Sunday, September 19, 2010

इक लड़की पागल दीवानी, गुमसुम चुप-चुप सी रहती थी / श्रद्धा जैन

इक लड़की पागल दीवानी, गुमसुम चुप-चुप सी रहती थी
बारिश सा शोर न था उसमें, सागर की तरह वो बहती थी
कोई उस को पढ़ न पाया, न कोई उसको समझा तब
छोटी उदास आँखें उस की, न जाने क्या-क्या कहती थी

शख़्स जो अक़्सर दिखता था, उस दिल के झरोखे में
दर्द कई वो देता था, रखता था उसको धोखे में
जितने पल रुकता था आकर, वो उस में सिमटी रहती थी
छोटी उदास आँखें उस की, न जाने क्या-क्या कहती थी

इक दिन ऐसा भी आया, वो आया पर दर नहीं खुला
दरवाज़े पर हँसता था जो, इक चेहरा उस को नहीं मिला
आँसू के हर्फ़ वहाँ थे, और था वफ़ा का किस्सा भी
तब जान गये आख़िर, सब कैसे वो टूटी, कहाँ मिटी

समझा तब लोगों ने उसको, कैसे वो ताने सहती थी
छोटी उदास आँखें उस की, न जाने क्या-क्या कहती थी


बाद उसके ख़त भी मिले, जिनमें कई प्यार की बातें थी
सौगातें थी पाक दुआ की, भेजी चाँदनी रातें थी
लिखा था उसने, सम्हल के रहना, इतना भी मत गुस्सा करना
अब और कोई न सीखेगा, तुम से जीना, तुम पर मरना
अब वो पागल लड़की नहीं रही, जो तुम को खूब समझती थी
हर गुस्से को हर चुप को, आसानी से जो पढ़ती थी

समझा वो भी अब जाकर, क्या उसकी आँखें कहती थी
था प्यार बला का उससे ही, वो जिसके ताने सहती थी
इक लड़की पागल दीवानी, गुमसुम चुप-चुप सी रहती थी

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