
जा जा कर खाली हाथ लौटकर आता है ।
मिलते नहीं सहज ही मोती गहरे पानी में,
बढ़ता दुगना उत्साह इसी हैरानी में ।
मुट्ठी उसकी खाली हर बार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती ।
असफलता एक चुनौती है, इसे स्वीकार करो,
क्या कमी रह गई, देखो और सुधार करो ।
जब तक न सफल हो, नींद चैन को त्यागो तुम,
संघर्ष का मैदान छोड़ कर मत भागो तुम ।
कुछ किये बिना ही जय जय कार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती ।
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती ।
नन्हीं चींटी जब दाना लेकर चलती है,
चढ़ती दीवारों पर, सौ बार फिसलती है ।
मन का विश्वास रगों में साहस भरता है,
चढ़कर गिरना, गिरकर चढ़ना न अखरता है ।
आख़िर उसकी मेहनत बेकार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती ।
डुबकियां सिंधु में गोताखोर लगाता है,
जा जा कर खाली हाथ लौटकर आता है ।
मिलते नहीं सहज ही मोती गहरे पानी में,
बढ़ता दुगना उत्साह इसी हैरानी में ।
मुट्ठी उसकी खाली हर बार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती ।
असफलता एक चुनौती है, इसे स्वीकार करो,
क्या कमी रह गई, देखो और सुधार करो ।
जब तक न सफल हो, नींद चैन को त्यागो तुम,
संघर्ष का मैदान छोड़ कर मत भागो तुम ।
कुछ किये बिना ही जय जय कार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती ।
जिस क्षण बँध गया बेधने को दृग दृढ़ निश्चय, काँपा ब्रह्माण्ड, हुआ देवी का त्वरित उदय-सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"
रवि हुआ अस्त; ज्योति के पत्र पर लिखा अमर
रह गया राम-रावण का अपराजेय समर
आज का तीक्ष्ण शर-विधृत-क्षिप्रकर, वेग-प्रखर,
शतशेलसम्वरणशील, नील नभगर्ज्जित-स्वर,
प्रतिपल - परिवर्तित - व्यूह - भेद कौशल समूह
राक्षस - विरुद्ध प्रत्यूह,-क्रुद्ध - कपि विषम हूह,
विच्छुरित वह्नि - राजीवनयन - हतलक्ष्य - बाण,
लोहितलोचन - रावण मदमोचन - महीयान,
राघव-लाघव - रावण - वारण - गत - युग्म - प्रहर,
उद्धत - लंकापति मर्दित - कपि - दल-बल - विस्तर,
अनिमेष - राम-विश्वजिद्दिव्य - शर - भंग - भाव,
विद्धांग-बद्ध - कोदण्ड - मुष्टि - खर - रुधिर - स्राव,
रावण - प्रहार - दुर्वार - विकल वानर - दल - बल,
मुर्छित - सुग्रीवांगद - भीषण - गवाक्ष - गय - नल,
वारित - सौमित्र - भल्लपति - अगणित - मल्ल - रोध,
गर्ज्जित - प्रलयाब्धि - क्षुब्ध हनुमत् - केवल प्रबोध,
उद्गीरित - वह्नि - भीम - पर्वत - कपि चतुःप्रहर,
जानकी - भीरू - उर - आशा भर - रावण सम्वर।
लौटे युग - दल - राक्षस - पदतल पृथ्वी टलमल,
बिंध महोल्लास से बार - बार आकाश विकल।
वानर वाहिनी खिन्न, लख निज - पति - चरणचिह्न
चल रही शिविर की ओर स्थविरदल ज्यों विभिन्न।
प्रशमित हैं वातावरण, नमित - मुख सान्ध्य कमल
लक्ष्मण चिन्तापल पीछे वानर वीर - सकल
रघुनायक आगे अवनी पर नवनीत-चरण,
श्लथ धनु-गुण है, कटिबन्ध स्रस्त तूणीर-धरण,
दृढ़ जटा - मुकुट हो विपर्यस्त प्रतिलट से खुल
फैला पृष्ठ पर, बाहुओं पर, वक्ष पर, विपुल
उतरा ज्यों दुर्गम पर्वत पर नैशान्धकार
चमकतीं दूर ताराएं ज्यों हों कहीं पार।
आये सब शिविर,सानु पर पर्वत के, मन्थर
सुग्रीव, विभीषण, जाम्बवान आदिक वानर
सेनापति दल - विशेष के, अंगद, हनुमान
नल नील गवाक्ष, प्रात के रण का समाधान
करने के लिए, फेर वानर दल आश्रय स्थल।
बैठे रघु-कुल-मणि श्वेत शिला पर, निर्मल जल
ले आये कर - पद क्षालनार्थ पटु हनुमान
अन्य वीर सर के गये तीर सन्ध्या - विधान
वन्दना ईश की करने को, लौटे सत्वर,
सब घेर राम को बैठे आज्ञा को तत्पर,
पीछे लक्ष्मण, सामने विभीषण, भल्लधीर,
सुग्रीव, प्रान्त पर पाद-पद्म के महावीर,
यूथपति अन्य जो, यथास्थान हो निर्निमेष
देखते राम का जित-सरोज-मुख-श्याम-देश।
है अमानिशा, उगलता गगन घन अन्धकार,
खो रहा दिशा का ज्ञान, स्तब्ध है पवन-चार,
अप्रतिहत गरज रहा पीछे अम्बुधि विशाल,
भूधर ज्यों ध्यानमग्न, केवल जलती मशाल।
स्थिर राघवेन्द्र को हिला रहा फिर - फिर संशय
रह - रह उठता जग जीवन में रावण-जय-भय,
जो नहीं हुआ आज तक हृदय रिपु-दम्य-श्रान्त,
एक भी, अयुत-लक्ष में रहा जो दुराक्रान्त,
कल लड़ने को हो रहा विकल वह बार - बार,
असमर्थ मानता मन उद्यत हो हार-हार।
ऐसे क्षण अन्धकार घन में जैसे विद्युत
जागी पृथ्वी तनया कुमारिका छवि अच्युत
देखते हुए निष्पलक, याद आया उपवन
विदेह का, -प्रथम स्नेह का लतान्तराल मिलन
नयनों का-नयनों से गोपन-प्रिय सम्भाषण,-
पलकों का नव पलकों पर प्रथमोत्थान-पतन,-
काँपते हुए किसलय,-झरते पराग-समुदय,-
गाते खग-नव-जीवन-परिचय-तरू मलय-वलय,-
ज्योतिःप्रपात स्वर्गीय,-ज्ञात छवि प्रथम स्वीय,-
जानकी-नयन-कमनीय प्रथम कम्पन तुरीय।
सिहरा तन, क्षण-भर भूला मन, लहरा समस्त,
हर धनुर्भंग को पुनर्वार ज्यों उठा हस्त,
फूटी स्मिति सीता ध्यान-लीन राम के अधर,
फिर विश्व-विजय-भावना हृदय में आयी भर,
वे आये याद दिव्य शर अगणित मन्त्रपूत,-
फड़का पर नभ को उड़े सकल ज्यों देवदूत,
देखते राम, जल रहे शलभ ज्यों रजनीचर,
ताड़का, सुबाहु, बिराध, शिरस्त्रय, दूषण, खर;
फिर देखी भीम मूर्ति आज रण देखी जो
आच्छादित किये हुए सम्मुख समग्र नभ को,
ज्योतिर्मय अस्त्र सकल बुझ बुझ कर हुए क्षीण,
पा महानिलय उस तन में क्षण में हुए लीन;
लख शंकाकुल हो गये अतुल बल शेष शयन,
खिंच गये दृगों में सीता के राममय नयन;
फिर सुना हँस रहा अट्टहास रावण खलखल,
भावित नयनों से सजल गिरे दो मुक्तादल।
बैठे मारुति देखते राम-चरणारविन्द-
युग 'अस्ति-नास्ति' के एक रूप, गुण-गण-अनिन्द्य;
साधना-मध्य भी साम्य-वाम-कर दक्षिणपद,
दक्षिण-कर-तल पर वाम चरण, कपिवर गद् गद्
पा सत्य सच्चिदानन्द रूप, विश्राम - धाम,
जपते सभक्ति अजपा विभक्त हो राम - नाम।
युग चरणों पर आ पड़े अस्तु वे अश्रु युगल,
देखा कपि ने, चमके नभ में ज्यों तारादल;
ये नहीं चरण राम के, बने श्यामा के शुभ,-
सोहते मध्य में हीरक युग या दो कौस्तुभ;
टूटा वह तार ध्यान का, स्थिर मन हुआ विकल,
सन्दिग्ध भाव की उठी दृष्टि, देखा अविकल
बैठे वे वहीं कमल-लोचन, पर सजल नयन,
व्याकुल-व्याकुल कुछ चिर-प्रफुल्ल मुख निश्चेतन।
"ये अश्रु राम के" आते ही मन में विचार,
उद्वेल हो उठा शक्ति - खेल - सागर अपार,
हो श्वसित पवन - उनचास, पिता पक्ष से तुमुल
एकत्र वक्ष पर बहा वाष्प को उड़ा अतुल,
शत घूर्णावर्त, तरंग - भंग, उठते पहाड़,
जल राशि - राशि जल पर चढ़ता खाता पछाड़,
तोड़ता बन्ध-प्रतिसन्ध धरा हो स्फीत वक्ष
दिग्विजय-अर्थ प्रतिपल समर्थ बढ़ता समक्ष,
शत-वायु-वेग-बल, डूबा अतल में देश - भाव,
जलराशि विपुल मथ मिला अनिल में महाराव
वज्रांग तेजघन बना पवन को, महाकाश
पहुँचा, एकादश रूद्र क्षुब्ध कर अट्टहास।
रावण - महिमा श्यामा विभावरी, अन्धकार,
यह रूद्र राम - पूजन - प्रताप तेजः प्रसार;
उस ओर शक्ति शिव की जो दशस्कन्ध-पूजित,
इस ओर रूद्र-वन्दन जो रघुनन्दन - कूजित,
करने को ग्रस्त समस्त व्योम कपि बढ़ा अटल,
लख महानाश शिव अचल, हुए क्षण-भर चंचल,
श्यामा के पद तल भार धरण हर मन्द्रस्वर
बोले- "सम्बरो, देवि, निज तेज, नहीं वानर
यह, -नहीं हुआ श्रृंगार-युग्म-गत, महावीर,
अर्चना राम की मूर्तिमान अक्षय - शरीर,
चिर - ब्रह्मचर्य - रत, ये एकादश रूद्र धन्य,
मर्यादा - पुरूषोत्तम के सर्वोत्तम, अनन्य,
लीलासहचर, दिव्यभावधर, इन पर प्रहार
करने पर होगी देवि, तुम्हारी विषम हार;
विद्या का ले आश्रय इस मन को दो प्रबोध,
झुक जायेगा कपि, निश्चय होगा दूर रोध।"
कह हुए मौन शिव, पतन तनय में भर विस्मय
सहसा नभ से अंजनारूप का हुआ उदय।
बोली माता "तुमने रवि को जब लिया निगल
तब नहीं बोध था तुम्हें, रहे बालक केवल,
यह वही भाव कर रहा तुम्हें व्याकुल रह रह।
यह लज्जा की है बात कि माँ रहती सह सह।
यह महाकाश, है जहाँ वास शिव का निर्मल,
पूजते जिन्हें श्रीराम उसे ग्रसने को चल
क्या नहीं कर रहे तुम अनर्थ? सोचो मन में,
क्या दी आज्ञा ऐसी कुछ श्री रधुनन्दन ने?
तुम सेवक हो, छोड़कर धर्म कर रहे कार्य,
क्या असम्भाव्य हो यह राघव के लिये धार्य?"
कपि हुए नम्र, क्षण में माता छवि हुई लीन,
उतरे धीरे धीरे गह प्रभुपद हुए दीन।
राम का विषण्णानन देखते हुए कुछ क्षण,
"हे सखा" विभीषण बोले "आज प्रसन्न वदन
वह नहीं देखकर जिसे समग्र वीर वानर
भल्लुक विगत-श्रम हो पाते जीवन निर्जर,
रघुवीर, तीर सब वही तूण में हैं रक्षित,
है वही वक्ष, रणकुशल हस्त, बल वही अमित,
हैं वही सुमित्रानन्दन मेघनादजित् रण,
हैं वही भल्लपति, वानरेन्द्र सुग्रीव प्रमन,
ताराकुमार भी वही महाबल श्वेत धीर,
अप्रतिभट वही एक अर्बुद सम महावीर
हैं वही दक्ष सेनानायक है वही समर,
फिर कैसे असमय हुआ उदय यह भाव प्रहर।
रघुकुलगौरव लघु हुए जा रहे तुम इस क्षण,
तुम फेर रहे हो पीठ, हो रहा हो जब जय रण।
कितना श्रम हुआ व्यर्थ, आया जब मिलनसमय,
तुम खींच रहे हो हस्त जानकी से निर्दय!
रावण? रावण लम्पट, खल कल्म्ष गताचार,
जिसने हित कहते किया मुझे पादप्रहार,
बैठा उपवन में देगा दुख सीता को फिर,
कहता रण की जय-कथा पारिषद-दल से घिर,
सुनता वसन्त में उपवन में कल-कूजित पिक
मैं बना किन्तु लंकापति, धिक राघव, धिक्-धिक्?
सब सभा रही निस्तब्ध
राम के स्तिमित नयन
छोड़ते हुए शीतल प्रकाश देखते विमन,
जैसे ओजस्वी शब्दों का जो था प्रभाव
उससे न इन्हें कुछ चाव, न कोई दुराव,
ज्यों हों वे शब्दमात्र मैत्री की समनुरक्ति,
पर जहाँ गहन भाव के ग्रहण की नहीं शक्ति।
कुछ क्षण तक रहकर मौन सहज निज कोमल स्वर,
बोले रघुमणि-"मित्रवर, विजय होगी न समर,
यह नहीं रहा नर-वानर का राक्षस से रण,
उतरीं पा महाशक्ति रावण से आमन्त्रण,
अन्याय जिधर, हैं उधर शक्ति।" कहते छल छल
हो गये नयन, कुछ बूँद पुनः ढलके दृगजल,
रुक गया कण्ठ, चमका लक्ष्मण तेजः प्रचण्ड
धँस गया धरा में कपि गह युगपद, मसक दण्ड
स्थिर जाम्बवान, समझते हुए ज्यों सकल भाव,
व्याकुल सुग्रीव, हुआ उर में ज्यों विषम घाव,
निश्चित सा करते हुए विभीषण कार्यक्रम
मौन में रहा यों स्पन्दित वातावरण विषम।
निज सहज रूप में संयत हो जानकी-प्राण
बोले-"आया न समझ में यह दैवी विधान।
रावण, अधर्मरत भी, अपना, मैं हुआ अपर,
यह रहा, शक्ति का खेल समर, शंकर, शंकर!
करता मैं योजित बार-बार शर-निकर निशित,
हो सकती जिनसे यह संसृति सम्पूर्ण विजित,
जो तेजः पुंज, सृष्टि की रक्षा का विचार,
हैं जिसमें निहित पतन घातक संस्कृति अपार।
शत-शुद्धि-बोध, सूक्ष्मातिसूक्ष्म मन का विवेक,
जिनमें है क्षात्रधर्म का धृत पूर्णाभिषेक,
जो हुए प्रजापतियों से संयम से रक्षित,
वे शर हो गये आज रण में, श्रीहत खण्डित!
देखा हैं महाशक्ति रावण को लिये अंक,
लांछन को ले जैसे शशांक नभ में अशंक,
हत मन्त्रपूत शर सम्वृत करतीं बार-बार,
निष्फल होते लक्ष्य पर क्षिप्र वार पर वार।
विचलित लख कपिदल क्रुद्ध, युद्ध को मैं ज्यों ज्यों,
झक-झक झलकती वह्नि वामा के दृग त्यों-त्यों,
पश्चात्, देखने लगीं मुझे बँध गये हस्त,
फिर खिंचा न धनु, मुक्त ज्यों बँधा मैं, हुआ त्रस्त!"
कह हुए भानुकुलभूष्ण वहाँ मौन क्षण भर,
बोले विश्वस्त कण्ठ से जाम्बवान-"रघुवर,
विचलित होने का नहीं देखता मैं कारण,
हे पुरुषसिंह, तुम भी यह शक्ति करो धारण,
आराधन का दृढ़ आराधन से दो उत्तर,
तुम वरो विजय संयत प्राणों से प्राणों पर।
रावण अशुद्ध होकर भी यदि कर सकता त्रस्त
तो निश्चय तुम हो सिद्ध करोगे उसे ध्वस्त,
शक्ति की करो मौलिक कल्पना, करो पूजन।
छोड़ दो समर जब तक न सिद्धि हो, रघुनन्दन!
तब तक लक्ष्मण हैं महावाहिनी के नायक,
मध्य भाग में अंगद, दक्षिण-श्वेत सहायक।
मैं, भल्ल सैन्य, हैं वाम पार्श्व में हनुमान,
नल, नील और छोटे कपिगण, उनके प्रधान।
सुग्रीव, विभीषण, अन्य यथुपति यथासमय
आयेंगे रक्षा हेतु जहाँ भी होगा भय।"
खिल गयी सभा। "उत्तम निश्चय यह, भल्लनाथ!"
कह दिया वृद्ध को मान राम ने झुका माथ।
हो गये ध्यान में लीन पुनः करते विचार,
देखते सकल-तन पुलकित होता बार-बार।
कुछ समय अनन्तर इन्दीवर निन्दित लोचन
खुल गये, रहा निष्पलक भाव में मज्जित मन,
बोले आवेग रहित स्वर सें विश्वास स्थित
"मातः, दशभुजा, विश्वज्योति; मैं हूँ आश्रित;
हो विद्ध शक्ति से है खल महिषासुर मर्दित;
जनरंजन-चरण-कमल-तल, धन्य सिंह गर्जित!
यह, यह मेरा प्रतीक मातः समझा इंगित,
मैं सिंह, इसी भाव से करूँगा अभिनन्दित।"
कुछ समय तक स्तब्ध हो रहे राम छवि में निमग्न,
फिर खोले पलक कमल ज्योतिर्दल ध्यान-लग्न।
हैं देख रहे मन्त्री, सेनापति, वीरासन
बैठे उमड़ते हुए, राघव का स्मित आनन।
बोले भावस्थ चन्द्रमुख निन्दित रामचन्द्र,
प्राणों में पावन कम्पन भर स्वर मेघमन्द्र,
"देखो, बन्धुवर, सामने स्थिर जो वह भूधर
शोभित शत-हरित-गुल्म-तृण से श्यामल सुन्दर,
पार्वती कल्पना हैं इसकी मकरन्द विन्दु,
गरजता चरण प्रान्त पर सिंह वह, नहीं सिन्धु।
दशदिक समस्त हैं हस्त, और देखो ऊपर,
अम्बर में हुए दिगम्बर अर्चित शशि-शेखर,
लख महाभाव मंगल पदतल धँस रहा गर्व,
मानव के मन का असुर मन्द हो रहा खर्व।"
फिर मधुर दृष्टि से प्रिय कपि को खींचते हुए
बोले प्रियतर स्वर सें अन्तर सींचते हुए,
"चाहिए हमें एक सौ आठ, कपि, इन्दीवर,
कम से कम, अधिक और हों, अधिक और सुन्दर,
जाओ देवीदह, उषःकाल होते सत्वर
तोड़ो, लाओ वे कमल, लौटकर लड़ो समर।"
अवगत हो जाम्बवान से पथ, दूरत्व, स्थान,
प्रभुपद रज सिर धर चले हर्ष भर हनुमान।
राघव ने विदा किया सबको जानकर समय,
सब चले सदय राम की सोचते हुए विजय।
निशि हुई विगतः नभ के ललाट पर प्रथम किरण
फूटी रघुनन्दन के दृग महिमा ज्योति हिरण।
हैं नहीं शरासन आज हस्त तूणीर स्कन्ध
वह नहीं सोहता निविड़-जटा-दृढ़-मुकुट-बन्ध,
सुन पड़ता सिंहनाद,-रण कोलाहल अपार,
उमड़ता नहीं मन, स्तब्ध सुधी हैं ध्यान धार,
पूजोपरान्त जपते दुर्गा, दशभुजा नाम,
मन करते हुए मनन नामों के गुणग्राम,
बीता वह दिवस, हुआ मन स्थिर इष्ट के चरण
गहन-से-गहनतर होने लगा समाराधन।
क्रम-क्रम से हुए पार राघव के पंच दिवस,
चक्र से चक्र मन बढ़ता गया ऊर्ध्व निरलस,
कर-जप पूरा कर एक चढाते इन्दीवर,
निज पुरश्चरण इस भाँति रहे हैं पूरा कर।
चढ़ षष्ठ दिवस आज्ञा पर हुआ समाहित-मन,
प्रतिजप से खिंच-खिंच होने लगा महाकर्षण,
संचित त्रिकुटी पर ध्यान द्विदल देवी-पद पर,
जप के स्वर लगा काँपने थर-थर-थर अम्बर।
दो दिन निःस्पन्द एक आसन पर रहे राम,
अर्पित करते इन्दीवर जपते हुए नाम।
आठवाँ दिवस मन ध्यान-युक्त चढ़ता ऊपर
कर गया अतिक्रम ब्रह्मा-हरि-शंकर का स्तर,
हो गया विजित ब्रह्माण्ड पूर्ण, देवता स्तब्ध,
हो गये दग्ध जीवन के तप के समारब्ध।
रह गया एक इन्दीवर, मन देखता पार
प्रायः करने हुआ दुर्ग जो सहस्रार,
द्विप्रहर, रात्रि, साकार हुई दुर्गा छिपकर
हँस उठा ले गई पूजा का प्रिय इन्दीवर।
यह अन्तिम जप, ध्यान में देखते चरण युगल
राम ने बढ़ाया कर लेने को नीलकमल।
कुछ लगा न हाथ, हुआ सहसा स्थिर मन चंचल,
ध्यान की भूमि से उतरे, खोले पलक विमल।
देखा, वह रिक्त स्थान, यह जप का पूर्ण समय,
आसन छोड़ना असिद्धि, भर गये नयनद्वय,
"धिक् जीवन को जो पाता ही आया विरोध,
धिक् साधन जिसके लिए सदा ही किया शोध
जानकी! हाय उद्धार प्रिया का हो न सका,
वह एक और मन रहा राम का जो न थका,
जो नहीं जानता दैन्य, नहीं जानता विनय,
कर गया भेद वह मायावरण प्राप्त कर जय,
बुद्धि के दुर्ग पहुँचा विद्युतगति हतचेतन
राम में जगी स्मृति हुए सजग पा भाव प्रमन।
"यह है उपाय", कह उठे राम ज्यों मन्द्रित घन-
"कहती थीं माता मुझे सदा राजीवनयन।
दो नील कमल हैं शेष अभी, यह पुरश्चरण
पूरा करता हूँ देकर मातः एक नयन।"
रह गया राम-रावण का अपराजेय समर
आज का तीक्ष्ण शर-विधृत-क्षिप्रकर, वेग-प्रखर,
शतशेलसम्वरणशील, नील नभगर्ज्जित-स्वर,
प्रतिपल - परिवर्तित - व्यूह - भेद कौशल समूह
राक्षस - विरुद्ध प्रत्यूह,-क्रुद्ध - कपि विषम हूह,
विच्छुरित वह्नि - राजीवनयन - हतलक्ष्य - बाण,
लोहितलोचन - रावण मदमोचन - महीयान,
राघव-लाघव - रावण - वारण - गत - युग्म - प्रहर,
उद्धत - लंकापति मर्दित - कपि - दल-बल - विस्तर,
अनिमेष - राम-विश्वजिद्दिव्य - शर - भंग - भाव,
विद्धांग-बद्ध - कोदण्ड - मुष्टि - खर - रुधिर - स्राव,
रावण - प्रहार - दुर्वार - विकल वानर - दल - बल,
मुर्छित - सुग्रीवांगद - भीषण - गवाक्ष - गय - नल,
वारित - सौमित्र - भल्लपति - अगणित - मल्ल - रोध,
गर्ज्जित - प्रलयाब्धि - क्षुब्ध हनुमत् - केवल प्रबोध,
उद्गीरित - वह्नि - भीम - पर्वत - कपि चतुःप्रहर,
जानकी - भीरू - उर - आशा भर - रावण सम्वर।
लौटे युग - दल - राक्षस - पदतल पृथ्वी टलमल,
बिंध महोल्लास से बार - बार आकाश विकल।
वानर वाहिनी खिन्न, लख निज - पति - चरणचिह्न
चल रही शिविर की ओर स्थविरदल ज्यों विभिन्न।
प्रशमित हैं वातावरण, नमित - मुख सान्ध्य कमल
लक्ष्मण चिन्तापल पीछे वानर वीर - सकल
रघुनायक आगे अवनी पर नवनीत-चरण,
श्लथ धनु-गुण है, कटिबन्ध स्रस्त तूणीर-धरण,
दृढ़ जटा - मुकुट हो विपर्यस्त प्रतिलट से खुल
फैला पृष्ठ पर, बाहुओं पर, वक्ष पर, विपुल
उतरा ज्यों दुर्गम पर्वत पर नैशान्धकार
चमकतीं दूर ताराएं ज्यों हों कहीं पार।
आये सब शिविर,सानु पर पर्वत के, मन्थर
सुग्रीव, विभीषण, जाम्बवान आदिक वानर
सेनापति दल - विशेष के, अंगद, हनुमान
नल नील गवाक्ष, प्रात के रण का समाधान
करने के लिए, फेर वानर दल आश्रय स्थल।
बैठे रघु-कुल-मणि श्वेत शिला पर, निर्मल जल
ले आये कर - पद क्षालनार्थ पटु हनुमान
अन्य वीर सर के गये तीर सन्ध्या - विधान
वन्दना ईश की करने को, लौटे सत्वर,
सब घेर राम को बैठे आज्ञा को तत्पर,
पीछे लक्ष्मण, सामने विभीषण, भल्लधीर,
सुग्रीव, प्रान्त पर पाद-पद्म के महावीर,
यूथपति अन्य जो, यथास्थान हो निर्निमेष
देखते राम का जित-सरोज-मुख-श्याम-देश।
है अमानिशा, उगलता गगन घन अन्धकार,
खो रहा दिशा का ज्ञान, स्तब्ध है पवन-चार,
अप्रतिहत गरज रहा पीछे अम्बुधि विशाल,
भूधर ज्यों ध्यानमग्न, केवल जलती मशाल।
स्थिर राघवेन्द्र को हिला रहा फिर - फिर संशय
रह - रह उठता जग जीवन में रावण-जय-भय,
जो नहीं हुआ आज तक हृदय रिपु-दम्य-श्रान्त,
एक भी, अयुत-लक्ष में रहा जो दुराक्रान्त,
कल लड़ने को हो रहा विकल वह बार - बार,
असमर्थ मानता मन उद्यत हो हार-हार।
ऐसे क्षण अन्धकार घन में जैसे विद्युत
जागी पृथ्वी तनया कुमारिका छवि अच्युत
देखते हुए निष्पलक, याद आया उपवन
विदेह का, -प्रथम स्नेह का लतान्तराल मिलन
नयनों का-नयनों से गोपन-प्रिय सम्भाषण,-
पलकों का नव पलकों पर प्रथमोत्थान-पतन,-
काँपते हुए किसलय,-झरते पराग-समुदय,-
गाते खग-नव-जीवन-परिचय-तरू मलय-वलय,-
ज्योतिःप्रपात स्वर्गीय,-ज्ञात छवि प्रथम स्वीय,-
जानकी-नयन-कमनीय प्रथम कम्पन तुरीय।
सिहरा तन, क्षण-भर भूला मन, लहरा समस्त,
हर धनुर्भंग को पुनर्वार ज्यों उठा हस्त,
फूटी स्मिति सीता ध्यान-लीन राम के अधर,
फिर विश्व-विजय-भावना हृदय में आयी भर,
वे आये याद दिव्य शर अगणित मन्त्रपूत,-
फड़का पर नभ को उड़े सकल ज्यों देवदूत,
देखते राम, जल रहे शलभ ज्यों रजनीचर,
ताड़का, सुबाहु, बिराध, शिरस्त्रय, दूषण, खर;
फिर देखी भीम मूर्ति आज रण देखी जो
आच्छादित किये हुए सम्मुख समग्र नभ को,
ज्योतिर्मय अस्त्र सकल बुझ बुझ कर हुए क्षीण,
पा महानिलय उस तन में क्षण में हुए लीन;
लख शंकाकुल हो गये अतुल बल शेष शयन,
खिंच गये दृगों में सीता के राममय नयन;
फिर सुना हँस रहा अट्टहास रावण खलखल,
भावित नयनों से सजल गिरे दो मुक्तादल।
बैठे मारुति देखते राम-चरणारविन्द-
युग 'अस्ति-नास्ति' के एक रूप, गुण-गण-अनिन्द्य;
साधना-मध्य भी साम्य-वाम-कर दक्षिणपद,
दक्षिण-कर-तल पर वाम चरण, कपिवर गद् गद्
पा सत्य सच्चिदानन्द रूप, विश्राम - धाम,
जपते सभक्ति अजपा विभक्त हो राम - नाम।
युग चरणों पर आ पड़े अस्तु वे अश्रु युगल,
देखा कपि ने, चमके नभ में ज्यों तारादल;
ये नहीं चरण राम के, बने श्यामा के शुभ,-
सोहते मध्य में हीरक युग या दो कौस्तुभ;
टूटा वह तार ध्यान का, स्थिर मन हुआ विकल,
सन्दिग्ध भाव की उठी दृष्टि, देखा अविकल
बैठे वे वहीं कमल-लोचन, पर सजल नयन,
व्याकुल-व्याकुल कुछ चिर-प्रफुल्ल मुख निश्चेतन।
"ये अश्रु राम के" आते ही मन में विचार,
उद्वेल हो उठा शक्ति - खेल - सागर अपार,
हो श्वसित पवन - उनचास, पिता पक्ष से तुमुल
एकत्र वक्ष पर बहा वाष्प को उड़ा अतुल,
शत घूर्णावर्त, तरंग - भंग, उठते पहाड़,
जल राशि - राशि जल पर चढ़ता खाता पछाड़,
तोड़ता बन्ध-प्रतिसन्ध धरा हो स्फीत वक्ष
दिग्विजय-अर्थ प्रतिपल समर्थ बढ़ता समक्ष,
शत-वायु-वेग-बल, डूबा अतल में देश - भाव,
जलराशि विपुल मथ मिला अनिल में महाराव
वज्रांग तेजघन बना पवन को, महाकाश
पहुँचा, एकादश रूद्र क्षुब्ध कर अट्टहास।
रावण - महिमा श्यामा विभावरी, अन्धकार,
यह रूद्र राम - पूजन - प्रताप तेजः प्रसार;
उस ओर शक्ति शिव की जो दशस्कन्ध-पूजित,
इस ओर रूद्र-वन्दन जो रघुनन्दन - कूजित,
करने को ग्रस्त समस्त व्योम कपि बढ़ा अटल,
लख महानाश शिव अचल, हुए क्षण-भर चंचल,
श्यामा के पद तल भार धरण हर मन्द्रस्वर
बोले- "सम्बरो, देवि, निज तेज, नहीं वानर
यह, -नहीं हुआ श्रृंगार-युग्म-गत, महावीर,
अर्चना राम की मूर्तिमान अक्षय - शरीर,
चिर - ब्रह्मचर्य - रत, ये एकादश रूद्र धन्य,
मर्यादा - पुरूषोत्तम के सर्वोत्तम, अनन्य,
लीलासहचर, दिव्यभावधर, इन पर प्रहार
करने पर होगी देवि, तुम्हारी विषम हार;
विद्या का ले आश्रय इस मन को दो प्रबोध,
झुक जायेगा कपि, निश्चय होगा दूर रोध।"
कह हुए मौन शिव, पतन तनय में भर विस्मय
सहसा नभ से अंजनारूप का हुआ उदय।
बोली माता "तुमने रवि को जब लिया निगल
तब नहीं बोध था तुम्हें, रहे बालक केवल,
यह वही भाव कर रहा तुम्हें व्याकुल रह रह।
यह लज्जा की है बात कि माँ रहती सह सह।
यह महाकाश, है जहाँ वास शिव का निर्मल,
पूजते जिन्हें श्रीराम उसे ग्रसने को चल
क्या नहीं कर रहे तुम अनर्थ? सोचो मन में,
क्या दी आज्ञा ऐसी कुछ श्री रधुनन्दन ने?
तुम सेवक हो, छोड़कर धर्म कर रहे कार्य,
क्या असम्भाव्य हो यह राघव के लिये धार्य?"
कपि हुए नम्र, क्षण में माता छवि हुई लीन,
उतरे धीरे धीरे गह प्रभुपद हुए दीन।
राम का विषण्णानन देखते हुए कुछ क्षण,
"हे सखा" विभीषण बोले "आज प्रसन्न वदन
वह नहीं देखकर जिसे समग्र वीर वानर
भल्लुक विगत-श्रम हो पाते जीवन निर्जर,
रघुवीर, तीर सब वही तूण में हैं रक्षित,
है वही वक्ष, रणकुशल हस्त, बल वही अमित,
हैं वही सुमित्रानन्दन मेघनादजित् रण,
हैं वही भल्लपति, वानरेन्द्र सुग्रीव प्रमन,
ताराकुमार भी वही महाबल श्वेत धीर,
अप्रतिभट वही एक अर्बुद सम महावीर
हैं वही दक्ष सेनानायक है वही समर,
फिर कैसे असमय हुआ उदय यह भाव प्रहर।
रघुकुलगौरव लघु हुए जा रहे तुम इस क्षण,
तुम फेर रहे हो पीठ, हो रहा हो जब जय रण।
कितना श्रम हुआ व्यर्थ, आया जब मिलनसमय,
तुम खींच रहे हो हस्त जानकी से निर्दय!
रावण? रावण लम्पट, खल कल्म्ष गताचार,
जिसने हित कहते किया मुझे पादप्रहार,
बैठा उपवन में देगा दुख सीता को फिर,
कहता रण की जय-कथा पारिषद-दल से घिर,
सुनता वसन्त में उपवन में कल-कूजित पिक
मैं बना किन्तु लंकापति, धिक राघव, धिक्-धिक्?
सब सभा रही निस्तब्ध
राम के स्तिमित नयन
छोड़ते हुए शीतल प्रकाश देखते विमन,
जैसे ओजस्वी शब्दों का जो था प्रभाव
उससे न इन्हें कुछ चाव, न कोई दुराव,
ज्यों हों वे शब्दमात्र मैत्री की समनुरक्ति,
पर जहाँ गहन भाव के ग्रहण की नहीं शक्ति।
कुछ क्षण तक रहकर मौन सहज निज कोमल स्वर,
बोले रघुमणि-"मित्रवर, विजय होगी न समर,
यह नहीं रहा नर-वानर का राक्षस से रण,
उतरीं पा महाशक्ति रावण से आमन्त्रण,
अन्याय जिधर, हैं उधर शक्ति।" कहते छल छल
हो गये नयन, कुछ बूँद पुनः ढलके दृगजल,
रुक गया कण्ठ, चमका लक्ष्मण तेजः प्रचण्ड
धँस गया धरा में कपि गह युगपद, मसक दण्ड
स्थिर जाम्बवान, समझते हुए ज्यों सकल भाव,
व्याकुल सुग्रीव, हुआ उर में ज्यों विषम घाव,
निश्चित सा करते हुए विभीषण कार्यक्रम
मौन में रहा यों स्पन्दित वातावरण विषम।
निज सहज रूप में संयत हो जानकी-प्राण
बोले-"आया न समझ में यह दैवी विधान।
रावण, अधर्मरत भी, अपना, मैं हुआ अपर,
यह रहा, शक्ति का खेल समर, शंकर, शंकर!
करता मैं योजित बार-बार शर-निकर निशित,
हो सकती जिनसे यह संसृति सम्पूर्ण विजित,
जो तेजः पुंज, सृष्टि की रक्षा का विचार,
हैं जिसमें निहित पतन घातक संस्कृति अपार।
शत-शुद्धि-बोध, सूक्ष्मातिसूक्ष्म मन का विवेक,
जिनमें है क्षात्रधर्म का धृत पूर्णाभिषेक,
जो हुए प्रजापतियों से संयम से रक्षित,
वे शर हो गये आज रण में, श्रीहत खण्डित!
देखा हैं महाशक्ति रावण को लिये अंक,
लांछन को ले जैसे शशांक नभ में अशंक,
हत मन्त्रपूत शर सम्वृत करतीं बार-बार,
निष्फल होते लक्ष्य पर क्षिप्र वार पर वार।
विचलित लख कपिदल क्रुद्ध, युद्ध को मैं ज्यों ज्यों,
झक-झक झलकती वह्नि वामा के दृग त्यों-त्यों,
पश्चात्, देखने लगीं मुझे बँध गये हस्त,
फिर खिंचा न धनु, मुक्त ज्यों बँधा मैं, हुआ त्रस्त!"
कह हुए भानुकुलभूष्ण वहाँ मौन क्षण भर,
बोले विश्वस्त कण्ठ से जाम्बवान-"रघुवर,
विचलित होने का नहीं देखता मैं कारण,
हे पुरुषसिंह, तुम भी यह शक्ति करो धारण,
आराधन का दृढ़ आराधन से दो उत्तर,
तुम वरो विजय संयत प्राणों से प्राणों पर।
रावण अशुद्ध होकर भी यदि कर सकता त्रस्त
तो निश्चय तुम हो सिद्ध करोगे उसे ध्वस्त,
शक्ति की करो मौलिक कल्पना, करो पूजन।
छोड़ दो समर जब तक न सिद्धि हो, रघुनन्दन!
तब तक लक्ष्मण हैं महावाहिनी के नायक,
मध्य भाग में अंगद, दक्षिण-श्वेत सहायक।
मैं, भल्ल सैन्य, हैं वाम पार्श्व में हनुमान,
नल, नील और छोटे कपिगण, उनके प्रधान।
सुग्रीव, विभीषण, अन्य यथुपति यथासमय
आयेंगे रक्षा हेतु जहाँ भी होगा भय।"
खिल गयी सभा। "उत्तम निश्चय यह, भल्लनाथ!"
कह दिया वृद्ध को मान राम ने झुका माथ।
हो गये ध्यान में लीन पुनः करते विचार,
देखते सकल-तन पुलकित होता बार-बार।
कुछ समय अनन्तर इन्दीवर निन्दित लोचन
खुल गये, रहा निष्पलक भाव में मज्जित मन,
बोले आवेग रहित स्वर सें विश्वास स्थित
"मातः, दशभुजा, विश्वज्योति; मैं हूँ आश्रित;
हो विद्ध शक्ति से है खल महिषासुर मर्दित;
जनरंजन-चरण-कमल-तल, धन्य सिंह गर्जित!
यह, यह मेरा प्रतीक मातः समझा इंगित,
मैं सिंह, इसी भाव से करूँगा अभिनन्दित।"
कुछ समय तक स्तब्ध हो रहे राम छवि में निमग्न,
फिर खोले पलक कमल ज्योतिर्दल ध्यान-लग्न।
हैं देख रहे मन्त्री, सेनापति, वीरासन
बैठे उमड़ते हुए, राघव का स्मित आनन।
बोले भावस्थ चन्द्रमुख निन्दित रामचन्द्र,
प्राणों में पावन कम्पन भर स्वर मेघमन्द्र,
"देखो, बन्धुवर, सामने स्थिर जो वह भूधर
शोभित शत-हरित-गुल्म-तृण से श्यामल सुन्दर,
पार्वती कल्पना हैं इसकी मकरन्द विन्दु,
गरजता चरण प्रान्त पर सिंह वह, नहीं सिन्धु।
दशदिक समस्त हैं हस्त, और देखो ऊपर,
अम्बर में हुए दिगम्बर अर्चित शशि-शेखर,
लख महाभाव मंगल पदतल धँस रहा गर्व,
मानव के मन का असुर मन्द हो रहा खर्व।"
फिर मधुर दृष्टि से प्रिय कपि को खींचते हुए
बोले प्रियतर स्वर सें अन्तर सींचते हुए,
"चाहिए हमें एक सौ आठ, कपि, इन्दीवर,
कम से कम, अधिक और हों, अधिक और सुन्दर,
जाओ देवीदह, उषःकाल होते सत्वर
तोड़ो, लाओ वे कमल, लौटकर लड़ो समर।"
अवगत हो जाम्बवान से पथ, दूरत्व, स्थान,
प्रभुपद रज सिर धर चले हर्ष भर हनुमान।
राघव ने विदा किया सबको जानकर समय,
सब चले सदय राम की सोचते हुए विजय।
निशि हुई विगतः नभ के ललाट पर प्रथम किरण
फूटी रघुनन्दन के दृग महिमा ज्योति हिरण।
हैं नहीं शरासन आज हस्त तूणीर स्कन्ध
वह नहीं सोहता निविड़-जटा-दृढ़-मुकुट-बन्ध,
सुन पड़ता सिंहनाद,-रण कोलाहल अपार,
उमड़ता नहीं मन, स्तब्ध सुधी हैं ध्यान धार,
पूजोपरान्त जपते दुर्गा, दशभुजा नाम,
मन करते हुए मनन नामों के गुणग्राम,
बीता वह दिवस, हुआ मन स्थिर इष्ट के चरण
गहन-से-गहनतर होने लगा समाराधन।
क्रम-क्रम से हुए पार राघव के पंच दिवस,
चक्र से चक्र मन बढ़ता गया ऊर्ध्व निरलस,
कर-जप पूरा कर एक चढाते इन्दीवर,
निज पुरश्चरण इस भाँति रहे हैं पूरा कर।
चढ़ षष्ठ दिवस आज्ञा पर हुआ समाहित-मन,
प्रतिजप से खिंच-खिंच होने लगा महाकर्षण,
संचित त्रिकुटी पर ध्यान द्विदल देवी-पद पर,
जप के स्वर लगा काँपने थर-थर-थर अम्बर।
दो दिन निःस्पन्द एक आसन पर रहे राम,
अर्पित करते इन्दीवर जपते हुए नाम।
आठवाँ दिवस मन ध्यान-युक्त चढ़ता ऊपर
कर गया अतिक्रम ब्रह्मा-हरि-शंकर का स्तर,
हो गया विजित ब्रह्माण्ड पूर्ण, देवता स्तब्ध,
हो गये दग्ध जीवन के तप के समारब्ध।
रह गया एक इन्दीवर, मन देखता पार
प्रायः करने हुआ दुर्ग जो सहस्रार,
द्विप्रहर, रात्रि, साकार हुई दुर्गा छिपकर
हँस उठा ले गई पूजा का प्रिय इन्दीवर।
यह अन्तिम जप, ध्यान में देखते चरण युगल
राम ने बढ़ाया कर लेने को नीलकमल।
कुछ लगा न हाथ, हुआ सहसा स्थिर मन चंचल,
ध्यान की भूमि से उतरे, खोले पलक विमल।
देखा, वह रिक्त स्थान, यह जप का पूर्ण समय,
आसन छोड़ना असिद्धि, भर गये नयनद्वय,
"धिक् जीवन को जो पाता ही आया विरोध,
धिक् साधन जिसके लिए सदा ही किया शोध
जानकी! हाय उद्धार प्रिया का हो न सका,
वह एक और मन रहा राम का जो न थका,
जो नहीं जानता दैन्य, नहीं जानता विनय,
कर गया भेद वह मायावरण प्राप्त कर जय,
बुद्धि के दुर्ग पहुँचा विद्युतगति हतचेतन
राम में जगी स्मृति हुए सजग पा भाव प्रमन।
"यह है उपाय", कह उठे राम ज्यों मन्द्रित घन-
"कहती थीं माता मुझे सदा राजीवनयन।
दो नील कमल हैं शेष अभी, यह पुरश्चरण
पूरा करता हूँ देकर मातः एक नयन।"
कहकर देखा तूणीर ब्रह्मशर रहा झलक,
ले लिया हस्त, लक-लक करता वह महाफलक।
ले अस्त्र वाम पर, दक्षिण कर दक्षिण लोचन
ले अर्पित करने को उद्यत हो गये सुमन
जिस क्षण बँध गया बेधने को दृग दृढ़ निश्चय,
काँपा ब्रह्माण्ड, हुआ देवी का त्वरित उदय-
"साधु, साधु, साधक धीर, धर्म-धन धन्य राम!"
कह, लिया भगवती ने राघव का हस्त थाम।
देखा राम ने, सामने श्री दुर्गा, भास्वर
वामपद असुर-स्कन्ध पर, रहा दक्षिण हरि पर।
ज्योतिर्मय रूप, हस्त दश विविध अस्त्र सज्जित,
मन्द स्मित मुख, लख हुई विश्व की श्री लज्जित।
हैं दक्षिण में लक्ष्मी, सरस्वती वाम भाग,
दक्षिण गणेश, कार्तिक बायें रणरंग राग,
मस्तक पर शंकर! पदपद्मों पर श्रद्धाभर
श्री राघव हुए प्रणत मन्द स्वर वन्दन कर।
"होगी जय, होगी जय, हे पुरूषोत्तम नवीन।"
कह महाशक्ति राम के वदन में हुई लीन।
ले लिया हस्त, लक-लक करता वह महाफलक।
ले अस्त्र वाम पर, दक्षिण कर दक्षिण लोचन
ले अर्पित करने को उद्यत हो गये सुमन
जिस क्षण बँध गया बेधने को दृग दृढ़ निश्चय,
काँपा ब्रह्माण्ड, हुआ देवी का त्वरित उदय-
"साधु, साधु, साधक धीर, धर्म-धन धन्य राम!"
कह, लिया भगवती ने राघव का हस्त थाम।
देखा राम ने, सामने श्री दुर्गा, भास्वर
वामपद असुर-स्कन्ध पर, रहा दक्षिण हरि पर।
ज्योतिर्मय रूप, हस्त दश विविध अस्त्र सज्जित,
मन्द स्मित मुख, लख हुई विश्व की श्री लज्जित।
हैं दक्षिण में लक्ष्मी, सरस्वती वाम भाग,
दक्षिण गणेश, कार्तिक बायें रणरंग राग,
मस्तक पर शंकर! पदपद्मों पर श्रद्धाभर
श्री राघव हुए प्रणत मन्द स्वर वन्दन कर।
"होगी जय, होगी जय, हे पुरूषोत्तम नवीन।"
कह महाशक्ति राम के वदन में हुई लीन।
रानी करुणा की तुम भी विषम पहेली रामधारी सिंह "दिनकर"
राजा वसन्त वर्षा ऋतुओं की रानी
लेकिन दोनों की कितनी भिन्न कहानी
राजा के मुख में हँसी कण्ठ में माला
रानी का अन्तर द्रवित दृगों में पानी
डोलती सुरभि राजा घर कोने कोने
परियाँ सेवा में खड़ी सजा कर दोने
खोले अंचल रानी व्याकुल सी आई
उमड़ी जाने क्या व्यथा लगी वह रोने
लेखनी लिखे मन में जो निहित व्यथा है
रानी की निशि दिन गीली रही कथा है
त्रेता के राजा क्षमा करें यदि बोलूँ
राजा रानी की युग से यही प्रथा है
नृप हुये राम तुमने विपदायें झेलीं
थी कीर्ति उन्हें प्रिय तुम वन गयीं अकेली
वैदेहि तुम्हें माना कलंकिनी प्रिय ने
रानी करुणा की तुम भी विषम पहेली
रो रो राजा की कीर्तिलता पनपाओ
रानी आयसु है लिये गर्भ वन जाओ
लेकिन दोनों की कितनी भिन्न कहानी
राजा के मुख में हँसी कण्ठ में माला
रानी का अन्तर द्रवित दृगों में पानी
डोलती सुरभि राजा घर कोने कोने
परियाँ सेवा में खड़ी सजा कर दोने
खोले अंचल रानी व्याकुल सी आई
उमड़ी जाने क्या व्यथा लगी वह रोने
लेखनी लिखे मन में जो निहित व्यथा है
रानी की निशि दिन गीली रही कथा है
त्रेता के राजा क्षमा करें यदि बोलूँ
राजा रानी की युग से यही प्रथा है
नृप हुये राम तुमने विपदायें झेलीं
थी कीर्ति उन्हें प्रिय तुम वन गयीं अकेली
वैदेहि तुम्हें माना कलंकिनी प्रिय ने
रानी करुणा की तुम भी विषम पहेली
रो रो राजा की कीर्तिलता पनपाओ
रानी आयसु है लिये गर्भ वन जाओ
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है। रामधारी सिंह "दिनकर"
सदियों की ठंढी-बुझी राख सुगबुगा उठी,
मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है;
दो राह,समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।
जनता?हां,मिट्टी की अबोध मूरतें वही,
जाडे-पाले की कसक सदा सहनेवाली,
जब अंग-अंग में लगे सांप हो चुस रहे
तब भी न कभी मुंह खोल दर्द कहनेवाली।
जनता?हां,लंबी - बडी जीभ की वही कसम,
"जनता,सचमुच ही, बडी वेदना सहती है।"
"सो ठीक,मगर,आखिर,इस पर जनमत क्या है?"
'है प्रश्न गूढ़ जनता इस पर क्या कहती है?"
मानो,जनता ही फूल जिसे अहसास नहीं,
जब चाहो तभी उतार सजा लो दोनों में;
अथवा कोई दूधमुंही जिसे बहलाने के
जन्तर-मन्तर सीमित हों चार खिलौनों में।
लेकिन होता भूडोल, बवंडर उठते हैं,
जनता जब कोपाकुल हो भृकुटि चढाती है;
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।
हुंकारों से महलों की नींव उखड़ जाती,
सांसों के बल से ताज हवा में उड़ता है,
जनता की रोके राह,समय में ताव कहां?
वह जिधर चाहती,काल उधर ही मुड़ता है।
अब्दों, शताब्दियों, सहस्त्राब्द का अंधकार
बीता;गवाक्ष अंबर के दहके जाते हैं;
यह और नहीं कोई,जनता के स्वप्न अजय
चीरते तिमिर का वक्ष उमड़ते जाते हैं।
सब से विराट जनतंत्र जगत का आ पहुंचा,
तैंतीस कोटि-हित सिंहासन तय करो
अभिषेक आज राजा का नहीं,प्रजा का है,
तैंतीस कोटि जनता के सिर पर मुकुट धरो।
आरती लिये तू किसे ढूंढता है मूरख,
मन्दिरों, राजप्रासादों में, तहखानों में?
देवता कहीं सड़कों पर गिट्टी तोड़ रहे,
देवता मिलेंगे खेतों में, खलिहानों में।
फावड़े और हल राजदण्ड बनने को हैं,
धूसरता सोने से श्रृंगार सजाती है;
दो राह,समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।
मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है;
दो राह,समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।
जनता?हां,मिट्टी की अबोध मूरतें वही,
जाडे-पाले की कसक सदा सहनेवाली,
जब अंग-अंग में लगे सांप हो चुस रहे
तब भी न कभी मुंह खोल दर्द कहनेवाली।
जनता?हां,लंबी - बडी जीभ की वही कसम,
"जनता,सचमुच ही, बडी वेदना सहती है।"
"सो ठीक,मगर,आखिर,इस पर जनमत क्या है?"
'है प्रश्न गूढ़ जनता इस पर क्या कहती है?"
मानो,जनता ही फूल जिसे अहसास नहीं,
जब चाहो तभी उतार सजा लो दोनों में;
अथवा कोई दूधमुंही जिसे बहलाने के
जन्तर-मन्तर सीमित हों चार खिलौनों में।
लेकिन होता भूडोल, बवंडर उठते हैं,
जनता जब कोपाकुल हो भृकुटि चढाती है;
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।
हुंकारों से महलों की नींव उखड़ जाती,
सांसों के बल से ताज हवा में उड़ता है,
जनता की रोके राह,समय में ताव कहां?
वह जिधर चाहती,काल उधर ही मुड़ता है।
अब्दों, शताब्दियों, सहस्त्राब्द का अंधकार
बीता;गवाक्ष अंबर के दहके जाते हैं;
यह और नहीं कोई,जनता के स्वप्न अजय
चीरते तिमिर का वक्ष उमड़ते जाते हैं।
सब से विराट जनतंत्र जगत का आ पहुंचा,
तैंतीस कोटि-हित सिंहासन तय करो
अभिषेक आज राजा का नहीं,प्रजा का है,
तैंतीस कोटि जनता के सिर पर मुकुट धरो।
आरती लिये तू किसे ढूंढता है मूरख,
मन्दिरों, राजप्रासादों में, तहखानों में?
देवता कहीं सड़कों पर गिट्टी तोड़ रहे,
देवता मिलेंगे खेतों में, खलिहानों में।
फावड़े और हल राजदण्ड बनने को हैं,
धूसरता सोने से श्रृंगार सजाती है;
दो राह,समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।
लोगों के दिल में कहीं अश्रु क्या बाकी है? रामधारी सिंह दिनकर
पर्वत पर, शायद, वृक्ष न कोई शेष बचा,
धरती पर, शायद, शेष बची है नहीं घास;
उड़ गया भाप बनकर सरिताओं का पानी,
बाकी न सितारे बचे चाँद के आस-पास ।
क्या कहा कि मैं घनघोर निराशावादी हूँ?
तब तुम्हीं टटोलो हृदय देश का, और कहो,
लोगों के दिल में कहीं अश्रु क्या बाकी है?
बोलो, बोलो, विस्मय में यों मत मौन रहो ।
धरती पर, शायद, शेष बची है नहीं घास;
उड़ गया भाप बनकर सरिताओं का पानी,
बाकी न सितारे बचे चाँद के आस-पास ।
क्या कहा कि मैं घनघोर निराशावादी हूँ?
तब तुम्हीं टटोलो हृदय देश का, और कहो,
लोगों के दिल में कहीं अश्रु क्या बाकी है?
बोलो, बोलो, विस्मय में यों मत मौन रहो ।
'वीर वही है जो कि शत्रु पर जब भी खड्ग उठाता है, मानवता के महागुणों की सत्ता भूल न जाता है। रामधारी सिंह दिनकर
कभी की जा चुकीं नीचे यहाँ की वेदनाएँ,
नए स्वर के लिए तू क्या गगन को छानता है ?
[1]
बताएँ भेद क्या तारे ? उन्हें कुछ ज्ञात भी हो,
कहे क्या चाँद ? उसके पास कोई बात भी हो।
निशानी तो घटा पर है, मगर, किसके चरण की ?
[2]
सनातन है, अचल है, स्वर्ग चलता ही नहीं है;
तृषा की आग में पड़कर पिघलता ही नहीं है।
मजे मालूम ही जिसको नहीं बेताबियों के,
[3]
धुओं का देश है नादान ! यह छलना बड़ी है,
नई अनुभूतियों की खान वह नीचे पड़ी है।
मुसीबत से बिंधी जो जिन्दगी, रौशन हुई वह,
[4]
गगन में तो नहीं बाकी, जरा कुछ है असल में,
नए स्वर का भरा है कोष पर, अब तक अतल में।
कढ़ेगी तोड़कर कारा अभी धारा सुधा की,
[5]
नया स्वर खोजनेवाले ! तलातल तोड़ता जा,
कदम जिस पर पड़े तेरे, सतह वह छोड़ते जा;
नई झंकार की दुनिया खत्म होती कहाँ पर ?
[6]
वहाँ क्या है कि फव्वारे जहाँ से छूटते हैं,
जरा-सी नम हुई मिट्टी कि अंकुर फूटते हैं ?
बरसता जो गगन से वह जमा होता मही में,
[7]
हृदय-जल में सिमट कर डूब, इसकी थाह तो ले,
रसों के ताल में नीचे उतर अवगाह तो ले।
सरोवर छोड़ कर तू बूँद पीने की खुशी में,
नए स्वर के लिए तू क्या गगन को छानता है ?
[1]
बताएँ भेद क्या तारे ? उन्हें कुछ ज्ञात भी हो,
कहे क्या चाँद ? उसके पास कोई बात भी हो।
निशानी तो घटा पर है, मगर, किसके चरण की ?
-
- यहाँ पर भी नहीं यह राज़ कोई जानता है।
[2]
सनातन है, अचल है, स्वर्ग चलता ही नहीं है;
तृषा की आग में पड़कर पिघलता ही नहीं है।
मजे मालूम ही जिसको नहीं बेताबियों के,
-
- नई आवाज की दुनिया उसे क्यों मानता है ?
[3]
धुओं का देश है नादान ! यह छलना बड़ी है,
नई अनुभूतियों की खान वह नीचे पड़ी है।
मुसीबत से बिंधी जो जिन्दगी, रौशन हुई वह,
-
- किरण को ढूँढता लेकिन, नहीं पहचानता है।
[4]
गगन में तो नहीं बाकी, जरा कुछ है असल में,
नए स्वर का भरा है कोष पर, अब तक अतल में।
कढ़ेगी तोड़कर कारा अभी धारा सुधा की,
-
- शरासन को श्रवण तक तू नहीं क्यों तानता है ?
[5]
नया स्वर खोजनेवाले ! तलातल तोड़ता जा,
कदम जिस पर पड़े तेरे, सतह वह छोड़ते जा;
नई झंकार की दुनिया खत्म होती कहाँ पर ?
-
- वही कुछ जानता, सीमा नहीं जो मानता है।
[6]
वहाँ क्या है कि फव्वारे जहाँ से छूटते हैं,
जरा-सी नम हुई मिट्टी कि अंकुर फूटते हैं ?
बरसता जो गगन से वह जमा होता मही में,
-
- उतरने को अतल में क्यों नहीं हठ ठानता है ?
[7]
हृदय-जल में सिमट कर डूब, इसकी थाह तो ले,
रसों के ताल में नीचे उतर अवगाह तो ले।
सरोवर छोड़ कर तू बूँद पीने की खुशी में,
-
- गगन के फूल पर शायक वृथा संधानता है।
पापी कौन? मनुज से उसका न्याय चुराने वाला?या कि न्याय खोजते विघ्न का सीस उड़ाने वाला?रामधारी सिंह दिनकर
वह कौन रोता है वहाँ-
इतिहास के अध्याय पर,
जिसमें लिखा है, नौजवानों के लहु का मोल है
प्रत्यय किसी बूढे, कुटिल नीतिज्ञ के व्याहार का;
जिसका हृदय उतना मलिन जितना कि शीर्ष वलक्ष है;
जो आप तो लड़ता नहीं,
कटवा किशोरों को मगर,
आश्वस्त होकर सोचता,
शोणित बहा, लेकिन, गयी बच लाज सारे देश की?
तत्त्व है कोई कि केवल आवरण
उस हलाहल-सी कुटिल द्रोहाग्नि का
जो कि जलती आ रही चिरकाल से
स्वार्थ-लोलुप सभ्यता के अग्रणी
नायकों के पेट में जठराग्नि-सी।
हर युद्ध के पहले मनुज है सोचता, क्या शस्त्र ही-
उपचार एक अमोघ है
अन्याय का, अपकर्ष का, विष का गरलमय द्रोह का!
हैं झनझना उठ्ती शिराएँ प्राण की असहाय-सी,
सहसा विपंचि लगे कोई अपरिचित हाथ ज्यों।
वह तिलमिला उठता, मगर,
है जानता इस चोट का उत्तर न उसके पास है।
होता समर-आरूढ फिर;
फिर मारता, मरता,
विजय पाकर बहाता अश्रु है।
मानवी अथवा ज्वलित, जाग्रत शिखा प्रतिशोध की
दाँत अपने पीस अन्तिम क्रोध से,
रक्त-वेणी कर चुकी थी केश की,
केश जो तेरह बरस से थे खुले।
या कि रोने को चिता के सामने,
शेष जब था रह गया कोई नहीं
एक वृद्धा, एक अन्धे के सिवा।
और जब,
तीव्र हर्ष-निनाद उठ कर पाण्डवों के शिविर से
घूमता फिरता गहन कुरुक्षेत्र की मृतभूमि में,
लड़खड़ाता-सा हवा पर एक स्वर निस्सार-सा,
लौट आता था भटक कर पाण्डवों के पास ही,
जीवितों के कान पर मरता हुआ,
और उन पर व्यंग्य-सा करता हुआ-
'देख लो, बाहर महा सुनसान है
सालता जिनका हृदय मैं, लोग वे सब जा चुके।'
एक ऐसा भी पुरुष है, जो विकल
बोलता कुछ भी नहीं, पर, रो रहा
मग्न चिन्तालीन अपने-आप में।
"ओ युधिष्ठिर, सिन्धु के हम पार हैं;
तुम चिढाने के लिए जो कुछ कहो,
किन्तु, कोई बात हम सुनते नहीं।
यह पराजय या कि जय किसकी हुई?
व्यंग्य, पश्चाताप, अन्तर्दाह का
अब विजय-उपहार भोगो चैन से।"
हो गयी है लाल नीचे कोस-भर,
और ऊपर रक्त की खर धार में
तैरते हैं अंग रथ, गज, बाजि के।
चाहता था, शत्रुओं के साथ ही
उड़ गये वे तत्त्व, मेरे हाथ में
व्यंग्य, पश्चाताप केवल छोड़कर।
और हम भोगें अहम्मय राज्य यह,
पुत्र-पति-हीना इसी से तो हुईं
कोटि माताएँ, करोड़ों नारियाँ!
दब गये कौन्तेय दुर्वह भार में.
दब गयी वह बुद्धि जो अब तक रही
खोजती कुछ तत्त्व रण के भस्म में।
लड़खड़ता मर रहा था वायु में।
आयी हुई मृत्यु से कहा अजेय भीष्म ने कि
प्रकृति भी तो है अधीन विमर्ष के।
यह प्रभंजन शस्त्र है उसका नहीं;
किन्तु, है आवेगमय विस्फोट उसके प्राण का,
जो जमा होता प्रचंड निदाघ से,
फूटना जिसका सहज अनिवार्य है।
फैलता है जो घृणा से, स्वर्थमय विद्वेष से।
एक चिनगारी कहीं जागी अगर,
तुरत बह उठते पवन उनचास हैं,
दौड़ती, हँसती, उबलती आग चारों ओर से।
दीप्त हो अभिमान उठता बोल है;
चाहता नस तोड़कर बहना लहू,
आ स्वयं तलवार जाती हाथ में।
युद्ध करना पुण्य या दुष्पाप है;
क्योंकि कोई कर्म है ऐसा नहीं,
जो स्वयं ही पुण्य हो या पाप हो।
चाहता कोई नहीं इसको मगर,
जूझना पड़ता सभी को, शत्रु जब
आ गया हो द्वार पर ललकारता।
चाहिए अंगार-जैसी वीरता,
पाप हो सकता नहीं वह युद्ध है,
जो खड़ा होता ज्वलित प्रतिशोध पर।
है उचित अवलम्ब अपनी आह का;
गिड़गिड़ाकर किन्तु, माँगे भीख क्यों
वह पुरुष, जिसकी भुजा में शक्ति हो?
खिन्न या परितप्त होना व्यर्थ है।
तू नहीं लड़ता, न लड़ता, आग यह
फूटती निश्चय किसी भी व्याज से।
अब छिपाऊँ क्यों भविष्यत् से उसे?
दो दिनों तक मैं मरण के भाल पर
हूँ खड़ा, पर जा रहा हूँ विश्व से।
है रहा आदर्श मेरा वीरता, बलिदान ही;
जाति-मन्दिर में जलाकर शूरता की आरती,
जा रहा हूँ विश्व से चढ युद्ध के ही यान पर।
व्यक्ति का मन तो बली होता, मगर,
हिंस्र पशु जब घेर लेते हैं उसे,
काम आता है बलिष्ठ शरीर ही।
जीत सकता देह का संग्राम है?
पाश्विकता खड्ग जब लेती उठा,
आत्मबल का एक बस चलता नहीं।
पतित समूह की कुवृत्तियों के सामने।"
समर निंद्य है धर्मराज, पर,
कहो, शान्ति वह क्या है,
जो अनीति पर स्थित होकर भी
बनी हुई सरला है?
कहती कुछ मत बोलो,
शान्ति-सुधा बह रही, न इसमें
गरल क्रान्ति का घोलो।
जिनके हाथों में आयी,
शान्तिभक्त वे साधु पुरुष
क्यों चाहें कभी लड़ाई?
को सत्ताधारी,
जहाँ सुत्रधर हों समाज के
अन्यायी, अविचारी;
आधार बने शासन का;
दबे क्रोध से भभक रहा हो
हृदय जहाँ जन-जन का;
जहाँ द्वन्द्व हो जारी;
ऊपर शान्ति, तलातल में
हो छिटक रही चिनगारी;
किन्तु, न सत्ताधारी;
दुर्मति और अनल में दें
आहुतियाँ बारी-बारी;
उबल किसी दिन फूटें,
संयम छोड़, काल बन मानव
अन्यायी पर टूटें;
कहती कुछ मत बोलो,
शान्ति-सुधा बह रही, न इसमें
गरल क्रान्ति का घोलो।
जिनके हाथों में आयी,
शान्तिभक्त वे साधु पुरुष
क्यों चाहें कभी लड़ाई?
को सत्ताधारी,
जहाँ सुत्रधर हों समाज के
अन्यायी, अविचारी;
आधार बने शासन का;
दबे क्रोध से भभक रहा हो
हृदय जहाँ जन-जन का;
जहाँ द्वन्द्व हो जारी;
ऊपर शान्ति, तलातल में
हो छिटक रही चिनगारी;
किन्तु, न सत्ताधारी;
दुर्मति और अनल में दें
आहुतियाँ बारी-बारी;
उबल किसी दिन फूटें,
संयम छोड़, काल बन मानव
अन्यायी पर टूटें;
समर लगा था चलने?
प्रतिहिंसा का दीप भयानक
हृदय-हृदय में बलने?
सुख-भाग न नर का सम हो,
नहीं किसी को अधिक हो,
नहीं किसी को कम हो।
जबतक न्याय न आता,
जैसा भी हो, महल शान्ति का
सुदृढ नहीं रह पाता।
में सिख-भोग सुलभ है,
उनके लिए शान्ति ही जीवन-
सार, सिद्धि दुर्लभ है।
संघात पाप हो जायें,
बोलो धर्मराज, शोषित वे
जियें या कि मिट जायें?
न्यायोचित अधिकार माँगने
से न मिलें, तो लड़ के,
तेजस्वी छीनते समर को
जीत, या कि खुद मरके।
की दे वृथा दुहाई,
धर्मराज, व्यंजित करते तुम
मानव की कदराई।
यदि पौरुष ज्वलन से,
लोभ किया क्यों भरत-राज्य का?
फिर आये क्यों वन से?
सबका लिया सहारा;
पर नर-व्याघ्र सुयोधन तुमसे
कहो, कहाँ कब हारा?
कुफल यही होता है,
पौरुष का आतंक मनुज
कोमल होकर खोता है।
रघुपति सिन्धु-किनारे,
बैठे पढते रहे छन्द
अनुनय के प्यारे-प्यारे।
करता आ गिरा शरण में,
चरण पूज, दासता ग्रहण की,
बँधा मूढ बन्धन में।
तभी पूजता जग है,
बल का दर्प चमकता उसके
पीछे जब जगमग है।
जो अपनी कायरता,
वे क्या जानें ज्वलित-प्राण
नर की पौरुष-निर्भरता ?
उसकी सहिष्णुता क्षमा का है महत्व ही क्या,
प्रतिशोध से है होती शौर्य की शीखाएँ दीप्त,
सटता कहीं भी एक तृण जो शरीर से तो,
सेना साज हीन है परस्व-हरने की वृत्ति,
धर्म है हुताशन का धधक उठे तुरंत,
युद्ध को बुलाता है अनीति-ध्वजधारी या कि
पातकी न होता है प्रबुद्ध दलितों का खड्ग,
जिए मनुज किस भाँति
परस्पर होकर भाई भाई,
कैसे रुके प्रदाह क्रोध का?
कैसे रुके लड़ाई?
बहे प्रेम की धार, मनुज को
वह अनवरत भिगोए,
एक दूसरे के उर में,
नर बीज प्रेम के बोए.
भूले भटके ही धरती पर
वह आदर्श उतरता.
किसी युधिष्ठिर के प्राणों में
ही स्वरूप है धरता.
घृणा, कलह, विद्वेष विविध
तापों से आकुल हो कर,
हो जाता उड्डीन, एक दो
का ही हृदय भिगो कर.
शांति-बीन बजती है, तब तक
नहीं सुनिश्चित सुर में.
सुर की शुद्ध प्रतिध्वनि, जब तक
उठे नहीं उर-उर में.
शिवा-शांति की मूर्ति नहीं
बनती कुलाल के गृह में.
सदा जन्म लेती वह नर के
मनःप्रान्त निस्प्रह में.
जब होती अवतीर्ण मूर्ति यह
भय न शेष रह जाता.
चिंता-तिमिर ग्रस्त फिर कोई
नहीं देश रह जाता.
आनन सरल, वचन मधुमय है,
तन पर शुभ्र वसन है.
बचो युधिष्ठिर, उस नागिन का
विष से भरा दशन है.
कुरुक्षेत्र में जली चिता
जिसकी वह शांति नहीं थी.
अर्जुन की धन्वा चढ़ बोली
वह दुश्क्रान्ति नहीं थी.
हुआ नहीं स्वीकार शांति को
जीना जब कुछ देकर.
टूटा मनुज काल-सा उस पर
प्राण हाथ में लेकर
इतिहास के अध्याय पर,
जिसमें लिखा है, नौजवानों के लहु का मोल है
प्रत्यय किसी बूढे, कुटिल नीतिज्ञ के व्याहार का;
जिसका हृदय उतना मलिन जितना कि शीर्ष वलक्ष है;
जो आप तो लड़ता नहीं,
कटवा किशोरों को मगर,
आश्वस्त होकर सोचता,
शोणित बहा, लेकिन, गयी बच लाज सारे देश की?
-
- और तब सम्मान से जाते गिने
- नाम उनके, देश-मुख की लालिमा
- है बची जिनके लुटे सिन्दूर से;
- देश की इज्जत बचाने के लिए
- या चढा जिनने दिये निज लाल हैं।
तत्त्व है कोई कि केवल आवरण
उस हलाहल-सी कुटिल द्रोहाग्नि का
जो कि जलती आ रही चिरकाल से
स्वार्थ-लोलुप सभ्यता के अग्रणी
नायकों के पेट में जठराग्नि-सी।
-
- विश्व-मानव के हृदय निर्द्वेष में
- मूल हो सकता नहीं द्रोहाग्नि का;
- चाहता लड़ना नहीं समुदाय है,
- फैलतीं लपटें विषैली व्यक्तियों की साँस से।
हर युद्ध के पहले मनुज है सोचता, क्या शस्त्र ही-
उपचार एक अमोघ है
अन्याय का, अपकर्ष का, विष का गरलमय द्रोह का!
-
- लड़ना उसे पड़ता मगर।
- औ' जीतने के बाद भी,
- रणभूमि में वह देखता है सत्य को रोता हुआ;
- वह सत्य, है जो रो रहा इतिहास के अध्याय में
- विजयी पुरुष के नाम पर कीचड़ नयन का डालता।
हैं झनझना उठ्ती शिराएँ प्राण की असहाय-सी,
सहसा विपंचि लगे कोई अपरिचित हाथ ज्यों।
वह तिलमिला उठता, मगर,
है जानता इस चोट का उत्तर न उसके पास है।
-
- सहसा हृदय को तोड़कर
- कढती प्रतिध्वनि प्राणगत अनिवार सत्याघात की-
- 'नर का बहाया रक्त, हे भगवान! मैंने क्या किया
- लेकिन, मनुज के प्राण, शायद, पत्थरों के हैं बने।
होता समर-आरूढ फिर;
फिर मारता, मरता,
विजय पाकर बहाता अश्रु है।
-
- यों ही, बहुत पहले कभी कुरुभूमि में
- नर-मेध की लीला हुई जब पूर्ण थी,
- पीकर लहू जब आदमी के वक्ष का
- वज्रांग पाण्डव भीम क मन हो चुका परिशान्त था।
मानवी अथवा ज्वलित, जाग्रत शिखा प्रतिशोध की
दाँत अपने पीस अन्तिम क्रोध से,
रक्त-वेणी कर चुकी थी केश की,
केश जो तेरह बरस से थे खुले।
-
- और जब पविकाय पाण्डव भीम ने
- द्रोण-सुत के सीस की मणि छीन कर
- हाथ में रख दी प्रिया के मग्न हो
- पाँच नन्हें बालकों के मुल्य-सी।
या कि रोने को चिता के सामने,
शेष जब था रह गया कोई नहीं
एक वृद्धा, एक अन्धे के सिवा।
और जब,
तीव्र हर्ष-निनाद उठ कर पाण्डवों के शिविर से
घूमता फिरता गहन कुरुक्षेत्र की मृतभूमि में,
लड़खड़ाता-सा हवा पर एक स्वर निस्सार-सा,
लौट आता था भटक कर पाण्डवों के पास ही,
जीवितों के कान पर मरता हुआ,
और उन पर व्यंग्य-सा करता हुआ-
'देख लो, बाहर महा सुनसान है
सालता जिनका हृदय मैं, लोग वे सब जा चुके।'
-
- हर्ष के स्वर में छिपा जो व्यंग्य है,
- कौन सुन समझे उसे? सब लोग तो
- अर्द्ध-मृत-से हो रहे आनन्द से;
- जय-सुरा की सनसनी से चेतना निस्पन्द है।
एक ऐसा भी पुरुष है, जो विकल
बोलता कुछ भी नहीं, पर, रो रहा
मग्न चिन्तालीन अपने-आप में।
-
- "सत्य ही तो, जा चुके सब लोग हैं
- दूर ईष्या-द्वेष, हाहाकार से!
- मर गये जो, वे नहीं सुनते इसे;
- हर्ष क स्वर जीवितों का व्यंग्य है।"
"ओ युधिष्ठिर, सिन्धु के हम पार हैं;
तुम चिढाने के लिए जो कुछ कहो,
किन्तु, कोई बात हम सुनते नहीं।
-
- "हम वहाँ पर हैं, महाभारत जहाँ
- दीखता है स्वप्न अन्तःशून्य-सा,
- जो घटित-सा तो कभी लगता, मगर,
- अर्थ जिसका अब न कोई याद है।
यह पराजय या कि जय किसकी हुई?
व्यंग्य, पश्चाताप, अन्तर्दाह का
अब विजय-उपहार भोगो चैन से।"
-
- हर्ष का स्वर घूमता निस्सार-सा
- लड़खड़ाता मर रहा कुरुक्षेत्र में,
- औ' युधिष्ठिर सुन रहे अव्यक्त-सा
- एक रव मन का कि व्यापक शून्य का।
हो गयी है लाल नीचे कोस-भर,
और ऊपर रक्त की खर धार में
तैरते हैं अंग रथ, गज, बाजि के।
-
- 'किन्तु, इस विध्वंस के उपरान्त भी
- शेष क्या है? व्यंग ही तो भग्य का?
- चाहता था प्राप्त मैं करना जिसे
- तत्व वह करगत हुआ या उड़ गया?
चाहता था, शत्रुओं के साथ ही
उड़ गये वे तत्त्व, मेरे हाथ में
व्यंग्य, पश्चाताप केवल छोड़कर।
-
- 'यह महाभारत वृथा, निष्फल हुआ,
- उफ! ज्वलित कितना गरलमय व्यंग है?
- पाँच ही असहिष्णु नर के द्वेष से
- हो गया संहार पूरे देश का!
और हम भोगें अहम्मय राज्य यह,
पुत्र-पति-हीना इसी से तो हुईं
कोटि माताएँ, करोड़ों नारियाँ!
-
- 'रक्त से छाने हुए इस राज्य को
- वज्र हो कैसे सकूँगा भोग मैं?
- आदमी के खून में यह है सना,
- और इसमें है लहू अभिमन्यु का.
दब गये कौन्तेय दुर्वह भार में.
दब गयी वह बुद्धि जो अब तक रही
खोजती कुछ तत्त्व रण के भस्म में।
-
- भर गया ऐसा हृदय दुख-दर्द-से,
- फेन य बुदबुद नहीं उसमें उठा!
- खींचकर उच्छ्वास बोले सिर्फ वे
- 'पार्थ, मैं जाता पितामह पास हूँ।'
लड़खड़ता मर रहा था वायु में।
आयी हुई मृत्यु से कहा अजेय भीष्म ने कि
- 'योग नहीं जाने का अभी है, इसे जानकर,
- बाणों का शयन, बाण का ही उपधान कर!
- काल के करों से छीन मुष्टि-गत प्राण कर।
- हाथ जोड़ मृत्यु रही खड़ी शास्ति मान कर।
-
-
- श्रृंग चढ जीवन के आर-पार हेरते-से
- योगलीन लेटे थे पितामह गंभीर-से।
- देखा धर्मराज ने, विभा प्रसन्न फैल रही
- श्वेत शिरोरुह, शर-ग्रथित शरीर-से।
- करते प्रणाम, छूते सिर से पवित्र पद,
- उँगली को धोते हुए लोचनों के नीर से,
- "हाय पितामह, महाभारत विफल हुआ"
- चीख उठे धर्मराज व्याकुल, अधीर-से।
- श्रृंग चढ जीवन के आर-पार हेरते-से
-
- छोड़ मेरे सामने अशेष ध्वंस का प्रसार;
- व्योम में बजाता जय-दुन्दुभि-सा बार-बार;
- चुप-चुप, मानो, पूछता है मुझसे पुकार-
- जीत किसकी है और किसकी हुई है हार?
-
-
- "हाय, पितामह, हार किसकी हुई है यह?
- ध्वन्स-अवशेष पर सिर धुनता है कौन?
- कौन भस्नराशि में विफल सुख ढूँढता है?
- लपटों से मुकुट क पट बुनता है कौन?
- और बैठ मानव की रक्त-सरिता के तीर
- नियति के व्यंग-भरे अर्थ गुनता है कौन?
- कौन देखता है शवदाह बन्धु-बान्धवों का?
- उत्तरा का करुण विलाप सुनता है कौन?
- "हाय, पितामह, हार किसकी हुई है यह?
-
- तन-बल छोड़ मैं मनोबल से लड़ता;
- जीत, नयी नींव इतिहास कि मैं धरता।
- मेरे तप से नहीं सुयोधन सुधरता;
- भाइयों के संग कहीं भीख माँग मरता।
- "किन्तु, हाय, जिस दिन बोया गया युद्ध-बीज,
- साथ दिया मेर नहीं मेरे दिव्य ज्ञान ने;
- उलत दी मति मेरी भीम की गदा ने और
- पार्थ के शरासन ने, अपनी कृपान ने;
- और जब अर्जुन को मोह हुआ रण-बीच,
- बुझती शिखा में दिया घृत भगवान ने;
- सबकी सुबुद्धि पितामह, हाय, मारी गयी,
- सबको विनष्ट किया एक अभिमान ने।
- "कृष्ण कहते हैं, युद्ध अनघ है, किन्तु मेरे
- प्राण जलते हैं पल-पल परिताप से;
- दह्यमान इस पुराचीन अभिशाप से?
- जहाँ छल-छद्म से वरण्य वीर आप-से,
- हममें बचा है यहाँ कौन, किस पाप से?
-
-
- "एक ओर सत्यमयी गीता भगवान की है,
- एक ओर जीवन की विरति प्रबुद्ध है;
- जनता हूँ, लड़ना पड़ा था हो विवश, किन्तु,
- लहू-सनी जीत मुझे दीखती अशुद्ध है;
- ध्वंसजन्य सुख याकि सश्रु दुख शान्तिजन्य,
- ग्यात नहीं, कौन बात नीति के विरुद्ध है;
- जानता नहीं मैं कुरुक्षेत्र में खिला है पुण्य,
- या महान पाप यहाँ फूटा बन युद्ध है।
- "एक ओर सत्यमयी गीता भगवान की है,
-
- उसमें प्रचण्ड कोई दाहक अनल है;
- पापियों के हित तीर्थ-वारि हलाहल है;
- इससे न जूझने को मेरे पास बल है;
- राजसुख लोहू-भरी कीच का कमल है।
-
-
- "बालहीना माता की पुकार कभी आती, और
- आता कभी आर्त्तनाद पितृहीन बाल का;
- आँख पड़ती है जहाँ, हाय, वहीं देखता हूँ
- सेंदुर पुँछा हुआ सुहागिनी के भाल का;
- बाहर से भाग कक्ष में जो छिपता हूँ कभी,
- तो भी सुनता हूँ अट्टहास क्रूर काल का;
- और सोते-जागते मैं चौंक उठता हूँ, मानो
- शोणित पुकारता हो अर्जुन के लाल का।
- "बालहीना माता की पुकार कभी आती, और
-
- एक आग तब से ही जलती है मन में;
- मुँह दिखलाने योग्य निज को भुवन मे
- धिक् सुनता हूँ अपने पै कण-कण में;
- चाहता अकेला कहीं भाग जाऊँ वन में।
- "करूँ आत्मघात तो कलंक और घोर होगा,
- नगर को छोड़ अतएव, वन जाऊँगा;
- पशु-खग भी न देख पायें जहाँ, छिप किसी
- कन्दरा में बैठ अश्रु खुलके बहाऊँगा;
- जानता हूँ, पाप न धुलेगा वनवास से भी,
- छिप तो रहुँगा, दुःख कुछ तो भुलऊँगा;
- व्यंग से बिंधेगा वहाँ जर्जर हृदय तो नहीं,
- वन में कहीं तो धर्मराज न कहाऊँगा।"
- और तब चुप हो रहे कौन्तेय, संयमित करके किसी विध शोक दुष्परिमेय उस जलद-सा एक पारावार हो भरा जिसमें लबालब, किन्तु, जो लाचार बरस तो सकता नहीं, रहता मगर बेचैन है।
-
- भीष्म ने देखा गगन की ओर
- मापते, मानो, युधिष्ठिर के हृदय का छोर;
- और बोले, 'हाय नर के भाग !
- क्या कभी तू भी तिमिर के पार
- उस महत् आदर्श के जग में सकेगा जाग,
- एक नर के प्राण में जो हो उठा साकार है
- आज दुख से, खेद से, निर्वेद के आघात से?'
किस तरह आता प्रलय का नाद वह करता हुआ,
काल-सा वन में द्रुमों को तोड़ता-झकझोरता,
और मूलोच्छेद कर भू पर सुलाता क्रोध से
उन सहस्रों पादपों को जो कि क्षीणाधार हैं?
रुग्ण शाखाएँ द्रुमों की हरहरा कर टूटतीं,
टूट गिरते गिरते शावकों के साथ नीड़ विहंग के;
अंग भर जाते वनानी के निहत तरु, गुल्म से,
छिन्न फूलों के दलों से, पक्षियों की देह से।
- पर शिराएँ जिस महीरुह की अतल में हैं गड़ी,
- वह नहीं भयभीत होता क्रूर झंझावात से।
- सीस पर बहता हुआ तूफान जाता है चला,
- नोचता कुछ पत्र या कुछ डालियों को तोड़ता।
- किन्तु, इसके बाद जो कुछ शेष रह जाता, उसे,
- (वन-विभव के क्षय, वनानी के करुण वैधव्य को)
- देखता जीवित महीरुह शोक से, निर्वेद से,
- क्लान्त पत्रों को झुकाये, स्तब्ध, मौनाकाश में,
- सोचता, 'है भेजती हुमको प्रकृति तूफ़ान क्यों?'
प्रकृति भी तो है अधीन विमर्ष के।
यह प्रभंजन शस्त्र है उसका नहीं;
किन्तु, है आवेगमय विस्फोट उसके प्राण का,
जो जमा होता प्रचंड निदाघ से,
फूटना जिसका सहज अनिवार्य है।
-
- यों ही, नरों में भी विकारों की शिखाएँ आग-सी
- एक से मिल एक जलती हैं प्रचण्डावेग से,
- तप्त होता क्षुद्र अन्तर्व्योम पहले व्यक्ति का,
- और तब उठता धधक समुदाय का आकाश भी
- क्षोभ से, दाहक घृणा से, गरल, ईर्ष्या, द्वेष से।
- भट्ठियाँ इस भाँति जब तैयार होती हैं, तभी
- युद्ध का ज्वालामुखी है फूटता
- राजनैतिक उलझनों के ब्याज से
- या कि देशप्रेम का अवलम्ब ले।
फैलता है जो घृणा से, स्वर्थमय विद्वेष से।
- युद्ध को पहचानते सब लोग हैं,
- जानते हैं, युद्ध का परिणाम अन्तिम ध्वंस है!
- सत्य ही तो, कोटि का वध पाँच के सुख के लिए!
- किन्तु, मत समझो कि इस कुरुक्षेत्र में पाँच के सुख ही सदैव प्रधान थे; युद्ध में मारे हुओं के सामने पाँच के सुख-दुख नहीं उद्देश्य केवल मात्र थे!
-
- और भी थे भाव उनके हृदय में,
- स्वार्थ के, नरता, कि जलते शौर्य के;
- खींच कर जिसने उन्हें आगे किया,
- हेतु उस आवेश का था और भी।
एक चिनगारी कहीं जागी अगर,
तुरत बह उठते पवन उनचास हैं,
दौड़ती, हँसती, उबलती आग चारों ओर से।
-
- और तब रहता कहाँ अवकाश है
- तत्त्वचिन्तन का, गंभीर विचार का?
- युद्ध की लपटें चुनौती भेजतीं
- प्राणमय नर में छिपे शार्दूल को।
दीप्त हो अभिमान उठता बोल है;
चाहता नस तोड़कर बहना लहू,
आ स्वयं तलवार जाती हाथ में।
-
- रुग्ण होना चाहता कोई नहीं,
- रोग लेकिन आ गया जब पास हो,
- तिक्त ओषधि के सिवा उपचार क्या?
- शमित होगा वह नहीं मिष्टान्न से।
युद्ध करना पुण्य या दुष्पाप है;
क्योंकि कोई कर्म है ऐसा नहीं,
जो स्वयं ही पुण्य हो या पाप हो।
-
- सत्य ही भगवान ने उस दिन कहा,
- 'मुख्य है कर्त्ता-हृदय की भावना,
- मुख्य है यह भाव, जीवन-युद्ध में
- भिन्न हम कितना रहे निज कर्म से।'
चाहता कोई नहीं इसको मगर,
जूझना पड़ता सभी को, शत्रु जब
आ गया हो द्वार पर ललकारता।
-
- है बहुत देखा-सुना मैंने मगर,
- भेद खुल पाया न धर्माधर्म का,
- आज तक ऐसा कि रेखा खींच कर
- बाँट दूँ मैं पुण्य औ' पाप को।
चाहिए अंगार-जैसी वीरता,
पाप हो सकता नहीं वह युद्ध है,
जो खड़ा होता ज्वलित प्रतिशोध पर।
-
- छीनता हो सत्व कोई, और तू
- त्याग-तप के काम ले यह पाप है।
- पुण्य है विच्छिन्न कर देना उसे
- बढ रहा तेरी तरफ जो हाथ हो।
है उचित अवलम्ब अपनी आह का;
गिड़गिड़ाकर किन्तु, माँगे भीख क्यों
वह पुरुष, जिसकी भुजा में शक्ति हो?
-
- युद्ध को तुम निन्द्य कहते हो, मगर,
- जब तलक हैं उठ रहीं चिनगारियाँ
- भिन्न स्वर्थों के कुलिश-संघर्ष की,
- युद्ध तब तक विश्व में अनिवार्य है।
खिन्न या परितप्त होना व्यर्थ है।
तू नहीं लड़ता, न लड़ता, आग यह
फूटती निश्चय किसी भी व्याज से।
-
- पाण्डवों के भिक्षु होने से कभी
- रुक न सकता था सहज विस्फोट यह
- ध्वंस से सिर मारने को थे तुले
- ग्रह-उपग्रह क्रुद्ध चारों ओर के।
अब छिपाऊँ क्यों भविष्यत् से उसे?
दो दिनों तक मैं मरण के भाल पर
हूँ खड़ा, पर जा रहा हूँ विश्व से।
- व्यक्ति का है धर्म तप, करुणा, क्षमा,
- व्यक्ति की शोभा विनय भी, त्याग भी,
- किन्तु, उठता प्रश्न जब समुदाय का,
- भूलना पड़ता हमें तप-त्याग को।
- जो अखिल कल्याणमय है व्यक्ति तेरे प्राण में, कौरवों के नाश पर है रो रहा केवल वही। किन्तु, उसके पास ही समुदायगत जो भाव हैं, पूछ उनसे, क्या महाभारत नहीं अनिवार्य था? हारकर धन-धाम पाण्डव भिक्षु बन जब चल दिये, पूछ, तब कैसा लगा यह कृत्य उस समुदाय को, जो अनय का था विरोधी, पाण्डवों का मित्र था।
-
- और जब तूने उलझ कर व्यक्ति के सद्धर्म में
- क्लीव-सा देखा किया लज्जा-हरण निज नारि का,
- (द्रौपदी के साथ ही लज्जा हरी थी जा रही
- उस बड़े समुदाय की, जो पाण्डवों के साथ था)
- और तूने कुछ नहीं उपचार था उस दिन किया;
- सो बता क्या पुण्य था? य पुण्यमय था क्रोध वह,
- जल उठा था आग-सा जो लोचनों में भीम के?
है रहा आदर्श मेरा वीरता, बलिदान ही;
जाति-मन्दिर में जलाकर शूरता की आरती,
जा रहा हूँ विश्व से चढ युद्ध के ही यान पर।
-
- त्याग, तप, भिक्षा? बहुत हूँ जानता मैं भी, मगर,
- त्याग, तप, भिक्षा, विरागी योगियों के धर्म हैं;
- याकि उसकी नीति, जिसके हाथ में शायक नहीं;
- या मृषा पाषण्ड यह उस कापुरुष बलहीन का,
- जो सदा भयभीत रहता युद्ध से यह सोचकर
- ग्लानिमय जीवन बहुत अच्छा, मरण अच्छा नहीं
व्यक्ति का मन तो बली होता, मगर,
हिंस्र पशु जब घेर लेते हैं उसे,
काम आता है बलिष्ठ शरीर ही।
-
- और तू कहता मनोबल है जिसे,
- शस्त्र हो सकता नहीं वह देह का;
- क्षेत्र उसका वह मनोमय भूमि है,
- नर जहाँ लड़ता ज्वलन्त विकार से।
जीत सकता देह का संग्राम है?
पाश्विकता खड्ग जब लेती उठा,
आत्मबल का एक बस चलता नहीं।
-
- जो निरामय शक्ति है तप, त्याग में,
- व्यक्ति का ही मन उसे है मानता;
- योगियों की शक्ति से संसार में,
- हारता लेकिन, नहीं समुदाय है।
-
- दैत्य-वध का था किया प्रण जब राम ने;
-
- शस्त्र ही है?" पूछा था कोमलमना वाम ने।
-
- त्याग से भी," उत्तर दिया था घनश्याम ने,
पतित समूह की कुवृत्तियों के सामने।"
समर निंद्य है धर्मराज, पर,
कहो, शान्ति वह क्या है,
जो अनीति पर स्थित होकर भी
बनी हुई सरला है?
-
- सुख-समृद्धि क विपुल कोष
- संचित कर कल, बल, छल से,
- किसी क्षुधित क ग्रास छीन,
- धन लूट किसी निर्बल से।
कहती कुछ मत बोलो,
शान्ति-सुधा बह रही, न इसमें
गरल क्रान्ति का घोलो।
-
- हिलो-डुलो मत, हृदय-रक्त
- अपना मुझको पीने दो,
- अचल रहे साम्रज्य शान्ति का,
- जियो और जीने दो।
जिनके हाथों में आयी,
शान्तिभक्त वे साधु पुरुष
क्यों चाहें कभी लड़ाई?
-
- सुख का सम्यक्-रूप विभाजन
- जहाँ नीति से, नय से
- संभव नहीं; अशान्ति दबी हो
- जहाँ खड्ग के भय से,
को सत्ताधारी,
जहाँ सुत्रधर हों समाज के
अन्यायी, अविचारी;
-
- नीतियुक्त प्रस्ताव सन्धि के
- जहाँ न आदर पायें;
- जहाँ सत्य कहनेवालों के
- सीस उतारे जायें;
आधार बने शासन का;
दबे क्रोध से भभक रहा हो
हृदय जहाँ जन-जन का;
-
- सहते-सहते अनय जहाँ
- मर रहा मनुज का मन हो;
- समझ कापुरुष अपने को
- धिक्कार रहा जन-जन हो;
जहाँ द्वन्द्व हो जारी;
ऊपर शान्ति, तलातल में
हो छिटक रही चिनगारी;
-
- आगामी विस्फोट काल के
- मुख पर दमक रहा हो;
- इंगित में अंगार विवश
- भावों के चमक रहा हो;
किन्तु, न सत्ताधारी;
दुर्मति और अनल में दें
आहुतियाँ बारी-बारी;
-
- कभी नये शोषण से, कभी
- उपेक्षा, कभी दमन से,
- अपमानों से कभी, कभी
- शर-वेधक व्यंग्य-वचन से।
उबल किसी दिन फूटें,
संयम छोड़, काल बन मानव
अन्यायी पर टूटें;
- कहो, कौन दायी होगा
- उस दारुण जगद्दहन का
- अहंकार य घृणा? कौन
- दोषी होगा उस रण का?
- समर निंद्य है धर्मराज, पर, कहो, शान्ति वह क्या है, जो अनीति पर स्थित होकर भी बनी हुई सरला है?
-
- सुख-समृद्धि क विपुल कोष
- संचित कर कल, बल, छल से,
- किसी क्षुधित क ग्रास छीन,
- धन लूट किसी निर्बल से।
कहती कुछ मत बोलो,
शान्ति-सुधा बह रही, न इसमें
गरल क्रान्ति का घोलो।
-
- हिलो-डुलो मत, हृदय-रक्त
- अपना मुझको पीने दो,
- अचल रहे साम्रज्य शान्ति का,
- जियो और जीने दो।
जिनके हाथों में आयी,
शान्तिभक्त वे साधु पुरुष
क्यों चाहें कभी लड़ाई?
-
- सुख का सम्यक्-रूप विभाजन
- जहाँ नीति से, नय से
- संभव नहीं; अशान्ति दबी हो
- जहाँ खड्ग के भय से,
को सत्ताधारी,
जहाँ सुत्रधर हों समाज के
अन्यायी, अविचारी;
-
- नीतियुक्त प्रस्ताव सन्धि के
- जहाँ न आदर पायें;
- जहाँ सत्य कहनेवालों के
- सीस उतारे जायें;
आधार बने शासन का;
दबे क्रोध से भभक रहा हो
हृदय जहाँ जन-जन का;
-
- सहते-सहते अनय जहाँ
- मर रहा मनुज का मन हो;
- समझ कापुरुष अपने को
- धिक्कार रहा जन-जन हो;
जहाँ द्वन्द्व हो जारी;
ऊपर शान्ति, तलातल में
हो छिटक रही चिनगारी;
-
- आगामी विस्फोट काल के
- मुख पर दमक रहा हो;
- इंगित में अंगार विवश
- भावों के चमक रहा हो;
किन्तु, न सत्ताधारी;
दुर्मति और अनल में दें
आहुतियाँ बारी-बारी;
-
- कभी नये शोषण से, कभी
- उपेक्षा, कभी दमन से,
- अपमानों से कभी, कभी
- शर-वेधक व्यंग्य-वचन से।
उबल किसी दिन फूटें,
संयम छोड़, काल बन मानव
अन्यायी पर टूटें;
- कहो, कौन दायी होगा
- उस दारुण जगद्दहन का
- अहंकार य घृणा? कौन
- दोषी होगा उस रण का?
- तुम विषण्ण हो समझ हुआ जगदाह तुम्हारे कर से। सोचो तो, क्या अग्नि समर की बरसी थी अम्बर से?
-
- अथवा अकस्मात् मिट्टी से
- फूटी थी यह ज्वाला?
- या मंत्रों के बल जनमी
- थी यह शिखा कराला?
समर लगा था चलने?
प्रतिहिंसा का दीप भयानक
हृदय-हृदय में बलने?
-
- शान्ति खोलकर खड्ग क्रान्ति का
- जब वर्जन करती है,
- तभी जान लो, किसी समर का
- वह सर्जन करती है।
सुख-भाग न नर का सम हो,
नहीं किसी को अधिक हो,
नहीं किसी को कम हो।
-
- ऐसी शान्ति राज्य करती है
- तन पर नहीं, हृदय पर,
- नर के ऊँचे विश्वासों पर,
- श्रद्धा, भक्ति, प्रणय पर।
जबतक न्याय न आता,
जैसा भी हो, महल शान्ति का
सुदृढ नहीं रह पाता।
-
- कृत्रिम शान्ति सशंक आप
- अपने से ही डरती है,
- खड्ग छोड़ विश्वास किसी का
- कभी नहीं करती है।
में सिख-भोग सुलभ है,
उनके लिए शान्ति ही जीवन-
सार, सिद्धि दुर्लभ है।
-
- पर, जिनकी अस्थियाँ चबाकर,
- शोणित पीकर तन का,
- जीती है यह शान्ति, दाह
- समझो कुछ उनके मन का।
संघात पाप हो जायें,
बोलो धर्मराज, शोषित वे
जियें या कि मिट जायें?
न्यायोचित अधिकार माँगने
से न मिलें, तो लड़ के,
तेजस्वी छीनते समर को
जीत, या कि खुद मरके।
-
- किसने कहा, पाप है समुचित
- सत्व-प्राप्ति-हित लड़ना ?
- उठा न्याय क खड्ग समर में
- अभय मारना-मरना ?
की दे वृथा दुहाई,
धर्मराज, व्यंजित करते तुम
मानव की कदराई।
-
- हिंसा का आघात तपस्या ने
- कब, कहाँ सहा है ?
- देवों का दल सदा दानवों
- से हारता रहा है।
यदि पौरुष ज्वलन से,
लोभ किया क्यों भरत-राज्य का?
फिर आये क्यों वन से?
-
- पिया भीम ने विष, लाक्षागृह
- जला, हुए वनवासी,
- केशकर्षिता प्रिया सभा-सम्मुख
- कहलायी दासी
सबका लिया सहारा;
पर नर-व्याघ्र सुयोधन तुमसे
कहो, कहाँ कब हारा?
-
- क्षमाशील हो रिपु-समक्ष
- तुम हुए विनत जितना ही,
- दुष्ट कौरवों ने तुमको
- कायर समझा उतना ही।
कुफल यही होता है,
पौरुष का आतंक मनुज
कोमल होकर खोता है।
-
- क्षमा शोभती उस भुजंग को,
- जिसके पास गरल हो।
- उसको क्या, जो दन्तहीन,
- विषरहित, विनीत, सरल हो ?
रघुपति सिन्धु-किनारे,
बैठे पढते रहे छन्द
अनुनय के प्यारे-प्यारे।
-
- उत्तर में जब एक नाद भी
- उठा नहीं सागर से,
- उठी अधीर धधक पौरुष की
- आग राम के शर से।
करता आ गिरा शरण में,
चरण पूज, दासता ग्रहण की,
बँधा मूढ बन्धन में।
-
- सच पूछो, तो शर में ही
- बसती है दीप्ति विनय की,
- सन्धि-वचन संपूज्य उसी का
- जिसमें शक्ति विजय की।
तभी पूजता जग है,
बल का दर्प चमकता उसके
पीछे जब जगमग है।
-
- जहाँ नहीं सामर्थ्य शोध की,
- क्षमा वहाँ निष्फल है।
- गरल-घूँट पी जाने का
- मिस है, वाणी का छल है।
जो अपनी कायरता,
वे क्या जानें ज्वलित-प्राण
नर की पौरुष-निर्भरता ?
- वे क्या जानें नर में वह क्या
- असहनशील अनल है,
- जो लगते ही स्पर्श हृदय से
- सिर तक उठता बल है?
- जिनकी भुजाओं की शिराएँ फडकी ही नहीं,
- जिनके लहु में नहीं वेग है अनल का.
- चक्खा ही जिन्होनें नहीं स्वाद हलाहल का.
- ठेस लगते ही अहंकार नहीं छलका.
- बैठते भरोसा किए वे ही आत्मबल का.
उसकी सहिष्णुता क्षमा का है महत्व ही क्या,
- करना ही आता नहीं जिसको प्रहार है.
- ले न सकता जो बैरियों से प्रतिकार है?
- जिसके नसों में नहीं पौरुष की धार है.
- क्षमता क्षमा की शूर वीरों का सृंगार है.
प्रतिशोध से है होती शौर्य की शीखाएँ दीप्त,
- प्रतिशोध-हीनता नरो में महपाप है.
- जिनमें न शेष शूरता का वह्नि-ताप है.
- जिसके निषग में, करों में धृड चाप है.
- हारी हुई जाति की सहिष्णुताSभिशाप है.
सटता कहीं भी एक तृण जो शरीर से तो,
- उठता कराल हो फणीश फुफकर है.
- भरता गुहा में ही मृगेंद्र हुहुकार है.
- लीलने को देखो गर्जमान पारावार है.
- जड़-चेतनों का जन्मसिद्ध अधिकार है.
सेना साज हीन है परस्व-हरने की वृत्ति,
- लोभ की लड़ाई क्षात्र-धर्म के विरुद्ध है.
- वाणिज के हाथ की कृपाण ही अशुद्ध है.
- उठता कराल प्रतिशोध हो प्रबुद्ध है.
- पौरुष की जागृति कहाती धर्म-युद्ध है.
धर्म है हुताशन का धधक उठे तुरंत,
- कोई क्यों प्रचंड वेग वायु को बुलाता है?
- आनन पर बैठ विश्व धूम क्यों मचाता है?
- कोई क्यों खरोंच मार उसको जगाता है?
- दीप्त अभिमान पे क्यों ठोकर लगाता है?
युद्ध को बुलाता है अनीति-ध्वजधारी या कि
- वह जो अनीति भाल पै दे पाँव चलता?
- वह जो खड़ा है मग्न हँसता-मचलता?
- वह जो अशांत हो क्षुदानल में जलता?
- या जो जाल तोड़ने को क्रुद्ध काल-सा निकलता?
पातकी न होता है प्रबुद्ध दलितों का खड्ग,
- पातकी बताना उसे दर्शन कि भ्रांति है.
- युद्ध है, यथार्थ में वो भीषण अशांति है.
- ईश के अवज्ञा घोर, पौरुष कि श्रान्ति है.
- ऐसी श्रंखला में धर्म विप्लव है, क्रांति है.
- भूल रहे हो धर्मराज तुम अभी हिन्स्त्र भूतल है. खड़ा चतुर्दिक अहंकार है, खड़ा चतुर्दिक छल है.
-
- मैं भी हूँ सोचता जगत से
-
- कैसे मिटे जिघान्सा,
-
- किस प्रकार धरती पर फैले
-
- करुणा, प्रेम, अहिंसा.
जिए मनुज किस भाँति
परस्पर होकर भाई भाई,
कैसे रुके प्रदाह क्रोध का?
कैसे रुके लड़ाई?
-
- धरती हो साम्राज्य स्नेह का,
-
- जीवन स्निग्ध, सरल हो.
-
- मनुज प्रकृति से विदा सदा को
-
- दाहक द्वेष गरल हो.
बहे प्रेम की धार, मनुज को
वह अनवरत भिगोए,
एक दूसरे के उर में,
नर बीज प्रेम के बोए.
-
- किंतु, हाय, आधे पथ तक ही,
-
- पहुँच सका यह जग है,
-
- अभी शांति का स्वप्न दूर
-
- नभ में करता जग-मग है.
भूले भटके ही धरती पर
वह आदर्श उतरता.
किसी युधिष्ठिर के प्राणों में
ही स्वरूप है धरता.
-
- किंतु, द्वेष के शिला-दुर्ग से
-
- बार-बार टकरा कर,
-
- रुद्ध मनुज के मनोद्देश के
-
- लौह-द्वार को पा कर.
घृणा, कलह, विद्वेष विविध
तापों से आकुल हो कर,
हो जाता उड्डीन, एक दो
का ही हृदय भिगो कर.
-
- क्योंकि युधिष्ठिर एक, सुयोधन
-
- अगणित अभी यहाँ हैं,
-
- बढ़े शांति की लता, कहो
-
- वे पोषक द्रव्य कहाँ हैं?
शांति-बीन बजती है, तब तक
नहीं सुनिश्चित सुर में.
सुर की शुद्ध प्रतिध्वनि, जब तक
उठे नहीं उर-उर में.
-
- शांति नाम उस रुचित सरणी का,
-
- जिसे प्रेम पहचाने,
-
- खड्ग-भीत तन ही न,
-
- मनुज का मन भी जिसको माने
शिवा-शांति की मूर्ति नहीं
बनती कुलाल के गृह में.
सदा जन्म लेती वह नर के
मनःप्रान्त निस्प्रह में.
-
- घृणा-कलह-विफोट हेतु का
-
- करके सफल निवारण,
-
- मनुज-प्रकृति ही करती
-
- शीतल रूप शांति का धारण.
जब होती अवतीर्ण मूर्ति यह
भय न शेष रह जाता.
चिंता-तिमिर ग्रस्त फिर कोई
नहीं देश रह जाता.
-
- शांति, सुशीतल शांति,
-
- कहाँ वह समता देने वाली?
-
- देखो आज विषमता की ही
-
- वह करती रखवाली.
आनन सरल, वचन मधुमय है,
तन पर शुभ्र वसन है.
बचो युधिष्ठिर, उस नागिन का
विष से भरा दशन है.
-
- वह रखती परिपूर्ण नृपों से
-
- जरासंध की कारा.
-
- शोणित कभी, कभी पीती है,
-
- तप्त अश्रु की धारा.
कुरुक्षेत्र में जली चिता
जिसकी वह शांति नहीं थी.
अर्जुन की धन्वा चढ़ बोली
वह दुश्क्रान्ति नहीं थी.
-
- थी परस्व-ग्रासिनी, भुजन्गिनि,
-
- वह जो जली समर में.
-
- असहनशील शौर्य था, जो बल
-
- उठा पार्थ के शर में.
हुआ नहीं स्वीकार शांति को
जीना जब कुछ देकर.
टूटा मनुज काल-सा उस पर
प्राण हाथ में लेकर
-
- पापी कौन? मनुज से उसका
-
- न्याय चुराने वाला?
-
- या कि न्याय खोजते विघ्न
-
- का सीस उड़ाने वाला?
फ़ैज़ाबाद के फादर ऑफ फोटोग्राफी QUSBA SE SAABHAR...RAVISH KUMAR
फ़ैज़ाबाद की गलियों में भटकता हुआ मैं एक फोटो स्टुडियो में चला गया। गली के किनारे से अंदर झांका तो कुछ ब्लैक एंड व्हाईट तस्वीरों पर नज़र पड़ी। ख़ासकर इन महिला की तस्वीर पर। ऐसा लगा कि इनकी खूबसूरती हमेशा के लिए एक फ्रेम में क़ैद हो चुकी है। ज़माने का इतना ही असर पड़ा है कि श्वेत श्याम इन तस्वीरों पर लाल रंग की बिंदी और लिप्स्टिक चस्पां कर दी गई है। मैं अंदर आ गया। हलो, मैं रवीश हूं। टीवी वाला पत्रकार। दुकानदार ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दिखाई। फिर भी अंदर आ गया। इस बारी ठीक से नमस्ते की और सवाल दाग दिया कि ये चारों तस्वीरें किनकी हैं।
दुकान के मालिक ने बताना शुरू किया कि आप जिस तस्वीर की बात कर रहे हैं वो फैज़ाबाद के ही एक रेलवे अफसर की बेटी हैं। ये फोटो मैंने 1962 में खींची थी। आशी दत्ता नाम है। इस तस्वीर के खिचे जाने के 48 साल बाद आशी दत्ता अब कैसी लगती होंगी कहना मुश्किल है। लेकिन कोई भी अपनी इस खूबसूरती को हमेशा ऐसे फ्रेम में देखकर खुश ही होता होगा। फ़ैज़ाबाद में आज भी एक ढंग का सिनेमा हॉल नहीं है। उस ज़माने में तो कुछ भी नहीं रहा होगा फिर भी अदायें सिने तारिकाओं की तरह हैं। एक लड़की की इस अदा से कई चीज़ों का अंदाज़ा मिलता है। कपड़े की स्टाइल,आकाक्षांएं,आधुनिक दिखने की चाह और कोई ख्वाब जो शायद फैज़ाबाद की सेटिंग में नहीं किसी मुंबई लंदन की सेटिंग में रची गई हो। जगत नारायण गुप्ता की इजाज़त से ये तस्वीरें ब्लॉग के लिए खींच लीं। आशी जी इस वक्त पंजाब में कहीं रहती हैं। इनके पति ब्रिगेडियर के पद से रिटायर हो चुके हैं। अब देखिये एक फोटो शॉप के मालिक को अपनी तस्वीर की इतनी लेटेस्ट रिपोर्ट मालूम है। आशी जी की तीनों तस्वीरें दुकान में लगी थीं। वहां भी सार्वजनिक थीं और ब्लॉग पर भी सार्वजनिक हैं।
(जगत नारायण गुप्ता की तस्वीर)
दुकान के मालिक जगत नारायण गुप्ता ने कहा कि फ़ैज़ाबाद में फोटोग्राफी मैंने शुरू की है। 1953 में। तब फोटोग्राफी आर्ट थी और अब दुकान है। फैज़ाबाद में फोटो की पहली दुकान मेरी थी।मेरी बातचीत जमने लगी। जगत नारायण गुप्ता ने कहा कि फ़ैज़ाबाद में मैंने कई लड़कों को ट्रेनिंग दी। पहले लोग फोटो नहीं खिंचाते थे। मैं शादियों में खुद से फोटो खींचता था। बाद में दिखाता था तो खुश हो जाते थे। इस तरह से फोटोग्राफी को यहां पोपुलर किया। जगत नारायण के बेटे ने पीछे से आवाज़ दी कि मेरे पिताजी फ़ैज़ाबाद में फोटोग्राफी के फादर हैं।
जगत जी बताने लगे कि कैसे इंदिरा गांधी फ़ैज़ाबाद आईं। एक पुल का उद्याटन करने। गैमन इंडिया के अफसर ने कहा कि एक अल्बल गिफ्ट करना है उन्हें। जगत जी ने एक डीएसपी सहित सरकारी जीप की मांग कर दी ताकि वे प्रधानमंत्री की सुरक्षा के बीच से आसानी से निकल सकें। इंदिरा गांधी ने पुल का उद्याटन किया। जगत जी कहते हैं कि मैं बिल्कुल करीब था। पहली तस्वीर तब ली जब वो कार से उतरी थीं। फिर जब मंच पर आईं तो मैं बिल्कुल पास से तस्वीर ले रहा था। चार-पांच तस्वीरें लेने के बाद मैं जल्दी से स्टुडियो भागा। एक घंटे में फिल्म डेवेलप की। फिर उसी सरकारी जीप से एयरपोर्ट गया जहां वीआईपी लाउंज में इंतज़ार कर रही थीं। मैंने जब अल्बम सौंपी तो इंदिरा जी हैरान हो गईं। एक फोटोग्राफर के पास कितनी यादें होती हैं। कितने चेहरे होते होंगे।
(जानकी प्रसाद गुप्ता)
ये तस्वीर जगत नारायण गुप्ता के पिता जानकी प्रसाद गुप्ता की है। लॉन टेनिस के रैकेट के साथ। जानकी प्रसाद गुप्ता फ़ैज़ाबाद के ही किसी बलरामपुर इस्टेट में शिक्षक थे लेकिन अंग्रेजों के साथ लॉन टेनिस खेलते थे। 1930 में फैज़ाबाद में एक सरकारी स्कूल का मास्टर लॉन टेनिस खेल रहा था। ये शाही पोज़ पहले राजाओं और गोरों की रही होगी बाद में अन्य भारतीयों ने भी इसकी कॉपी करनी शुरू कर दी होगी। कुर्सी पर सीधे बैठे हैं जानकी प्रसाद जी। गोद में रैकट है। ये तब का दौर रहा होगा जब आधुनिकता निजी संपर्कों से पसर रही थी न कि मीडिया जैसे माध्यम के सहारे। आज मीडिया को लगता है कि आधुनिकता वही फैला रहा है।
Wednesday, September 15, 2010
जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनके भी अपराध ...on china war
वह संसार जहाँ तक पहुँची अब तक नहीं किरण है
जहाँ क्षितिज है शून्य, अभी तक अंबर तिमिर वरण है
देख जहाँ का दृश्य आज भी अन्त:स्थल हिलता है
माँ को लज्ज वसन और शिशु को न क्षीर मिलता है
पूज रहा है जहाँ चकित हो जन-जन देख अकाज
सात वर्ष हो गये राह में, अटका कहाँ स्वराज?
अटका कहाँ स्वराज? बोल दिल्ली! तू क्या कहती है?
तू रानी बन गयी वेदना जनता क्यों सहती है?
सबके भाग्य दबा रखे हैं किसने अपने कर में?
उतरी थी जो विभा, हुई बंदिनी बता किस घर में
समर शेष है, यह प्रकाश बंदीगृह से छूटेगा
और नहीं तो तुझ पर पापिनी! महावज्र टूटेगा
समर शेष है, उस स्वराज को सत्य बनाना होगा
जिसका है ये न्यास उसे सत्वर पहुँचाना होगा
धारा के मग में अनेक जो पर्वत खडे हुए हैं
गंगा का पथ रोक इन्द्र के गज जो अडे हुए हैं
कह दो उनसे झुके अगर तो जग मे यश पाएंगे
अड़े रहे अगर तो ऐरावत पत्तों से बह जाऐंगे
समर शेष है, जनगंगा को खुल कर लहराने दो
शिखरों को डूबने और मुकुटों को बह जाने दो
पथरीली ऊँची जमीन है? तो उसको तोडेंगे
समतल पीटे बिना समर कि भूमि नहीं छोड़ेंगे
समर शेष है, चलो ज्योतियों के बरसाते तीर
खण्ड-खण्ड हो गिरे विषमता की काली जंजीर
समर शेष है, अभी मनुज भक्षी हुंकार रहे हैं
गांधी का पी रुधिर जवाहर पर फुंकार रहे हैं
समर शेष है, अहंकार इनका हरना बाकी है
वृक को दंतहीन, अहि को निर्विष करना बाकी है
समर शेष है, शपथ धर्म की लाना है वह काल
विचरें अभय देश में गाँधी और जवाहर लाल
तिमिर पुत्र ये दस्यु कहीं कोई दुष्काण्ड रचें ना
सावधान हो खडी देश भर में गाँधी की सेना
बलि देकर भी बलि! स्नेह का यह मृदु व्रत साधो रे
मंदिर औ' मस्जिद दोनों पर एक तार बाँधो रे
समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध
जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनके भी अपराध
जहाँ क्षितिज है शून्य, अभी तक अंबर तिमिर वरण है
देख जहाँ का दृश्य आज भी अन्त:स्थल हिलता है
माँ को लज्ज वसन और शिशु को न क्षीर मिलता है
पूज रहा है जहाँ चकित हो जन-जन देख अकाज
सात वर्ष हो गये राह में, अटका कहाँ स्वराज?
अटका कहाँ स्वराज? बोल दिल्ली! तू क्या कहती है?
तू रानी बन गयी वेदना जनता क्यों सहती है?
सबके भाग्य दबा रखे हैं किसने अपने कर में?
उतरी थी जो विभा, हुई बंदिनी बता किस घर में
समर शेष है, यह प्रकाश बंदीगृह से छूटेगा
और नहीं तो तुझ पर पापिनी! महावज्र टूटेगा
समर शेष है, उस स्वराज को सत्य बनाना होगा
जिसका है ये न्यास उसे सत्वर पहुँचाना होगा
धारा के मग में अनेक जो पर्वत खडे हुए हैं
गंगा का पथ रोक इन्द्र के गज जो अडे हुए हैं
कह दो उनसे झुके अगर तो जग मे यश पाएंगे
अड़े रहे अगर तो ऐरावत पत्तों से बह जाऐंगे
समर शेष है, जनगंगा को खुल कर लहराने दो
शिखरों को डूबने और मुकुटों को बह जाने दो
पथरीली ऊँची जमीन है? तो उसको तोडेंगे
समतल पीटे बिना समर कि भूमि नहीं छोड़ेंगे
समर शेष है, चलो ज्योतियों के बरसाते तीर
खण्ड-खण्ड हो गिरे विषमता की काली जंजीर
समर शेष है, अभी मनुज भक्षी हुंकार रहे हैं
गांधी का पी रुधिर जवाहर पर फुंकार रहे हैं
समर शेष है, अहंकार इनका हरना बाकी है
वृक को दंतहीन, अहि को निर्विष करना बाकी है
समर शेष है, शपथ धर्म की लाना है वह काल
विचरें अभय देश में गाँधी और जवाहर लाल
तिमिर पुत्र ये दस्यु कहीं कोई दुष्काण्ड रचें ना
सावधान हो खडी देश भर में गाँधी की सेना
बलि देकर भी बलि! स्नेह का यह मृदु व्रत साधो रे
मंदिर औ' मस्जिद दोनों पर एक तार बाँधो रे
समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध
जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनके भी अपराध
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